क्या मोदी मजबूत चुनाव आयोग नहीं चाहते?

झूठे प्रचार और अफवाह सिर्फ संस्थानों को ही नुकसान नहीं पहुंचाते, देश को भी आग में झोंक सकते हैं. चुनाव आयोग की निष्पक्षता, स्वतंत्रता और ईमानदारी की रक्षा किसी भी कीमत पर किये जाने की जरूरत है.

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झूठे प्रचार और अफवाह सिर्फ संस्थानों को ही नुकसान नहीं पहुंचाते, देश को भी आग में झोंक सकते हैं. चुनाव आयोग की निष्पक्षता, स्वतंत्रता और ईमानदारी की रक्षा किसी भी कीमत पर किये जाने की जरूरत है.

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बीते दिनों चुनाव आयोग ने अपने लिए कोर्ट की तरह अपनी अवमानना के लिए दंड देने के अधिकार की मांग की. इसने लोगों को डराने और भड़काने का काम किया.

उम्मीद के मुताबिक इस मांग की तरफदारी करने वाले लोग कम हैं, इसकी आलोचना करने वाले और खिल्ली उड़ाने वाले ज्यादा.

चुनाव आयोग ने उसकी सत्ता के प्रति ‘नाफरमानी और बेअदबी’ का प्रदर्शन करने वालों को दंडित करने का अधिकार देने की मांग की है.

आयोग ने ऐसे कुछ देशों का हवाला दिया है जिनके चुनाव आयोगों के पास प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ऐसे अधिकार हैं.

आयोग ने जिन देशों का नाम लिया है, उनमें फिलिपींस, घाना, लाइबेरिया, पाकिस्तान, ऑस्ट्रेलिया और केन्या शामिल हैं.

आयोग का प्रस्ताव है कि जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 को संशोधित करके, उसमें एक अनुच्छेद 169 ए जोड़ा जाए ताकि कंटेंम्प्ट ऑफ कोर्ट एक्ट, 1971 (न्यायालय अवमानना अधिनियम, 1971) के प्रावधानों के दायरे को बढ़ाकर इसमें चुनाव आयोग और चुनाव आयुक्तों को शामिल किया जाए.

आगे व्याख्या करते हुए आयोग ने ‘इसके द्वारा दी गई हिदायतों, निर्देशों, आदेश या सलाह को जानबूझकर न मानने या आयोग के सामने दिए गए वचन को जानबूझ तोड़ने’ को अवमानना के तौर पर परिभाषित किया है.

इसके साथ ही इसने ऐसे शब्दों या कामों को भी इसके दायरे में शामिल किया है, जो ‘आयोग को बदनाम करने वाले और उसकी सत्ता को घटाने वाले हों.’

चुनाव आयोग ने बेबुनियाद आरोप लगाए जाने के तीन मौकों का जिक्र किया है: एक, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल द्वारा उसे धृतराष्ट्र कहना, जो आंखें बंद करके अपने बेटे- भारतीय जनता पार्टी- दुर्योधन को कथित तौर छेडछाड़ की गई इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) की मदद से जीतने में मदद कर रहा है.

दो, कांग्रेस के मनीष तिवारी द्वारा चुनाव आयोग पर ‘ईवीएम की वकालत’ करने और ‘चुनौती देने वाले राजनीतिक दलों की आवाज को दबाने की कोशिश करने’ का आरोप लगाना.

तीन, अरविंद केजरीवाल द्वारा यह कह कर चुनाव आयोग की ईमानदारी पर सवाल खड़े करना कि वह भाजपा को जितवाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ रहा है.

केजरीवाल द्वारा इसके दो आयुक्तों- एके जोति और ओपी रावत पर भाजपा के नजदीकी होने का आरोप लगाए जाने से भी चुनाव आयोग काफी आहत है.

इस कारण रावत जैसे भद्र व्यक्ति ने भविष्य में आम आदमी पार्टी से संबंधित सभी मामलों की सुनवाई से खुद को अलग कर लिया.

मुझे नहीं लगता कि चुनाव आयोग के इस प्रस्ताव से पहले पर्याप्त सोच-विचार किया गया है. चुनाव आयोग और न्यायालय के बीच एक बुनियादी फर्क है.

न्यायालय कभी सार्वजनिक तौर पर अपनी बात नहीं कहते. यहां तक कि अपने फैसले को उचित ठहराने के लिए भी वे आगे नहीं आते.

जबकि, चुनाव आयोग हमेशा मीडिया में छाया रहता है. इसके बावजूद हकीकत यह है कि खुद न्यायालयों की शक्ति पर लगातार पहले से कहीं ज्यादा सवाल खड़े किए जा रहे हैं.

लेकिन, चुनाव आयोग के प्रति उदारता दिखाते हुए हमें इसकी नाराजगी को सही संदर्भ में समझने की जरूरत है. गुजरते वक्त के साथ चुनाव आयोग देश के सबसे भरोसेमंद संवैधानिक संस्थान के तौर पर उभरा है.

सारी राजनीतिक पार्टियां इसकी निष्पक्षता और ईमानदारी को स्वीकार करती हैं. आयोग की कार्रवाई के कारण कभी किसी पार्टी या उसके नेता द्वारा असंतोष प्रकट करने के मामले छिटपुट और अपवाद सरीखे हैं.

हकीकत यह है कि कुछ नेताओं को, खासकर सत्ताधारी दल के कुछ नेताओं को यह लगता है कि चुनाव आयोग को उनके अलावा अन्य सभी पर और ज्यादा सख्ती दिखानी चाहिए.

कुछ नेता चुनाव आयुक्तों से उम्मीद करते हैं कि वे मिलने का वक्त देने के लिए उनके प्रति आभार प्रकट करेंगे. जब आयुक्त उनकी उम्मीदों पर खरे नहीं उतरते तो वे बुरा मान जाते हैं. ऐसा अक्सर होता है.

चुनाव आयोग के प्रस्ताव की आलोचना करने में मीडिया ने कोई देरी नहीं की. डीएनए ने टिप्पणी की,‘भागीदारी वाले जनतंत्र का निर्माण तुरंत बुरा मान जाने वाले अधिकारियों के भरोसे नहीं हो सकता.’

द हिंदू ने इसे ‘गैरजरूरी और गलत तरीके से सोचा गया’, ‘हमारी खुली और लोकतांत्रिक प्रणाली का मजाक बनानेवाला’, ‘अभिव्यक्ति और आलोचना की आजादी के लिए नुकसानदेह’ करार दिया.

चुनाव आयोग यह महसूस करे कि उसे बदनाम किया जा रहा है या उसकी ‘सत्ता को नीचे गिराया’ जा रहा है- यह एक अस्पष्ट और व्यक्तिनिष्ठ (सबजेक्टिव) विचार है, और इसके लिए अवमानना के कानून में कोई जगह नहीं होनी चाहिए.

इस सीमा तक आयोग की आलोचना पर आपत्ति नहीं की जा सकती है.

New Delhi: India's new Election Commissioner Achal Kumar Jyoti poses in his office as he takes charge as the Chief Election Commissioner after Nasim Zaidi retires on Thursday. PTI Photo by Kamal Kishore(PTI7_6_2017_000026B)
अचल कुमार जोती ने देश के 21वें मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में पदभार संभाल लिया है. (फोटो: पीटीआई)

लेकिन, इस संपादकीय में आगे यह भी कहा गया कि यह मानने की कोई वजह नहीं है कि आलोचना के कारण, भले ही आलोचना पूर्वाग्रह से भरी या निंदा करने वाली ही क्यों न हो, भारत के चुनाव आयोग में लोगों का यकीन हिल जाएगा या इस कारण चुनाव प्रक्रिया के प्रबंधन, निर्देशन और नियंत्रण का इसका अधिकार घट जाएगा.

मगर, यह सही आकलन नहीं है.

जनता के जिस यकीन को बनाने में वर्षों लगते हैं वह सही इरादे से की गई गलतियों के कारण भी तार-तार हो सकता है.

चुनाव आयोग दुनिया के सबसे बड़े और जटिल लोकतांत्रिक दायित्व को निभाने में अब तक इसलिए कामयाब रहा है, क्योंकि लोगों को इसकी ईमानदारी और निष्पक्षता पर भरोसा है.

संस्थानों को लेकर जनता की धारणा का जायजा लेने वाले सभी सर्वेक्षणों में चुनाव आयोग को ऊंचा स्थान मिला है.

लेकिन, अगर आज ऐसा कोई सर्वेक्षण कराया जाता है, तो मुझे डर है कि परिणाम इतने खुशनुमा नहीं होंगे क्योंकि ईवीएम विवाद का लेकर इस पर विभिन्न रंगतों वाले ट्रोलों के साथ ही कई राजनीतिक दलों और मीडिया के एक बड़े हिस्से के द्वारा काफी जहर उगला गया है.

इस प्रस्ताव पर जनता की प्रतिक्रिया काफी तीखी रही है और इसे: ‘लोकतंत्र का गला घोंटने की कोशिश’, ‘ईमानदार आरोपों के खिलाफ भी खतरनाक हथियार’, ‘तानाशाही की तरफ एक कदम’ आदि कहकर इसकी आलोचना की गई है.

झूठे प्रचार और अफवाह सिर्फ संस्थानों को ही नुकसान नहीं पहुंचाते, देश को भी आग में झोंक सकते हैं. चुनाव आयोग की निष्पक्षता, स्वतंत्रता और ईमानदारी की धारणा की रक्षा किसी भी कीमत पर किये जाने की जरूरत है.

क्या है समाधान?

इस स्थिति के समाधान के लिए दोहरी नीति अपनाने की जरूरत है: चुनाव आयोग को पूरी तरह से स्वतंत्र बनाया जाए और इसे राजनीतिक दलों को अनुशासित करने की ज्यादा शक्ति दी जाए.

चुनाव आयोग न सिर्फ सच्चे अर्थों में स्वतंत्र हो, बल्कि स्वतंत्र दिखे भी. इसके लिए सबसे पहले चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की प्रणाली में बदलाव लाने की जरूरत है.

यह तथ्य कि चुनाव आयुक्त की नियुक्ति सरकार के हाथ में है, नियुक्ति करनेवालों में मालिकाना भाव भरता है.

वे ये उम्मीद करने लगते हैं कि नियुक्त किया गया व्यक्ति उसके हिसाब से काम करेगा. अक्सर असंतुष्ट समूह किसी कमिश्नर पर उसकी नियुक्ति करनेवाली पार्टी की तरफदारी करने का आरोप लगाता है.

इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि दुनिया के सबसे शक्तिशाली चुनाव आयोग में नियुक्ति का तरीका दोषपूर्ण है. चुनाव आयुक्त की नियुक्ति एकतरफा तरीके से सरकार करे, ऐसा दुनिया में कहीं नहीं होता. उसकी नियुक्ति हर जगह या तो कोलेजियम प्रणाली से होती है या यहां तक कि पूर्ण संसदीय जांच-पड़ताल या इंटरव्यू के जरिए. कुछ देशों में उम्मीदवारों का इंटरव्यू टेलीविजन पर होता है, ताकि पूरा देश उसे देख सके. भारत में भी उच्च और उच्चतम न्यायालयों के जजों की नियुक्ति कोलेजियम पद्धति से होती है. और सिर्फ संवैधानिक संस्थानों के लिए ही नहीं, केंद्रीय सतर्कता आयोग और केंद्रीय सूचना आयोग में भी नियुक्ति के लिए इस प्रक्रिया को अपनाया जाता है.

सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति के लिए भी कोलेजियम सिस्टम के उपयोग का आदेश दिया है, जो कि एक सरकारी विभाग है.

2006 में जब मेरी नियुक्ति चुनाव आयुक्त के तौर पर की गई थी, तब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के एक शीर्ष सहयोगी ने मुझसे कहा था कि मेरी नियुक्ति सरकार द्वार की गयी आखिरी नियुक्ति हो सकती है, क्योंकि प्रधानमंत्री को यह लगता था कि चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के लिए कोलेजियम प्रणाली देशहित में होगी, जो कि अन्ना हजारे की मांगों में भी शामिल था.

मुझे नहीं पता, ऐसा क्यों नहीं हुआ. शायद इसके पीछे सिर्फ लापरवाह आत्संतुष्टि का या किसी चीज को लटकाए रखने की प्रवृत्ति का हाथ हो. यह भी हो सकता है कि सरकार अपनी शक्ति कम नहीं करना चाहती हो.

अगर मौजूदा सरकार का रवैया भी ऐसा ही है, तो इसके लिए उसे दोष नहीं दिया जा सकता है. लेकिन, फिर सवाल उठता है कि जब यह सरकार अपनी पूर्ववर्ती सरकार की कमियों और गलतियों को लेकर इतनी आलोचनात्मक है, तो वह एक लंबे समय से की जा रही एक और गलती को ठीक क्यों नहीं करती?

आखिर, यह एक सबसे अलग पार्टी (पार्टी विद अ डिफरेंस) होने का दावा करती है, जो भारत में अनगिनत तरीके से नए युग की शुरुआत कर रही है.

क्या यह व्यापक राष्ट्रीय हित को ध्यान में रखते हुए संकीर्ण राजनीतिक/चुनावी फायदे की चिंता से उपर उठ सकती है?

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(फाइल फोटो: पीटीआई)

चुनाव आयोग की आजादी के लिए दूसरा जरूरी सुधार- दो चुनाव आयुक्तों को पद पर बने रहने की सुरक्षा देना है. यह प्रावधान किया जाना चाहिए कि इन दो चुनाव अधिकारियों को भी महाभियोग के अलावा किसी दूसरे तरीके से नहीं हटाया जा सकता, जो व्यवस्था संविधान द्वारा मुख्य चुनाव आयुक्त के लिए की गई है.

आयोग की स्थापना के वक्त वही आयोग का एकमात्र सदस्य था. इसमें दो और आयुक्त बाद में जोड़े गए हैं. आयुक्तों की नियुक्ति कोलेजियम प्रणाली से की जानी चाहिए और मुख्य चुनाव आयुक्त के तौर पर उनकी पदोन्नति खुद-ब-खुद वरिष्ठता के आधार पर होनी चाहिए, जैसा कि भारत के मुख्य न्यायाधीश के मामले में होता है.

दूसरे सुधार के तौर पर चुनाव आयोग को राजनीतिक दलों को सजा देने का अधिकार मिलना चाहिए (जिसमें पंजीकरण रद्द करना भी शामिल हो), जो अपनी शपथ का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन करते हैं या कानूनसम्मत आदेशों को जानबूझकर नहीं मानते हैं.

मसलन एकाउंट्स और ऑडिट रिपोर्ट को जमा नहीं करना, पार्टी के भीतर आंतरिक चुनाव नहीं कराना, आचार संहिता का लगातार उल्लंघन आदि.

स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव संविधान के बुनियादी ढांचे (बेसिक स्ट्रक्चर) का हिस्सा है और इसका सारा दारोमदार चुनाव आयोग पर है.

इसकी स्वतंत्रता और साख की हर हालत मे सुरक्षा की जानी चाहिए और इसे मजबूत किया जाना चाहिए, चाहे इसके लिए कुछ भी क्यों न करना पड़े.

मुझे उम्मीद है कि नये भारत के लिए प्रधानमंत्री के विजन में यह जरूरी सुधार भी जगह पाएगा.

(एसवाई क़ुरैशी भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त हैं और ‘एन अनडॉक्यूमेंटेड वंडर : द मेकिंग ऑफ द ग्रेट इंडियन इलेक्शन के लेखक हैं. वे अशोका यूनिवर्सिटी के सम्मानित फेलो हैं.)

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