अपने जीवन के विषाद, विष, अंधेरे को निराला ने जिस तरह से करुणा और प्रकाश में बदला, वह हिंदी साहित्य में अद्वितीय है.
निराला की मृत्यु के बाद धर्मवीर भारती ने निराला पर एक स्मरण-लेख लिखा था. उसमें उन्होंने निराला की तुलना पृथ्वी पर गंगा उतार कर लाने वाले भगीरथ से की थी. धर्मवीर भारती ने लिखा है:
‘भगीरथ अपने पूर्वजों के लिए गंगा लेकर आए थे. निराला अपनी उत्तर-पीढ़ी के लिए.’ निराला को याद करते हुए भगीरथ की याद आए या ग्रीक मिथकीय देवता प्रमेथियस/प्रमथ्यु की, तो यह आश्चर्य की बात नहीं है.
निराला वास्तव में हिंदी कविता के प्रमथ्यु थे. प्रमथ्यु, मानव जाति का जन्मदाता, जो मनुष्यों के लिए ओलिम्पिस पर्वत से अग्नि उतार लाया था; जिसने अन्याय के खिलाफ, न्याय के पक्ष में मनुष्यों का साथ दिया था! क्या निराला की साहित्यिक साधना भी ऐसी ही नहीं थी?
अपने रंग-रूप और डील-डौल में वास्तव में किसी ग्रीक देवता की तरह नजर आने वाले निराला में क्या वास्तव में ग्रीक देवता प्रमथ्यु की छाया नहीं थी? प्रमथ्यु ने मानवता के लिए असीम कष्ट सहे थे. निराला का कष्ट भी हिंदी जाति और उससे भी बढ़कर मनुष्यता को ऊपर उठाने के लिए सहा गया कष्ट था.
यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि अगर हिंदी को निराला नहीं मिले होते, हिंदी साहित्य वैसा नहीं होता, जैसा कि वह है. निराला ने हिंदी कविता को एक आग दी, जो आज तक जल रही है. प्रमथ्यु को देवताओं के सरपंच जीयस ने पर्वत से बांध देने की सजा दी थी. उसकी सजा में यह भी शामिल था कि एक गिद्ध दिन में उसके कलेजे का मांस खाएगा और रात में उतना ही मांस फिर बढ़ जाएगा. निराला ने भी हिंदी साहित्य के लिए कुछ ऐसी ही यातना सही थी.
निराला ने हिंदी के विष को पिया और उसे बदले में अमृत का वरदान दिया. 1923 ईस्वी में जब कलकत्ता से ‘मतवाला’ का प्रकाशन हुआ, उस समय (रामविलास शर्मा के अनुसार) निराला ने उसके कवर पेज के लिए दो पंक्तियां लिखी थीं:
अमिय गरल शशि सीकर रविकर राग-विराग भरा प्याला
पीते हैं, जो साधक उनका प्यारा है यह मतवाला
शर्मा आगे लिखते हैं: ‘निराला ने सोचा था, ‘मतवाला ऐसा पत्र होगा जिसमें जीवन, मृत्यु, अमृत और विष और राग और विराग-संसार के इस सनातन द्वंद्व पर रचनाएं प्रकाशित होंगीं. किंतु न ‘मतवाला’ इन पंक्तियों को सार्थक करता था, न हिंदी का कोई और पत्र. इन पंक्तियों के योग्य थी केवल निराला की कविता जिसमें एक ओर राग-रंजित धरती है- रंग गई पग-पग धन्य धरा- तो दूसरी ओर विराग का अंधकारमय आकाश है: है अमानिशा उगलता गगन घन अंधकार.’ इसलिए वे निराला की कविताओं में एक तरफ आनंद का अमृत तो दूसरी तरफ वेदना का विष होने की बात करते हैं.
आनंद का अमृत निराला की प्रारंभिक कविताओं में है, वेदना का विष बाद की कविताओं में. निराला की कविता में इसीलिए लगातार ‘तम’ यानी अंधकार का जिक्र आता है. निराला खुद को और खुद के साथ अपने समय को अंधकार से घिरा पाते हैं- ‘है अमानिशा’. उनकी कविता लगातार इस अंधकार से लड़ती है. वह तम में खोती नहीं, तम के पार के प्रकाश में जाने का संघर्ष करती है ‘कौन तम के पार? (रे कह)’ और अपने पाठक को भी इस संघर्ष का माद्दा देती है. अपने जीवन में हर रोज प्रमथ्यु की तरह वेदना सहनेवाला यह कवि अंधकार को प्रकाश से तार-तार कर देता है.
तम के अमार्ज्य रे तार-तार
जो, उन पर पड़ी प्रकाश-धार
अपने जीवन के विषाद, विष, अंधेरे को निराला ने जिस तरह से करुणा और प्रकाश में बदला, वह हिंदी साहित्य में अद्वितीय है. रामविलास शर्मा की किताब निराला की साहित्य साधना (भाग-1), निराला के कष्टों से भरे जीवन का मार्मिक चित्र खींचती है.
रामविलास शर्मा द्वारा लिखी गई निराला की यह जीवनी, दुनिया की श्रेष्ठतम जीवनियों में गिने जाने के लायक है. वास्तव में जीवनियां उतनी ही महान होती हैं, जितना महान जीवन होता है. निराला का जीवन भी उनकी कविता की तरह ही विलक्षण है. इस जीवनी को पढ़ने के बाद टॉलस्टॉय द्वारा मैक्सिम गोर्की के लिए कही गई बात याद आती है.
गोर्की के जीवन के कष्टों के बारे में सुनकर टॉलस्टॉय ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा था कि आखिर ऐसी भीषण कष्टमय परिस्थितियों में रहने के बाद भी वह इतने करुणा से भरे कथाकार कैसे बन गए, जबकि उनके पास बुरा इनसान होने के तमाम मौके थे. निराला का जीवन और लेखन भी कुछ ऐसा ही था. उन्होंने भी अपने कष्टों को करुणा के अमृत में बदल दिया.
आज इस बात की शायद कल्पना भी नहीं की जा सकती कि निराला को बगैर अपना नाम दिए सिर्फ पैसे के लिए बांग्ला से हिंदी अनुवाद का काम करना पड़ा होगा, पैसों के लिए उन्होंने प्रूफ का काम किया होगा, संपादक होने का श्रेय मिले बगैर दूसरों के लिखे को चमकाया होगा, बच्चों के लिए बाजार की मांग के हिसाब से पुस्तिका लिखी होगी, दवाइयों के लिए विज्ञापन लिखे होंगे, शादी-विवाद जैसे मौकों के लिए कवितानुमा पंक्तियां तक लिखी होंगी.
निराला ने अपने व्यक्तिगत दुर्भाग्य के साथ दुनिया के इस क्रूर छल और अपमान को भी सहा. लेकिन, फिर भी वे कटु कहीं नहीं हुए. जीवन के विष को पीने को अपना प्रारब्ध मानकर उसे पीते रहे:
जनता के हृदय जिया
जीवन विष विषम पिया
निराला की जीवनी के साथ पढ़ें तो निराला की असंभव संभावनाओं से युक्त कविता ‘राम की शक्तिपूजा’ के राम वास्तव में निराला खुद हैं. ये निराला जैसे कवि के लिए ही मुमकिन था कि वे अपने राम में खुद को और खुद में राम को उतार लें और उसी राम को किसी औसत मध्यवर्गीय व्यक्ति का भी रूप दे दें. राम के संघर्ष को अपना संघर्ष और अपने संघर्ष को राम का संघर्ष बना दें और इसे आजादी के व्यापक संघर्ष से जोड़ दें.
हिंदी में या संभवतः विश्व की किसी भी भाषा में अर्थ की इतनी छवियां देने वाली कोई अन्य कविता शायद ही हो. यह कविता आज भी टटकी और प्रासंगिक लगती है. निराला ने राम का जो चित्र खींचा है, वह वास्तव में उनका अपना ही स्केच है.
दृढ़ जटा-मुकुट हो विपर्यस्त प्रतिलट से खुल
फैला पृष्ठ पर, बाहुओं पर, वक्ष पर, विपुल
और जब निराला राम से यह कहलवाते हैं, ‘आया न समझ में यह दैवी विधान;/रावण, अधर्मरत भी, अपना, मैं हुआ अपर… देखा, हैं महाशक्ति रावण को लिए अंक/लांछन को ले जैसे शशांक नभ में अशंक..’ तब वे हर युग की आवाज बन जाते हैं. हमारे अपने युग की भी. ‘अन्याय जिधर है, उधर शक्ति’- सत्य और असत्य की लड़ाई का समीकरण हमेशा ऐसा ही रहा है.
निराला प्रकाश के प्रति दृढ़ आस्था के कवि हैं. उनकी यह दृष्टि महत्वपूर्ण है कि सत्य और असत्य, धर्म और अधर्म के बीच संघर्ष शाश्वत है. यह कभी समाप्त न होनेवाला, लगातार लड़ा जानेवाला युद्ध है. उनके यहां कोई आखिरी जीत या आखिरी हार नहीं है. लडते रहना ही नियति है. इसलिए राम की शक्तिपूजा में वे ‘राम-रावण का अपराजेय समर’ पद का इस्तेमाल करते हैं. ‘अपराजेय समर’, यानी राम-रावण का ऐसा युद्ध जिसमें कभी भी किसी की निर्णायक तरीके से जीत या हार नहीं होती.
यह कहने के बाद भी कि ‘दुख ही जीवन की कथा रही’ निराला दुख से आक्रांत नहीं होते, उसे पार कर जाते हैं. राम की शक्तिपूजा में जाम्बवान राम से ‘शक्ति की मौलिक कल्पना’ करने के लिए कहते हैं, लेकिन वास्तव में शक्ति की यह मौलिक कल्पना निराला की अपनी है.
हिंदी में एक बड़ी दिक्कत यह है कि किसी कवि को उसकी कुछ चुनिंदा कविताओं के द्वारा साबित या खारिज कर दिया जाता है. इस पद्धति में सबसे ख़राब बात ये है कि किसी लेखक को पूर्णता में देखने की जरूरत नहीं समझी जाती. निराला के बारे में भी यह बात भुला दी जाती है कि उन्होंने कविता के अलावा काफी कुछ लिखा है- कहानी, उपन्यास, आत्मकथात्मक गद्य, निबंध आदि.
निराला ने गद्य को जीवन संग्राम की भाषा कहा था. और दरअसल अपने गद्य से उन्होंने यही काम लिया. ‘अलका, ‘चतुरी चमार’ या ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ जैसी रचनाएं निराला के सरोकारों के व्यापक क्षितिज की गवाही देती हैं. भले छायावाद को गांधीवादी स्वतंत्रता संग्राम का साहित्यिक संस्करण कहा जाता हो, लेकिन निराला शुरू से ही गांधी के प्रभाव से करीब-करीब मुक्त दिखाई देते हैं.
निराला की विचारधारा को ठीक से समझने के लिए उनकी कविताओं के साथ उनके गद्य को भी पढ़ा जाना चाहिए. मसलन, निराला के लेखों, संपादकीय टिप्पणियों और उपन्यासों को पढ़े बगैर जाति-व्यवस्था, किसान आंदोलन, स्त्रियों की दशा आदि पर उनके विचारों और पक्षधरता को ठीक से नहीं समझा जा सकता.
उन्होंने रूढ़ियों और अंध-विश्वासों का भी विरोध किया. वे हिंदू-मुस्लिम एकता के पक्ष में भी थे. वास्तव में आधुनिक साहित्य के जितने प्रगतिशील मूल्य हैं, उन सबके प्रति निराला पूरी तरह से सचेत और जुड़े हुए थे. निराला ने अंग्रेजी साम्राज्य की आर्थिक आलोचना भी की थी. अपने समय के प्रति जैसी जिम्मेदारी का भाव निराला के यहां है, वह दुर्लभ है.
यह निराला के ही वश की बात थी कि उन्होंने टैगोर, गांधी, नेहरू- तीनों से अलग-अलग मसलों पर असहमति जताई. निराला की एक कविता की पंक्ति है-
‘मेरे ही अविकसित राग से
विकसित होगा बंधु दिगंत
अभी न होगा मेरा अंत’
वास्तव में निराला की कविता ने निराला के इस विश्वास को साबित करके दिखाया है. उनकी कविताएं अंत को अस्वीकार करने वाली कविताएं हैं. आलोचक, उपन्यासकार दूधनाथ सिंह ने इसी विशेषता की ओर ध्यान दिलाते हुए निराला की तुलना टैगोर, बॉदलेयर, जॉर्ज सेफरिस, पास्तरनाक और एजरा पाउंड से की है. और इनमें भी टैगोर और एजरा पाउंड में ही निराला जितनी विविधता होने की बात की है. निश्चित तौर पर हिंदी साहित्य के खाते में निराला का होना हिंदी का सौभाग्य है.