उत्तराखंड की भाजपा सरकार को जनता की नहीं, माफियाओं की फ़िक्र है

बेबस व लाचार लोग बिना इलाज के दम तोड़ रहे हैं. ऐसे में अगर मेडिकल की पढ़ाई का रेट एक करोड़ कर देंगे तो जिस धन पशु के पास दौलत होगी, वही पैसा देकर अपनी संतान को डॉक्टर बनाएगा. जब पर्वतीय बच्चे डॉक्टर बनने के अधिकार से वंचित कर दिए जाएंगे तो दुर्गम क्षेत्रों में बिना डॉक्टरों के जिन अस्पतालों में ताले पड़े हैं, उनमें कौन झांकने जाएगा.

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उत्तराखंड मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत (फोटो: पीटीआई)

बेबस व लाचार लोग बिना इलाज के दम तोड़ रहे हैं. ऐसे में अगर मेडिकल की पढ़ाई का रेट एक करोड़ कर देंगे तो जिस धन पशु के पास दौलत होगी, वही पैसा देकर अपनी संतान को डॉक्टर बनाएगा. जब पर्वतीय बच्चे डॉक्टर बनने के अधिकार से वंचित कर दिए जाएंगे तो दुर्गम क्षेत्रों में बिना डॉक्टरों के जिन अस्पतालों में ताले पड़े हैं, उनमें कौन झांकने जाएगा.

Dehradun: Uttarakhand chief minister Trivendra Singh Rawat, along with minister Prakash Pant and Madan Kaushik, addresses a press conference in Dehradun on Monday. PTI Photo (PTI3_20_2017_000144B)
(फोटो: पीटीआई)

हाल में एक साल पूरा कर चुकी उत्तराखंड की भाजपा सरकार ने बिना कोई ठोस काम किए दूसरे साल में प्रवेश कर लिया. सरकार को अपनी चाल-ढाल दिखाने को एक साल का वक्त कम नहीं होता. लेकिन जिन लोगों ने इस सरकार को सत्ता में आने के लिए वोट दिया, उनकी नजर में ही लबालब बहुमत की सरकार कम समय में ही इस कदर अलोकप्रिय हो जाएगी, इसकी तो उसके आलोचकों तक को भी उम्मीद न थी.

दो मोर्चों पर सरकार पूरी तरह बेनकाब होती दिखी है-एक है सरकार चलाने की काबिलियत और दूसरी है ईमानदारी. किसी भी छोटे से छोटे और विकट समस्याओं से जूझ रहे प्रदेश में अगर नेता में इन दोनों गुणों का अभाव है तो जाहिर है कि वह सरकार अपना इकबाल खो देती है.

भले ही सरकार को संख्याबल का बहुमत है और विपक्षी कांग्रेस सरकार की कमर टूटी हुई है तो भी हालात ठीक नहीं हैं. लोकसभा चुनावों की तैयारियां आगामी पांच माह में आरंभ हो जाएंगी. भाजपा के पास राज्य सरकार की कौन गिनाने लायक उपलब्धि होगी, जब लोग ये सवाल पूछेंगे तो इस पर भाजपा के हाथ-पांव अभी से फूलते दिख रहे हैं.

आप किसी आम आदमी से उत्तराखंड में बात कीजिए उसका एक ही जवाब मिलेगा कि सरकार के फैसलों और उसके चाल-चलन में ईमानदारी का एकदम अभाव झलक रहा है. हाल में उत्तराखंड के तीन मेडिकल कॉलेजों के प्रवेश में चार सौ गुना फीस बढ़ोतरी के मामले में सरकार पूरी तरह बेनकाब हो गई.

हालांकि जब इन्हें अपनी बेवकूफी का अहसास हुआ तो फैसला वापस ले लिया लेकिन इससे जनता की नजर में उस पर अपने ही प्रदेश की जनता से विश्वासघात करने का तमगा लग गया. क्यों प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों के लिए फीस तय करने की कोई रेगुलेटरी नहीं है. दूसरी ओर शराब माफिया की मुनाफाखोरी में किसी तरह की आंच न आए इसके लिए 31 मार्च को खत्म होने वाले शराब के ठेकों का कार्यकाल एक माह और बढ़ा दिया गया. काश ऐसी तत्परता बाकी क्षेत्रों में भी दिखती!

विडंबना है कि पूरे राज्य में हर काम एडहॉक सिस्टम से चलता दिख रहा है. देहरादून से नकली राजधानी हटाने को जनता का दबाव पड़ा तो जनता की आंखों में धूल झोंकने को गैरसैण में तीन-चार दिन का सरकारी प्रपंच होता है. पूरा लाव-लश्कर देहरादून से लाया जाता है. लेकिन आपने कसम खा रखी है कि पूरा सरकारी अमला देहरादून में रखेंगे.

गैरसैण में राजधानी की मांग कर रहे आंदोलनकारियों की पिटाई करवाने और उन पर मुकदमे कायम करवाने की खूब जल्दबाजी है लेकिन पिछले चुनावों में गैरसैण में स्थायी राजधानी बनाने का वायदा करके सत्ता की कुर्सी मिलते ही भूल जाते हैं कि जनता से कुर्सी हथियाने के लिए क्या वायदे किए गए थे.

यह वैसा ही जैसा कि कांग्रेस के घपलों व घोटालों को चुनावों में खूब मुद्दा बनाते हैं. लेकिन सरकार में आने पर सब कुछ हरा-हरा दिखने लगता है. यही हाल कांग्रेस का है उन्हें भी सत्ता से हटने पर गैरसैण में स्थायी राजधानी बनाने और पहाड़ों की दुर्दशा की याद सताने लगती है.

प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों की फीस को कई सौ गुना बढ़ाने और फिर पूरे राज्य में व्यापक जनाक्रोश के आगे सरकार के घुटने टेकने का पराक्रम कई सवाल एक साथ खड़े कर गया, सत्ता का आचरण इस सत्य को प्रमाणित करने के लिए काफी है कि राज्य में एक चुनी हुई सरकार किस कदर एक संगठित माफिया, बेलगाम बाजारवाद और कुटिल ताकतों की गिरफ्त में है.

आंदोलित मेडिकल छात्रों के अनुसार उनके करिअर से खिलवाड़ करने के लिए एक-दो महीनों से मेडिकल कॉलेजों व सरकार के कर्ता-धर्ताओं की लगातार गुपचुप बैठकें चल रही थीं. आखिर कोई बहुत बड़ी डील तो थी ही जिसकी कीमत पर सरकार ने अपनी भद्द पिटवाना मंजूर किया होगा.

लोकतंत्र में जिम्मेदार मीडिया व विपक्ष का काम ही है पूछना कि ‘हे हुक्मरान! आपको जनता ने कुर्सी सौंपी है तो आप उसे धमका नहीं सकते कि सवाल मत पूछो.’ अब भी लोगों के गले यह बात कतई नहीं उतरी कि राज्य के मुख्यमंत्री इस फीस वृद्धि पर अंत तक यह रट क्यों लगाते रहे कि ‘बाहरी निवेशकों को आकर्षित करने के लिए मेडिकल पढ़ाई की फीस बढ़ोतरी बहुत जरूरी है.’ प्रश्न यह है कि ऐसे निवेशकों की मंजिल उत्तराखंड ही क्यों है?

ज्ञात रहे कि इसी भाजपा की सरकार ने 2007 में सरकार में आने पर उत्तराखंड के निवासी मेडिकल छात्रों की फीस 15 हजार रुपये तय की थी. वह आदेश आज कहां है? किस सरकारी नियम के आधार पर मेडिकल कॉलेजों व विश्वविद्यालयों को अपनी फीस मनमाने तरीके से तय करने का अधिकार दिया गया है?

उच्च गुणवत्ता की मेडिकल सुविधाओं के लिए उत्तराखंड के आम लोग अब भी तरस रहे हैं क्योंकि शहरों के जिस भी मेडिकल कॉलेजों की दुकान में आप जाएंगे, वहां पांच सितारा अस्पतालों की तरह मरीजों से खुली लूट होती है. पूरे पहाड़ में सरकारी अस्पतालों की हालत खस्ता है.

बेबस व लाचार लोग बिना इलाज के दम तोड़ रहे हैं. ऐसे में अगर मेडिकल की पढ़ाई का रेट एक करोड़ कर देंगे तो देश के बाहर से जिस धन पशु के पास दौलत होगी वही पैसा देकर अपनी-अपनी संतान को डॉक्टर बनाएगा. जब पर्वतीय बच्चे डॉक्टर बनने के अधिकार से वंचित कर दिए जाएंगे तो दुर्गम क्षेत्रों में बिना डॉक्टरों के जिन अस्पतालों में ताले पड़े हैं उनमें कौन झांकने जाएगा.

हर विभाग में पीपीपी की नई संस्कृति को खूब बढ़ावा दिया जा रहा है. सरकारी अस्पतालों को पीपीपी मोड के हवाले करने पर पीठ थपथपाई जा रही है. इन्हें जरा भी शर्म नहीं आती कि सरकारी सेवाओं में निजीकरण को बढ़ावा देने का मतलब ही यही है कि आपकी शासन-व्यवस्था ध्वस्त हो चुकी है.

हर जगह बाहरी ठेकेदारों को घुसाया जा रहा है. बेरोजगार नौजवानों के पास कोई काम नहीं है. करीब 9 लाख बेरोजगारों का आंकड़ा राज्य सरकार के रिकॉर्ड में है. यह नहीं बताते कि अगर 2014 में भाजपा ने देश में हर साल दो करोड़ बेरोजगारों को रोजगार देने का वायदा किया था तो अब तक उत्तराखंड के कम से पांच लाख नौजवानों को चार साल में रोजगार मिल गया होता.

केंद्र सरकार की नाकामी और वायदों को न निभाने की नाराजगी की दोतरफा कीमत इस बार भाजपा को उत्तराखंड में चुकानी होगी. उत्तराखंड सरकार 17 बरस पहले की चार निर्वाचित सरकारों से अलग इसलिए है कि सरकार को अपने बूते दो तिहाई से ज्यादा बहुमत है.

क्या यह सरकार अपने बोझ से ही ध्वस्त होगी, इस बात की अटकलें लगाना अभी जल्दबाजी होगी. लेकिन यह आम चर्चा है कि एक दो कैबिनेट मंत्रियों व दो-चार विधायकों को छोड़ मुख्यमंत्री के खिलाफ सारे के सारे मंत्री व विधायक व सांसद मोर्चा खोले हुए हैं.

यह स्मरण दिलाना जरूरी है कि हरीश रावत सरकार के पतन के बीज राज्यसभा सीट के कारण ही पड़े थे. जब उन्होंने पांच साल पहले दिवंगत मनोरमा शर्मा डोबरियाल को राज्यसभा सीट थमाकर विजय बहुगुणा, हरक सिंह रावत व सतपाल महाराज को इतना नाराज कर दिया था कि वे आज भाजपा में हैं.

मनोरमा जी की बीमारी के बाद मृत्यु के कारण सीट खाली हुई तो हरीश रावत ने कांग्रेसी एक्टर राज बब्बर को राज्यसभा में भिजवा दिया. यहीं से कांग्रेस में हरीश रावत की मनमानी के खिलाफ कांग्रेस के दो टुकड़ेे हो गए. आधी कांग्रेस भाजपा में है. जो भाजपा में नहीं गए उन्हें भी कांग्रेस में कोई पूछ नहीं रहा.

पहाड़ की आम जनता से ज्यादा दिल्ली दरबार की हुक्म गुलामी का जो रोग कांग्रेस को लगा रहता था वही रोग इन दिनों उत्तराखंड की भाजपा को भी घेरे हुए है. हाल में एक सीट के लिए राज्यसभा चुनाव हुए लेकिन इस बार भाजपा ने किसी विधायक या लोकसभा सांसदों व पदाधिकारियों की राय लेना तो दूर उन्हें भनक तक नहीं लगने दी.

पूरी भाजपा कांग्रेसी कल्चर की चाटुकारिता व व्यक्तिपूजा से लबालब है. कांग्रेस की तरह यहां भी हर काम जुगाड़ से हो रहा है. ईमानदारी व निष्ठा नाम की कोई चीज नहीं बची. अपने-अपने निहित स्वार्थों को पूरा करने के लिए किस तरह की चाल-ढाल के लोगों को बढ़ावा दिया जा रहा है.

एक साल पूरा होने पर उत्तराखंड में भ्रष्टाचार पर वार और जीरो टॉलरेंस के नारे हवा हवाई हो चुके हैं. भ्रष्टाचार मिटाने के सिर्फ दावे हो रहे हैं. सरकारी ठेकों में लूटपाट का पूरा ताना-बाना पिछली कांग्रेस सरकार से कतई भिन्न नहीं है. खुद भाजपा के भीतर ही लोग खुलकर बोल रहे हैं कि लूटपाट का रेट पहले से ज्यादा बढ़ गया है.

थैलीशाही के बल पर राजनीति करने वालों को भरपूर प्रश्रय मिल रहा है. राज्य सरकार के पास वेतन बांटने को पैसे नहीं हैं. लेकिन सरकारी अय्याशी पर बेशुमार बजट की खुली लूट हो रही है. आम लोग मानते हैं कि राज्य में विधायक-निधि पार्टियों के भीतर भ्रष्टाचार व ठेकेदार संस्कृति पैदा करने में बहुत बड़ी भूमिका निभा रही है लेकिन इस बीमारी को खत्म करने के बजाए उसे बढ़ावा दिया जा रहा है.

गैरसैण में विधानसभा सत्र में जनता के हित में तो कोई फैसला नहीं हुआ लेकिन विधायक-निधि में एक करोड़ सालाना बढ़ोतरी कर दी गई. इतना ही नहीं विधायकों का वेतन करीब सवा सौ प्रतिशत बढ़ा दिया गया. दूसरी तरफ योजना खर्च में लगातार कमी है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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