हरिद्वार धर्म संसद: नफ़रत के फैलते कारोबार के आगे पुलिस क्यों लाचार है

हरिद्वार में हुई तथाकथित धर्म संसद में कही गई अधिकांश बातें भारतीय क़ानूनों की धारा के तहत गंभीर अपराध की श्रेणी में आती हैं, लेकिन अब तक इसे लेकर की गई उत्तराखंड पुलिस की कार्रवाई दिखाती है कि वह क़ानून या संविधान नहीं, बल्कि सत्तारूढ़ पार्टी के लिए काम कर रही है.

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हरिद्वार धर्म संसद. (साभार: स्क्रीनग्रैब/यूट्यब)

हरिद्वार में हुई तथाकथित धर्म संसद में कही गई अधिकांश बातें भारतीय क़ानूनों की धारा के तहत गंभीर अपराध की श्रेणी में आती हैं, लेकिन अब तक इसे लेकर की गई उत्तराखंड पुलिस की कार्रवाई दिखाती है कि वह क़ानून या संविधान नहीं, बल्कि सत्तारूढ़ पार्टी के लिए काम कर रही है.

हरिद्वार धर्म संसद. (साभार: स्क्रीनग्रैब/यूट्यब)

गत 17-19 दिसंबर के दौरान हरिद्वार में एक तथाकथित धर्म संसद का आयोजन किया गया. इसे अनेक हिंदू धार्मिक नेताओं और कट्टरपंथियों ने संबोधित किया. इनमें से कई व्यक्तियों का इतिहास और उनके राजनीतिक संबंधों का खुलासा पहले किया जा चुका है. कुछ के खिलाफ पहले से अनेक मुक़दमे दर्ज हैं.

इस आयोजन की थीम थी ‘इस्लामिक भारत में सनातन का भविष्य: समस्या और समाधान.’ विषय विचित्र था. पता नहीं इनको छोड़कर देश में ऐसा कौन व्यक्ति, अदालत या सरकार है जो मानती हो कि हम लोग ‘इस्लामिक भारत’ में रह रहे हैं.

जनगणना (2011) के आंकड़े सबके सामने हैं. भारत में मुसलमानों की आबादी का प्रतिशत 14.2 है और हिंदुओं का 79.8. अब भारत इस्लामिक कैसे हो गया, किसी को पता नहीं. ज़ाहिर है कि ये ‘हिंदू खतरे में है’ का घिसा-पिटा राग ही नए सुर में प्रस्तुत करने की कोशिश है.

आयोजन के दौरान अनेक आपत्तिजनक और भड़काऊ भाषण दिए गए. भाषणों में कुछ वक्ता घुमा-फिराकर बातें कर रहे थे. लेकिन बातों को उनके संपूर्ण परिप्रेक्ष्य में देखने पर स्पष्ट है कि वे न तो हवा में तीर मार रहे थे न ही कोई सैद्धांतिक बातें कर रहे थे. वे इसी देश की और यहां रहने वाले मुसलमानों की बातें ही कर रहे थे, भले ही गोलमोल बातों के कारण उन पर केस न बन पाए.

विदेशी मीडिया में भी इस पर तीखी प्रतिक्रिया हुई है और कहा गया है कि मुस्लिम विरोधी नफ़रत पर सरकार ने चुप्पी साध रखी है.

पाकिस्तानी पत्रकार हामिद मीर ने हरिद्वार की घटना का एक वीडियो क्लिप रीट्वीट करते हुए लिखा है कि ‘वक्ता महिला साबित कर रही है कि मोहम्मद अली जिन्ना बिल्कुल सही थे कि उन्होंने मुसलमानों के लिए अलग पाकिस्तान बनाया. शुक्रिया जिन्ना साहब’.

वीडियो की सत्यता से अब तक इनकार नहीं किया गया है. लेकिन सोशल मीडिया पर सारी दुनिया में ये वीडियो वायरल हो गए हैं.

वक्तव्य जो स्पष्टतया ही अपराध हैं

1. राजद्रोह: एक वक्ता ने कहा कि तीन दिन बाद इस संसद से जो ‘अमृत’ निकलेगा वो धर्मादेश होगा और दिल्ली, यूपी, उत्तराखंड तथा अन्य राज्यों में जो लोकतांत्रिक सरकारें हैं वे उसे मानने को बाध्य होंगी. अगर वे नहीं मानतीं तो 1857 के विद्रोह से भी भयानक युद्ध लड़ा जाएगा.

सर्वविदित है कि 1857 का विद्रोह अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने के लिए किया गया था. स्पष्ट है कि उससे तुलना करके वक्ता यह धमकी दे रहा है कि अगर संवैधानिक तरीके से स्थापित सरकारों ने धर्मादेश को नहीं माना तो उन्हें उखाड़ फेंकने के लिए युद्ध छेड़ा जाएगा.

सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ के केदार नाथ सिंह (1962) के प्रसिद्ध फैसले के परिप्रेक्ष्य में सरकार को ऐसी धमकी देना स्पष्ट रूप से राजद्रोह है. कोर्ट ने साफ़ कहा था कि सरकार की कोई भी आलोचना क्षम्य है पर उसे हिंसा द्वारा उखाड़ फेंकने की बात करना राजद्रोह है.

2. आपराधिक धमकी: वक्ता ने ये भी कहा कि हरिद्वार का कोई भी होटल अगर क्रिसमस या ईद मनाता है तो वो अपने शीशे तुड़वाने को तैयार रहे. यह न केवल संविधान प्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता और आजीविका के अधिकारों का उल्लंघन है बल्कि आपराधिक धमकी के लिए दंडनीय भी है.

3. आर्म्स एक्ट: दो वक्ताओं ने आह्वान किया कि लोग घरों पर तलवारें रखें. एक का कहना था कि वो घर में घुसपैठियों को मारने के काम आएंगी. दूसरे ने धारदार तलवारें रखने की बात की. फिर उसे लगा कि उसमें क़ानूनी पचड़ा हो सकता है. तब उसने कहा कि कोई अधिकारी पूछे तो कह देना कि देवी पूजा के लिए रखा है.

मगर उसे मालूम नहीं था कि ये देवी पूजा वाली दलील नहीं चलेगी. आर्म्स रूल्स 2016 के तहत प्रायः सभी राज्य सरकारों ने नोटिफिकेशन जारी करके तलवारें, फरसे, बल्लम-भाले आदि रखने के लिए आर्म्स लाइसेंस की अनिवार्यता कर रखी है. इसलिए बिना लाइसेंस के इन्हें रखना आर्म्स एक्ट के तहत अपराध बनेगा.

ज्ञातव्य है कि आयोजन के दौरान इन हथियारों का खुलेआम प्रदर्शन भी किया गया.

4. पुलिस और फ़ौज में असंतोष, अनुशासनहीनता और द्रोह भड़काना: एक वक्ता ने म्यांमार का ज़िक्र करते हुए कहा कि यहां भी पुलिस, फ़ौज और नेताओं को ‘सफाई अभियान’ चलाना चाहिए. इस तथाकथित ‘सफाई अभियान’ की उन्होंने व्याख्या तो नहीं की पर चूंकि सब जानते हैं कि म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों का जातीय संहार (एथनिक क्लीन्ज़िंग) या जेनोसाइड (नरसंहार) हुआ था, इसलिए वक्ता की नीयत और इशारा स्पष्ट था.

देश में पुलिस और फ़ौज क़ानून तथा संविधान के तहत निर्दिष्ट कार्यों को ही कर सकते हैं. कोई भी ‘सफाई अभियान’ उनके अधिकृत कार्यों में नहीं आता. इसलिए बहस के लिए वक्ता की नीयत को एक बार अनदेखा भी कर दें तो भी ये तथ्य बचता है कि उन्होंने पुलिस और फ़ौज का वो करने के लिए आह्वान किया जो उनका विधिसम्मत कार्य नहीं है.

यह पुलिस (इनसाइटमेंट टू डिसएफेक्शन) एक्ट, 1922 के सेक्शन 3 के तहत अनुशासनहीनता और सरकार से द्रोह (जो आईपीसी सेक्शन 124ए के अनुसार डिसएफेक्शन है) के लिए उकसाने का अपराध है.

5. झूठी एफआईआर: एक वक्ता ने बड़ी बेशर्मी से कहा कि मुसलमानों को तंग करने के लिए अनुसूचित जाति/जनजाति के लोग उन पर शेड्यूल्ड कास्ट्स एंड द शेड्यूल्ड ट्राइब्स (प्रिवेंशन ऑफ एट्रॉसिटीज़) एक्ट, 1989 के तहत झूठी एफआईआर दर्ज करा दिया करें.

यह आईपीसी सेक्शन 182 और 211 के तहत दंडनीय अपराध बनेगा.

वक्तव्य जो घोर निदनीय हैं पर क़ानूनन अपराध नहीं

एक वक्ता ने कहा कि यदि हमें उनकी आबादी घटानी है तो हमें मारने के लिए तैयार रहना चाहिए और यदि हमें 100 सैनिक भी मिल गए तो वे 20 लाख को मारने में सक्षम होंगे. यहां ‘यदि’ के प्रयोग ने बचा लिया.

दूसरे ने भूतपूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के संसद में दिए गए एक वक्तव्य का ज़िक्र किया जिसमें उन्होंने कथित तौर पर कहा था कि देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का है. वक्ता ने कहा कि यदि मैं सांसद होता और यदि मेरे पास रिवॉल्वर होता तो मैं उन्हें छहों गोलियां मार देता. ये कल्पना है और देश के क़ानून में ‘थॉट क्राइम’ की अवधारणा नहीं है.

कई वक्ताओं ने एक लाख रुपये का हथियार रखने की बात कही. हालांकि हम जानते हैं कि वे किस हथियार की बात कर रहे थे पर क़ानून की दृष्टि में इसका कोई प्रमाण नहीं है कि वे अवैध हथियार ही रखने की बात कर रहे थे.

एक और वक्ता ने कहा कि वे किसी ऐसे युवा संन्यासी को एक करोड़ रुपये देंगे जो हिंदू प्रभाकरण बनने को तैयार हो. उनसे कोई पूछे कि जिसने संन्यास ले ही लिया हो, वो एक करोड़ रुपये का क्या करेगा भला?

उन्होंने ये भी कहा कि हिंदू धर्म की रक्षा के लिए हर मंदिर में प्रभाकरण, भिंडरावाले और शुबेग सिंह होना आवश्यक है. हालांकि उनका आशय स्पष्ट था पर क़ानून की दृष्टि में आतंकवादी का महिमामंडन अपराध नहीं है.

मीडिया में 2017 में रिपोर्ट आई थी कि स्वर्ण मंदिर के सेंट्रल सिख म्यूजियम में सिखों के दस गुरुओं के साथ भिंडरावाले की तस्वीर भी आदरपूर्वक रखी गई है.

इस तरह की सारी बातें थोड़ा गोलमोल होने के कारण क़ानून की दृष्टि में अपराध भले ही न हों पर संपूर्ण परिप्रेक्ष्य में देखने पर स्पष्ट है कि किस तरह से सार्वजनिक मंच से देश के मुसलमानों के खिलाफ विषवमन किया गया.

पुलिस क्या कर रही है?

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार पुलिस ने किसी गुलबहार खान की शिकायत पर जितेंद्र नारायण सिंह त्यागी नामक व्यक्ति (जो अभी कुछ दिनों पूर्व तक वसीम रिज़वी नाम के मुस्लिम थे) और अन्य के खिलाफ सेक्शन 153ए (समूहों के बीच वैमनस्य पैदा करने) के तहत केस दर्ज किया है.

सच ये है कि सारे प्रमुख वक्ता तो जाने-माने हिंदू कट्टरपंथी धार्मिक नेता थे जिन्होंने लंबे चौड़े भाषण दिए. त्यागी तो हिंदू भी अभी ही बने हैं, धार्मिक नेता क्या हुए और क्या बोल दिए?

ऊपर किए गए विस्तृत कानूनी विमर्श के उपरांत यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि पुलिस की यह कार्यवाही जनता की आंखों में धूल झोंकना है. वे बस ये दिखाना चाहते हैं कि केस तो किया गया.

ये केस शुरू से ही कमज़ोर होगा क्योंकि अनेक वक्तागण गोलमोल बातें कर रहे थे.

एक तरफ आगरा पुलिस तीन कश्मीरी छात्रों पर केवल इस आरोप में राजद्रोह का मुक़दमा चलाने के लिए शासन से अनुमति मांग रही है कि उन्होंने क्रिकेट में पाकिस्तानी टीम की जीत की ख़ुशी में वॉट्सऐप पर कुछ संदेश साझा किए.

दूसरी तरफ उत्तराखंड पुलिस उन पर भी राजद्रोह का केस नहीं कर रही जो खुलेआम संवैधानिक तरीके से स्थापित सरकारों को चुनौती दे रहे हैं कि ‘उनकी बात नहीं मानी गई तो वे 1857 के विद्रोह से भी भयानक युद्ध कर देंगे और उन्हें उखाड़ फेंकेंगे.’

पुलिस ये मूर्खतापूर्ण तर्क नहीं दे सकती कि उन्हें उपरोक्त आरोपों के लिए किसी से शिकायत नहीं प्राप्त हुई है.

क्या उन्हें पता नहीं कि सुप्रीम कोर्ट की एक डिवीज़न बेंच ने एनएस ज्ञानेश्वरन (2013) के केस में आदेश दे रखा है कि संज्ञेय अपराधों के लिए पुलिस को शिकायतकर्ता की प्रतीक्षा करना आवश्यक नहीं है और वह किसी अन्य स्रोत से जानकारी प्राप्त होने पर खुद ही केस रजिस्टर करके जांच कर सकती है?

ज़ाहिर है कि उत्तराखंड पुलिस इस मामले में कानून और संविधान के लिए नहीं वरन सत्तारूढ़ पार्टी के लिए काम कर रही है.

समाज और देश के लिए चुनौती

पुलिस का इस प्रकार से बेशर्मी और ग़ैर-पेशेवराना तरीके से अपनी कानूनी ज़िम्मेदारी से हाथ झाड़ लेना देश और समाज के लिए अशुभ लक्षण है. इससे देश की जनता और विशेष कर मुसलमानों की देश में ‘कानून का राज्य’ (रूल ऑफ लॉ) में आस्था कमज़ोर होगी.

माना कि देश में सांप्रदायिक सद्भाव दिनोंदिन कम से कमतर होता जा रहा है. लेकिन जैसा मैंने पहले भी एक लेख में कहा था कि देश सांप्रदायिक सद्भाव के बिना चल सकता है लेकिन सांप्रदायिक शांति के बिना नहीं.

सांप्रदायिक शांति बनाए रखना पुलिस का कर्तव्य है. पुलिस अगर उचित क़ानूनी कार्यवाही नहीं करती है तो यह सांप्रदायिक शांति बनाए रखने में बाधा उत्पन्न करेगा.

धर्म के नाम पर नफ़रत फैलाते हुए व्यापक पैमाने पर हिंसा करने की बातें उस नगर में की गईं जिसे ‘भगवान का द्वार’ कहा जाता है. विडंबना ये है कि वैदिक हिंदू परंपरा में भगवान की प्रार्थना के अंत में संसार में शांति की कामना करते हुए ‘ओम शांति, शांति, शांति’ कहा जाता है.

(लेखक रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी हैं, जो केरल के पुलिस महानिदेशक और बीएसएफ व सीआरपीएफ में अतिरिक्त महानिदेशक रहे हैं.)

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