वेश्याओं और प्रेमिकाओं के पार

जब फिल्मी गाने लड़कियों को तंदूरी मुर्गी बता रहे हैं, तब किसी को तो उन लड़कों को वेश्याओं और प्रेमिकाओं की परिभाषाओं के पार उन ज़िंदा औरतों के बीच ले जाना होगा जो चाहे जिस्म बेचती हों या इंश्योरेंस- जब न कहें तो एक भले आदमी को चाहिए कि वह दरवाज़ा खोले और वापस लौट जाए.

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जब फिल्मी गाने उन लड़कियों को तंदूरी मुर्गी बता रहे हैं, तब किसी न किसी को तो उन लड़कों को वेश्याओं और प्रेमिकाओं की परिभाषाओं के पार ले जाना होगा- ज़िंदा औरतों के बीच. और ज़िंदा औरतें- चाहे वे जिस्म बेचती हों, चाहे इंश्योरेंस-जब न कहें तो एक भले आदमी को चाहिए कि वह दरवाज़ा खोले और वापस लौट जाए.

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फिल्म अनारकली ऑफ आरा के शुरू के कुछ मिनटों में ही आप जान जाते हैं कि अनारकली हिंदुस्तानी फ़िल्मों की ज़्यादातर नायिकाओं से अलग है. मिडिल क्लास नैतिकताओं के पैमाने पर देखो तो एक पतित लड़की, जो अश्लील गाने गाती है, लेकिन प्रेमचंद को पढ़ती है. जो उसे सबसे ज़्यादा अलग करता है, वो ये कि वह विक्टिम नहीं है. चांदनी बार की तब्बू की तरह उसे मजबूरी की किसी स्याह रात में यहां नहीं धकेला गया. वह अपनी मर्ज़ी से नाच-गा रही है और इसी से उसे सुकून मिला है, इसी से शोहरत.

उसकी कहानी में कोई उदासी नहीं, बल्कि उसकी चाल में एक अलग-सा आत्मविश्वास है कि जैसे वही आरा की माधुरी दीक्षित है और वही सनी लियोन- यह आप पर है कि आप दोनों में से किस नाम के साथ ज़्यादा कम्फर्टेबल महसूस करते हैं.

सेक्सुअल इशारों वाले गानों पर नाचने वाली किसी लड़की की कहानी सुनाते हुए फिल्ममेकर उसे मजबूर या परदे के पीछे के ज़िंदगी में किसी और तरह से नैतिक घोषित करने की कोशिश नहीं करे, यह कितना कम होता है.

आमतौर पर एक हीरो हुआ करता है, जिससे ऐसी नायिकाओं को उम्मीद होती है कि इस दलदल से निकाल लेगा, लेकिन हीरो तो क्या होगा, जब दलदल ही नहीं है. बस काम है- जैसे कोई औरत स्कूल में पढ़ाती है, जैसे कोई घर चलाती है, वैसे ही अनारकली नाचती है. हमारी पवित्रताओं की उसे कोई परवाह नहीं. जब तक वह अपना काम अपनी मर्ज़ी से करे तब तक सब सही है.

और अगर आप अब तक सोचने लगे हों कि उसे आपके समाज की नैतिकताओं की परवाह नहीं तो आपको भी उसकी मर्ज़ी की परवाह क्यों होनी चाहिए, तो यहीं अनारकली आपकी आंखों में आंखें डालकर देखती है और फिर से बताती है कि क्या सही है और क्या ग़लत!

यही बताने की कोशिश पिंक की कीर्ति कुल्हारी भी करती हैं, लेकिन दो सीन बाद ही फिल्म को लगता है कि यह ठीक नहीं है. तभी फिल्म की ज़बान लड़खड़ाती है, वह पीछे जाकर अपनी ग़लती सुधारती है और ऐसा लगता है कि कीर्ति का किरदार फिल्म की कहानी से बग़ावत करने की कोशिश कर रहा था, ज़्यादा बड़ी बात कहने की कोशिश कर रहा था, जो उसे नहीं कहने दी गई.

जिस बात पर पिंक अपनी नायिका का साथ नहीं दे पाई कि लड़की ने अगर पैसे लिए भी हैं तो भी उसकी मर्ज़ी के बिना उसे छूना उतना ही ग़लत है, जितना किसी और लड़की को छूना, ठीक वही अनारकली कहती है और फिल्म उसके पीछे खड़ी होती है, अपने पूरे वैभव के साथ.

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शायद उसी का जवाब देने के लिए अनारकली कहीं यह दावा करने की कोशिश नहीं करती कि सेक्स उसके लिए बड़ी चीज़ है. बल्कि इसके उलट, सेक्स को लेकर वो बहुत सहज है, अपने गानों में भी और अपनी ज़िंदगी में भी. इसके बाद वह उस खांचे में भी फिट नहीं बैठती जो कहता है कि नाचना-गाना उसका पेशा है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वो पैसे लेकर किसी के साथ सोए. बल्कि ऐसा लगता है कि वह पेशेवर वेश्या नहीं है, लेकिन तब भी पैसे लेकर कुछ लोगों के साथ सो तो चुकी है.

हम कहीं से भी ब्लैक और व्हाइट बनाना शुरू करें, वह बार-बार ग्रे में जा बैठती है. इसीलिए स्टेज पर हुई ज़बरदस्ती के बाद कुलपति जब उसे पैसे देकर अपने साथ सोने को कहता है, तब वह ‘अच्छी’ लड़कियों की तरह पैसे उसके मुंह पर फेंककर नहीं मारती, बल्कि ब्लाउज़ में रखती है और हिम्मत है तो ले के दिखाइए  कहकर निकल जाती है. यही उसका तरीका है. अच्छी लड़कियां ऐसे हालात को कैसे हैंडल करती हैं, उसे नहीं पता.

अनारकली ऑफ आरा इस देश के उन बच्चों और किशोरों को भी दिखाई जानी चाहिए, जो शादियों से लेकर मातमों तक हर दिन ऑर्केस्ट्रा की लड़कियों को डबल मीनिंग गानों पर नाचते हुए देखते हैं और अपने पिता-भाई और उनके दोस्तों को उन्हें छूते-पकड़ते हुए.

जब फिल्मी गाने उन लड़कियों को तंदूरी मुर्गी बता रहे हैं, तब किसी न किसी को तो उन लड़कों को वेश्याओं और प्रेमिकाओं की परिभाषाओं के पार ले जाना होगा- ज़िंदा औरतों के बीच. और ज़िंदा औरतें- चाहे वे जिस्म बेचती हों, चाहे इंश्योरेंस-जब न कहें तो एक भले आदमी को चाहिए कि वह दरवाज़ा खोले और वापस लौट जाए.

गौरव सोलंकी कहानीकार, कवि, गीतकार और स्क्रीनप्ले राइटर हैं . उन्होंने अनुराग कश्यप की फ़िल्म ‘अग्ली’ के गाने लिखे हैं. अपने पहले कविता संग्रह ‘सौ साल फ़िदा’ के लिए उन्हें 2012 में भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार भी मिला. गौरव आईआईटी रुड़की से इंजीनियरिंग ग्रेजुएट हैं. फ़ैंटम फ़िल्म्स ने उनकी कहानी ‘हिसार में हाहाकार’ पर फ़िल्म बनाने के लिए उसके अधिकार खरीदे हैं. फिलहाल वे उसके अलावा दो और स्क्रिप्ट्स लिख रहे हैं.

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