‘पूरी दुनिया में दक्षिणपंथी उभार के लिए उदारवादी लापरवाही ज़िम्मेदार है’

अगर उदारवादी सरकारें रोज़गार, सद्भाव और शान्ति के मोर्चे पर सफल रहतीं, तो दक्षिणपंथ को पैर पसारने का अवसर नहीं मिलता.

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अगर उदारवादी सरकारें रोज़गार, सद्भाव और शांति के मोर्चे पर सफल रहतीं तो दक्षिणपंथ को पैर पसारने का अवसर नहीं मिलता.

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(फाइल फोटो: रॉयटर्स)

नीदरलैंड के संसदीय चुनाव में गीर्ट वाइल्डर्स की उग्र दक्षिणपंथी राजनीति को सत्ता से दूर रखने में कंजरवेटिव, उदारवादी और वाम ख़ेमा कामयाब रहा है तथा पश्चिमी देशों समेत दुनियाभर के लोकतांत्रिक तबके में इन नतीज़ों का स्वागत किया गया है.

हालांकि यह याद रखना चाहिए कि वाइल्डर्स ने अपना समर्थन बढ़ाया है और 2012 के 10.1 फ़ीसदी के अपने आंकड़े को 13.1 फ़ीसदी तक पहुंचाया है. यह भी ध्यान रहे कि प्रधानमंत्री रुट ने अपने घोषणापत्र में वाइल्डर्स की कुछ नीतियों को जगह दी है. इस लिहाज़ से नीदरलैंड के नतीज़ों से बहुत अधिक उत्साहित होने की ज़रूरत नहीं है.

अब सबकी नज़रें फ़्रांस के राष्ट्रपति पद और संसद के चुनाव पर है. डोनाल्ड ट्रंप, ब्रेक्ज़िट और यूरोप में राष्ट्रवादी-सरंक्षणवादी बड़बोले नेताओं की बढ़ती लोकप्रियता के माहौल में यह उम्मीद स्वाभाविक है कि लोकतांत्रिक मूल्यों में भरोसा करनेवाले नेता और पार्टियां इस चुनौती का सामना समझदारी से करेंगे.

ऑस्ट्रिया और नीदरलैंड के चुनाव, ब्रिटेन में जेरेमी कॉर्बिन के नेतृत्व में लेबर पार्टी तथा ट्रंप प्रशासन के विरुद्ध बर्नी सांडर्स के अभियान नस्लवादी बहुसंख्यकवाद और मानवाधिकार-विरोधी राजनीति के प्रतिकार के ज़ोरदार उदाहरण हैं.

लेकिन, उदारवादी राजनीति के भीतर ऐसे तत्व भी सक्रिय हैं, जो उग्र-राष्ट्रवाद के उभार को अपने वर्चस्व को बचाने के एक अवसर के रूप में देख रहे हैं तथा उसी वैश्विक पूंजी के स्वार्थों की हिमायत कर रहे हैं जिनकी वज़ह से पैदा हुए आर्थिक और मानवीय संकटों की आड़ में दुनियाभर में बहुसंख्यकवाद अपने को स्थापित कर रहा है.

इस प्रवृत्ति को दो महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक देशों- अमेरिका और ब्रिटेन- की उदारवादी राजनीति की आतंरिक हलचलों से समझा जा सकता है.

ब्रिटेन की पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर बीते कुछ महीनों से चर्चा में हैं. उन्होंने अपने बयानों से लेबर पार्टी के नेता जेरेमी कॉर्बिन के नेतृत्व को नुक़सान पहुंचाने की लगातार कोशिश की है.

पार्टी पर कब्ज़े को बेक़रार उनके गुट की हलचलों से उनकी राजनीतिक वापसी की आशंकाएं भी जताई जाती रही हैं. पर अब ब्लेयर ने नया पैंतरा चला है. उन्होंने इंस्टीट्यूट फ़ॉर ग्लोबल चेंज नामक एक संस्था बनाने की घोषणा की है जो ‘भयावह एकाधिकारवादी पॉपुलिज़्म’ को रोकने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास करेगी.

मज़े की बात है कि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के रूप में उनकी घरेलू और विदेशी नीतियों की वज़ह से कई तरह के आर्थिक, सामाजिक और मानवीय संकट पैदा हुए हैं जिनको बहाना बनाकर आज बड़बोले पॉपुलिस्ट नेता अपना जनाधार बढ़ा रहे हैं.

इराक़ और अफ़गानिस्तान में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के साथ मिलकर क़हर ढानेवाले ब्लेयर पर संसद और जनता को झूठ बोलकर गुमराह करने की बात बार-बार सिद्ध हो चुकी है. प्रधानमंत्री पद छोड़ने के बाद मध्य-पूर्व में ‘शान्ति-दूत’ के रूप में उनकी भूमिका पर भी सवाल उठ चुके हैं. येन-केन-प्रकारेण भारी कमाई का मामला भी सबके सबके सामने है.

लेकिन ब्लेयर अपनी ग़लतियों पर विचार करने के बजाये कथित ‘लिबरल’ मूल्यों को बचाने की बात कर रहे हैं. उनकी नज़र में नव-उदारवादी आर्थिक नीतियां और लगातार युद्ध ही वे मूल्य हैं जो धुर-दक्षिणपंथ को रोक सकते हैं.

लेबर पार्टी ने कॉर्बिन की अगुवाई में थेरेसा मे की टोरी सरकार को लगातार घेरा है और कई चुनाव जीते हैं. इसके बावज़ूद ब्लेयर को वे नापसंद हैं. सवाल यह है कि अगर आज यूरोप और दुनिया के दूसरे हिस्सों में उदारवादी लोकतंत्र में भरोसा कम हुआ है, तो उसका कारण क्या है?

अगर उदारवादी सरकारें रोज़गार, सद्भाव और शान्ति के मोर्चे पर सफल रहतीं, तो दक्षिणपंथ को पैर पसारने का अवसर नहीं मिलता. यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि ब्रिटेन और अन्य जगहों में प्रगतिशील नीतियों के लिए जन-समर्थन तेज़ी से बढ़ा है. यूनान, स्पेन, ऑस्ट्रिया और नीदरलैंड के चुनाव इसके उदाहरण हैं.

फ़्रांस में विभिन्न उम्मीदवारों को उदारवादी आर्थिक नीतियों को जनोन्मुखी तेवर देना पड़ा है. ऐसे में ब्लेयर को आत्मालोचना की ज़रूरत है और अपनी प्रासंगिकता बनाने के लिए उन्हें लेबर पार्टी के बुनियादी सिद्धांतों की ओर देखना चाहिए, न कि मुनाफ़ाख़ोर बाज़ारवाद की ओर, जिसे वे ‘बीच का रास्ता’ और ‘उदारवाद’ कह रहे हैं.

ब्लेयर की तरह ही अमेरिका में डेमोक्रेट पार्टी वास्तविकता से मुंह चुराने की क़वायद में लगी हुई है. डोनाल्ड ट्रंप से पराजित होने के बाद राजनीतिक परिदृश्य से हिलेरी क्लिंटन तथा पूर्व राष्ट्रपति ओबामा ग़ायब हैं. पर परदे के पीछे से इन नेताओं ने पार्टी के अध्यक्ष पद पर अपने पसंदीदा उम्मीदवार को बैठाने के लिए ख़ूब सक्रियता दिखाई.

सीनेटर बर्नी सांडर्स आज भी ट्रंप की नीतियों के ख़िलाफ़ मोर्चे पर हैं. विभिन्न सर्वेक्षणों में वे अमेरिका के सबसे लोकप्रिय राजनेता बताये जा रहे हैं. लेकिन डेमोक्रेट पार्टी इस सच को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है. ब्लेयर और उनके समर्थकों की तरह क्लिंटन-ओबामा लॉबी पार्टी को अपने हिसाब से चलाने पर आमादा है. इसका नतीज़ा यह है कि ट्रंप को ठोस राजनीतिक चुनौती नहीं मिल पा रही है.

दिलचस्प है कि नीदरलैंड में प्रगतिशील तबके की पार्टियां स्पष्ट तौर पर जेरेमी कॉर्बिन और बर्नी सांडर्स से प्रेरित होने की बात स्वीकार कर रही हैं, पर इन नेताओं को अपनी ही पार्टियों में पूरा समर्थन नहीं मिला पा रहा है.

बहरहाल, यह एक स्थापित तथ्य है कि उग्र-राष्ट्रवादी और दक्षिणपंथी राजनीति का सामना प्रगतिशील राजनीति के द्वारा ही किया जा सकता है. यदि यूरोप या दुनिया के और हिस्सों में इस रणनीति पर काम नहीं किया गया, तो हमें फ़रेबी और ख़तरनाक राजनीति के उभार को और मज़बूत होते देखने के लिए अभिशप्त रहना होगा.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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