कुंभ 2021: क्या नेताओं के लिए ग्रहों की चाल आम ज़िंदगियों से ज़्यादा महत्वपूर्ण है

अमूमन कुंभ मेला हर बारह साल पर लगता है, लेकिन इस बार हरिद्वार में हुआ कुंभ पिछली बार हुए आयोजन के ग्यारह साल बाद हुआ क्योंकि केंद्र और राज्य सरकार के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य का ध्यान रखने से कहीं अधिक ज़रूरी ज्योतिषियों को ख़ुश रखना था.

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हरिद्वार कुंभ 2021 के दौरान निकला नागा साधुओं का जत्था. (फोटो: रॉयटर्स)

अमूमन कुंभ मेला हर बारह साल पर लगता है, लेकिन इस बार हरिद्वार में हुआ कुंभ पिछली बार हुए आयोजन के ग्यारह साल बाद हुआ क्योंकि केंद्र और राज्य सरकार के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य का ध्यान रखने से कहीं अधिक ज़रूरी ज्योतिषियों को ख़ुश रखना था.

हरिद्वार कुंभ 2021 के दौरान निकला नागा साधुओं का जत्था. (फोटो: रॉयटर्स)
हरिद्वार कुंभ 2021 के दौरान निकला नागा साधुओं का जत्था. (फोटो: रॉयटर्स)

कुंभ मेला हर बारह साल पर होता है. हरिद्वार का पिछला कुंभ 2010 में हुआ था. हरिद्वार के वर्तमान कुंभ मेले की वास्तविक तारीख 2022 थी, 2021 नहीं. फिर इसकी तारीख को पूरे एक साल घटाकर इसका आयोजन उस जानलेवा साल में क्यों हुआ, जब भारत में कोविड की दूसरी लहर की आशंका जताई जा रही थी, और जब महामारियों के अध्ययन हमें बताते हैं कि संक्रमणों की दूसरी लहर हमेशा पहली लहर से कहीं ज्यादा खतरनाक होती है. आइए मैं आपको इसकी वजह बताता हूं.

इसकी तारीख को पूरे एक साल पहले खिसकाकर इसका आयोजन 2021 में इसलिए किया गया क्योंकि रवि के मेष राशि (Aries) में प्रवेश और बृहस्पति के कुंभ राशि (Aquarious) में प्रवेश करने का ज्योतिषीय योग इस बार 2021 में था.

ऐसा हर 83 वर्षों में एक बार होता है. और यह ज्योतिषीय पंचांग को कैलेंडर के सालों के साथ समायोजित की जरूरत के कारण होता है. इस समायोजन का गणितीय रहस्य मेरी क्षमता से बाहर की चीज है और मेरी सलाह है कि अगर आप सिरदर्द मोल नहीं लेना चाहते, तो आप भी इसकी कोशिश मत कीजिए.

इसलिए, भारत सरकार और उत्तराखंड की सरकार ने कुंभ मेले को स्थगित नहीं किया, जो वे आसानी से कर सकते थे और इस तरह से कोविड-19 के हिसाब से एक सुपरस्प्रेडर इवेंट न कराकर लाखों-करोड़ों लोगों की जिंदगी को खतरे में डालने से रोक सकते थे.

वे इसे इस साल सिर्फ इसलिए भी नहीं होने दे सकते थे क्योंकि यह हरिद्वार में आयोजित पिछले कुंभ मेले के बाद 11वां साल ही था, न कि 12वां साल. वे इस समय का इस्तेमाल ऐसी स्थितियों का निर्माण करने के लिए कर सकते थे, जिसमें संभवतः 2022 में कुंभ जैसे आयोजन का कोई औचित्य होता.

लेकिन उन्होंने जो किया वह बेहद खराब था. अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के साथ राय-मशविरा करके उन्होंने तारीख को 2022 से पहले खिसकाकर 2021 करा दिया- जबकि उन्हें वैश्विक महामारी के खतरों के बारे में भली-भांति पता था.

ऐसा उन्होंने सिर्फ इसलिए किया क्योंकि ज्योतिषीय गणना ने उन्हें ऐसा करने के लिए कहा. क्योंकि, आपको पता है कि आस्था वह प्यारी चीज है जिसके नाम पर सुप्रीम कोर्ट एक आपराधिक कृत्य को एक निर्माण योजना से पुरस्कृत करता है. और यही वह चीज है जिसके नाम पर भारत सरकार और उत्तराखंड की सरकार के लिए बड़े पैमाने पर लोगों की जिंदगियों को खतरे में डालना अनिवार्य हो गया.

संक्रमण का इतिहास

कुंभ मेले के संक्रमण के प्रसार का स्थान होने की जानकारी ऐतिहासिक दस्तावेजों में मिलती है. भारत की सरकारों ने कभी-कभी कुंभ जैसे आयोजन से जुड़ी भीषण सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्याओं का प्रबंधन सक्षम और संवेदनशील तरीके से करने में कामयाबी हासिल की है.

2013 का कुंभ मेला, जिसे इतिहास में इंसानों इस तरह का सबसे बड़ा जमावड़ा कहा गया, बगैर किसी बुरी खबर के संपन्न हो गया. इसका प्रमाण महामारी संबंधी मसलों के साथ-साथ आपदाओं और दुर्घनाओं की पूर्व तैयारी को लेकर हार्वर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ द्वारा कराए गए गहन अध्ययन से मिलता है. लेकिन तथ्य यह है कि उस समय कोई महामारी नहीं फैली हुई थी.

ऐसे में जबकि कोविड साल 2020 से ही फैल रहा था, यह अनुमान लगाने के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य में पीएचडी होने की जरूरत नहीं है कि कुंभ मेले के शाही स्नान जैसे मौके संक्रमण की दूसरी लहर के संभावित अधिकेंद्र हो सकते हैं. और इस बात की पूरी संभावना है है कि कुंभ के भीतर के हालातों के मद्देनजर इससे रोग की सुनामी आ सकती है. पिछले कुछ दिनों में ठीक यही हुआ है.

भारत में, और स्पष्ट कहें,  तो विश्व में हर कोई अब दिल्ली और देहरादून में बैठे हुए कुछ अज्ञानी लोगों के मूर्खतापूर्ण फैसलों के चलते खतरे में है. जो हुआ और जिसके कारण नरेंद्र मोदी को काफी देर से और अधूरे मन से कुंभ को ‘सांकेतिक’ रखने की सलाह देने की नौबत आ गई, उसमें हैरान होने जैसा कुछ नहीं है.

चिन्मय तुम्बे की हालिया किताब, द एज ऑफ पैनडेमिक्स: हाऊ दे शेप्ड इंडिया एंड द वर्ल्ड’ में महामारियों और विभिन्न कुंभ मेलों पर एक अलग से चर्चा शामिल है. डेविड अर्नाल्ड का 1986 का लेख, ‘हैजा एंड कोलोनियलिज्म इन ब्रिटिश इंडिया’ और कामा मैक्लीन की 2008 में आई किताब ‘पिलग्रिमेज एंड पावर: कुंभ मेला इन इलाहाबाद, 1765-1954’ भी उपयोगी है.

कुंभ मेला और रोग के इतिहास का सालों से अच्छी तरह दस्तावेजीकरण हुआ है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के हैजा पर एक मोनोग्राफ में कुंभ पर एक खंड है. यहां तक कि 1895 के इंडियन मेडिकल गजट में नैचुरल हिस्ट्री ऑफ हरिद्वार हैजा आउटब्रेक्स पर एक लेख भी है.

काफी हाल में 2015 में क्लीनिकल माइक्रोबायोलॉजी एंड इनफेक्शन में कुंभ मेला: आइडेंटिफाइंग रिस्क्स फॉर स्प्रेड ऑफ इंफेक्शियस डिजीजेज’ शीर्षक से एक पेपर प्रकाशित हुआ है.

तो क्या यह प्रधानमंत्री और उनके सलाहकर्ताओं का अज्ञान था, जो उन्हें इस खतरनाक रास्ते पर ले गया? या यह खतरों को जानते हुए भी जानबूझकर लिया गया एक सुविचारित राजनीतिक फैसला था?

सरकार को खतरों की थी जानकारी

सार्वजनिक स्वास्थ्य के खतरों की जानकारी उत्तराखंड सरकार को नहीं थी, ऐसा नहीं है. पिछले एक साल के दौरान उत्तराखंड सरकार कुंभ मेले के आयोजन और इसके आयोजन के तरीके को लेकर पसोपेश में थी.

जुलाई, 2020 में उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत (भाजपा) ने अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद को यह आश्वासन दिया कि हरिद्वार में कुंभ मेला हमेशा की तरह आयोजित किया जाएगा- हालांकि वे भविष्य का अनुमान लगाने और इस तरह से ऐसा आश्वासन देने की स्थिति में नहीं थे.

पीटीआई की रिपोर्ट में उनके हवाले से कहा गया, ‘लेकिन परंपरागत रूप से इसका आयोजन जिस तरह से होता आया है, उसमें उस समय कोरोना वायरस की स्थिति को देखते हुए कुछ बदलाव किया जा सकता है.

सितंबर, 2020 में त्रिवेंद्र सिंह रावत ने कहा कि लोगों की उपस्थिति प्रतिबंध के अधीन रहेगी. दिसंबर, 2020 में अखाड़ा परिषद के संतों ने कुंभ मेले के आयोजन की तैयारी की स्थिति को लेकर अपना ‘असंतोष’ प्रकट किया.

मुमकिन है कि उत्तराखंड की सरकार उस रास्ते पर बढ़ने को लेकर इच्छुक नहीं थी, जिसे आखिरकार एक आपदा के निमंत्रण के तौर पर देखा जा रहा है और वह तैयारी न होने का इस्तेमाल अंतिम समय पर आयोजन से कदम पीछे खींचने के वैध कारण के तौर पर कर रही थी. लेकिन दूसरी तरफ परिषद अपने दम पर कुंभ मेले का आयोजन करने की धमकी दे रही थी.

9 मार्च, 2021 को त्रिवेंद्र सिंह रावत ने इस्तीफा दे दिया और उनकी जगह मुख्यमंत्री बनने वाले तीरथ सिंह रावत ने तुरंत यह ऐलान कर दिया कि तीर्थयात्रियों पर किसी तरह की कोई रोक-टोक नहीं होगी और मां गंगा के आशीर्वाद से रोग पर आस्था की विजय होगी.

इस्तीफा देने के बाद त्रिवेंद्र सिंह रावत ने कुंभ मेला पर प्रतिबंधों को लेकर यू-टर्न पर अपनी चिंताएं प्रकट कीं. हिंदुस्तान टाइम्स ने उनके हवाले से कहा, ‘भारत में कोविड के बढ़ते मामलों को देखते हुए, महाकुंभ जैसे बड़े धार्मिक मेले के आयोजन को लेकर अतिरिक्त सचेत रहने की जरूरत है.’

इससे ऐसा आभास होता है कि उनकी बरखास्तगी के पीछे एक कारण संभवतः कुंभ मेले के आयोजन को लेकर भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व और उत्तराखंड भाजपा के गुटों के साथ उनके मतभेद का हाथ रहा हो.

अप्रैल में, जब मेला शुरू हुआ तब केंद्र के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की तरफ से मिले-जुले संदेश आए. 6 अप्रैल को सरकार की पसंदीदा न्यूज एजेंसी एएनआई की एक रिपोर्ट आई जिसमें कहा गया था कि एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने कुंभ मेले के एक ‘सुपर स्प्रेडर इवेंट’ में तब्दील हो जाने के खतरे को लेकर चिंता प्रकट की है. इस रिपोर्ट को थोड़े-बहुत बदलाव के साथ कई पोर्टल और पत्रिकाओं द्वारा प्रकाशित किया गया, जिनमें इंडिया टुडे भी शामिल था.

हालांकि, उसी दिन स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने ट्वीट करके इंडिया टुडे की रिपोर्ट को ‘फेक न्यूज’ करार दिया. यह खंडन काफी संक्षिप्त था और इसमें यह तक नहीं कहा गया था कि क्या यह सरकारी अधिकारी की बात को गलत तरीके से पेश करने का मामला है.

इसने यह दिखाया कि भारत सरकार कुंभ मेले के एक गंभीर स्वास्थ्य इमरजेंसी में तब्दील होने की संभावना को नकारने में लगी हुई थी और इसके लिए यह एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी के बयान का खंडन करने की हद तक जा सकती है.

राजनीतिक जिम्मेदारी

चीनी सरकार कोविड-19 महामारी के शुरुआती दौर में वास्तविक आंकड़ों को एक हद तक कम करके बताने के लिए जिम्मेदार हो सकती है, लेकिन उन्होंने इस पर काबू पाने के लिए कदम उठाए और निश्चित तौर पर उन्होंने इसे और फैलाने वाला कोई काम तो नहीं किया.

लेकिन भारत में सत्ता पर काबिज निजाम ने ऐसे कदम उठाए, जो इस संक्रमण में भारी बढ़ोतरी की वजह बने. इनसे निश्चित तौर पर बचा जा सकता था. और चीनी सरकार के विपरीत इस बार भारत सरकार इस बहाने की आड़ में भी नहीं छिप सकती थी कि उसे इस महामारी के फैलने के बारे में जानकारी नहीं थी.

इसके पास दूसरी लहर के आगमन का पता लगाने के लिए जरूरी सभी प्रकार के संसाधन थे, लेकिन इसने कुंभ मेले को होने देकर- एक ऐसे साल में जब इस मेले के आयोजन को वास्तव में टाला जा सकता था- सक्रिय तरीके से दूसरी लहर के लिए स्थितियां तैयार करने वाले कदम उठाए.

यह तथ्य कि सरकारी एजेंसियां और इकाइयां अलग-अलग मकसदों से काम कर रही हैं और विरोधाभासी संदेश भेज रही हैं, काफी बुरा है (जैसे कि प्रधानमंत्री ने एक तरफ तो खुद काफी लेटततीफ तरीके से बचे हुए कुंभ मेले में सांकेतिक भागीदारी की अपील की, वहीं साथ ही साथ बंगाल में बड़ी संख्या में रैली में आने और वोट करने का आह्वान करते रहे).

इससे भी ज्यादा खराब है जिस समय जो काम करने जरूरत हो, उस समय कुछ भी न करके हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना या जब कुछ भी करने की जरूरत न हो तब आसमान को सिर पर उठा लेना या आंकड़ों की हेराफेरी करना और सफेद झूठ बोलना (जैसे, पिछले कुछ दिनों में उत्तर प्रदेश में मृत्यु दर के बारे में). इससे ज्यादा क्या कहा जाए कि भारत सरकार और उत्तराखंड सरकार ने एक बड़ी मुसीबत खड़ी कर दी है.

लेकिन वे क्या कर सकते थे या क्या नहीं कर सकते थे, या 12 साल के सामान्य चक्र से हटकर हुए आखिरी कुंभ को 83 साल बीते हैं या नहीं, इस तथ्य से परे जाकर देखें, तो वास्तव में कुंभ की तारीख को एक सवाल पीछे खिसकाने का कोई औचित्य नहीं था.

और यह सब तब हुआ जब कोविड टीकाकरण कार्यक्रम अभी बस शुरू ही हुआ था. काफी बड़े पैमाने की जन भागीदारी वाले कुंभ मेले जैसे आयोजन को इस साल कराने को कोई किसी भी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता है.

यही बात चुनावों पर भी लागू होती है, जिसे एक रीढ़ और दिमाग रखने वाला चुनाव आयोग आसानी से स्थगित करने की सिफारिश कर सकता था. या कुछ नहीं तो बड़े जमावड़ों और रैलियों को प्रतिबंधित कर सकता था. लेकिन ऐसा नहीं होना था.

सार्वजनिक स्वास्थ्य के ऊपर ज्योतिष को तरजीह क्यों दी गई?

क्या पहले भी कभी कुंभ मेलों को एक साल पहले खिसकाया गया है? हां, ऐसा हुआ है, 1938 और 1855 में, जब इसी तरह की राशियों का योग हुआ था. लेकिन क्या हम आज 1938 या 1855 में रह रहे हैं? क्या 1938 के दौरान कोई वायरसजन्य महामारी फैली हुई थी?

वास्तव में 1855 में हैजा महामारी फैल रही थी और उस साल के कुंभ मेले ने उसे बड़े पैमाने पर बढ़ाने का काम किया. यह बात लोग उस समय भी जानते थे, हालांकि महामारियों को लेकर उनकी जानकारी आज की तुलना में काफी कम थी.

1844 में हरिद्वार का कुंभ मेला. (कृति: J.M.W. Turner, साभार: विकीमीडिया)
1844 में हरिद्वार का कुंभ मेला. (कृति: J.M.W. Turner, साभार: विकीमीडिया)

इंस्तांबुल में हुए 1866 के इंटरनेशनल सैनिटरी कंवेंशन में खासतौर पर कुंभ मेले के केंद्र से बीमारी के फैलने संबंधी रपटों का अवलोकन किया गया था. इसमें इस बात पर अंतरराष्ट्रीय सहमति बनी कि गंगा के किनारे स्थित तीर्थ स्थल हैजा के प्रसार का अधिकेंद्र बना और यहां से वह पहले मक्का, फिर मिस्र, फिर यूरोप में भूमध्य सागर सागर तटीय पत्तनों से होता हुआ यूरोप के प्रमुख शहरों तक पहुंचा.

1866 की फरवरी और सितंबर के बीच तत्कालीन ऑटोमन साम्राज्य की राजधानी कस्तुनतूनिया/इंस्तांबुल में सात महीने तक हुए इंटरनेशनल सैनिट्री कॉन्फ्रेंस के अभिलेखों में यह तथ्य बाकायदा दर्ज है.

2021 में जब हम 1938 और 1855 की तुलना में रोग के बारे में कहीं ज्यादा जानते हैं, एक तार्किक, समझदार सरकार मान-मनौव्वल की अपनी सभी शक्ति का इस्तेमाल स्वयंभू साधुओं के एक समूह को यह समझाने के लिए करती कि सिर्फ इस साल, वे ज्योतिषीय गणना को भूल जाएं और कैलेंडर के अनुसार 12 सालों अंतर पर कुंभ के आयोजन के लिए तैयार हो जाएं.

क्या यह एक ऐसी महत्वपूर्ण घटना नहीं थी जहां एक सामान्य तर्क और आस्था के बीच एक तार्किक और समझदारी भरा संवाद होना चाहिए था, जो लोगों की जिंदगी बचाने में मदद कर सकता था?

शायद यह देखते हुए भी कि भारत के सभी ज्योतिष मिलकर भी अपने शास्त्र के आधार पर यह बताने में नाकाम रहे कि इस तरह की महामारी कैसे और क्यों और इस समय क्यों फैली?

तर्क का दामन थामकर ज्योतिष को थोड़े देर के लिए पीछे रखा जा सकता था, खासकर तब मामला एक बड़े नीतिगत फैसले का था कि सरकार एक सुपर स्प्रेडर इवेंट को अपना समर्थन दे कि नहीं?

1942: जब युद्ध के कारण प्रतिबंधों के बीच हुआ कुंभ

अंत में, क्या सरकारी एजेंसियों ने इससे पहले कभी भी कुंभ मेले के आयोजन पर प्रतिबंध लगाया था? क्या ऐसी कोई नजीर है, जब यह कहा गया था कि ‘इसे इस साल नहीं करते हैं’? हां, ऐसी नजीर है.

भारत सरकार ने साल 1942 में इलाहाबाद में हुए कुंभ को बड़े स्तर पर करने के लिए कोई इंतजाम नहीं किया. कुंभ के दौरान या उससे ठीक पहले की तारीख के लिए इलाहाबाद के लिए रेलवे टिकट की बिक्री नहीं की गई. इसने अपने आप इलाहाबाद तक यात्रा करने वाले तीर्थयात्रियों की संख्या को सीमित कर दिया.

ऐसा जापानी एयरफोर्स द्वारा बम हमले की संभावना बताते हुए किया गया था- क्योंकि जापान सितंबर, 1940 में द्वितीय विश्वयुद्ध में शामिल हो गया था. इसके अलावा मेले में उमड़ने वाली भीड़ के रहने के लिए कोई व्यवस्था नहीं की गई थी.

1942 के कुंभ मेले में काफी कम लोग शामिल हुए. उस साल सरकार द्वारा कुंभ मेले के आयोजन से हाथ पीछे खींचने को लेकर किसी अखाड़े द्वारा बड़ा विरोध नहीं किया गया. सभी पक्षों ने यह समझा कि परिस्थितियों के चलते ऐसा करना पड़ रहा है.

इस बार ट्रेनों को रद्द करने की जगह भारतीय रेल ने हरिद्वार के कुंभ मेले में तीर्थ यात्रियों को लेकर जाने के लिए विशेष ट्रेनों का परिचालन किया और सरकार ने अखबारों, रेडियो और टीवी पर विज्ञापन देकर बड़ी संख्या में लोगों को कुंभ में जमा होने के लिए आमंत्रित किया.

‘मृत्यु निश्चित है, लेकिन परंपराओं को बंद नहीं किया जा सकता’

सिर्फ इन ट्रेनों को न चलाने और इस आयोजन का ज्यादा प्रचार-प्रसार न करने से भी काफी फर्क पड़ सकता था. लेकिन नहीं. ऐसा कैसे हो सकता था?

आखिर चुनाव भी जीते जाने हैं, और हमेशा की तरह साधु-संतों का समर्थन इसके लिए अहम माना जाता है. साथ ही एक ऐसा आयोजन ठेकों और विज्ञापन से पैसे बनाने का भी मौका होता है, भले यह आयोजन लाखों-करोड़ों लोगों को रोग के गिरफ्त में ले ले. और उन्हें पता था कि वे क्या कर रहे हैं? यहां तक कि साधु-संतों को भी क्या चल रहा है, इसकी पूरी जानकारी थी.

जूना अखाड़ा के महंत नारायण गिरि ने 17 अप्रैल, 2021 को यह ऐलान करते हुए कि वे और उनके अनुयायी साधु-संत कुंभ मेले को समय से पहले खत्म करने के लिए तैयार नहीं हैं, कहा, ‘मृत्यु निश्चित है, लेकिन हमें हर हाल में अपनी परंपराओं को बचाए रखना होगा.’

कम समझ रखने वाला भी कोई व्यक्ति यह सवाल पूछेगा कि मौत को ऐसे खुली दावत दिए जाने की हर मंच से आलोचना क्यों नहीं हो रही है? खासकर तब जब इससे काफी कम कहने पर तबलीगी जमात की जमकर मलामत की गई थी. सच्चे ‘सनातनी’ दिमाग वाले इसका जवाब जानते होंगे.

कुंभ मेले के दौरान 11 अप्रैल 2021 को हर की पौड़ी घाट. (फोटो: पीटीआई)
कुंभ मेले के दौरान 11 अप्रैल 2021 को हर की पौड़ी घाट. (फोटो: पीटीआई)

अच्छे हिंदू, कर्मों और पुनर्जन्म के सिद्धांत के बल पर जीवन के खेल में एक से ज्यादा मौके पाते हैं. मृत्यु अवश्यंभावी हो सकती है, लेकिन साधुओं के लिए, जैसे कि जूना अखाड़ा के साधुओं के लिए, यह ऐसी चीज नहीं है, जिसे पलटा न जा सके. आपकी आज मृत्यु हो सकती है लेकिन नरेंद्र मोदी को वोट देकर आप जो पुण्य कमाएंगे, वह कल निश्चित तौर पर आपको वापस ले आएगा. इसलिए अगर आप ज्यादा पुण्य कमाना चाहते हैं, तो कुंभ के पानी थोड़ी ज्यादा देर तक डुबकी लगाइए.

आप जीते हैं, आप मरते हैं, आप जीते हैं आप एक संक्रमण को फैलाते हैं, आप कुछ और लोगों की मृत्यु का कारण बनते हैं, आप मरते हैं, आप जीते हैं, मरते हैं और यह चक्र चलता रहता है.

हम में से कुछ लोग इतने भाग्यशाली नहीं हैं, क्योंकि हमारे आस्था के अनुसार या कहें हमारी अनास्था के अनुसार हमें बस एक जीवन मिलता है. इसलिए हम हमें दिए गए जीवन को ज्यादा से ज्यादा लंबा करने की कोशिश करते हैं.

हम मास्क पहनकर, भीड़-भाड़ वाली जगहों से बचकर, जितना संभव हो सके जीवन हरने वाले इस रोग के विषाणुओं, धार्मिकता और सरकारी व्यवस्था से, जो जीवन और मृत्यु को इतने हल्के में लेती है, सोशल डिस्टेंसिंग बनाए रखकर अपने जीवन और दूसरों के जीवन को संजोए रखने की कोशिश करते हैं.

लेकिन ये लोग, मेरे प्यारे भारतीयों, हिंदुओं, आपके नेता हैं और आपके संत हैं. वे आपका आइना हैं और अंतिम इच्छा भी. उन्हें अच्छी तरह से देखिए, क्योंकि वे आपकी तरफ नहीं देख रहे हैं.

वो सितारे, जो कहीं ऊपर स्वर्ग में तटस्थ बैठे हैं, उन्हें आप पर हंसने की जरूरत महसूस नहीं होती है. सच्चाई यह है कि आप उनके बारे में जो भी सोचो, उन्हें आपसे कोई मतलब नहीं है.

मेरी शुभकामनाएं आपके साथ हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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