मध्य प्रदेश में 2009 से 2015 के बीच 1 करोड़ 10 लाख बच्चे कुपोषित पाए गए. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट कहती है कि इनमें से 9.3 प्रतिशत गंभीर रूप से कुपोषित हैं.
(मध्य प्रदेश के श्योपुर जिले में कुपोषण के हालात का जायजा लेने वाली रिपोर्ट की पहली कड़ी)
बात बीते वर्ष के सितंबर–अक्टूबर माह की है. मध्यप्रदेश के श्योपुर जिले में कुपोषण कहर बनकर बरपा. कुपोषण के चलते 116 बच्चों की मौत से प्रशासन के पसीने छूट गये. सरकार हरकत में आयी और तत्कालीन जिला कलेक्टर और मुख्य स्वास्थ्य एवं चिकित्सा अधिकारी (सीएमएचओ) को पद से हटा दिया गया.
आनन–फानन में पुलिस को भी कुपोषित बच्चों की खोज में लगा दिया गया. जिले के तीनों पोषण पुनर्वास केंद्र (एनआरसी) में आपातकाल सी स्थिति हो गयी. हालात यह थे कि 20 बिस्तर के क्षमता वाले श्योपुर एनआरसी में एक वक्त 271 बच्चे भर्ती थे.
कराहल और विजयपुर की एनआरसी के हालात भी कोई जुदा नहीं थे. क्षमता से कई गुना अधिक बच्चे यहां भी भर्ती थे. बाहर से किराए पर बिस्तर मंगाकर जमीन पर लगाए गए और बच्चों व उनकी माताओं को भर्ती किया गया. उस वाकये को गुजरे अभी सालभर भी नहीं हुआ है कि कुपोषण का कहर जिले में अब फिर से पांव पसारने लगा है.
बीते दिनों जिले की कराहल तहसील के झरेर गांव और उसके आसपास से कुपोषण पीड़ित 16 बच्चे सामने आए हैं. एकीकृत बाल विकास विभाग, प्रशासनिक अधिकारियों और पुलिस के संयुक्त प्रयासों से इन्हें कराहल की एनआरसी में भर्ती कराया गया.
चौंकाने वाली बात यह रही कि परिजन बच्चों को एनआरसी लेकर नहीं आना चाहते थे. आंगनबाड़ी कार्यकर्ता के प्रयासों के बावजूद जब इन बच्चों को एनआरसी लाने में सफलता नहीं मिली तो आईसीडीएस अधिकारी, जिला तहसीलदार, स्वयं सहायता समूह द्वारा पुलिस की मदद से डरा–धमकाकर उन्हें एनआरसी पहुंचाया गया.
इससे पहले हफ्तेभर के अंदर जिलेभर से 120 कुपोषित बच्चों को चिन्हित कर तीनों एनआरसी में भर्ती कराया गया था. जिले भर से कुपोषित बच्चों के मिलने का यह सिलसिला अनवरत जारी है.
गौर करने वाली बात यह है कि जब सितंबर–अक्टूबर में बीते वर्ष कुपोषण ने अपना रौद्र रूप दिखाया था, तब से ही शासन और प्रशासन कुपोषण की रोकथाम में जुटा हुआ था. पुलिस अधीक्षक ने 80 गांवों को कुपोषण मुक्त बनाने के लिए गोद ले लिया.
पिछले दिनों वन विभाग के अधिकारियों को भी कुपोषित बच्चों की खोज में लगा दिया गया. कई स्वयं सहायता समूह भी मदद को आगे आए. लगभग 400 स्वयं सहायता समूह (एनजीओ) वर्तमान में जिले में कुपोषण मिटाने की लड़ाई में सहयोग कर रहे हैं. पर नतीजा ढाक के तीन पात.
मध्यप्रदेश विज्ञान सभा से जुड़े वीरेंद्र पाराशर कराहल व आसपास के इलाके में दशकभर से कुपोषित बच्चों के लिए काम कर रहे हैं.
वेबतातेहैं, ‘जिले के पातालगढ़ गांव में 2005 में एक के बाद एक 13 बच्चों की जान कुपोषण के चलते गयी थी. जहां तक मुझे याद है, वहीं से श्योपुर और कुपोषण का एक–दूसरे से परिचय हुआ था. मुद्दे ने खूब सुर्खियां बटोरीं. हर ओर बहस छिड़ी. लेकिन सरकार ने गंभीरता नहीं दिखाई. अगले साल फिर 10 बच्चे इस कुपोषित मौत के शिकार बने. तब से यह सिलसिला अब तक जारी है.’
वर्ष 2016 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनफएचएस-4) के मुताबिक, श्योपुर में पांच साल की उम्र तक के लगभग 55 प्रतिशत बच्चे कम वजन के हैं. वहीं मध्य प्रदेश के कुल 42 प्रतिशत बच्चे इस श्रेणी में आते हैं.
कुपोषण के मुद्दे पर लंबे समय से सक्रिय रहे सामाजिक कार्यकर्ता सचिन जैन के अनुसार, ‘2009 से 2015 के बीच 6 सालों में 1 करोड़ 10 लाख बच्चे मप्र में कुपोषित पाये गये. एनएफएसएच की रिपोर्ट कहती है कि इनमें से 9.3 प्रतिशत गंभीर कुपोषित हैं, मतलब लगभग 10 लाख बच्चे. उनमें से भी 15-20 प्रतिशत ऐसे अतिगंभीर कुपोषित हैं जिन्हें एनआरसी की जरूरत है.’
यह आंकड़े स्थिति की गंभीरता और नाकाफी सरकारी प्रयासों की स्थिति स्पष्ट करने के लिए काफी हैं. वीरेंद्र की बात पर यकीन करते हुए यह मान लें कि श्योपुर में कुपोषण ने दस्तक 2005 में दी, तब एनएफएसएच के आंकड़ों से यह प्रश्न खड़ा होता है कि 12 साल के लंबे अंतराल में कुपोषण पर काबू पाने के क्या प्रयास हुए? क्यों साल दर साल यह आंकड़ा बढ़ता गया? वो क्या कारण रहे कि जिले के बच्चों में कुपोषण की समस्या कम होने के बजाय सुरसा के मुंह की तरह फैलती चली गयी? क्या सरकारी योजनाएं और स्वास्थ्य सेवाएं विफल रहीं? या कारण कुछ और ही थे?
ऐसे ही कुछ अनसुलझे सवालों के जवाब तलाशने हम पहुंचे श्योपुर जिले के कराहल विकासखंड. सबसे पहले हमने स्वास्थ्य सेवाओं का जायजा लेने की ठानी और रुख किया कराहल सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) में संचालित एनआरसी का.
एक हॉल और दो कमरे में संचालित 20 बिस्तर वाली एनआरसी में उस समय 61 बच्चे अपनी मांओं के साथ भर्ती थे. वहां फूड डेमन्सट्रेटर के पद पर तैनात आरती पाठक से हमारी बात हुई. उन्होंने बताया कि बच्चों की संख्या में मई के महीने से ही इजाफा हुआ है. वरना अक्टूबर 2016 के बाद से अप्रैल तक 20 बिस्तर भी पूरे नहीं भर पाते थे.
जब उनसे इसका कारण पूछा गया तो उन्होंने बताया, ‘ऐसा सिर्फ इसी साल नहीं हुआ. हर साल ही होता है. मई माह से अक्टूबर–नवंबर माह के बीच एनआरसी में आने वाले कुपोषित बच्चों की संख्या में अचानक इजाफा हो जाता है.’
वे आगे बताती हैं, ‘कराहल सहित श्योपुर जिला सहरिया आदिवासी समुदाय का इलाका माना जाता है. इस समुदाय के लोग रोजगार हेतु मजदूरी करने लगभग दिसंबर से अप्रैल के बीच जिले और राज्य के बाहर पलायन करते हैं. जो मई के महीने में वापस लौटते हैं. जब ये वापस लौटते हैं तो अपने बच्चों को बीमार करके लाते हैं. जिन्हें चिन्हित करके आंगनबाड़ी कार्यकर्ता एनआरसी ले आती हैं.’
कराहल और शिवपुरी जिले के पोहरी गांव में लंबे समय से सहरिया समुदाय के बीच रहकर कुपोषण पर काम कर रहे ‘बदलाव‘ के सचिव अजय यादव आरती की बात पर मोहर लगाते हुए कहते हैं, ‘सहरिया सालभर काम के सिलसिले में माईग्रेट करता है. गर्मियों के समय वह वापस घर लौटता है. इस माइग्रेशन के दौरान ये जहां भी रहता है वहां इनके बच्चे खुले में खेलते रहते हैं. धूप, ठंड में अकेले पड़े रहते हैं. मां को इतना भी समय नहीं होता कि उन्हें खाना खिला सके. दूध पिला सके. इसी लापरवाही के चलते उनके बच्चे कुपोषण की चपेट में धीरे–धीरे आ जाते हैं. इसलिए मां यहां से तो बच्चा भला–चंगा ले जाती है पर जब लौटकर आती हैं तो वह बीमार होता है.’
अजय श्योपुर के कुपोषण का सबसे बड़ा कारण इस माइग्रेशन को ही मानते हैं. उनके अनुसार काम के चलते सहरिया समुदाय अपने बीमार कुपोषित बच्चों का इलाज नहीं कराता है और कुपोषित बच्चों को लेकर ही पलायन करता रहता है. बच्चा जो पहले से कुपोषित है, इलाज न मिलने के चलते अतिगंभीर स्थिति में पहुंच जाता है.
यही बात कराहल के ब्लॉक मेडीकल ऑफिसर (बीइमओ) वीएस रावत, झरेर की आंगनबाड़ी कार्यकर्ता मुन्नीबाई, ग्रामीणों और क्षेत्र में कार्यरत शिक्षक, सामाजसेवकों ने भी दोहराई. इससे यह तो स्पष्ट हो गया कि मई से नवंबर के महीने श्योपुर में कुपोषण के लिहाज से संवेदनशील होते हैं.
बहरहाल इस बीच जब हमने आरती से पूछा कि एनआरसी में क्षमता से अधिक बच्चों को कैसे मैनेज किया जाता है. तो उन्होंने बताया कि हमने एक्सट्रा बिस्तर की व्यवस्था की है. लेकिन जब उन व्यवस्थाओं का जायजा लिया गया तो घोर असंवेदनशीलता सामने आयी. 20 बिस्तर की एनआरसी में 61 बच्चों को एडजस्ट करने के लिए स्वास्थ्य के नियमों की अनदेखी की जा रही थी.
जगह के अभाव के चलते सभी बिस्तर एक–दूसरे से सटाकर बिछाए गये थे. जिनके बीच में कोई गैप नहीं था. वहीं भर्ती 61 मां–बच्चों के अनुपात में बिस्तर भी नहीं थे. जो साफ इशारा कर रहे थे कि 2 बिस्तर पर 3 लोगों को एडजस्ट किया जा रहा था. इसी कारण बिस्तरों को आपस में सटाकर इस तरह बिछाया गया था ताकि सभी बिस्तरों को एक बनाकर लगाया जा सके. ऐसी स्थिति में एक मां या बच्चे का संक्रमण दूसरे मां और बच्चों को लगने की पूरी संभावना रहती है.
श्योपुर जिला अस्पताल में संचालित एनआरसी भी 20 बिस्तरों की है. यह अस्पताल के पहले माले पर संचालित है. जब हम सीढ़ियां चढ़कर पहले माले पर पहुंचे तो लगभग 100 मीटर लंबी गैलरी में दोनों ओर बिस्तर लगे हुए थे. जिन पर छोटे–छोटे बच्चे अपनी मांओं के साथ लेटे हुए थे. कुछ मांएं जमीन पर ही बैठी थीं. जिस कारण संकरी गैलरी में आगे जाने के लिए रास्ता भी नहीं बचा था.
पीछे की तरफ स्पेशल केयर न्यूबोर्न यूनिट बना था. थोड़ा ही चलने पर दायीं ओर सामने ही पोषण पुनर्वास केंद्र लिखा हुआ था. हम अंदर गये तो पता लगा कि गैलरी में लगे बिस्तरों पर कुपोषित बच्चे और उनकी मांएं ही लेटी हुई हैं. दो कमरों और एक हॉल वाली एनआरसी में जब जगह कम पड़ गयी तो एनआरसी के बाहर अस्पताल की गैलरी में ही बिस्तर लगाकर कुपोषित बच्चों के ठहरने का प्रबंध किया गया है.
अंदर का नजारा भी कराहल की एनआरसी से जुदा नहीं था. दो कमरों और एक हॉल वाली एनआरसी में एक कमरा डॉक्टर व सहायक स्टाफ के लिए रिजर्व था. बाकी दूसरे कमरे और हॉल में कुपोषित बच्चों के लिए बिस्तर लगे हुए थे. बिस्तर इस तरह सटाकर एक सीध में लगाए गए थे कि एक कुपोषित बच्चे और उसकी मां को पूरा एक बिस्तर भी नहीं मिल रहा था.
ड्यूटी पर मौजूद एएनएम व अन्य स्टाफ ने बताया कि पिछले साल सितंबर में यहां भर्ती बच्चों का आंकड़ा 271 पर पहुंच गया था और पूरा ऊपरी माला खाली कराकर एनआरसी में तब्दील कर दिया गया था.
जब हम वहां पहुंचे तब 39 बच्चे भर्ती थे और एक हफ्ते पहले तक यही संख्या 66 थी. हमें बताया गया कि आज रविवार है, कल सोमवार को और बच्चे आ सकते हैं. जब पूछा कि उन बच्चों का प्रबंध कहां और कैसे किया जायेगा? तो जवाब मिला कि इस माले की सभी गैलरियों में बिस्तर लगा दिए जाते हैं. जरूरत पड़ती है तो ऊपर तक लगा देते हैं.
गौरतलब है कि अस्पताल की जिन गैलरियों में बिस्तर लगाकर कुपोषित बच्चों का इंतजाम किया जा रहा है, वहां से अस्पताल आने वाले विभिन्न बीमारियों से ग्रस्त मरीजों की भी आवाजाही होती है. साथ ही गैलरी एक तरफ से खुली होने के कारण आंधी–बारिश की स्थिति में धूल और पानी की बौछारों की भी संभावना बनी रहती है. इन परिस्थितियों में मां और बच्चे के संक्रमण का शिकार होने का भी खतरा काफी हद तक बढ़ जाता है.
वहीं एक बिस्तर, जो मां और बच्चे के लिए आवंटित होता है, उसे दूसरे बिस्तर से इस तरह से सटाकर लगाना कि उस पर किसी तीसरे को भी व्यवस्थित किया जा सके, इससे भी संक्रमण का खतरा बढ़ता ही है.
वीरेंद्र भी इस बात को स्वीकारते हैं और कहते हैं, ‘एनआरसी से लौटकर आने के बाद भी कई बच्चे फिर से बीमार होने लगते हैं. इसका एक कारण तो यह है कि जो पोषण उन्हें एनआरसी में मिलता है वो घर पर नहीं मिल पाता. वहीं इस संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि एनआरसी में ही किसी अन्य संक्रमण ने उन्हें अपनी चपेट में ले लिया हो.’
जब हमने इस पर श्योपुर के बीएमओ डॉक्टर मंगल से बात की तो उनका कहना था कि हमारे हाथ में कुछ नहीं होता, जैसा हमारे आला अधिकारी हमें आदेश देते हैं, हम वही करते हैं. उन्हें स्वयं इन हालातों की जानकारी है. उचित होगा कि आप उन्हीं से इस पर बात करें. मैं बस इतना कह सकता हूं कि एनआरसी में क्षमता से कई गुना अधिक बच्चे आने पर सुविधाएं और सेवाएं तो प्रभावित होती ही हैं.
जब इस मसले पर श्योपुर के मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी (सीएमएचओ) डॉ. एनसी गुप्ता से बात की तो वे बोले, ‘ इस पर काम कर रहे हैं. मैटरनिटी विंग का जो भवन है उसमें कुछ खामी थी उसे दूर कर रहे हैं. दो महीने रुकिए एनआरसी पूरी नई होगी, जहां पर्याप्त बिस्तर होंगे.’ कराहल की एनआरसी के सवाल पर वे बोले कि वहां तो एक नये वार्ड में एनआरसी पहले ही शिफ्ट की जा चुकी है. लेकिन कराहल का आंखो देखा हाल हम पहले ही बयान कर चुके हैं.
अव्यवस्थाओं का आलम इतना ही नहीं है. 20 बिस्तर की एक एनआरसी के लिए एक एफडी, दो एएनआर, तीन केयरटेकर और एक रसोईये का पद स्वीकृत है. पर जब बच्चों की संख्या में बढ़ोत्तरी होती है, तब भी स्टाफ को बढाया नहीं जाता.
श्योपुर एनआरसी में मौजूद एएनएम और दो केयरटेकर बताती हैं, ‘बच्चे 20 हों, 50 हों या 100. स्टाफ वही रहता है. बस हमारी जिम्मेदारी और काम का समय बढ़ जाता है. बावजूद इसके हमारी पूरी कोशिश रहती है कि हम सभी पर पूरा ध्यान दे सके. लेकिन सेवाओं पर असर तो पड़ता ही है. स्टाफ में बढ़ोत्तरी तब होती जब बिल्कुल ही गुंजाइश नहीं रहती. चारों तरफ से दवाब बनता है. पिछली बार जब संख्या 271 पर पहुंच गयी थी, तब जरूर आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को बच्चों और मां की देखरेख के लिए बुला लिया गया था. पर उन्हें एनआरसी के बाहर लगाये गये बिस्तरों की ही देखभाल का जिम्मा सौंपा गया था. जो खाने और दवा देने का काम है वो हमारे ही जिम्मे था. वे बस भर्ती बच्चों पर नजर रखती थीं और हमें यहां आकर खबर करती थीं.’
वे आगे कहती हैं, ‘रात में बहुत दिक्कत है. 12 घंटे एक ही केयरटेकर संभालती है. चाहे बच्चे 80 हों या 100 हों. हम चाहते हैं कि एनआरसी बड़ी हो, स्टाफ में बढ़ोत्तरी हो. जिससे बच्चों को भी आराम मिले और हमको भी आराम हो. हमारे ऊपर इतना दबाव न रहे कि 12-14 घंटे का ओवरटाइम करना पड़े. थोड़ा प्रबंधन अच्छा हो जाए तो इतनी दिक्कतें नहीं आएंगी. हम काम अच्छा कर पाएंगे. हर बिस्तर पर बराबर ध्यान दे सकेंगे. साथ ही बच्चे अलग–अलग बिस्तर पर रहेंगे तो ज्यादा अच्छा रहेगा.’
बहरहाल डॉ. गुप्ता के अनुसार, 1 जुलाई से 31 दिसंबर की अवधि के लिए तीनों एनआरसी में बिस्तरों और स्टाफ की संख्या बढ़ाई जा रही है. वे बताते हैं, ‘श्योपुर एनआरसी को 60, कराहल को 45 और विजयपुर को 40 बिस्तरों का किया जा रहा है. साथ ही जिले के आसपास जैसे – ग्वालियर व अन्य जिले जहां एनआरसी का उपयोग नहीं हो रहा था, उनका स्टाफ यहां ट्रांसफर किया जा रहा है. जिससे स्टाफ दोगुना हो जाएगा.’
सामाजिक कार्यकर्ता प्रशांत दुबे कहते हैं, ‘जब एनआरसी में बच्चों की बढ़ती संख्या की बात होती है तो यह देखना है स्वास्थ्य विभाग को. लेकिन एनआरसी में बच्चों को भेजने की जिम्मेदारी है महिला बाल विकास विभाग (डब्ल्यूसीडी) की. लेकिन डब्ल्यूसीडी तो मानता ही नहीं कि श्योपुर या प्रदेश में कुपोषित बच्चे भी हैं. जब जो विभाग कुपोषण के आंकड़ों को ही नकारता हो तो एनआरसी में भला बच्चों को कैसे भेज सकेगा? इसलिए ऐसा होता है कि जब कुपोषण से मौतें होना शुरू होती हैं और दवाब पड़ता है, तभी एनआरसी में बच्चों को पहुंचाया जाता है, वरना ये लोग कुपोषण के आंकड़े छिपाने की ही कोशिश करते हैं.’
इसके बावजूद भी एनआरसी में क्षमता से अधिक भीड़ है तो कल्पना कीजिए कि डब्ल्यूसीडी कुपोषण की स्थिति न छिपाकर ईमानदार प्रयास करेगा तो यह भीड़ कितने गुना अधिक बढ़ जायेगी? वर्तमान में श्योपुर जिले की एनआरसी के ये हाल हैं तो सोचिए तब क्या हालात होंगे?
प्रशांत कहते हैं, ‘एनआरसी के सहारे कुपोषण के खिलाफ जंग जीती ही नहीं जा सकती. 10 लाख गंभीर कुपोषित हैं प्रदेश में. गरीबी, बेरोजगारी और पोषण आहार में भ्रष्टाचार के चलते उनके कुपोषण का स्तर भी अतिगंभीरता की ओर बढ़ रहा है. जल्द ही इनमें से आधे से ज्यादा बच्चों को एनआरसी की जरूरत होगी. 20 बिस्तर वाली 350 एनआरसी में आप कितनों को भर्ती कर लेंगे?’
सचिन जैन भी कुछ ऐसा ही मानते हैं. इसलिए वे एनआरसी के बजाय समुदाय आधारित संस्थाओं को विकसित करने की वकालत करते हुए कहते हैं, ‘लाखों बच्चों के लिए आप कितने एनआरसी बनाएंगे! कितने बिस्तर बढ़ाएंगे? कुपोषण से लड़ना है तो समझना होगा कि एनआरसी या अस्पतालों में लाखों बच्चों का इलाज संभव नहीं. हमें ऐसे संस्थान विकसित करने होंगे जहां समुदाय के भीतर ही कुपोषित बच्चों का इलाज हो सके.’
वहीं, श्योपुर में कुपोषण की बात करें तो ग्रामीणों से लेकर डॉक्टर, सामाजिक कार्यकर्ता, स्वयंसहायता समूह, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, यहां तक कि शासन और प्रशासन सभी जानते हैं कि मई से नवंबर के बीच का समय कुपोषण के लिहाज से सर्वाधिक संवेदनशील होता है.
पिछले वर्ष इसी दौरान 116 कुपोषित बच्चों की मौत हुई थी. इस लिहाज से इस बार कुपोषण से निपटने की तैयारियां जोरों पर होनी चाहिए थी. लेकिन तैयारियों का सच यह है कि शासन–प्रशासन अभी एनआरसी में बिस्तर बढ़ाने की फाइलें ही आगे बढ़ा रहा है.
संवदेनहीनता का आलम यह है कि कराहल ब्लॉक की एक लाख से अधिक आबादी दो डॉक्टरों के जिम्मे है. जहां एक डॉक्टर सीएचसी संभालता है, वहीं दूसरा उप स्वास्थ्य केंद्र (एसएचसी) देखता है. सीएचसी संभालने वाले डॉक्टर के जिम्मे ही एनआरसी है.
इस पर सीएमएचओ एनसी गुप्ता कहते हैं, ‘डॉक्टरों की कमी तो पूरे भारत में ही है. जैसा है वैसे में गुजारा करना होगा.’ पर यहां गौर करने वाली बात है कि श्योपुर भारत में तो है, पर कुपोषण के हालात वहां भारत जैसे नहीं हैं. श्योपुर को ‘भारत का इथोपिया’ माना जाता है.
इफ्प्री (इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट) की रिपोर्ट जिले के कुपोषण की तुलना इथोपिया और चाड जैसे अफ्रीकी देशों से करते हुए इसकी रोकथाम के लिए संयुक्त और अलग तरीके के प्रयास करने का सुझाव देती है. उन अलग तरीके के प्रयासों में कम से कम डॉक्टरों के रिक्त पदों को भरने के तो प्रयास किए ही जा सकते हैं.
वहीं, जब स्वास्थ्य विभाग और डब्ल्यूसीडी के कुपोषण पर नजरिए के मतभेद पर हमने डॉ. गुप्ता से सवाल किया तो बेहद ही संवेदनहीन जवाब मिला.
उन्होंने कहा, ‘श्योपुर में कुपोषण से कोई मौत ही नहीं हुई. मौत का कारण तो डायरिया और निमोनिया बनते हैं.’ इस पर अजय कहते हैं, ‘कुपोषित होने से ही तो डायरिया और निमोनिया होगा या डायरिया और निमोनिया के होने से ही तो बच्चा कुपोषित होगा. दोनों ही स्थिति में कुपोषण तो हुआ न.’
इस संवेदनहीनता को उस नजरिए की देन भी माना जा सकता है जहां प्रदेश सरकार के दो विभाग और उसके मंत्री कुपोषण के आंकड़ों पर आपसी मतभेद रखते हैं. गौरतलब है कि पिछले वर्ष श्योपुर कुपोषण से हुई मौतों को जहां स्वास्थ्य विभाग और स्वास्थ्य मंत्री ने कुपोषण के चलते होना बताया था, वहीं डब्ल्यूसीडी मंत्री यह स्वीकारने ही तैयार नहीं थी कि कोई बच्चा कुपोषण से मरा भी है.
शायद यही कारण था कि कुपोषण अभियान में लगा कोई भी अधिकारी या कर्मचारी हमें कोई जानकारी देने ही तैयार नहीं था, फिर चाहे वह आंगनबाड़ी कार्यकर्ता हो या स्वास्थ्य अधिकारी या फिर बीएमओ. एक दहशत सी सबके जुबान पर थी. जिससे साफ पता चल रहा था कि कुपोषण के मामलों को छिपाने के ऊपर से आदेश मिले हैं ताकि शासन–प्रशासन की पिछली बार की तरह किरकिरी न हो.
पहली बार ऐसी स्थिति उत्पन्न तब हुई, जब हमने कराहल एनआरसी में एफडी आरती पाठक से झरेर गांव से भर्ती कराये गये 16 बच्चों के बारे में जानकारी चाही. उन्होंने झरेर से किसी भी बच्चे की भर्ती से इंकार करते हुए उन्हें श्योपुर एनआरसी में भर्ती होना बताया. जबकि वे कराहल में ही भर्ती हुए थे, इस बात की पुष्टि झरेर की आंगनबाड़ी कार्यकर्ता ने कर दी थी.
ऐसी दूसरी स्थिति निर्मित हुई जब हमने कराहल बीएमओ वीएस रावत से कुपोषण के संबंध में बात करनी चाही. मीडिया का सुनकर ही वे भड़क गये. काफी समझाने बुझाने के बाद वे इस शर्त पर बात करने तैयार हुए कि हम उनका बयान रिकॉर्ड न करें.
तीसरी बार इस स्थिति से सामना तब हुआ जब एक आंगनबाड़ी कार्यकर्ता से हमें पहचान छिपाकर बात करनी पड़ी. बाद में उन्हें शक हुआ तो वे बार–बार फोन करके कुछ भी न छापने की गुजारिश करने लगीं और नौकरी जाने की दुहाई देने लगीं.
उन्होंने ही हमें बताया कि जरा सी बात भी बाहर निकलने की भनक अधिकारियों को लग गयी तो उनकी नौकरी चली जाएगी. इसी तरह एक स्वास्थ्य अधिकारी से बात करने के लिए उन्हें यकीन दिलाना पड़ा कि यह बातचीत मीडिया के लिए नहीं बल्कि पढ़ाई के सिलसिले में शोध–पत्र तैयार करने के लिए है. तो वहीं श्योपुर की एनआरसी में फोटो लेने से रोक दिया गया.
छिपने–छिपाने का यह खेल पुराना है. और मध्यप्रदेश सरकार कुपोषण पर आंकड़ों और बयानों की बाजीगरी करती रही है. प्रदेश सरकार ने जनवरी 2016 के मासिक प्रतिवेदन में प्रदेश में 17 प्रतिशत बच्चे कम वज़न के होना बताए. लेकिन अगले ही महीने आए चौथे राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के मुताबिक राज्य में 42.8 प्रतिशत बच्चे कम वजन के थे. जबकि वार्षिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2014 के आंकड़ों में मध्यप्रदेश में 40.6 प्रतिशत बच्चे कम वजन के थे. यहां 23 से 26 प्रतिशत बच्चों की संख्या छिपाने की कोशिश की गयी.
पिछले वर्ष श्योपुर में कुपोषण से हुई मौतों पर महिला एवं बाल विकास मंत्री अर्चना चिटनिस से सदन में सवाल किया गया तो उन्होंने कहा कि पिछले तीन सालों में कुपोषण से कोई मौत ही नहीं हुई. जबकि प्रदेश सरकार के स्वास्थ्य मंत्री रुस्तम सिंह का कहना था कि श्योपुर में 116 बच्चे कुपोषण से मरे. वहीं, एक अन्य मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने सतना और खंडवा में कुपोषण से हुई 93 बच्चों की मौत को अन्य बीमारियों से होना बताया.
इसी तरह श्योपुर में कुपोषण से हुई मौतों को जब विपक्ष ने मुद्दा बनाया तो प्रदेश सरकार ने एक माह के भीतर कुपोषण पर श्वेत–पत्र लाने की घोषणा की थी. लेकिन आज 9 महीने बाद भी उस घोषणा पर अमल नहीं हुआ है तो इसके पीछे भी सरकार की नीति कुपोषण को छिपाने की ही है.
सचिन जैन बताते हैं, ‘श्वेत–पत्र लाने पर सरकार को बताना होगा कि जिन सुविधाओं की बात की जा रही है, वो हितग्राहियों तक पहुंच भी रही हैं या नहीं? ऐसी स्थिति में वे कुपोषण से संबंधित आंकड़े छिपा नहीं सकेंगे. कुपोषण से हुई मौतों को उन्हें स्वीकारना ही होगा. लेकिन नौकरशाही और राजनेता सच दबाना चाहते हैं. श्वेत पत्र आता है तो इन्हें भ्रष्टाचार भी स्वीकारना होगा. अब तक के प्रयासों का लेखा–जोखा देना होगा. अब अपने पैरों पर कौन कुल्हाड़ी मारना चाहता है? सबके निहित स्वार्थ हैं, छिपाने में ही भलाई है.’
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)