आदिवासियों के स्वास्थ्य से जुड़ी एक सरकारी रिपोर्ट बताती है कि उनकी स्थिति बेहद ख़राब है

स्वास्थ्य एवं आदिवासी मामलों के मंत्रालयों द्वारा गठित एक विशेषज्ञ समिति द्वारा आदिवासी स्वास्थ्य को लेकर किए गए अध्ययन में पता चला है कि आदिवासियों के स्वास्थ्य की स्थिति बेहद चिंताजनक है.

Indian tribal people sit at a relief camp in Dharbaguda in Chhattisgarh. File Photo Reuters

स्वास्थ्य एवं आदिवासी मामलों के मंत्रालयों द्वारा गठित एक विशेषज्ञ समिति द्वारा आदिवासी स्वास्थ्य को लेकर किए गए अध्ययन में पता चला है कि आदिवासियों के स्वास्थ्य की स्थिति बेहद चिंताजनक है.

Indian tribal people sit at a relief camp in Dharbaguda in Chhattisgarh. File Photo Reuters
(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

नई दिल्ली: भारत में मलेरिया के कुल मामलों में से 30 प्रतिशत आदिवासी प्रभावित होते हैं. इसके अलावा जीवनशैली से जुड़ी बीमारियां प्रमुख स्वास्थ्य समस्याएं हैं जिनका सामना आदिवासी कर रहे हैं.

2013 में स्वास्थ्य एवं आदिवासी मामलों के मंत्रालयों द्वारा गठित एक विशेषज्ञ समिति द्वारा आदिवासी स्वास्थ्य को लेकर किए गए विस्तृत विश्लेषण में यह भी खुलासा हुआ कि बड़ी संख्या में आदिवासी कुपोषण से पीड़ित हैं.

इसमें कहा गया है कि अनुसूचित जनजातियों की स्वास्थ्य स्थिति में गत 25 वर्षों में काफी सुधार आया है लेकिन इसके बावजूद अन्य सामाजिक समूहों की तुलना करने पर यह अत्यंत ख़राब है.’

समिति ने अपनी रिपोर्ट हाल में केंद्र सरकार को सौंपी. समिति को आदिवासी इलाकों में वर्तमान स्वास्थ्य स्थिति की समीक्षा करने, राज्यों के लिए दिशानिर्देश तैयार करने और अतिरिक्त संसाधनों की ज़रूरतों के बारे में सिफारिशें करने का काम दिया गया था.

समिति ने कहा कि अलग-अलग आदिवासी समुदायों की स्वास्थ्य स्थिति के बारे में आंकड़ों की लगभग पूरी तरह से कमी है. देश के आदिवासी स्वास्थ्य स्थिति की व्यापक जानकारी के अभाव में नीतिगत कदम और सरकारी कार्यक्रम अक्सर तदर्थ होते हैं.

समिति ने यह रिपोर्ट 2011 की जनगणना, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे (एनएफएचएस), नेशनल सैंपल सर्वे आॅर्गनाइज़ेशन (एनएसएसओ), कुछ नागरिक संगठनों के अध्ययन और राष्ट्रीय जनजाति स्वास्थ्य अनुसंधान संस्थान के एक अध्ययन से मिले आंकड़ों से तैयार की है.

आदिवासियों के स्वास्थ्य से जुड़ी यह अपनी तरह की पहली रिपोर्ट है.

12 सदस्यीय समिति के अध्यक्ष और मैगसेसे पुरस्कार विजेता ग्रामीण स्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉ. अभय बांग ने बताया, ‘भौगोगिक रूप से अलग-थलग होने, नीतियों के लागू होने की ख़राब दशा और पर्याप्त संसाधन न होने से आदिवासियों के स्वास्थ्य की स्थिति अच्छी नहीं है.’

समिति ने पाया कि आदिवासी लोग, जो देश की जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत है, तीन स्तरों पर बीमारियों से पीड़ित हैं.

रिपोर्ट के अनुसार, आदिवासी क्षेत्रों में कुपोषण और संक्रामक रोग जैसे- मलेरिया और टीबी अनियंत्रित हैं. तेज़ शहरीकरण, पर्यावरणीय असंतुलन और चुनौतीपूर्ण जीवनशैली से कैंसर, हाइपरटेंशन (उच्च रक्तचाप) और डायबिटीज़ जैसी गैर संक्रामक बीमारियां भी लगातार बढ़ रही हैं. इसके अलावा तीसरे स्तर पर आदिवासियों को मानसिक स्वास्थ्य से भी जूझना पड़ रहा है.

अनुसूचित जातियों (एसटी) की स्थिति स्वास्थ्य के सभी मानकों के साथ शिशु मृत्यु दर, पांच साल से कम उम्र में मौत के मामलों में बेहद ख़राब है.

रिपोर्ट के अनुसार, आदिवासी लोगों में अनुमानित शिशु मृत्यु दर प्रति 1,000 बच्चों पर 44 से 74 के बीच है. पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मुत्यु दर 60 प्रतिशत तक कम हुई है लेकिन कुछ अनुकूल सामाजिक समूहों की तुलना में यह दर काफी ज़्यादा है.

2014 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे के मुताबिक आदिवासी क्षेत्रों में शिशु मृत्यु दर 38 प्रतिशत थी जो दूसरे समूहों में होने वाले शिशु मृत्यु दर से कहीं ज़्यादा है.

समिति में शामिल विशेषज्ञों के अनुसार, आदिवासी लोगों में कुपोषण की बात की जाए तो बच्चों और बालिग लोगों में कम वजन होना अस्वीकार्य तौर पर काफी ज़्यादा है. इसके अलावा पिछले दशक में प्रोटीन, कैलोरी और विटामिन जैसे पोषक तत्व ग्रहण करने में भी कमी देखी गई है.

रिपोर्ट में बताया गया है कि विभिन्न आयु वर्ग के 29 से 32 प्रतिशत बच्चों और 63 से 74 प्रतिशत बालिग पुरुष और महिलाओं को ही पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन और दूसरे पोषक तत्व मिल सके हैं.

वहीं दूसरे सामाजिक संगठनों की तुलना में आदिवासी बच्चों में कम वजन होने का मामला डेढ़ गुना ज़्यादा है.

समिति ने सचेत करते हुए कहा है कि 15 से 19 साल की 50 प्रतिशत आदिवासी लड़कियां कम वज़न से जूझ रही हैं अथवा उनका बॉडी मास इंडेक्स 18.5 से कम है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे के आंकड़े बताते हैं कि 15 से 49 साल की उम्र की 65 प्रतिशत आदिवासी महिलाएं आयरन की कमी यानी एनीमिया से पीड़ित हैं.

समिति ने बताया है कि वर्तमान में ऐसा कोई स्रोत नहीं जिससे राष्ट्रीय पर बीमारियों का आंकड़ा लिया जा सके. इस वजह से आदिवासी क्षेत्रों में रोगियों का आंकड़ा जुटाने का कोई तंत्र विकसित नहीं हो सका है.

रिपोर्ट में कहा गया है कि राष्ट्रीय सैंपल सर्वे आॅर्गनाइजेशन के 2014 में जुटाए गए आंकड़ों के विश्लेषण से बुखार, टीबी, जल जनित, खून और सांस से जुड़ी बीमारियां दूसरे समूहों के मुक़ाबले अनुसूचित जातियों में बहुत ही ज़्यादा हैं.

रिपोर्ट के अनुसार, चार में एक युवा हाइपरटेंशन का शिकार है. मलेरिया के कुल मामलों में आदिवासी समुदायों का प्रतिशत 30 है और इस बीमारी से मृत्यु दर 50 प्रतिशत है.

आदिवासी क्षेत्र के प्रति एक लाख लोगों में टीबी के मामले 703 हैं, जबकि पूरे देश में प्रति एक लाख पर यह संख्या 256 है.

2016 में लांसेट के अध्ययन के मुताबिक आदिवासियों में जीवन प्रत्याशा 63.9 साल है जबकि सामान्य आबादी में यह 67 साल है.

अध्ययन में कहा गया है कि ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यकीय (आरएचएस) से पता चला है कि भौगोलिक और सामाजिक आर्थिक चुनौतियों की वजह से आदिवासी क्षेत्रों में स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे और संसाधन के बीच एक बड़ा अंतर है.

अध्ययन के अनुसार, आदिवासी क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाएं इसलिए भी अच्छी नहीं हैं क्योंकि सड़कों की स्थिति बेहद ख़राब है और कहीं-कहीं तो सड़कें ही नहीं हैं.

समिति ने सिफारिश की है कि सरकार अपने संसाधनों का 70 प्रतिशत आदिवासी स्वास्थ्य के लिए प्राथमिक देखरेख पर ख़र्च करे.

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