‘सभी को दाल’ देने का सीतारमण का वादा अभी तक क्यों लागू नहीं किया गया?

देश में एक राशन कार्ड पर एक किलो दाल के आधार पर एक महीने के लिए 2,36,000 टन दाल की जरूरत है. लेकिन केवल 19,496 टन यानी कि 8.2 फीसदी दाल का ही अभी तक राज्यों में वितरण हुआ है.

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देश में एक राशन कार्ड पर एक किलो दाल के आधार पर एक महीने के लिए 2,36,000 टन दाल की जरूरत है. लेकिन केवल 19,496 टन यानी कि 8.2 फीसदी दाल का ही अभी तक राज्यों में वितरण हुआ है.

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(फोटो: रॉयटर्स)

नई दिल्ली: पिछले महीने 26 मार्च को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने घोषणा किया कि अगले तीन महीने (अप्रैल-जून) के लिए देश के सभी राशन कार्ड धारकों को एक किलो दाल दिया जाएगा. ये घोषणा प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई) का हिस्सा है जिसे केंद्र सरकार ने कोरोना वायरस महामारी की वजह से लॉकडाउन के कारण उपजे हालात से निपटने के लिए लॉन्च किया था.

करीब एक महीने बाद बीते 20 अप्रैल को सरकार ने एक प्रेस रिलीज जारी कर इस योजना की फिर से घोषणा करते हुए कहा कि ‘प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेवाई) के तहत सभी पात्र परिवारों को दाल देने का निर्णय लिया गया है.’

विज्ञप्ति में ये भी कहा गया कि सरकार ने अभी तक राज्यों को 1,07,077 मिट्रिक टन दाल जारी किया है. इस पर दाल की खरीद करने वाली सरकारी खरीद एजेंसी नैफेड के एक पूर्व अधिकारी ने कहा, ‘जारी करने का मतलब है कि सिर्फ कागजों पर जारी किया गया है. इसका मतलब ये नहीं है कि इसे राज्यों को पहुंचा दिया गया है.’

नैफेड को ये जिम्मेदारी दी गई है कि वे राज्य सरकारों को दाल पहुंचाए, जहां से इसे पात्र लाभार्थियों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत वितरित किया जाएगा. बीते शुक्रवार को इंडियन एक्सप्रेस में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक अभी तक सिर्फ 44,932 टन दालें राज्यों को पहुंचाई गई हैं.

केंद्र के खाद्य विभाग के आंकड़ों के मुताबिक देश में कुल 23.6 करोड़ राशन कार्ड हैं. इसका मतलब है कि एक राशन कार्ड पर एक किलो दाल के आधार पर एक महीने के लिए 2,36,000 टन दाल की जरूरत है.

लेकिन अप्रैल महीने के लिए जरूरत की तुलना में अभी तक सिर्फ करीब 21 फीसदी दाल ही राज्यों को भेजे गए हैं, जबकि अप्रैल का महीने खत्म होने में अब एक हफ्ते से भी कम समय बचा है. वहीं राज्यों के पास जितनी भी दाल अभी तक पहुंची है वो उतना भी नहीं बांट पाए हैं.

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक केवल 19,496 टन यानी कि 8.2 फीसदी दाल का ही अभी तक राज्यों में वितरण हुआ है.

मालूम हो कि भारत में जहां 19.5 करोड़ लोग पोषण संबंधी कमी से जूझ रहे हैं, ऐसे में पोषण प्रदान करने में दाल काफी महत्वपूर्ण है. भुखमरी के कारण ही भारत ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 117 देशों में से साल 2019 में 95वें रैंक से फिसल कर 102वें रैंक पर आ गया.

सुमन चक्रवर्ती, अविनाश किशोर और देवेश रॉय के एक रिसर्च पेपर के अनुसार भारतीय आहार में दाल का काफी महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि भारत की लगभग 40% आबादी मांस का सेवन नहीं करती है- जो कि प्रोटीन का एक महत्वपूर्ण स्रोत है. यहां पर दालें खास भूमिका निभाती हैं.

किशोर ने द वायर को बताया, ‘भारतीय आहार में गैर-अनाज प्रोटीन का एक बड़ा हिस्सा दाल से आता है. तो यह पोषण का एक महत्वपूर्ण स्रोत है.’

राज्यों में दाल पहुंचने में देरी क्यों हो रही है?

भारत सरकार ने जितनी दाल देने का वादा किया है वो बहुत कम है क्योंकि भारत में एक परिवार में औसतन पांच लोग होते हैं और एक राशन कार्ड पर एक किलो दाल का मतलब है कि प्रति व्यक्ति को एक महीने के लिए सिर्फ 200 ग्राम दाल मिलेगी.

ये पहला मौका है जब पीडीएस प्रणाली के तहत देश भर में दाल का वितरण किया जाएगा. सरकार को ऐसा इसलिए करना पड़ा है क्योंकि लॉकडाउन के चलते करोड़ों लोगों की नौकरी चले जाने के कारण एक बड़ा वर्ग प्रोटीनयुक्त चीजें खरीदने में असमर्थ है.

हालांकि चिंता की बाद ये है कि वित्त मंत्री द्वारा घोषणा किए जाने के एक महीने बाद भी अभी तक लोगों को दाल नहीं मिल पाई है.

अदाहरण के तौर पर राजस्थान के खाद्य विभाग के मुताबिक पीएमजीकेएवाई के तहत राज्य सरकार को हर महीने 11,000 टन दाल की आवश्यकता है. लेकिन अभी तक इन्हें नैफेड से सिर्फ 2,000 टन ही दाल मिला है.

जनसंख्या के मामले में भारत का सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश को जरूरत के मुकाबले सिर्फ दस फीसदी दाल अभी तक मिल पाई है. राज्य के खाद्य एवं आपूर्ति विभाग के मुताबिक प्रदेश को करीब 35,000 टन दाल की जरूरत है लेकिन अभी तक सिर्फ लगभग 3,500 टन ही दाल पहुंच पाई है. हालांकि उत्तर प्रदेश सरकार ने अभी तक एक किलो दाल का भी वितरण नहीं किया है.

राज्य के अपर उपायुक्त (खाद्य) अनिल कुमार दूबे ने कहा, ‘नैफेड वाले दाल पहुंचा नहीं पा रहे हैं. दाल आनी थी लेकिन काला चना आ रहा है.’ यूपी सरकार ने 27 अप्रैल से दाल बांटने की योजना बनाई थी लेकिन दाल नहीं आ पाने के कारण इस तारीख से वितरण संभव नहीं हो पाएगा.

उन्होंने कहा, ‘अभी तक ये संभावना है कि 15 मई से अप्रैल महीने की दाल बांटने की शुरुआत हो सकती है. हालांकि ये तय नहीं है कि इस तारीख से भी दाल बंट पाएगी.’ ध्यान देने वाली बात ये है कि मई महीने में जो दाल बंटेगी वो अप्रैल की दाल होगी.

देश के अन्य राज्यों के भी यही हालात हैं. द वायर ने कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश और गुजरात के खाद्य विभाग से इस संबंध में जानकारी ली है. अधिकतर राज्यों को बिल्कुल भी दाल नहीं मिली है, कुछ राज्यों को आधी-अधूरी दाल दी गई है.

सरकार ने 20 अप्रैल को जारी प्रेस विज्ञप्ति में दावा किया है कि आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात और तीन केंद्रशासित प्रदेशों ने पीडीएस के माध्यम से दालों का वितरण शुरू किया है. आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ इसलिए दाल वितरण में सक्षम हैं क्योंकि वे खुद ही दालों की खरीद करते हैं और आंध्र प्रदेश पिछले कुछ सालों से पीडीएस के माध्यम से दाल प्रदान कर भी रहा है.

अप्रैल के महीने में आंध्र प्रदेश ने सस्ते दरों पर अपने खुद के स्टॉक से 13,500 टन दाल का वितरण किया है. दूसरी ओर नैफेड स्टॉक से राज्य ने 8,000 टन दाल का वितरण किया है, जो कि दर्शाता है कि केंद्र सरकार दाल पहुंचाने में देरी कर रही है.

नैफेड के अधिकारी इस मामले पर कुछ भी बताने से इनकार कर रहे हैं. एजेंसी को कई बार कॉल, मैसेज और ईमेल भेजे गए लेकिन उन्होंने इस संबंध में कोई जवाब नहीं दिया. हालांकि नाम न लिखने की शर्त पर नैफेड के कुछ अधिकारियों ने द वायर को बताया कि इतने बड़े भारी-भरकम काम और ऐसी स्थिति से निपटने में नैफेड में अनुभव की कमी के कारण ऐसा हो रहा है.

एक अधिकारी ने कहा, ‘लोगों को यह समझने की जरूरत है कि हम एफसीआई (भारतीय खाद्य निगम, जो पीडीएस के माध्यम से गेहूं और चावल का वितरण संभालता है) नहीं हैं. उनसे तुलना नहीं की जानी चाहिए. उनके पास सभी राज्यों और लगभग सभी जिलों में स्टॉक हैं. हमारे पास ये सब नहीं है और ऐसे समय में यह हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती है.’

देश के मुट्ठी भर जिलों से दालों की खरीद की जाती है. इसमें मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र राज्यों के जिलें शामिल हैं. हालांकि विडंबना यह है कि इनमें से किसी भी राज्य ने दालों का वितरण शुरू नहीं किया है, जो कि राज्य की नौकरशाही बाधाओं या इनकी लचर व्यवस्था की ओर इशारा करता है. निर्मला सीतारमण की घोषणा के लगभग एक महीने बाद भी इसका समाधान नहीं निकाला जा सका है.

दालों का प्रसंस्करण करने के लिए राज्यों से इन्हें मिल तक पहुंचाना और फिर वितरण के लिए मिल से इसे राज्यों तक पहुंचाने में भी समस्या आ रही है. नैफेड के एक अधिकारी ने अप्रैल की शुरुआत में द वायर को बताया था, ‘यह एक बड़ी चुनौती है. देखिए, दाल कहीं और पड़ी है. आप इसे प्राप्त करते हैं और इसे मिल को भेजते हैं, जो कहीं और है. एक बार प्रसंस्करण हो जाने के बाद आप इसे पैक करते हैं- जिसके लिए कच्चा माल होना चाहिए- और इसे रेल या सड़क द्वारा सभी राज्यों को भेजा जाए.’

उदाहरण के तौर पर उत्तर-पूर्वी राज्यों में एक भी प्रसंस्करण इकाई नहीं है और वे दालों का उत्पादन नहीं करते हैं. अधिकारी ने कहा, ‘इन राज्यों के लिए सबसे नजदीक मिल कोलकाता में स्थित है. लेकिन उत्तर पूर्व की प्राथमिकता है कि उन्हें मसूर दी जाए, जो कि यूपी या एमपी में रखा गया है. इसलिए, यह एक बड़ी चुनौती है जिसके लिए सिस्टम तैयार नहीं है.’

‘मनमुताबिक’ दाल देने का क्या मतलब है?

अधिकारी ये भी कहते हैं कि सीतारमण द्वारा ‘मनमुताबिक’ या मनचाही दाल देने का वादा काफी पेचीदा हो गया है. नैफेद के पास मौजूद 22 लाख टन दाल में से 16 लाख टन खड़ा चना (काला चना) है. नैफेड ये चाहता है कि राज्य बिना प्रसंस्करण के इसी रूप में चने को ले लें.

नैफेड के अधिकारी ने कहा, ‘इस चने को रात में भिगोया जा सकता है और अगले सुबह कई तरीके से इसका भोजन में इस्तेमाल किया जा सकता है. मुझे समझ नहीं आता कि इसमें समस्या क्या है. को भी राज्य चना नहीं लेना चाह रहा है.’ जिन राज्यों ने चना लेने की सहमति जताई है वो भी कह रहे हैं कि इसे प्रसंस्कृत करके दिया जाए.

अधिकारी ने कहा, ‘कई राज्य हैं जो कि अरहर की मांग कर रहे हैं. इसके प्रसंस्करण में आम तौर पर 10 दिन का समय लगता है.’

लेकिन लॉकडाउन के चलते मिल का कामकाज बहुत धीमा पड़ गया है. लॉकडाउन के दौरान रोक के दायरे से बाहर होने के बावजूद मिल अपनी पूर्ण छमता के मुकाबले लगभग 40 फीसदी पर काम कर रहे हैं. लॉकडाउन के कारण मिलिंग प्रक्रिया धीमी हो गई है.

अखिल भारतीय दाल मिल एसोसिएशन के अध्यक्ष सुरेश अग्रवाल के मुताबिक मिल लॉकडाउन से छूट मिलने के बाद भी पूरी क्षमता से लगभग 40 फीसदी पर काम कर रहे हैं, जबकि वे लॉकडाउन के पहले दो हफ्तों में लगभग पूरी तरह से बंद थे.

हालांकि अग्रवाल का कहना है कि पीएम गरीब कल्याण पैकेज के माध्यम से दी जाने वाली दालों के लिए मिलिंग की प्रक्रिया बहुत आसान हो सकती थी अगर नैफेड चाहता तो. उन्होंने कहा, ‘कहने और करने में बहुत अंतर है. वे कहते कुछ हैं और करते कुछ और हैं. कोई मिलर उनके साथ काम नहीं करना चाहता. उनके सैकड़ों शर्ते हैं और ऐसे समय में भी बहुत नौकरशाही है. वे हमारे साथ ऐसा व्यवहार करते हैं कि जैसे हम चोर हैं. केवल 20 फीसदी मिल वाले ही उनके साथ काम कर रहे हैं.’

केंद्रीय कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय के पूर्व सचिव सिराज हुसैन का कहना है कि सीतारमण के वादे को पूरा करने की नैफेड में क्षमता नहीं है.

उन्होंने कहा, ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकार द्वारा खरीदी जाने वाली दाल को राज्यों को देने से पहले मिल में प्रसंस्करण करने की आवश्यकता होती है. इसके लिए, नैफेड को दाल मिलों के साथ अनुबंध करना होगा, खरीद केंद्रों से कच्ची दालों का परिवहन करना होगा और फिर दाल मिलों को राज्य सरकारों द्वारा सुझाए गए जिलों में दाल का परिवहन करना होगा. एफसीआई के विपरीत, नैफेड इस तरह का काम करने की स्थिति में नहीं है.’

नैफेड के एक अधिकारी के अनुसार सभी राज्यों में जरूरत के मुताबिक दाल पहुंचने में अभी भी कई सप्ताह लगने वाले हैं. उन्होंने कहा, ‘समस्या बनी हुई है. हमारे पास प्रोसेस करने की क्षमता नहीं है. यदि राज्य प्रसंस्कृत दाल ही मांगेंगे तो और समय लगने वाला है.’

राजनीतिज्ञ और सामाजिक वैज्ञानिक योगेंद्र यादव ने कहा कि ऐसा स्थिति से राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी का पता चलता है.

उन्होंने कहा, ‘सरकार ने कहा है कि यह एक राष्ट्रीय आपातकाल है. तो फिर राष्ट्रीय आपातकाल के समय ये कहना कि हमारे पास यह नहीं है, हमारे पास ऐसा नहीं है, यह अत्यंत समस्याग्रस्त है. असल समस्या यह है कि कोई राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं है. यदि राजनीतिक इच्छाशक्ति होती तो सरकार ओपन मार्केट से प्रसंस्कृत दालें उठा सकती थी.’

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