जो कुछ भी 5 अगस्त को संसद में हुआ है उसने साबित कर दिया है कि भाजपा के लिए बहुमत का अर्थ बहुसंख्यकवादी बहुमत है.
‘भीष्म ने कहा था,
गुरु द्रोण ने कहा था,
इसी अन्त:पुर में
आकर कृष्ण ने कहा था-
‘मर्यादा मत तोड़ो,
तोड़ी हुई मर्यादा
कुचले हुए अजगर-सी
गुंजलिका में कौरव-वंश को लपेटकर
सूखी लकड़ी-सा तोड़ डालेगी.’
(अंधा युग, द्वितीय अंक | धर्मवीर भारती)
भारतीय राज्य ने मर्यादा तोड़ डाली है. भारतीय राज्य के चेहरे पर पड़ा नकाब उतर गया है. सभ्यता की अंतिम रेखा पार कर ली गई है.
यह फिर साबित हो गया है कि भारतीय जनता पार्टी के लिए राजनीति में नीति की कोई जगह नहीं है. शालीनता, संवेदना और सत्य की भाजपा की राजनीति ने धज्जियां उड़ा दी हैं.
झूठ, धोखाधड़ी और जबर्दस्ती और बेरहमी को शासन-कला कहा जा रहा है. निर्लज्जता को साफगोई और दबंगई को साहस!
इतिहास में ऐसे क्षण आते हैं जो समाज के लिए आईना बन जाते हैं जिनमें वह अपनी असली सूरत साफ देख पाता है. जो कुछ भी 5 अगस्त को संसद में हुआ है उसने साबित कर दिया है कि भाजपा के लिए बहुमत का अर्थ बहुसंख्यकवादी बहुमत है.
उसने भारत की राजनीति में अंदर ही अंदर पल रहे बहुसंख्यकवाद के ज़हर को भी सतह पर ला दिया है. वह ज़हर सारे दलों के दिमाग में है, यह शायद भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को पता था.
भारत के मुसलमान को मालूम नहीं था, ऐसा नहीं है लेकिन यह अब खुलेआम बताया भी गया है: जहां उसकी संख्या कम है उसे घुसपैठिया और अवैध कहा जाएगा और जहां उसकी संख्या ज्यादा है, उसे आतंकवादी ठहरा दिया जाएगा.
यह क्या महज इत्तफाक़ है कि 4 अगस्त को असम के लाखों मुसलमानों को नोटिस जारी किया गया कि वे फिर से अपनी नागरिकता के सबूत पेश करें.
कश्मीर पर बात करने के लिए कश्मीर का विशेषज्ञ होने की ज़रूरत नहीं. धारा 370 की बारीकियों और उसके इतिहास को कभी और कहीं और पढ़ा जा सकता है.
धारा 370 एक प्रतीक रही है इस बात की कि भारतीय राष्ट्र वास्तव में एक प्रक्रिया है, वह एक विकसित होता हुआ रिश्ता है, कोशिश है एक दूसरे का यकीन हासिल करने की. वह एक सफ़र है, एक दावत है. वह धमकी नहीं है.
राष्ट्र सिर्फ क़ानूनों के सिलसिले का नाम नहीं, वह एक प्रतीक-व्यवस्था है. हर प्रतीक का साफ व्यवहारिक अर्थ खोजना आवश्यक नहीं, प्रतीक आश्वासन होते हैं, राष्ट्र को पहचानने और उससे अपनापन बनाने में मददगार होते हैं.
5 अगस्त ने साबित किया कि भारत भी आखिरकार स्टालिन के सोवियत संघ और कम्युनिस्ट चीन की तरह यह मानता है कि राष्ट्र संसाधनों पर, आबादियों पर कब्जे का दूसरा नाम है. राष्ट्र कोई रूमानी ख्याल नहीं है.
कौन नहीं जानता कि धारा 370 जोड़ने का धागा थी, भारत और कश्मीर के बीच दीवार नहीं? लेकिन जो उसके खात्मे की मांग करते रहे हैं और जो 5 अगस्त के भारतीय संसद में हुए निर्णय का जश्न मना रहे हैं उनके लिए राष्ट्र दूसरों पर कब्जे का नाम है.
उससे भी ज़्यादा उनके भीतर यह ग्रंथि बन गई है कि यह मुसलमानों को विशेषाधिकार है. जो सवाल वे कश्मीर के लिए उठा रहे हैं, वह वे बाकी राज्यों के लिए नहीं उठाते, जिन्हें विशेषाधिकार हासिल हैं, जहां आप संपत्ति नहीं खरीद सकते और जिनमें प्रवेश के लिए आपको परमिट चाहिए होता है.
जम्मू कश्मीर को तोड़ दिया गया है, उसके टुकड़े कर दिए गए हैं. यह संसद में बहुमत की जिस तलवार से किया गया है, वह किसी और राज्य की गर्दन और देह पर भी गिर सकती है अगर भाजपा को वह परेशानकुन मालूम पड़े.
जो नेता संघीय प्रणाली की दुहाई देते और खुद अपने राज्यों के लिए विशेष पैकेज मानते थकते नहीं, उन्होंने कश्मीर के टुकड़े होने दिए और उससे स्वतंत्र राज्य की हैसियत छीन लेने में भाजपा की मदद की, वे क्या यह सोच रहे थे कि उनके राज्य मुसलमान बहुल नहीं, इसलिए उन्हें यह ख़तरा नहीं!
क्या न्यायपालिका संसद के माध्यम से की गई इस खुली अंधेरगर्दी को दुरुस्त करेगी? उसका हाल का रिकॉर्ड तसल्ली नहीं देता, वह चाहे आधार का प्रसंग हो, या असम में एनआरसी का या अयोध्या का. अफजल गुरु या याकूब मेमन के लिए अदालत के पास वैसा तर्क न था जो दारा सिंह के लिए इस्तेमाल किया गया.
यह सामूहिक तौर पर उन मामलों के बारे में तो सच है ही, जहां राज्य की सर्वग्रासी हिंसा को चुनौती दी जाती है, उससे अधिक उन मामलों में भी जिनका रिश्ता किसी न किसी तरह मुसलमानों से है.
निजी स्वतंत्रता से अदालत को तब दिक्कत होने लगती है जब वह किसी मुसलमान की हो, यह हादिया प्रसंग में उसके रवैये से मुसलमानों को बता दिया गया था. वह उन्हें विचार करके फैसला लेने लायक बालिग नहीं मानती, उनके लिए अनुशासन और अभिभावक की ज़रूरत है, ऐसा इस मुकदमे ने साबित किया था.
कश्मीर के टुकड़े करके सिर्फ वहीँ के नहीं, भारत भर के मुसलमानों को कहा गया है कि उन्हें संवैधानिक तरीके से अपमानित किया जा सकता है.
भारतीय जनता पार्टी के बारे में हमें मालूम था लेकिन 5 अगस्त को बहुसंख्यकवादी दिमाग के गटर से जो गंदगी उबल-उबलकर बाहर फैल रही है, कहीं भीतर छिपी हुई जो अश्लीलता नग्न नृत्य कर रही है और जो उत्सव मनाया जा रहा है, उसने मोहम्मद अली जिन्ना की आशंका को सच साबित कर दिया है.
इसमें महानगरों की सभी जमात भी शामिल है जो भूमंडलीकरण के गुण गाते नहीं थकती और उसके लाभ भी लेती है. यह साबित हो गया कि शिक्षा, साहित्य, कला, राष्ट्रवाद के विष से खाली नहीं.
लेकिन यह भी कहा जाना चाहिए कि अभी जो मिठाइयां खाई जा रही हैं, उनका ज़हर इस राष्ट्र के रक्त में कैंसर की तरह फैल जाएगा.
5 अगस्त की संसद ने एक झटके में कश्मीर में संवाद को व्यर्थ और मूर्खतापूर्ण ठहरा दिया है. इसे रिकॉर्ड करना चाहिए कि भारत की संसद ने चतुराई के साथ-साथ ताकत की हिंसा को एक उसूल के तौर पर स्थापित कर दिया है.
यह सिद्धांत उसे भारी पड़ेगा, लेकिन उससे अधिक जो यह कहा जा रहा है कि कश्मीर की आबादी की सूरत बदल दी जाएगी, फिर रूस और चीन की याद दिलाता है, जो तिब्बत की आज़ादी चाहते है और उसके हानीकरण की आलोचना करते हैं, उनकी जीभ कश्मीर के हिंदूकरण की संभावना से चटपटा रही है. उन सब का लालच उनपर भारी पड़ेगा.
कन्नड़ लेखक यूआर अनंतमूर्ति अपने गुर्दे ख़राब होने और डायलीसिस पर रहने के बावजूद 2014 में दिल्ली आए, अपने वतन को सावधान करने कि वह एक आत्मघाती कदम उठाने जा रहा है.
उन्होंने कहा, NEVER GIVE POWER TO A BULLY. (किसी दबंग के हाथ में ताकत नहीं देनी चाहिए) वह सुरक्षा नहीं देता, आपको कायर बना देता है. अपनी कायरता से लज्जित आप वही बन जाना चाहते हैं और इसलिए उसके लठैत या चारण बन कर रह जाते हैं.
कहते हैं साहित्यकार भविष्यवक्ता होता है. यह भी कहते हैं कि देर कितनी भी हो, कमजोर की आह अत्याचारी पर वापस वज्र की तरह गिरती है. हिंदुस्तान अब से हमेशा आशंका के साये में जीने को अभिशप्त है.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)