बंटवारे के बाद हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत हमेशा के लिए बदल गया

आज़ादी के 75 साल: जब सत्ता यह तय करती है कि जनता क्या सुन सकती है, क्या गा सकती है, तब संगीत और संगीतकारों को अपना रास्ता बदलना पड़ता है या ख़त्म हो जाना पड़ता है.

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आज़ादी के 75 साल: जब सत्ता यह तय करती है कि जनता क्या सुन सकती है, क्या गा सकती है, तब संगीत और संगीतकारों को अपना रास्ता बदलना पड़ता है या ख़त्म हो जाना पड़ता है.

Indian Classical Music Tansen Roar Hindi 1
(फोटो साभार: amazonaws.com)

शास्त्रीय संगीत की ख़्याल गायकी के शाम चौरासी घराने के नाम के पीछे एक दिलचस्प कहानी है. पिछली सदी के शुरुआती वर्षों में अविभाजित पंजाब के एक गायक को उसके आश्रयदाता राजा ने इनाम के तौर पर चौरासी गांवों के महसूल (राजस्व) से नवाज़ा था.

इस वाकये के बाद शाम नाम का वह गायक- ‘शाम चौरासी’ नाम से पुकारा जाने लगा और उसकी शैली में गाने वाले, जिसमें उसके परिवार वाले और शागिर्द भी थे (जिनमें हिंदू और मुस्लिम दोनों थे) शाम चौरासी घराने के सदस्य कहलाने लगे.

ये 84 गांव जिस इलाके में हैं, वह आज भारत में पड़ता है. 1947 में इस संगीत परंपरा के ज़्यादातर अनुयायी नक्शे पर खींची गई लकीर को पार करके उस ज़मीन पर बस गए, जिसे आज पाकिस्तान कहा जाता है.

दिल्ली घराना शैली की नुमाइंदगी करने वालों के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. इनमें से कई पाकिस्तान चल गए, तो कुछ ने भारत में ही रहने का फैसला किया.

घरानों के नाम अक्सर किसी जगह के नाम पर रखे जाते हैं. अपने संस्थापक के नाम पर किसी घराने के नामकरण की मिसालें न के बराबर हैं (शाम चौरासी संभवतः इस मायने में भी ख़ास है कि इसमें संस्थापक और जगह, दोनों का नाम जुड़ा हुआ है).

कोई गायक किसी नई और बन रही शैली को मुकम्मल रूप देने वाले के तौर पर याद किया जा सकता है. अन्य गायकों को घराने की गायकी या गायन शैली और इसके खजाने में नए तत्व जोड़ने या पहले से मौजूद तत्वों को नए सिरे से संवारने का श्रेय दिया जा सकता है. लेकिन, किसी शैली का नामकरण उसके जन्म की जगह के आधार पर ही करने का लगभग एक रिवाज सा रहा है.

यह भी दिलचस्प है कि किसी घराने का जगह से बना नाम सालों-साल कायम रहता है. उस सूरत में भी, जब किसी घराने के अनुयायी दूसरे इलाके में चले जाते हैं, या अलग-अलग इलाकों में बिखर जाते हैं.

इसलिए, भारत में आज हम पाते हैं कि कोई घराना अपने जन्म की जगह से उखड़ कर किसी दूसरी जगह पर फल-फूल रहा है. यह सिलसिला कोई आज शुरू नहीं हुआ है. इसकी शुरुआत काफी पहले, 1857 में शाही संरक्षण की परंपरा के ध्वस्त होने के साथ मानी जाती है.

मिसाल के तौर पर अगर जयपुर घराने को लें, तो बड़ी संख्या में इस शैली के गायक आज मुंबई, पुणे, कोल्हापुर, और महाराष्ट्र के दूसरे स्थानों में फैले हुए हैं.

इसी तरह से आज धारवाड़ में किराना घराना के गायक बड़ी तादाद में पाए जाते हैं. नक्शे पर देखें, तो किराना (जिसका उच्चारण कभी-कभी कैराना के तौर पर भी किया जाता है) उत्तर प्रदेश का एक छोटा सा कस्बा है.

यहां यह उल्लेखनीय है कि जगह बदलने के साथ स्थानीय संगीत और भाषाई विशेषताओं के प्रभाव से (घराने की) गायकी की शैली भी कई मायनों में बदलती है.

शाम चौरासी और दिल्ली जैसे घरानों के मामले में जगह और शैली में बदलाव कुछ और भी इशारा करता है. वर्तमान समय में, बात महज़ इतनी नहीं है कि घराना गायक अपनी ज़मीन से दूर आ गए हैं.

https://www.youtube.com/watch?v=Beh1hgQ7kLY&feature=youtu.be

हकीकत ये भी है कि उनके और उनके घराने को नाम देने वाली जगह के बीच एक बड़ी खाई पैदा हो गई है जो किसी मानचित्र पर खींची गई रेखा से कहीं बड़ी और गहरी है. यह खाई सिर्फ दूरी के कारण ही पैदा नहीं हुई है. इसका ताल्लुक कहीं ज़्यादा उन बदली हुई परिस्थितियों से है, जिनमें गायकों को रहना है और उन सामाजिक व्यवस्था से है, जिसके भीतर उन्हें काम करना है.

मुझे याद है, बचपन में मुझे नज़ाकत अली और सलामत अली को सुनने का मौका मिला था. कलात्मकता से लबालब उनकी शानदार गायकी को सुनकर मैं अभिभूत रह गई.

इनकी ठुमरी सुन कर मैं इस सोच में पड़ गई कि सितारा देवी जैसी जिन गायकों को मैंने ठुमरी गाते सुना था, उनकी ठुमरी से ये कितनी अलग थी. निश्चित तौर पर एक स्तर पर यह फर्क ठुमरी के अंग/घराने का था.

एक तरफ सिद्धेश्वरी देवी के बनारस घराने की गायकी का मधुर शैली थी तो दूसरी तरफ अली बंधुओं की ज़्यादा बुलंद शैली थी. लेकिन, मुझे वे चर्चाएं भी याद हैं, जिनमें मेरे अगल-बगल के बड़े लोग इस बात का ज़िक्र कर रहे थे कि किस तरह से अली बंधु भारत में गाने के लिए राग दुर्गा जैसे रागों का चुनाव करते हैं, क्योंकि पाकिस्तान में अपने नाम के हिंदूपन के कारण ये सत्ता द्वारा उतने स्वीकृत नहीं रह गए हैं.

कई सालों के बाद, यह वाक़या मुझे तब याद आया, जब मेरी मुलाकात संगीत के काफी शौकीन और पारखी पाकिस्तानी श्रोताओं से हुई और उन्होंने मुझसे राग दुर्गा सुनाने की फरमाइश की, क्योंकि वे पाकिस्तान में कभी यह राग नहीं सुन पाते थे.

मुझे लगता है कि प्रकट या अप्रकट तरीकों से दिए जाने वाले ऐसे फरमानों ने भारत और पाकिस्तान में संगीत के विकास के रास्ते को प्रभावित किया है. यहां तक कि इसके रास्ते में आने वाले अवरोधों की भरपाई बेहद रचनात्मक ढंग से करने की इनकी क्षमता को भी आकार दिया है.

मिसाल के लिए पाकिस्तान में ‘लोक’ परंपरा को पुनर्जीवित करने और उन्हें सम्मान देने पर ज़ोर रहा है. इसने पठाने खान और रेशमा जैसे कई शानदार गायकों की खोज की और उनकी परंपरा में कई अन्य समकालीन कलाकारों की एक पूरी पीढ़ी तैयार की है.

साथ ही, गज़ल और क़व्वाली को भी काफी अहमियत मिली है, जो आज केंद्रीय भूमिका में हैं. ग़ज़ल और क़व्वाली को (दोनों देशों में) इस्लामिक स्वभाव वाला समझा जा सकता था, क्योंकि वे ऐसे बिंबों और यहां तक कि प्राथमिक तौर पर ऐसी भाषाओं का इस्तेमाल करती हैं, जो अपनी प्रकृति में इस्लामिक नज़र आती हैं (केवल नज़र ही आती है).

गायन के ये सारे रूप शब्द-प्रधान होने के कारण कविता को महत्व देते हैं. इस तथ्य ने इन्हें उन श्रोताओं तक भी पहुंचने में काफी मदद की, जो राग आधारित संगीत की बारीकियों और जटिलताओं को लेकर ज़्यादा सहज महसूस नहीं करते हैं.

उदारहण के लिए, मुझे कभी-कभी यह भी लगता है कि पाकिस्तान में जिस तरह ग़ज़ल का विकास हुआ, क्या उसके पीछे कुछ हद तक इस तथ्य का भी हाथ नहीं रहा कि ख़्याल गायकी की जगह सिकुड़ रही थी! (ऐसा कहने का मतलब ये नहीं है कि गायकों ने ख़्याल गाना बंद कर दिया, न ये कि श्रोताओं ने इसे सुनना और सराहना बंद कर दिया है. बात बस ये है कि ख़्याल को हमेशा वह सरकारी संरक्षण नहीं मिला, जो किसी संगीत-रूप के विकास और फलने-फूलने के लिए ज़रूरी होता है.)

क्या यह कहा जा सकता है कि ख़्याल की तुलना में ग़ज़ल जैसे रूपों को ज़्यादा जगह दिए जाने के कारण इस विधा के पाकिस्तानी गायकों ने अपनी ग़ज़ल गायकी को ऐसे तत्वों से सजाना शुरू कर दिया, जो पहले इसमें नहीं पाए जाते थे?

इन तत्वों ने जटिल तानकारी को शामिल किया (पहले की शैली की तरह सिर्फ मींड, मुरकियां और गाहे-बगाहे सपाट तान नहीं) और ग़ज़ल गायकी के भीतर सरगम के जटिल इस्तेमाल पर ज़ोर दिया.

इससे यह गायकी मुशायरे की साधारण तरन्नुम शैली और तवायफों की ठुमरी-अंग उतार-चढ़ाव की शैली की जगह एक नई विकसित शैली में ढल गई, जिसने अपने भीतर शास्त्रीय/ख़्याल गायकी के तत्वों को शामिल किया और संगीत की एक ऐसी स्वीकार्य परंपरा की ज़रूरत को रेखांकित किया जो ‘क्लासिकल’ के तत्वों को बनाए रखते हुए भी दिक्कत देने वाले इलाकों में दाखिल न होती हो.

इस संदर्भ में, यहां मैं सैयद हुसैन नस्र के लेख, ‘इस्लाम एंड म्यूजिक: द लीगल एंड द स्पिरिचुअल डायमेंशन’ (इस्लाम और संगीत: कानूनी और आध्यात्मिक आयाम) का ज़िक्र करना चाहूंगी, जिसमें वे क़व्वाली और ग़ज़ल जैसे रूपों की इस्लामिक धर्मशास्त्र और हदीथ के भीतर जगह के बारे में बताते हैं.

उनका कहना है कि दोनों मामलों में ऐसे रूपों को स्वीकार्य माना जाएगा. (यह अलग बात है कि कुछ कट्टरपंथी तत्व इससे इत्तेफाक नहीं रखते, जैसा कि हमने पाकिस्तान में एक क़व्वाली गायक की हत्या के रूप में देखा है.)

जब किसी गायन शैली और उसके फनकार को गायकी या गायकी के कुछ पहलुओं के ख़िलाफ़ मौखिक, लिखित या सांकेतिक आदेशों का सामना करना पड़ता है, तब गायक को उस शैली को बचाए रखने और बतौर कलाकार अपने जीवन को जारी रखने के लिए उन पहलुओं में बदलाव लाना पड़ता है.

इसलिए भारत में जब किसी समय में ठुमरी की यह कहकर आलोचना की गई कि यह एक कमतर रूप है या इसे तवायफों की परंपरा से जोड़ कर, बेहद कामोत्तेजक और ज़रूरत से ज़्यादा असहज दृश्यों, नाटकीय और अति-नाटकीय प्रभावों से भरा हुआ क़रार देकर इसकी और भी तीखी आलोचना की गई, तब इस शैली को अपनी शब्दावली में बदलाव लाना पड़ा.

इसके रोमांटिक गीतों की व्याख्या मनुष्य की आत्मा को ईश्वर से एकाकार करने की आध्यात्मिक तड़प के रूपक के तौर पर की गई. इस रूप को संगीत के हिसाब से ज़्यादा स्वीकार्य बनाया गया.

इस तरह ताल के आवर्तन की रफ्तार घटा दी गई और इसके विस्तार में ख़्याल से मिलते-जुलते तत्व को जोड़ा गया, जिसने इसे ज़्यादा व्यापक, मधुर, कम तेज़ और जिंदादिल प्रस्तुति का रूप दिया.

फिर इस शैली से जुड़े अदायगी, नखरा और नृत्य जैसे तत्वों को इससे बाहर निकाल दिया गया. इसी तरह नृत्य के ज़रिये ताल और थिरकन का खेल माने जाने वाले लग्गी वाले हिस्से को तानकारी और कला प्रवीणता का अभ्यास समझा जाने लगा.

सरहद के उस पार पाकिस्तान में गायकों ने ग़ज़ल और क़व्वाली जैसे स्वीकृत रूपों में ख़्याल और दूसरी विधाओं के तत्वों मिलाया, जिनके लिए स्वीकृति पाना कठिन साबित हो रहा था.

पाकिस्तान के कोक स्टूडियो द्वारा परंपरागत शैलियों (मुख्य तौर पर लोक और सूफी से प्रभावित शैलियों, मगर साथ ही ख़्याल बंदिशों को भी) को आधुनिक ध्वनियों और अरेंजमेंट्स के साथ मिलाने को इसका एक और उदाहरण कहा जा सकता है.

कोक स्टूडियो की शैली का निर्माण एक तरह से फनकारों का अपने संगीत की प्रस्तुति के रास्ते में आने वाली रुकावटों को दूर करने की एक कोशिश जैसी है, जिसने एक पॉपुलर स्टाइल के लिए श्रोताओं के एक अलग ही वर्ग का निर्माण किया है, जो इस स्टाइल के अलग-अलग टुकड़ों के श्रोताओं से काफी अलग है.

इसने परंपराओं और जड़ों को पहचानने की बेहद शिद्दत के साथ महसूस की जा रही ज़रूरत को पूरा किया है और वह भी इस तरह से, जिसे नई पीढ़ी द्वारा पसंद और स्वीकार किया गया.

जब ऊपर बैठी हुई सत्ता यह तय करती है कि जनता क्या सुन सकती है, क्या गा सकती है, जब संगीत की पसंद राजनीतिक विचार से निर्धारित होती है, तब संगीत और संगीतकारों को अपना रास्ता बदलना पड़ता है या समाप्त हो जाना पड़ता है.

कुछ ख़ास शैलियां, विधाएं और बंदिशें श्रोताओं की कमी और उससे भी बदतर, धारा के ख़िलाफ़ जाने की पीड़ा के कारण कम से कम सार्वजनिक प्रस्तुति की चीज़ नहीं रह जातीं.

श्रोताओं की कमी के कारण पैगंबर या पंज-ए-तान से संबंधित कई बंदिशें आज भारत में इस्तेमाल से बाहर हो गई हैं. वैसे एक तसल्ली देने वाली बात ये है कि वे विलुप्त नहीं हुई हैं.

कुछ खास शैलियों, रागों और बंदिशों और यहां तक कि नामों पर लगी पाबंदी के कारण, पाकिस्तानी संगीतकारों को अपनी तकनीकों और गायकी को स्वीकृत समझी जाने वाली शैलियों और स्थानों के हिसाब से ढालना पड़ा.

लेकिन, तथ्य यह भी है कि ऐसे ही समयों में, पाबंदियों का सामना करते हुए भारत और पाकिस्तान, दोनों ही देशों के गायकों ने इस थोपे गए (बाहर से या ख़ुद ही) मौन के भीतर से अपनी कला और विरासत को जीवित रखने का रचनात्मक रास्ता निकाल लिया है.

(विद्या राव ठुमरी गायिका और लेखिका हैं.)

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