यूपी की 403 सीटों पर उतरी बसपा के खाते में महज़ एक सीट आई है. साल 1989 में पार्टी के गठन के बाद से यह उसका सबसे ख़राब प्रदर्शन है. उसे 12.88 फीसदी मत मिले हैं. इससे कम मत आख़िरी बार उसे तीन दशक पहले मिले थे, लेकिन सीट संख्या तब दहाई अंकों मे थी.
लखनऊ: उत्तर प्रदेश की राजनीति में करीब तीन दशक तक प्रभावी भूमिका निभाती रही बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का प्रदर्शन 2022 के विधानसभा चुनावों में उसके गठन के बाद से अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन रहा है और कुल 403 सीटों में से उसे महज एक सीट पर जीत मिली है.
केवल बलिया जिले की रसड़ा विधानसभा सीट से बसपा के मौजूदा विधायक और विधानमंडल दल के नेता उमाशंकर सिंह तीसरी बार अपनी सीट बचाने में सफल रहे हैं.
सीटों के लिहाज से यह उत्तर प्रदेश में बसपा के राजनीतिक इतिहास का सबसे खराब प्रदर्शन है. यूपी की राजनीति में 1989 में कदम रखने वाली बसपा को इससे पहले किसी भी चुनाव में सबसे कम सीट 1991 के विधानसभा चुनावों में मिली थीं. तब उसने 386 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे और महज 12 सीटों पर ही उसे जीत मिली थी. वह पार्टी का दूसरा चुनाव था.
अगर मत प्रतिशत के लिहाज से भी देखें तो बसपा को वर्तमान विधानसभा चुनाव में 12.88 फीसदी मत प्राप्त हुए हैं. 1993 के बाद पहली बार बसपा को यूपी विधानसभा चुनावों में इतने कम मतों से संतोष करना पड़ा है.
1993 के बाद उसे कभी भी विधानसभा या लोकसभा चुनावों में 19 प्रतिशत से कम वोट नहीं मिला था. 1993 के चुनावों में उसे वर्तमान चुनावों से कम 11.1 फीसदी मत प्राप्त हुए थे, लेकिन फिर भी वह 67 सीट जीतने में कामयाब रही थी.
इसका कारण था कि उसने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन में कुल 422 सीटों में से महज 164 सीटों पर ही उम्मीदवार उतारे थे. इन 164 सीटों पर उसको कुल मतों के 28.7 फीसदी मत प्राप्त हुए थे.
2017 के पिछले विधानसभा चुनावों की बात करें तो बसपा को तब 19 सीटें मिली थीं और उसका मत प्रतिशत 22.4 फीसदी रहा था. 2012 में उसे 80 सीट मिलीं और मत प्रतिशत 25.9 फीसदी रहा.
2007 में तो बसपा ने पूर्ण बहुमत से राज्य में सरकार बनाई थी, इस दौरान उसे 30.4 फीसदी मतों के साथ 206 सीट मिली थीं. तीनों ही चुनावों में उसने सभी 403 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे.
2002 में 401 सीट पर उम्मीदवार उतारने वाली बसपा को 23.2 फीसदी मतों के साथ 98 सीटें मिली थीं और भाजपा के साथ गठबंधन में उसने सरकार बना ली थी.
1996 में भी बसपा 19.6 फीसदी मत प्रतिशत के साथ 67 सीटें मिली थीं. हालांकि, तब उसने कांग्रेस के साथ गठबंधन में चुनाव लड़कर 296 सीटों पर ही उम्मीदवार उतारे थे. इन 296 सीटों पर उसका मत प्रतिशत 27.7 फीसदी रहा था.
अगर बात बसपा के शुरुआती दो चुनावों (1989 और 1991) की करें तो अपने पहले ही चुनाव में उसे 13 सीटें मिली थीं. उसने 372 उम्मीदवार उतारे थे और 9.4 फीसदी मत प्राप्त किए थे. जबकि, 1991 में उसने 386 उम्मीदवार उतारे और 9.4 मतों के साथ 12 सीटें मिलीं.
बसपा की मजबूती का आधार उसने मिलने वाला दलित समुदाय का वोट रहा. पार्टी पर दलितों की पार्टी होने का ठप्पा लगा था और लंबे समय तक उसे राज्य में 21 फीसदी दलित आबादी का समर्थन मिलता रहा, जिसके चलते उसने राज्य में चार बार सरकार बनाई है, एक बार पूर्ण बहुमत के साथ तो तीन बार गठबंधन में.
चारों बार मायावती ही मुख्यमंत्री रहीं. इसलिए एक वक्त दलितों की सर्वमान्य नेता होने का दावा करने वाली मायावती खुद को भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश करती थीं.
बीते तीन दशक में बसपा को लेकर राजनीतिक गलियारों में यह बात सर्वसम्मति से स्थापित हो चुकी थी कि उनका 20 प्रतिशत के आसपास वोट तो स्थायी है ही. न सिर्फ विधानसभा चुनाव, बल्कि लोकसभा चुनावों में भी बुरे से बरे दौर में भी बसपा को 20 फीसदी के आसपास वोट मिलता रहा.
2014 के लोकसभा चुनावों में जब बसपा ने अपने इतिहास में पहली बार ‘शून्य’ सीट संख्या का स्वाद चखा था, तब भी वह 19.7 फीसदी वोट हासिल करने में कामयाब रही थी. लेकिन, तब इतना तो स्पष्ट हो ही गया था कि भाजपा दलितों का एक बड़ा हिस्सा बसपा से तोड़ने में कामयाब रही है.
द वायर से बातचीत में यूपी की राजनीति के अनेक जानकारों ने भी इस बात को स्वीकारा है, लेकिन साथ ही सभी इस बात पर भी एकमत रहे कि तीन दशक के अपने राजनीतिक इतिहास में जाटव जाति का वोट बैंक बसपा का सबसे वफादार वोट बैंक रहा है.
यूपी के कुल 21 फीसदी दलितों में जाटवों की संख्या करीब 12-13 फीसदी मानी जाती है और संयोग ही है कि वर्तमान विधानसभा चुनावों में बसपा को 12-13 फीसदी के करीब ही वोट मिले हैं.
बहरहाल, वर्तमान चुनावों के पूर्व की परिस्थितियों पर बात करें तो मुकाबले में नज़र आ रहे चारों मुख्य दलों (भाजपा, सपा, कांग्रेस और बसपा) में बसपा ही एकमात्र ऐसी पार्टी थी जो जमीन से नदारद नज़र आ रही थी.
जहां बाकी तीनों दलों के नेता और कार्यकर्ता ज़मीन पर जोरदार प्रचार करते नज़र आ रहे थे, वहीं बसपा प्रमुख मायावती ने खुद को ट्विटर तक समेट लिया था.
बसपा का चुनाव प्रचार अभियान देखकर उस पर यहां तक आरोप लगे थे कि वह बतौर भाजपा की ‘बी’ टीम के बतौर काम कर रही है या उनके खिलाफ दर्ज आय से अधिक संपत्ति के मामले में केंद्रीय जांच एजेंसियों के दवाब में है.
इस पर बसपा नेता सफाई देते भी नज़र आ रहे थे कि कोविड महामारी के चलते मायावती या बसपा बड़ी रैलियां करने से परहेज कर रहे हैं और मतदाताओं के घर-घर जाकर जनसंपर्क कर रहे हैं.
हालांकि, चुनावी नतीजे अब स्पष्ट कर रहे हैं कि बसपा वास्तव में मतदाताओं से कटी हुई थी.