स्मृति शेष: मंगलेश डबराल उस यातना को जानते थे जो मनुष्य ने मनुष्य को दी है. दुनिया की अलग-अलग भाषाओं से किए गए उनके अनुवाद इस बात के साक्षी हैं. इसीलिए वे उस संघर्ष की कठिनाई से भी परिचित थे जो इस यातना की संस्कृति को ख़त्म करने का है.
‘मंगलेश डबराल चले गए. अफ़सोस!’ फोन पर कविता श्रीवास्तव का संदेश चमका. दिल बैठ गया. हालांकि यह नहीं कह सकता कि खबर अप्रत्याशित थी. कोरोना से संक्रमित होने के बाद अस्पताल जाने और फिर उसे छोड़कर दूसरे अस्पताल में ले जाए जाने की खबर मिलते ही मन को सख्त कर लिया था.
इस एक साल ने मृत्यु को घटना नहीं, तथ्य की तरह ग्रहण करने की सीख दी है. जैसे पिछले 6 वर्षों ने मुसलमानों के अपमान और उन पर हिंसा को भी भारत के लिए एक प्राकृतिक तथ्य में बदल दिया है. फिर भी ऐसे तथ्य के प्रति तटस्थ हो पाना अभी भी कठिन है.
इस खबर के बाद भी वह फिल्म पूरी की, जो हिटलर के खिलाफ प्रतिरोध के विजय की एक फैंटेसी थी. फासिज़्म और फिल्म, एक मंगलेश जी के लिए जीवित चिंता थी और दूसरी उनकी रुचि जैसे संगीत.
फासिज्म भारत या उनकी भाषा को जिस तरह विकृत कर रहा था, उससे वे गहरे विचलित थे. हाल के वर्षों में जब भी उनसे मुलाक़ात हुई और वह संख्या में बहुत नहीं है, मैं महसूस कर सकता था कि वे इस विकृति का मुकाबला करने में अधिकाधिक साधनविहीन अनुभव कर रहे हैं.
शायद ऐसे ही किसी निराशा के क्षण में उन्होंने लिखा,
‘हिंदी में कविता, कहानी, उपन्यास बहुत लिखे जा रहे हैं, लेकिन सच यह है कि इन सबकी मृत्यु हो चुकी है हालांकि ऐसी घोषणा नहीं हुई है और शायद होगी भी नहीं क्योंकि उन्हें ख़ूब लिखा जा रहा है. लेकिन हिंदी में अब सिर्फ़ ‘जय श्रीराम’ और ‘वंदे मातरम्’ और ‘मुसलमान का एक ही स्थान, पाकिस्तान या कब्रिस्तान’ जैसी चीज़ें जीवित हैं. इस भाषा में लिखने की मुझे बहुत ग्लानि है. काश, मैं इस भाषा में न जन्मा होता.’
इस वक्तव्य की गहन पीड़ा को न समझा गया और उन पर उनके समकालीनों और युवतर लेखकों की तरफ से हमला बोल दिया गया.
उन्हें प्रेमचंद से लेकर धूमिल तक की याद दिलाई गई और समझाया गया कि हिंदी प्रतिरोध और क्रांति की भाषा है. लेकिन तब तक मंगलेश हिंदी इतना लिख और पढ़ चुके थे कि उन्हें उस भाषा को लेकर शर्मिंदा होने का हक था.
यह हिंदी जो हम आज बोलते और इस्तेमाल करते हैं उसमें कुछ मंगलेश जैसे रचनाकारों का पसीना, कुछ उनके खून भरे आंसुओं की नमी भी है. यह देखकर हैरानी हुई कि खुद को साहित्यिक कहने वालों में भी ज़्यादातर को मंगलेश की वेदना छू न सकी.
मंगलेश ही क्यों, कोई भी कवि, जो इस समाज में बिना उससे असम्पृक्त हुए रहता है, वह समाज की भाषा को लेकर अवज्ञा से अपरिचित नहीं रह सकता:
सड़कों पर बसों में बैठकघरों में इतनी बड़ी भीड़ में कोई नहीं कहता
आज मुझे निराला की कुछ पंक्तियां याद आयीं. कोई नहीं कहता मैंने
नागार्जुन को पढ़ा है. कोई नहीं कहता किस तरह मरे मुक्तिबोध.एक कहता है मैंने कर ली है ख़ूब तरक़्क़ी. एक ख़ुश है कि उसे बस
में मिल गयी है सीट. एक कहता है यह समाज क्यों नहीं मानता
मेरा हुक्म. एक देख चुका है अपना पूरा भविष्य. एक कहता है देखिए
किस तरह बनाता हूं अपना रास्ता.एक कहता है मैं हूं ग़रीब. मेरे पास नहीं है कोई और शब्द.
संभवतः मैं खुद को उनके मित्रों में गिन सकता हूं. परिचय बहुत गाढ़ा न था. कह सकता हूं कि मेरा उनका रिश्ता पाठक और कवि का ही रहा.
हां, प्रत्यक्ष उनसे मुलाकातें और कभी कभी बातें भी हुईं. लेकिन औपचारिकता की खाई को मैं पार न कर सका. सार्वजनिक अवसरों पर ही उनसे भेंट होती रही.
सभा हो या जुलूस, मुझे हमेशा उनमें एक लगभगपन, एक अनिश्चय का एहसास होता था. जैसे वे जो कहने जा रहे हैं, उसके प्रभाव को लेकर आश्वस्त न हों. निराशा नहीं कहेंगे उसे लेकिन आशा का औद्धत्य उनके स्वभाव में न था.
वे जैसे अपने आपको एक सापेक्षिकता में ही देख और जान सकते थे. कुछ-कुछ विजयदेव नारायण साही की तरह अपने कवि कर्म की सीमा लेकिन उसकी अनिवार्यता से वे परिचित थे:
ज़ोरों से नहीं बल्कि
बार-बार कहता था मैं अपनी बात
उसकी पूरी दुर्बलता के साथ
किसी उम्मीद में बतलाता था निराशाएंविश्वास व्यक्त करता था बग़ैर आत्मविश्वास
लिखता और काटता जाता था यह वाक्य
कि चीज़ें अपने सबसे बुरे दौर से गुज़र रही हैंबिखरे काग़ज़ संभालता था
धूल पोंछता था
उलटता-पलटता था कुछ क्रियाओं कोमसलन ऐसा हुआ होता रहा
होना चाहिए था हो सकता था
होता तो क्या होता. (बार-बार मैं कहता था)
निराशा का यथार्थ लेकिन कर्तव्य या करणीय से मुंह मोड़ लेने का बहाना नहीं है:
बहुत कुछ करते हुए भी जब यह लगे कि हम कुछ नहीं कर पाए
तो उसे निराशा कहा जाता है. निराश आदमी को लोग दूर से ही
सलाम करते हैं. अपनी निराशा को हम इस तरह बचाए रखते हैं जैसे
वही सबसे बड़ी ख़ुशी हो.हमारी आंखों के सामने संसार पर धूल जमती
है. चिड़ियां फटे हुए काग़ज़ों की तरह उड़ती दिखती हैं. संगीत भी
हमें उदार नहीं बना पाता.हमें हमेशा कुछ बेसुरा बजता हुआ सुनाई
देता है. रंगों में हमें ख़ून के धब्बे और हत्याओं के बाद के दृश्य दिखते
हैं. शब्द हमारे काबू में नहीं होते और प्रेम मनुष्य मात्र के वश के
बाहर लगता है.निराशा में हम कहते हैं निराशा हमें रोटी दो. हमें दो चार क़दम चलने
की सामर्थ्य दो. (निराशा की कविता)
मंगलेश डबराल उपनिवेश के दर्जे से खुद को आज़ाद करने वाले भारत में पैदा हुए. उनकी तरुणाई को उम्मीद और हौसले की किरणों ने छुआ ही होगा जो उस नेहरू दौर में इंसानियत की बुनियादी अच्छाई पर यकीन की थीं.
जिस हिंदी में उन्होंने कविता लिखना तय किया और अपनी भाषा गढ़ना शुरू किया वह महत्त्वाकांक्षाओं के कई दौर से उनके लिखना शुरू करने तक गुजर चुकी थी.
यह कुछ ताज्जुब नहीं कि उनमें कोई भारी दावे की मुद्रा नहीं जो यह कहती हो कि वह सब कुछ बदल सकती है. वह पूर्ण अस्वीकार भी नहीं है.
रघुवीर सहाय ने ठीक ही उनके संग्रह ‘घर का रास्ता’ की समीक्षा में नोट किया कि उनकी, ‘…कविताएं…अपने ही तरीके से लड़ते हुए आदमी की शक्ल दिखलाती हैं. वह खड़े होने भर की जगह में खड़ा हुआ है और उसके साथ है शायद हल्का-सा कोई रंग या शायद उम्मीद या शायद एक मैदान या अंधेरा. ये ही चीज़ें उसके संघर्ष को …अर्थ देती हैं क्योंकि यही संघर्ष है.’
मंगलेश डबराल उस यातना को जानते थे जो मनुष्य ने मनुष्य को दी है. दुनिया की अलग-अलग भाषाओं से किए गए उनके अनुवाद इस बात के साक्षी हैं. इसीलिए वे उस संघर्ष की कठिनाई से भी परिचित थे जो इस यातना की संस्कृति को खत्म करने का है.
भाषा की सीमा का भी उन्हें पता था क्योंकि वे पक्के गाने के मर्मज्ञ थे. वे वामपंथी थे लेकिन हाल के वर्षों में मैंने उनमें गांधी को लेकर बढ़ते अनुराग को नोट किया.
शायद यह भाव हंगरी के लेखक नेमेथ लास्लो के नाटक ‘गांधी की मृत्यु’ और गांधी पर बाद में हुई एक गोष्ठी के बाद उनकी संक्षिप्त, संकोच भरी टिप्पणी के चलते मेरे मन में कहीं टंका रह गया. और एकाध फोन जो गांधी पर ही लिखा हुआ पढ़कर उन्होंने किया.
साहित्य या कविता जीवन को उसके ‘अनावश्यक’ ब्योरों में पहचानने का उपक्रम है.वह सूत्रीकरण के लोभ से संघर्ष है:
परिभाषाएं एक विकल्प की तरह हमारे पास रहती हैं और जीवन को आसान बनाती चलती हैं. मसलन मनुष्य या बादल की परिभाषाएं याद हों तो मनुष्य को देखने की बहुत ज़रूरत नहीं रहती और आसमान की ओर आंख उठाए बिना काम चल जाता है. संकट और पतन की परिभाषाएं भी इसीलिए बनाई गईं.जब हम किसी विपत्ति का वर्णन करते हैं या यह बतलाना चाहते हैं कि चीज़ें किस हालत में हैं तो कहा जाता है कि शब्दों का अपव्यय है. एक आदमी छड़ी से मेज़ बजाकर कहता है: बंद करो यह पुराण बताओ परिभाषा.
मंगलेश किसी भी सच्चे कवि की तरह ही परिभाषा देने की जगह यह बताने की कोशिश करते रहे कि ‘चीज़ें किस हालत में हैं…’. वे जानते थे कि जिसे अमानवीयता कहा जाता है वह दरअसल मानवीयता का ही संकट है.
क्रूरता, क्षुद्रता, टुच्चापन यह सब कुछ भी कितना हमारी मानवीय अवस्था का ही हिस्सा है!फासिस्ट होना उतना मुश्किल नहीं है जितना लगता है!
मंगलेश डबराल की शारीरिक अनुपस्थिति अब हमें उनकी रचनाओं को बिना किसी छाया के देखने का अवसर देती है. वह जो चाहते थे, उनके पाठक मात्र उस कामना की साझेदारी न करें, कुछ ऐसा करें कि वह कामना कामना भर ही न रहे:
मैं चाहता हूं कि स्पर्श बचा रहे
वह नहीं जो कंधे छीलता हुआ
आततायी की तरह गुज़रता है
बल्कि वह जो एक अनजानी यात्रा के बाद
धरती के किसी छोर पर पहुंचने जैसा होता हैमैं चाहता हूं स्वाद बचा रहे
मिठास और कड़वाहट से दूर
जो चीज़ों को खाता नहीं है
बल्कि उन्हें बचाए रखने की कोशिश का
एक नाम हैएक सरल वाक्य बचाना मेरा उद्देश्य है
मसलन यह कि हम इंसान हैं
मैं चाहता हूं इस वाक्य की सचाई बची रहे
सड़क पर जो नारा सुनाई दे रहा है
वह बचा रहे अपने अर्थ के साथमैं चाहता हूं निराशा बची रहे
जो फिर से एक उम्मीद
पैदा करती है अपने लिएशब्द बचे रहें
जो चिड़ियों की तरह कभी पकड़ में नहीं आते
प्रेम में बचकानापन बचा रहे
कवियों में बची रहे थोड़ी लज्जा.
तो, आइए एक सरल वाक्य हम सब मिलकर लिखने का प्रयास करें. वही होगी कवि के लिए हमारी प्रणति.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)