मां, इस अभागे देश को रूप दो, रूप की संवेदना दो…

द्वेष का संहार करो, मां. द्वेष करने वालों का भी. ऐसे कि वे द्वेष न कर पाएं! द्वेष से मैं ख़ुद विकृत होता हूं, दूसरों को भी विकृत करता हूं. द्वेष के बिना क्या जीवन नहीं चल सकता? द्वेष हो तो रूप का निर्माण कैसे हो! लेकिन द्वेष कितना मानवीय है न! इस मानवीय न्यूनता से मुक्त करो. मुझे, मेरे लोगों को, मेरे देश को, इस पृथ्वी को...

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Allahabad: Hindu devotees carry an idol of Goddess Durga for immersion in a pond near Ganges River, at the end of Navratri festival in Allahabad, Friday, October 19, 2018. (PTI Photo) (PTI10_19_2018_000139B)
(फोटो: पीटीआई)

द्वेष का संहार करो, मां. द्वेष करने वालों का भी. ऐसे कि वे द्वेष न कर पाएं! द्वेष से मैं ख़ुद विकृत होता हूं, दूसरों को भी विकृत करता हूं. द्वेष के बिना क्या जीवन नहीं चल सकता? द्वेष हो तो रूप का निर्माण कैसे हो! लेकिन द्वेष कितना मानवीय है न! इस मानवीय न्यूनता से मुक्त करो. मुझे, मेरे लोगों को, मेरे देश को, इस पृथ्वी को…

Allahabad: Hindu devotees carry an idol of Goddess Durga for immersion in a pond near Ganges River, at the end of Navratri festival in Allahabad, Friday, October 19, 2018. (PTI Photo) (PTI10_19_2018_000139B)
(फोटो: पीटीआई)

‘रूपं देहि, जयं देहि, यशो देहि, द्विषो जहि’, सुबह से जाने क्यों कान में बज रहा है. नवमी की प्रातः वेला है. नवमी नहीं, महानवमी! नवमी तो आती ही रहती है. किंतु यह तो है महानवमी. वर्ष में एक ही बार तो इसे आना है. क्या यह मामूली नवमी है?

जयपुर के गांधीनगर स्टेशन पर डबलडेकर की प्रतीक्षा करते हुए मन देवघर की तरफ मुड़ जाता है. नवमी की प्रतीक्षा की स्मृति की तरफ. जवाफूल, ढाक ध्वनि, धूप की गंध और उसके धूम्र में कड़वाती आंखें. आंखें जो दुर्गा की प्रतिमा को एक नज़र देखने को धुएं के पर्दे को चीर देना चाहती हैं. इस बार की तो, इस साल की तो आखिरी देखादेखी है! फिर तो मां की विदाई की तैयारी जो होनी है. एक बार जी भरकर देख लें.

मां! यानी बेटी. दुर्गा, भगवती! जाने कितने नाम हैं. जितने नाम उतने रूप. आप क्या दिगंबरा के रूप की ताव लगा सकते हैं! आख़िर हैं तो वे मेना की पुत्री ही न! एक औघड़ से जी लगा बैठीं और अब मां-बाप का महल छोड़ गांजा-धतूरा में मस्त उस दरिद्र की झोंपड़ी में झाड़ू लगाती हैं. मेना का कलेजा टूक-टूक हो जाता है इसके बारे में सोच-सोचकर. लेकिन बेटी इतनी निष्ठुर है! आती तो है मायके लेकिन जाने को तत्पर.

हिमालय ठहरे हिमालय, पिता, पुरुष. आंख से आंसू निकलें तो कैसे. सो, उनके हिस्से का दुख भी मेना को झेलना है. उसका बयान भी उसे ही करना है.

अभी तो आई ही थी, अभी कहां कुछ क़ायदे का खिला-पिला सकी थी कि जाने की घंटी बज गई. ये तो गणेश और कार्तिकेय हैं, इनके लिए भी ढंग का अंगा-वस्त्र इंतज़ाम कर पाती! वह भी न हुआ.

ट्रेन घूम रही है. सूरज जो अभी अरावली की पहाड़ियों के पीछे से मुंह निकालकर ताक रहा था. कितना बड़ा, चमकीला, कितना नज़दीक. अब आसमान में चढ़ गया है. प्रखर किसे कहते हैं यह अभी उसकी किरणों की चुभन से समझ में आया. ट्रेन समय में आगे जा रही है, मन पीछे ठहर गया है.

दुर्गा के पंडाल. हर पंडाल की दुर्गा को भिन्न होना है. एक दूसरे की अनुकृति नहीं हो सकती. कौन कलाकार किस पंडाल में प्रतिमा गढ़ता है, यह पूरे शहर को पता है. भीतरपड़ा की देवी और भीतरखंड की देवी क्या एक ही हैं! अलग हैं लेकिन हैं तो देवी ही. दुर्गा की आंखों का विन्यास विशेष चर्चा का विषय होता है. कान तक खिंची हुए हुईं. वात्सल्य है, प्रेम है, या क्रोध है? आंखों में क्या है?

इसी मां से, जगत्धात्री से रूप की मांग है. मांग है जय की. यश की. लेकिन यहां बस नहीं है. द्विष का नाश भी चाहिए.

रूप क्या है, सोचता हूं. रूप से ही तो पहचान है. तो रूप किसका? जो बाहरी आंखों को दीखे, क्या उतना ही? एक रूप तो मन का भी है न? रूप क्या बिना छंद के संभव है! प्रत्येक रूप का छंद है, उसकी लय है. लय भंग, छंद का टूट जाना, यानी रूप का विरूप हो जाना. रूप क्या मात्र शिल्पकार गढ़ता है?

गायक को सुनो, सुनो उस वीणावादिनी को, वे रूप ही तो गढ़ रही हैं. गाते-गाते, बजाते हुए जो आनंद से उनकी आंखें मुंदी जाती हैं, वह अपने सिरजे रूप का दर्शन करके ही तो. लेखक भी शब्दों से रूप गढ़ता है जैसे कुम्हार के चाक से रूप ही रूप निकलते जाते हैं.

यह संसार आख़िर रूप का ही व्यापार है. रूप चाहिए, रूप की स्वीकृति चाहिए. नाक-नक़्श कुछ भी हों, होंठ तीखे हों या भरे भरे, आंखें दीर्घ हों या सूक्ष्म, चिबुक गोल हो या खिंचा हुआ, किसी को बदशक्ल कहना इस सृष्टि का या सृष्टिकर्ता का अपमान है. वह तो पेड़ पौधों, झाड़ियों, घास, कास, सबसे असंख्यासंख्य रूप का आभास देती है. और मनुष्य इसे प्रेरणा भी मानता है और चुनौती भी.

मुझे इस प्रकृति ने रूप दिया जिस पर मेरा बस न था तो मैं अपना एक रूप गढ़ता हूं जिसे यह प्रकृति अपना ही कहना चाहे. वह प्राकृतिक लगने लगे, यही तो रूप सर्जन की महत्त्वाकांक्षा है और उपलब्धि भी हुई. लेकिन सब क्या इस प्रकार सहजरूप हो पाते हैं? उसके लिए पुनः रूप साधना चाहिए. रूप के प्रति आग्रह, आदर, रूप से चकित होने की क्षमता. रूप का सामना कर पाने का साहस.

रूप दो, रूप दो: जैसे एक ही पुकार हर तरफ गूंजती है. उससे भी ज़्यादा शायद यह कि मैं भी एक रूप हूं, मुझे देखो. और देखना क्या सिर्फ देखकर आगे बढ़ जाना है?

रूप यानी विरूपता का अभाव. मन विरूप हो तो बाह्यरूप की अंग संगति भी कितनी विकृत लगने लगती है! लेकिन मैं किसके रूप के लिए प्रार्थना कर रहा हूं? चारों तरफ विद्रूप का उत्सव देख रहा हूं. कुरूपता के नशे में धुत लोग. अपने देश को देखता हूं! उसे विरूप होते हुए, किए जाते हुए. हे मां!  इस अभागे देश को रूप दो, रूप की संवेदना दो. दो यह ज्ञान कि किसी और को विरूप करने से ख़ुद कुरूप ही हो सकते हैं!

रूप दो और जय दो! जय कितना भ्रामक शब्द है, कितना प्रलोभन है इसमें, कितना छल! जय शब्द में किसी के पराजय, किसी को हीन करने की एक कुत्सित इच्छा है. लेकिन क्या यह जय है? किस पर जय चाहिए? क्षुद्रता, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, हिंसा पर जय. संकीर्णता पर जय! अन्य को अधीन करने की हिंसा जो मन में जब पड़ती है, किसी को अपमानित करने की हिंसा पर जय, स्वयं को श्रेष्ठ मानने की धृष्टता पर जय.

मेरी जय का अर्थ किसी की पराजय न हो, मेरे मान में किसी का अपमान न हो. मेरी श्रेष्ठता का अर्थ किसी की हीनता न हो. ऐसी ही जय चाहिए. ऐसा ही जयभाव चाहिए. मेरी जय में सब खुश हो सकें, क्या यह संभव है? हो न हो, क्या यह मेरे रूप की रक्षा के लिए ज़रूरी नहीं है?

यश चाहिए. कौन-सा यश? यश की कामना भी कितनी संहारक है. यश क्या चाहने से मिलता है? वह तो गुलाब की ख़ुशबू की तरह है. गुलाब ही क्यों कहा मैंने! आदत, आदत. अभ्यास जो कराया गया है, ख़ुशबू कहते ही गुलाब की याद आए! लेकिन पटना में रानीघाट जाते समय, ट्रेनिंग स्कूल के क़रीब प्रोफेसर नंदी के घर के पास आते ही रातरानी की ख़ुशबू जैसे पांव ही जकड़ लेती थी. या बेला की गंध. या बेल की सुगंध.

ख़ैर! वह जो पढ़ा था कि प्रतिष्ठा ऐसी कन्या है जो ख़ुद ही आपके गले में वरमाला डालती है, आप उसके पीछे भागेंगे तो वह आपसे भागेगी. इसमें जेंडर की विसंगति, विरूपता का पता अब कितने दिन बाद चला! जेंडर की बू इस कहावत में हो लेकिन बात तो सही है. यश की कामना से बड़ी बुराई शायद ही हो. गांधी की तस्वीर खींचनेवाली कहती हैं, गांधी कैमरे को नहीं देखते, कैमरा ही उनको देखता है.

लेकिन हमें चिंता होती है कि कैमरे के ध्यान के केंद्र से कहीं खिसक तो नहीं गए! फिर भी यश संग्रह का पूरा आयोजन कितना निस्सार है, कितना व्यर्थ! फिर भी उसका आकर्षण संहारक है, वह शहरों को ध्वस्त कर सकता है, खून की नदियां बहा सकता है. वे जिन्होंने इस तरह यश कमाया, बाद में लोग उन्हें भूलने में ही मनुष्यता मानने लगे.

द्वेष का संहार करो, मां. द्वेष करने वालों का भी. ऐसे कि वे द्वेष न कर पाएं! द्वेष से मैं ख़ुद विकृत होता हूं, दूसरों को भी विकृत करता हूं. द्वेष के बिना क्या जीवन नहीं चल सकता? द्वेष हो तो रूप का निर्माण कैसे हो! लेकिन द्वेष कितना मानवीय है न मां! इस मानवीय न्यूनता से मुक्त करो. मुझे, मेरे लोगों को, मेरे देश को, इस पृथ्वी को.

जगत का धारण, किसी पर आधिपत्य नहीं. किसी के रूप से, किसी के यश से, किसी के जय से कोई स्पर्धा नहीं. स्पर्धा मात्र इसकी कि रूप के इस संसार में मैं कोई रूप जोड़ पाऊं. एक भंगिमा, एक अंदाज़. बस उतना ही तो.

ट्रेन अलवर पार कर गई है. सूरज अब थोड़ा दूर हो गया है. देवघर में इस समय पंडाल में भीड़ लगने लगी होगी. मेरी मां, अम्मी अपने भीगे केश के साथ, जो खुले होंगे, बंद नेत्रों के साथ अपनी भगवती से कुछ कह रही होगी.

फिर आना, फिर आना. किसी की मर्दिनी के रूप में नहीं. वह तो इन देवताओं का छल है. तुम तो अपने रूप में आओ. प्रेमी, प्रिय के साथ विहार करने वाली, उस शिव से कथा सुनने वाली. उस रूप में ही वापस आओ. नौका में आओ, पैदल आओ. अधरों पर स्मित धारण करो, हाथों में अस्त्र-शस्त्र नहीं. वे तुम्हें विरूप करते हैं.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)