1978 में इंदिरा ने जो किया, क्या उसे फिर दोहराया जा सकता है?

अगर 1977 भारत की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार के सत्ता में आने के कारण भारतीय राजनीति का एक बड़ा पड़ाव है तो 1978 को इंदिरा गांधी के उस जुझारूपन के कारण याद रखा जाना चाहिए, जिसके बल पर उन्होंने अपनी वापसी की इबारत लिखी.

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अगर 1977 भारत की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार के सत्ता में आने के कारण भारतीय राजनीति का एक बड़ा पड़ाव है तो 1978 को इंदिरा गांधी के उस जुझारूपन के कारण याद रखा जाना चाहिए, जिसके बल पर उन्होंने अपनी वापसी की इबारत लिखी.

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इंदिरा गांधी. (फोटो साभार: विकीमीडिया कॉमन्स)

हाल ही में संपन्न हुए कर्नाटक चुनाव के दौरान 40 साल पहले, 1978 में चिकमंगलूगर लोकसभा उप-चुनाव की यादें लोगों के जेहन में तैर गयीं. एक अनजान से लोकसभा क्षेत्र चिकमंगलूर ने उस समय राष्ट्रीय महत्व हासिल कर लिया, जब इंदिरा गांधी ने अपनी राजनीतिक वापसी के अभियान के तहत वहां से उपचुनाव लड़ने का फैसला किया.

यह जाहिर था कि वहां से सांसद डीबी चंद्र गौड़ा ने एक पूर्व निर्धारित रणनीति के तहत सीट को खाली किया था. उसके बाद से यह लोकसभा क्षेत्र कभी भी सामान्य नहीं रहा है.

यह सीट भारत के बदलते हुए राजनीतिक झुकावों का गवाह बन गया, क्योंकि उन्हीं गौड़ा ने आखिर में भारतीय जनता पार्टी में शरण पायी और 2009 में लोकसभा के सदस्य बने. हालांकि, उन्हें 2014 में दरकिनार करते हुए यह सीट 2014 में सदानंद गौड़ा को दे दी गई. लेकिन, यह एक दूसरी कहानी है.

‘एक शेरनी, सौ लंगूर; चिकमंगलूर, चिकमंगलूर’- यह नारा भाषा की अमर्यादा के बावजूद अपने निहित राजनीतिक संदेश के कारण आज भी एक सदाबहार नारा बना हुआ है. इस नारे का इस्तेमाल इंदिरा गांधी ने गठबंधन के विचार को ध्वस्त करने के लिए किया था.

भारत में उस समय गठबंधन का विचार नया-नया था और इससे राजनीतिक अस्थिरता की यादें ताजा होती थीं, क्योंकि 1967 के बाद कई राज्यों में गठित संयुक्त विधायक दल की सरकारों की उम्र ज्यादा नहीं रहीं, क्योंकि जल्दी ही दोस्त बने नेताओं ने एक-दूसरे के खिलाफ तलवारें खींच लीं, जिससे अस्थायी राजनीतिक अराजकता की स्थिति पैदा हुई और समय से पहले चुनाव करवाने पड़े.

एक आंतरिक झगड़ों से जूझती पार्टी के सौ लंगूरों के बरक्स एक केंद्रीकृत पार्टी की अकेली ‘शेरनी’ के इस चित्र ने आखिरकार इंदिरा गांधी के लिए 1980 में जीत दिलाने वाले नारे का रूप ले लिया: ‘चुनिए उन्हें जो सरकार चला सकते हैं.’

जैसे-जैसे अगले लोकसभा चुनाव के लिए विपक्षी पार्टियों द्वारा चुनाव पूर्व गठबंधन तैयार करने की संभावना को लेकर सुगबुगाहट तेज हो रही है, एक बार फिर चुनाव प्रचार का वही पुराना फॉर्मूला वापस लौट आया है. यह अलग बात है कि इस बार कांग्रेस और जनता पार्टी के एक घटक ने भूमिकाओं की अदला-बदली कर ली है.

यह देखकर कि कम से कम कुछ राज्यों में विपक्षी पार्टियां आपसी मतभेदों को भुलाकर हाथ मिलाने को तैयार हैं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एकता के प्रयासों पर जुबानी हमला बोल दिया है.

उनके तर्क इंदिरा गांधी से मिलते-जुलते हैं और इस विरोधाभास को रेखांकित करते हैं कि नेहरू-गांधी परिवार की मौके-बेमौके आलोचना करने के बावजूद मोदी ने जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा से सीखने में गुरेज नहीं किया है.

मोदी की दलील जनता नेताओं के खिलाफ इंदिरा गांधी के अभियान को दोहराने वाली है: एक मजबूत नेता वाली एक पार्टी किसी भी दिन देश के लिए बेहतर है.

लेकिन, इंदिरा गांधी की वापसी सिर्फ एक नारे के दम पर नहीं हुई थी. इसमें उन जनता नेताओं ने भी काफी मदद पहुंचाई थी जिन्होंने सिर्फ सरकार में कोई अच्छा प्रदर्शन नहीं किया, बल्कि उन्होंने आपस में लड़ाई भी कर ली. इसी तरह से इंदिरा गांधी की वापसी का संबंध सिर्फ चिकमंगलूर से मिली जीत से नहीं था.

वास्तव में, उनके निर्वाचन के एक पखवाड़े के भीतर गांधी को सालभर पहले बेटे संजय गांधी द्वारा चलाई जाने वाली एक ऑटोमोबाइल कंपनी के कामकाज के बारे में एक संसदीय जांच में अड़ंगा डालने के लिए विशेषाधिकार हनन और सदन की अवमानना का दोषी करार दिया गया था.

कुछ दिनों के बाद, उनकी लोकसभा की सदस्यता उनसे छीन ली गई और उन्हें एक छोटी सी अवधि के लिए जेल भेज दिया गया, जो संभवतः सबसे फायदेमंद साबित होने वाली जेल की सजाओं में से एक है.

वास्तव में इंदिरा गांधी की वापसी की कहानी में चिकमंगलूर बस एक अध्याय था. सच्चाई यह है कि अगर 1977 का साल कांग्रेस की हार और भारत की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार के सत्ता में आने के कारण भारतीय राजनीति का एक बड़ा पड़ाव है, तो 1978 को इंदिरा गांधी के उस जुझारूपन के कारण याद रखा जाना चाहिए, जिसके बल पर उन्होंने अपनी वापसी की इबारत लिखी.

सत्ता में वापसी की योजना को बहुत कम समय में अंजाम दिया गया, इस तथ्य के बावजूद कि उनका सामना एक शत्रुतापूर्ण सरकार से था जिनमें ऐसे लोगों की भरमार थी जो उनके साथ वैसा ही सुलूक करना चाहते थे, जैसा उनकी सरकार ने उनके साथ किया था.

खासकर जून, 1975 की वह मध्यरात्रि उन्हें भूली नहीं थी, जब देश में पहली बार आंतरिक आपातकाल लगाया गया था.

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21 मार्च, 2018 को कर्नाटक के चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी ने चिकमंगलूर में कहा, जिस तरह से आपने इंदिरा जी को समर्थन दिया, उसी तरह से मुझे दीजिए. (क्रेडिट: Twitter/@INCKarnataka)

इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि इंदिरा गांधी की वापसी में चिंगारी का काम जनता नेताओं द्वारा उठाए गये कदमों ने नहीं किया, बल्कि कभी पार्टी के वफादार रहे वाईबी चव्हाण और ब्रह्मानंद रेड्डी ने किया, वे यह समझने की गलती कर बैठे कि इंदिरा अब एक राजनीतिक बोझ और चुकी हुई शक्ति बन गयी हैं.

इन दोनों ने इंदिरा गांधी के खिलाफ बगावत का झंठा बुलंद करते हुए उन्हें राजनीतिक तौर पर अलग-थलग करने की कोशिश की. लेकिन गांधी ने पलटवार करते हुए 1978 की शुरुआत में पार्टी का विभाजन कर दिया और एक धड़े के साथ अलग होकर अपने नाम वाली नई कांग्रेस- कांग्रेस (आई) बना ली.

एक महीने के भीतर, फरवरी, 1978 में, उन्होंने अपनी चुनावी वापसी की बिसात बिछानी शुरू कर दी. और यह काम उन्होंने कर्नाटक में पांचवे विधानसभा चुनाव से शुरू किया.

इस चुनाव में कांग्रेस(आई) को 44.25 मत प्रतिशत के साथ 149 सीटों पर जीत हासिल हुई, जबकि ‘असली’ कांग्रेस को 7.99 प्रतिशत वोटों के साथ सिर्फ दो सीटों से संतोष करना पड़ा.

हालांकि, जनता पार्टी को सिर्फ 59 सीटें मिलीं, लेकिन इसने 39.89 प्रतिशत वोट प्रतिशत के साथ कांग्रेस आई को जबरदस्त टक्कर दी. सीट दर सीट विश्लेषण करने पर पता चलता है कि कांग्रेस आई राज्य में बड़ी जीत दर्ज कर पाने में इसलिए कामयाब हुई, क्योंकि यह पार्टी राज्य की राजनीति के केंद्र में थी और कांग्रेस विरोधी वोट जनता पार्टी और रेड्डी के नेतृत्व वाली कांग्रेस के बीच बंट गये.

इसका अर्थ यह है कि चुनावी अंकगणित के खेल में कोई बदलाव नहीं हुआ है- सबसे बड़ी पार्टी अपनी बढ़त को वोटों के बंटवारे के सहारे सुनिश्चित करती है और अपने खिलाफ जाने वाले वोटों को एकजुट होने से रोकने की हर मुमकिन कोशिश करती है. और इसलिए विपक्ष को तोड़ने और गठबंधनों को आलोचना से ध्वस्त करने की कोशिशें की जाती हैं.

इंदिरा गांधी की वापसी की बिसात वास्तव में मार्च, 1977 में उनकी हार के कुछ महीने के बाद ही बिछाई जाने लगी थी. पटना-नालंदा के अपराधग्रस्त इलाके के एक तब तक अज्ञात गांव में आठ दलितों समेत, 11 लोगों की हत्या कथित तौर पर कुर्मियों के नेतृत्व वाले एक गिरोह के हाथों कर दी गई थी.

टेलीविजन के आने से काफी पहले, इंदिरा गांधी अपना अलग ही स्वांग रचते हुए गांव में एक हाथी पर सवार होकर पहुंचीं. उस घटना की तस्वीरों ने भारतीयों को लंबे समय तक सम्मोहित करके रखा.

किस तरह से वहां मौजूद लोग ‘आधी रोटी खाएंगे, इंदिरा को बुलाएंगे’ और ‘इंदिरा तेरे अभाव में हरिजन मारे जाते हैं.’ के नारे लगा रहे थे, यह किस्सा लोककंठ का हिस्सा बन गया.

इंदिरा ने एक बार फिर उन लोगों के दिलों के भीतर जगह बना ली थी, जिन्होंने मुश्किल से छह महीने पहले उनकी पार्टी को खारिज किया था. उसके बाद बस राजनीतिक संस्थाओं पर नियंत्रण स्थापित करना और अपनी राजनीतिक प्रभुता को हासिल करना ही बाकी रह गया था.

इस दिशा में पहला कदम जनवरी, 1978 की एक सुहावनी दोपहर को उठाया गया. संसद से चंद कदमों की दूरी पर मावलंकर हॉल के बाहर का लॉन इसका गवाह बना.

पार्टी को दोफाड़ करके सिर्फ 54 लोकसभा सदस्यों के साथ उन्होंने इंदिरा कांग्रेस का गठन किया. करीब 100 अन्य को उनकी क्षमता पर संदेह था, लकिन उन्हें आगे चलकर अपने निर्णय का पछतावा हुआ होगा.

साल के बचे हुए महीने पार्टी को खड़ा करने में खर्च किए गये, जिस में पार्टी को एक रूप और चरित्र प्रदान किया गया. इसी समय पार्टी ने हाथ का चुनाव चिह्न धारण किया.

करीब 4 दशक पहले, इंदिरा गांधी ने जैसी दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय दिया, वह अपनी पार्टी और अपनी पार्टी की वापसी की कोशिश कर रहे हर नेता के लिए एक बड़ी सीख है.

उनकी होशियारी, गहरी सूझबूझ और जनता को उत्साहित करने की क्षमता, पराजय का मुंह देखने के तीन साल के भीतर सत्ता में वापसी का मुख्य कारण बनीं. लेकिन, इससे भी ज्यादा यह बिना थके अनवरत काम करने की उनकी जबरदस्त क्षमता के कारण संभव हुआ.

जबकि भारत पर एक बार फिर चुनाव का बुखार चढ़ रहा है, 1978 की वापसी की कहानी से सत्ता वाले और उन्हें चुनौती देनेवाले, दोनों सीख ले सकते हैं. कई मायनों में जनता पार्टी के आत्मघात ने इंदिरा की राह को आसान बनाया था.

फिलहाल ऐसा कुछ होने की संभावना रत्ती भर भी नहीं है, लेकिन यह तय है कि अगले साल भारत अब तक के शायद सबसे जबरदस्त चुनावी और राजनीतिक लड़ाई का गवाह बनने वाला है.

(नीलांजन मुखोपाध्याय लेखक और पत्रकार हैं. उन्होंने ‘नरेंद्र मोदी : द मैन’, ‘द टाइम्स’ और ‘सिख्स: द अनटोल्ड एगनी ऑफ 1984’ जैसी किताबें लिखी हैं.)

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