पुस्तक अंश: अयोध्या स्थित बाबरी मस्जिद में वर्ष 1949 में मूर्ति रखने के बाद की घटनाएं यह प्रमाणित करती हैं कि कम-से-कम फ़ैज़ाबाद के तत्कालीन ज़िलाधीश केकेके नायर तथा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत यदि मूर्ति स्थापित करने के षड्यंत्र में शामिल न भी रहे हों, तब भी मूर्ति को हटाने में उनकी दिलचस्पी नहीं थी.
(यह लेख वरिष्ठ पत्रकार और फ़ैज़ाबाद से प्रकाशित दैनिक जनमोर्चा के संपादक शीतला सिंह की किताब ‘अयोध्या: रामजन्मभूमि-बाबरी-मस्जिद का सच’ से लिए गए अंश का दूसरा और अंतिम भाग है. पहला भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)
आखिर मूर्तियां नहीं हटीं
अक्षय ब्रह्मचारी के शब्दों में, बाबरी मस्जिद में मूर्ति रखे जाने तथा उत्पन्न हालात पर गोविंद बल्लभ पंत ने उनकी चिट्ठी की पावती तो स्वीकार की, लेकिन चिट्ठी में उठाए गए प्रश्नों तथा मुद्दों पर कोई कार्रवाई नहीं की. अलबत्ता, पंडित नेहरू इस प्रकार की गतिविधियों के विरोधी थे.
यह महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू का ही नेतृत्व था, जिसने सांप्रदायिक उन्माद के दौर में भी देश को हिंदू राष्ट्र नहीं बनने दिया और उसे एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र बनाया. इस संबंध में पंडित नेहरू ने मुख्यमंत्री को फोन तथा टेलीग्राम से संदेश भी दिया था कि मूर्ति हटवा दी जाए.
केंद्रीय गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने भी चिट्ठी लिखकर मूर्ति रखने को अनुचित बताया था. लेकिन पंत जी ने नेहरूजी को कहा कि स्थितियां बड़ी खराब हैं. मूर्ति हटाने का प्रयत्न किया गया तो भीड़ को नियंत्रित करना कठिन होगा.
पंत ने इस बात का ज़िक्र भी किया कि जब उन्होंने जिलाधिकारी नायर से फ़ैज़ाबाद आने की इच्छा ज़ाहिर की तो जिला मजिस्ट्रेट का तुरंत जवाब आया कि वे वहां उनकी और उनके विमान की रक्षा प्रशासन द्वारा नहीं करा पाएंगे.
पंत जी को यह सलाह दी गई कि वे फ़ैज़ाबाद से 49 मील दूर अकबरपुर हवाई-पट्टी पर आएं, जहां जिलाधिकारी अपने सहयोगियों के साथ उनसे मिलेंगे. पंत जी की यह यात्रा जिला मजिस्ट्रेट द्वारा दिए गए सुझाव के अनुसार हुई. लेकिन अयोध्या में विवादित स्थल की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ.
हिंदू महासभा के गोपाल सिंह विशारद ने सब-जज बीर सिंह की अदालत में प्रार्थना-पत्र दिया कि रामभक्त होने के नाते उन्हें पूजा-पाठ की अनुमति दी जाए. इन सब घटनाक्रमों के बीच मूर्ति रखे जाने के 18 दिन गुज़रने के बाद मुस्लिमों को निषेध जारी करके विवादित स्थल पर आने से रोक रोक दिया जाए. उन्हें अस्थायी निषेध के रूप में यह अनुमति और प्रतिबंध का आदेश मिल भी गया.
भारत-विभाजन और उससे जुड़ी सांप्रदायिकता की ज़हरीली आंधी में मुसलमानों के सामने सबसे बड़ी चुनौती स्वयं को देशभक्त साबित करना होता था. उन्हें सदा यह भय लगा रहता था कि लोग उन्हें पाकिस्तानी न करार दें और सक्रिय होने पर कहीं उनकी हत्या न करा दें. इसलिए वे किसी भी तरह के प्रतिरोध से बचते थे.
यही कारण था कि बाबरी मस्जिद के आस-पास कब्रों को तोड़ने या मस्जिद में मूर्तियां रखे जाने पर कोई प्रबल प्रतिरोध नहीं हुआ. पहला मुकदमा भी हिंदू पक्ष की ओर से ही दायर हुआ. हिंदुओं का नेतृत्व गोपाल सिंह विशारद कर रहे थे.
मुसलमान फ़ैज़ाबाद की कचहरी में मुकदमे की पैरवी करने अनिवार्य रूप से ज़रूर जाते थे. इनके वकील रहमत साहब आदि हुआ करते थे. वे ही इनका पथ-प्रदर्शन किया करते थे कि क्या होना चाहिए. कई प्रभावशाली मुस्लिम वकील इससे विलग थे क्योंकि उन्हें हिंदुओं व प्रशासन का समर्थन खोने का डर था.
यही कारण था कि जब कुर्क संपत्ति के स्वामित्व के निर्धारण का प्रश्न सिटी मजिस्ट्रेट के यहां चल रहा था तब 21 मुसलमानों की ओर से बयान-हल्फियां दाखिल करायी गई थीं कि यदि यह स्थान हिंदुओं को दे दिया जाए तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी. ये बयान-हल्फियां आमतौर पर फ़ैज़ाबाद नगरपालिका व सरकारी दफ़्तरों में कार्यरत कर्मचारियों के उन मुस्लिम परिवारों या उन लोगों की थी जो हिंदू नेताओं के दबाव में थे.
महज़ एक मुकदमा मानकर ही हिंदुओं के पक्ष में प्रसिद्ध दीवानी वकील बाबू जगन्नाथप्रसाद तथा निर्माेही अखाड़े की ओर से समाजवादी नेता सर्वजीतलाल वर्मा वकील बने थे. यही कारण है कि मुकदमे के विभिन्न पक्षों में वाद-विवाद अदालतों तक ही सीमित होता था, आने-जाने के दौरान घरों या सड़कों पर नहीं.
वैसे तो ज़ाब्ता फौजदारी की धारा 145 में कुर्की के बाद स्वामित्व-निर्धारण के लिए यह मामला धारा-146 के अंतर्गत दीवानी अदालत को सौंप दिया गया था. उसके बाद भी सिटी मजिस्ट्रेट की अदालत में 145 की कार्रवाई चलती रही थी.
मुस्लिमों की ओर से बयानहल्फी भी वहीं दाखिल की गई थी, दीवानी अदालत में नहीं. यह बयानहल्फी अतिरिक्त सिटी मजिस्ट्रेट मार्कण्डेय सिंह के समक्ष प्रस्तुत की गई थी. जबकि यह प्रकरण ज़ाब्ता फौजदारी की धारा 146 के अनुसार स्वामित्व-निर्धारण के लिए दीवानी न्यायालय को संदर्भित कर दिया गया था. उसके बाद भी धारा 145 का मुकदमा सिटी मजिस्ट्रेट के न्यायालय का बंद नहीं हुआ.
मूर्ति रखे जाने के तीसरे दिन 25 दिसंबर, 1949 को स्थानीय प्रशासन ने विवादित स्थल को धारा-145 के तहत कुर्क कर लिया और मूर्ति के भोग, राग, आरती तथा व्यवस्था के लिए बाबू प्रियादत्त राम, जो शहर के प्रमुख रईस तथा नगरपालिका फ़ैज़ाबाद के अध्यक्ष थे, की नियुक्ति रिसीवर के रूप में कर दी . इस प्रकार, यह मामला न्यायिक विचार-हेतु सबजुडिस हो गया. उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता .
अयोध्या की स्थिति पर मुख्यमंत्री का बयान
अयोध्या का प्रश्न विधानसभा में 31 अगस्त, 1950 में उठा. इसमें मुख्य मुद्दे ज़िले का सांप्रदायिक वातावरण, 6 सितंबर 1950 को अक्षय ब्रह्मचारी का प्रस्तावित अनशन तथा 14 सितंबर, 1950 को अयोध्या में सांप्रदायिक मामले के कारण शांतिभंग की आशंका के थे.
मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत ने 14 सितंबर, 1950 को जो वक्तव्य में विधानसभा में दिया, वह विधानसभा की रिपोर्टिंग में इस प्रकार दर्ज है-
अयोध्या की स्थिति पर माननीय मुख्यमंत्री का वक्तव्य
माननीय गोविंद बल्लभ पंत (मुख्यमंत्री)- बजाय इसके कि बहुत-सी जिरह की बातें की जाएं मैंने मुनासिब समझा कि अयोध्या के मसले के बारे में कुछ लोगों में गलत ख्यालात हैं और उनकी वजह से परेशानियां भी हैं, तो उसके बारे में एक पूरा बयान दे दूं. ताकि जो चीजें हमारे इल्म में हैं, वे सबके इल्म में आ जाएं और उस बारे में कम से कम जहां तक मेरी मालूमात है उसके सिलसिले में कोई गलतफहमी न रहे.
इस गरज़ से मैं आपकी इजाज़त से इसे पढ़ना चाहता हूं- अयोध्या की कुछ घटनाएं अभी हाल ही में समाचार-पत्रों में प्रकाशित हुई हैं और इस ओर लोगों का ध्यान और तरह से भी गया है, इसलिए सरकार यह उचित समझती है कि इस विषय की सारी बातें आप लोगों के सामने रख दी जाएं. जिन विषयों के बारे में चर्चा है, वे मुख्यतया ये हैं-
(क) कुछ मकबरों को पहुंची हानि, (ख) बाबरी मस्जिद, (ग) स्टार होटल, (घ) मुर्दों का गाड़ना, (ड़) मारपीट
इस संबंध में सरकार की जानकारी में जो बातें आई हैं उनके अनुसार असलियत इस प्रकार है:
(क) मकबरों को हानि पहुंचाने के बारे में:
अयोध्या में चारों तरफ ऐसी बहुत-सी कब्रें फैली पड़ी हैं जहां शायद ही कभी कोई जाता-आता हो. अयोध्या की आबादी में बीस हज़ार से ऊपर हिंदू और दो हज़ार से कम मुसलमान हैं. ऐसी दशा में यदि कोई इन कब्रों को कुछ हानि पहुंचा भी दे तो इस प्रकार की शरारत करने वाले का पता लगाना कुछ सरल काम नहीं है.
किंतु फिर भी, जब कभी इस प्रकार की कोई सूचना अधिकारियों को मिली है तो उसके विषय में बिना विलंब के जांच और आवश्यक कार्यवाही की गई है. अक्टूबर, 1949 के अंत में पता लगा कि बाबरी मस्जिद और जन्म स्थान की चहारदीवारी के बाहर जो खुला मैदान पड़ा है उसमें की कुछ कब्रों को किसी ने कुछ हानि पहुंचाई है. इसकी जांच प्रारंभ कर दी गई और चार आदमी गिरफ़्तार कर लिए गए.
मजिस्ट्रेट ने इन लोगों को सज़ा कर दी, किंतु सेशन की अदालत से वे अपील में छूट गए. उस जगह कब्रों की रक्षा के लिए काफी पुलिस तैनात कर दी गई. इन सब कार्यवाहियों का असर अच्छा पड़ा और जनवरी, 1950 ई. की दो घटनाओं को छोड़कर कब्रों को हानि पहुंचाए जाने की कोई घटना सरकार की जानकारी में नहीं हुई.
इन दो घटनाओं में भी मजिस्ट्रेट की अदालत से सज़ा हो गई. जुलाई, 1950 ई. में इन कब्रों में से किसी एक पर, जो तारकोल से लिख दिया गया था, उसका मुकदमा अदालत में अभी चल रहा है.
(ख) बाबरी मस्जिद:
बाबरी मस्जिद का मुकदमा अदालत में चल रहा है, इसलिए उसके बारे में कुछ कहना उचित नहीं है.
(ग) स्टार-होटल:
जनवरी, 1950 ई. में उस समय के फ़ैज़ाबाद के जिलाधिकारी को इस बात की सूचना मिली कि स्टार-होटल बदमाशों का अड्डा बन गया है और वहां एक व्यक्ति, जिसके पास बिना लाइसेंस का रिवाल्वर है, रह रहा है.
सूचना पाने पर उन्होंने होटल बंद कर देने की आज्ञा दी और आदेश दिया कि होटल की इमारत मालिक मकान के नाम एलॉट कर दी जाए. जब यह बात सरकार को ज्ञात हुई और सरकार ने समझा कि जिलाधिकारी की कार्यवाही उचित नहीं है तो उसने तुरंत आदेश किया कि इमारत स्टार होटल के मालिक को वापस कर दी जाए.
किंतु रेंट-कंट्रोल एंड इविक्शन एक्ट के कुछ निर्देशों के कारण ज़िला-अधिकारियों को इमारत होटल के मालिक को वापस करने में कुछ कठिनाई प्रतीत हुई. इस पर होटल के मालिक ने यह चाहा कि उसी इमारत से मिली हुई दूसरी इमारत उसे एलॉट कर दी जाए. उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली गई और वह संतुष्ट हो गया. तबसे वह उस दूसरी इमारत में अपना होटल चला रहा है.
(घ) मुर्दों का गाड़ना:
इस संबंध में तीन घटनाएं हुई हैं जिनका ब्योरा इस प्रकार है-
(1) 28 मई को एक आदमी मरा और लोगों ने उसे शीश पैगंबर की कब्रिस्तान में गाड़ दिया. गाड़ने वाले लाश को उस आदमी के घर से सीधे कब्रिस्तान ही ले गए थे. जो आदमी मरा था उसके संबंधी, बाबरी मस्जिद के निकट जो स्थान है, उसमें उस दिन सवेरे ही संभवत: कब्र खोदने के लिए गए थे.
पड़ोस में रहने वाले हिंदुओं ने उस स्थान तथा सुतेहटी नामक कब्रिस्तान के बारे में इस आधार पर ऐतराज़ किया कि वहां 1934 से कोई मुर्दा नहीं गाड़ा गया था. वहां की पुलिस शीघ्र ही मौके पर पहुंच गई और इसके बाद तुरंत ही सिटी मजिस्ट्रेट भी पहुंच गए. इसके बाद शीश पैगंबर का कब्रिस्तान उस मुर्दे को गाड़ने के लिए चुना गया.
इस बात के तय होने में दो घंटे से अधिक नहीं लगे. उस व्यक्ति के संबंधियों को कफन आदि के इंतज़ाम में कुछ समय लगा और उनके उक्त प्रबंध कर लेने पर ही मुर्दा गाड़ा जा सका.
(2) दूसरी घटना 20 जून की है. उस दिन आधी रात को सुतेहटी के कब्रिस्तान में चुपके-से एक मुर्दा गाड़ दिया गया था. उस कब्रिस्तान के बारे में हिंदुओं को पहले से ही आपत्ति थी. दूसरे दिन सुबह जब हिंदुओं को इस बात का पता चला कि उक्त कब्रिस्तान में एक मुर्दा गाड़ दिया गया है तो वे वहां आकर इकट्ठे हो गए.
वहां मुसलमान भी इकट्ठे हुए और जान पड़ा कि झगड़ा हो जाएगा. किंतु पुलिस ने मामले को रफा-दफा कर दिया और लोग वहां से चले गए . इस घटना के बाद हिंदू लोग यह कहने लगे कि जितने में अयोध्या की पंचकोसी परिक्रमा होती है उसके भीतर कोई मुर्दा न गाड़ा जाए, किंतु अधिकारियों ने इस अनूठी मांग को नहीं माना.
(3) 11 जुलाई, 1950 ई. की रात को कुछ मुसलमान वहां के थानेदार के पास गए और उनसे कहा कि वे सुतेहटी में एक मुर्दा गाड़ना चाहते हैं, किंतु इस प्रस्ताव को थानेदार ने नहीं माना.
दूसरे दिन सवेरे मुसलमान लोग इस मांग को लेकर डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के पास गए, किंतु डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट ने उनसे कहा कि मुर्दा उन्हीं छह कब्रिस्तानों में से किसी एक में गाड़ा जा सकता है, जिन्हें गाड़ने के लिए म्युनिसिपल बोर्ड ने इस बीच में विज्ञापित कर दिया है.
इसके बाद उन्होंने मुगलपुरा के कब्रिस्तान में मुर्दों को गाड़ना पसंद किया ओर उसे वहीं गाड़ दिया.
(घ) मारपीट:
फ़ैज़ाबाद और अयोध्या दो भिन्न स्थान हैं. 4 अक्टूबर, 1949 को बकरीद के दिन फ़ैज़ाबाद में जो घटनाएं घटी थीं, उनका अयोध्या से कोई संबंध नहीं है. लाख प्रबंध करने पर भी ऐसी घटनाएं जहां-तहां हो ही जाती हैं. उक्त अवसर पर हुआ यह था कि हिंदुओं ने एक कसाई पर इस शक पर हमला कर दिया कि उसने गाय की कुर्बानी म्युनिसिपालिटी के नियमों के विरुद्ध की है.
इस घटना के बाद उस दिन घर में घुसने और मारपीट करने की तीन और घटनाएं हुईं. इन मामलों की पूरी जांच की गई और इस समय उनके मुकदमे चल रहे हैं.
18 जुलाई, 1950 ई. को सुन पड़ा कि फ़ैज़ाबाद में एक शरणार्थी लड़के को कुछ मुसलमानों ने रात में ले जाकर कुएं में फेंक दिया. जब 18 जुलाई, 1950 को सवेरे यह समाचार ज़िले के अधिकारियों को मिला तो उन्होंने तुरंत इस बात का प्रबंध किया कि यह आग फैल न जाए.
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इस बीच फ़ैज़ाबाद की एक सड़क पर किसी ने एक मुसलमान को छुरा भोंक दिया. पुलिस का काफी प्रबंध पहले से ही किया जा रहा था. इसलिए इस घटना के बाद जनता में सुरक्षा और शांति का भाव शीघ्र ही पूरी तरह फिर स्थापित हो गया.
फ़ैज़ाबाद और अयोध्या में पहले की तरह ईद की नमाज़ पढ़ी गई. इसके अतिरिक्त फ़ैज़ाबाद की ईदगाह में एक बड़ा मेला भी लगा, जिसमें सहस्रों मुसलमानों ने अपने बाल-बच्चों सहित भाग लिया. अयोध्या में होने वाले मार्च, 1950 के रामनवमी के मेले में और वहीं के पिछले सावन के मेले में सदा की भांति सैकड़ों मुसलमान व्यापारियों ने भाग लिया.
फ़ैज़ाबाद के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट को, जिन पर उस ज़िले की जनता के सभी वर्गों का समान विश्वास है, पूरा संतोष है कि अयोध्या के मुसलमान निवासियों में असुरक्षा या भय का तनिक भी भाव नहीं है. राशनिंग के आंकड़ों से कम से कम यह तो पता चलता ही है कि मार्च, 1950 ई. में अयोध्या की जनसंख्या में लगभग 50 मुसलमान बढ़ गए हैं.
सरकार ऐसे सब मामलों में जिनकी सूचना उसे मिली है बराबर उचित कार्यवाही करती और कराती रही है और अयोध्या की स्थिति में इस समय कोई असाधारणता नहीं है. तब भी इस बात में सावधान होने की आवश्यकता है कि सभी प्रश्नों पर सही दृष्टिकोण से विचार किया जाए जिससे शांति पूरी बनी रहे और किसी को चिढ़ने या उत्तेजित होने का मौका न मिले.
इसलिए कि शांति बनी रहे और प्रत्येक नागरिक अपने नागरिक अधिकारों का स्वतंत्रता से उपयोग कर सके और सभी नागरिकों और सभी संप्रदायों में पूरा मेल-मिलाप, एक-दूसरे पर विश्वास और सद्भावना स्थापित की जाए.
हमारे संविधान ने सबको आधिकारिक अधिकार (फंडामेंटल राइट) की सुरक्षा का आश्वासन (गारंटी) दिया है और सरकार चाहती है कि इस राज्य के सभी शांतिप्रिय नागरिक इस संबंध में उसे क्रियात्मक सहयोग दें और सहनशीलता तथा संयम से काम लें, जिसमें पूर्ण सुरक्षा का भाव रहे और सभी को इन अधिकारों का शांतिमय उपयोग करने का पूरा-पूरा अवसर सदैव मिलता रहे.
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कांग्रेस के जिला महामंत्री अक्षय ब्रह्मचारी के अनुसार जब वे प्रात: जिलाधिकारी केकेके नायर के साथ बाबरी मस्जिद में रखी मूर्तियों को देखने के लिए गए थे उस समय मूर्ति आंगन में रखी हुई थी. बाद में यह मिम्बर तथा बीच गुंबद के नीचे रखी गई. श्री ब्रह्मचारी ने बताया कि केकेके नायर स्वयं उन्हें इस स्थिति को दिखाने के लिए अपने साथ ले गए थे .
उस समय यह भी कहा जाता था कि बाबरी मस्जिद को हिंदुओं को सौंपने की दिशा में आवश्यक कार्रवाई करने का सुझाव बाबू प्रियादत्त राम ने प्रीमियर पंत जी को चुनाव के दौरान ही जीत को सुनिश्चित बनाने के लिए दिया था.
प्रियादत्त राम को तीन गुंबददार इमारत मय सहन व चहार-दीवारी मय मूर्तियों व पूजा के सामानों सहित कुर्क संपत्ति का पहला रिसीवर बनाया गया था और उन्होने भोग, राग, आरती के लिए स्कीम तैयार की थी. उसी के अनुसार आज भी वही पूजा-पद्धति अपनायी जा रही है .
इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ की विशेष खंडपीठ ने अयोध्या मामले की सुनवाई के दौरान उत्तर प्रदेश सरकार से 1948 तथा 1949 में जिलाधिकारी फ़ैज़ाबाद, कमिश्नर फ़ैज़ाबाद तथा शासन के बीच हुए पत्राचार की अयोध्या-मामले की फाइलों की मांग की थी. फाइलें तथा मूल प्रति न मिलने पर पीठ ने इसकी जांच सीबीआई को सौंप दी थी.
इस मामले में सामान्य प्रशासन के डिप्टी सेक्रेटरी केहर सिंह की वह चिट्ठी भी है, जो जिलाधीश को 20 जुलाई, 1949 को लिखी गई थी. पत्राचार के इन पत्रों में फ़ैज़ाबाद के सिटी मजिस्ट्रेट की 10 अक्टूबर, 1949 की वह रिपोर्ट भी है जिसमें सिटी मजिस्ट्रेट ने लिखा है कि मैं मौके पर भूमि का निरीक्षण करने गया और इस संबंध में जानकारी प्राप्त की.
यहां मंदिर-मस्जिद अगल-बगल हैं, हिंदू तथा मुसलमान अपने धार्मिक रीति-रिवाजों के अनुसार अधिकारों का प्रयोग करते हैं. हिंदुओं के प्रार्थना-पत्र में कहा गया है कि वे यहां छोटे मंदिर के स्थान पर एक भव्य व विशाल मंदिर बनाना चाहते हैं.
रिपोर्ट में कहा गया है कि इसके लिए हिंदुओं को मंदिर बनाने की अनुमति उस स्थल पर दी जा सकती है, जहां रामचंद्र जी पैदा हुए थे. जहां मंदिर बनना है वह नजूल की ज़मीन है. (Akhter, Jameel, Babri Masjid: A Tale Untold, Genuine Publication & Media Pvt Ltd., News Delhi, Page 42-43)
सीबीआई को भी ये फाइलें नहीं मिल सकीं. अदालत में प्रस्तुत इन गायब-पत्रों के संबंध में जांच की जिम्मेदारी सीबीआई को दी गई थी. लेकिन सीबीआई इसमें सफल नहीं हो सकी.
यह प्रश्न स्वाभाविक तौर पर सवाल उठता है जब मस्जिद में मूर्ति नहीं रखी गई थी उसके चार माह पूर्व से ही मंदिर निर्माण का प्रकरण शासन में क्यों चल रहा था? जिला मजिस्ट्रेट को भेजी रिपोर्ट में सिटी मजिस्ट्रेट का मौका मुआइना के बाद यह मानना कि जहां रामचंद्र जी पैदा हुए थे वहां मंदिर बनाने की अनुमति देने में कोई हर्ज़ नहीं है. वह ज़मीन नजूली है. यह क्या दर्शाता है?
अक्षय ब्रह्मचारी का कहना था कि अयोध्या का बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि विवाद हमारी राष्ट्रीय एकता के लिए बहुत बड़ी चुनौती बन गया है. यह हमारी राष्ट्रीय एकता, न्याय-व्यवस्था, धर्मनिरपेक्षता तथा लोकतंत्र की अग्नि-परीक्षा है.
वैष्णव संत एवं स्वतंत्रता-संग्राम-सेनानी रहे अक्षय ब्रह्मचारी स्वयं इस विवाद को सुलझाने के लिए जीवन भर प्रयासरत रहे. बाबरी मस्जिद में 22-23 दिसंबर, 1949 को मूर्ति रखे जाने के बाद 30 जनवरी, 1950 से 4 फरवरी और पुन: 22 अगस्त से 24 सितंबर, 1950 तक उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी कार्यालय लखनऊ में मूर्ति रखे जाने के विरोध में अनशन किया था. 24-25 अप्रैल, 1951 को उन्होंने लखनऊ में कौमी एकता सम्मेलन किया.
अयोध्या की घटना के बाद उपजे प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में हुए दंगों पर उन्हें ऐसा लगता था कि देश को संप्रदायवादियों के हाथ में सौंपा जा रहा है. शाहजहांपुर, बरेली, पीलीभीत, मुरादाबाद, अलीगढ़़, अयोध्या, फ़ैज़ाबाद आदि में जो खुलेआम सांप्रदायिक हिंसा हुई है अखबारों में उसका बहुत ही नगण्य अंश आया है.
मैंने प्रांतीय सरकार से जो पत्र-व्यवहार किए और जो जवाब भी सरकार की ओर से मुझे मिले हैं आप उन्हें पढ़कर स्वयं जान सकते हैं कि किस प्रकार गांधी और कांग्रेस के सिद्धांतों के प्रति गद्दारी करके देश को संप्रदायवादियों के हाथों क्रमश: सौंपा जा रहा है.
अयोध्या में संप्रदायवादी फासिस्टों ने तमाम दंगे करवाए, कत्ल करवाए, स्त्री और बच्चों पर अत्याचार करवाए, पर एक भी आदमी गिरफ़्तार नहीं किया गया है. चार सौ साल से जो स्थान मस्जिद था उसे मंदिर कहकर उस पर अधिकार कर लिया गया. पर हुकूमत ने षड्यंत्रकारियों के खिलाफ उंगली तक नहीं उठायी.
मुझे इस बात का गर्व है कि फ़ैज़ाबाद की कांग्रेस और वहां के कांग्रेसजनों ने एक स्वर से इन कार्रवाइयों का विरोध किया. पर इन सबके बावजूद सरकार चुप रही. सैकड़ों कब्रें तोड़कर नष्ट कर दी गईं और अब यह आंदोलन ज़ोरदार हो गया है कि अयोध्या की पवित्र भूमि में किसी मुसलमान की लाश दफनायी नहीं जा सकती.
ऐसी कई घटनाएं हो चुकी हैं जिनमें लाश 20-22 घंटे तक पड़ी रही और मृतकों के संबंधी एक से दूसरे और तीसरे कब्रिस्तान को भगाये जाते रहे और वे बड़ी कठिनाई से लाश को दफना सके. ऐसा भी हुआ कि लाश दफनाने के बाद खोदकर फेंक दी गई या फिर अन्यत्र दफनायी गई. लेकिन सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की.
इससे उपद्रवकारियों के हौसले बढ़ गए और वे सरकार को निष्क्रिय व नपुंसक समझने लगे हैं. कुछ बड़े नेताओं का इशारा पाकर थोड़े-से कांग्रेस कार्यकर्ता भी वही राग अलापने लगे हैं. नासिक अधिवेशन के लिए प्रतिनिधि के चुनाव में इन्होंने संप्रदायवादी उपद्रवकारियों से मिलकर नगर कांग्रेस के अध्यक्ष सिद्धेश्वरी प्रसाद को खुलेआम गालियां दीं और उनके चुनाव में गुंडागर्दी की.
अधिकारी कान में तेल डाले पड़े रहे. कांग्रेस चुनाव में यह प्रचार किया गया कि अक्षय, सिद्धेश्वरी आदि को जो वोट देगा वह मस्जिद के लिए वोट देगा. मैंने इसकी शिकायत सूबे और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटियों को भी की थी, पर मेरी कोई सुनवाई नहीं हुई. इसलिए मुझे और दूसरे साथियों को, जो कांग्रेस के पदाधिकारी थे मजबूरी में चुनाव से अलग होना पड़ा.
मैं इन घटनाओं को धर्म और मंदिर-मस्जिद के विवाद के रूप में न देखकर नागरिकता के अधिकार के रूप में देखता हूं. एक नागरिक यदि वह आस्तिक है तो उसे पूजा का स्थान भी चाहिए ही. यदि उसे देश में जीने का अधिकार है तो मरने पर उसे जलाने या दफनाए जाने के लिए भी दो बलिश्त जमीन चाहिए ही.
इन साधारण नागरिक अधिकारों की उपेक्षा करके अथवा उनके खिलाफ कुठाराघात करके कोई भी हुकूमत जनतांत्रिक नहीं कहला सकती. ऐतिहासिक आधार पर किसी पूजा-स्थान को मंदिर से मस्जिद या मस्जिद से मंदिर बनाना ही है तो सरकार को पहले यह सिद्धांत स्वीकार कर ले और इतिहास के विद्वानों की एक समिति बनाए जो इस बात की छानबीन करके तय कर सके कि कौन स्थान पहले मंदिर था जिसे मस्जिद बना दिया गया.
हमें यह भी सोचना होगा कि इतिहास के पन्ने कहां तक उलटे जाएं! यदि यह प्रक्रिया शुरू हो गई तो मुसलमान-विरोधी अपनी फासिस्ट राजनीति के आगे बढ़ने के लिए कल हरिजनों के साथ, परसों सिखों के साथ, चार दिन बाद वैष्णव स्थान और शैव स्थान आदि को विभिन्न भागों में विभाजित कर देंगे.
इससे अराजकतावाद, अव्यवस्था, हिटलरी आतंकवाद का दौर चलेगा जिसमें जनतंत्र का नाश हो जाएगा. (मूर्ति रखे जाने के बाद अनशन अक्षय ब्रह्मचारी के पत्र-व्यवहार एवं कर्तव्य-पथ पर पुस्तिका : पृष्ठ-5)
(कौमी एकता की अग्नि-परीक्षा: अक्षय ब्रह्मचारी, वर्ष: 1989, प्रकाशक: भारतीय कौमी एकता मंडल, सत्य आश्रम, चिनहट, लखनऊ. कर्तव्य-पथ पर: अक्षय ब्रह्मचारी, गंगा फाइन आर्ट प्रेस, लखनऊ, पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट द्वारा 20 अगस्त, 1950)
बढ़ती सांप्रदायिकता और ‘मौन’ कांग्रेस
अक्षय ब्रह्मचारी मौजूदा स्थिति से कितने दुखी थे उसकी यह एक बानगी मात्र है.
परिस्थिति दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही और हुकूमत तथा कांग्रेस के नेता मौन बैठे हैं. इस संबंध में माननीय पंत जी से बातें करके मुझे घोर निराशा हुई, न केवल इतना ही बल्कि हुकूमत के श्री राघवदास जी और श्री विशम्भरदयाल त्रिपाठी जैसे पात्र खुले-खजाने संप्रदायवादियों का समर्थन करते हैं.
(कौमी एकता की अग्नि-परीक्षा: अक्षय ब्रह्मचारी, वर्ष: 1989, प्रकाशक: भारतीय कौमी एकता मंडल, सत्य आश्रम, चिनहट, लखनऊ. कर्तव्य-पथ पर: अक्षय ब्रह्मचारी, गंगा फाइन आर्ट प्रेस, लखनऊ, पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट द्वारा 20 अगस्त, 1950)
इस सवाल का उत्तर ढूंढने के लिए बहुत माथापच्ची नहीं करनी पड़ेगी. इसके लिए हमें तत्कालीन कांग्रेस पार्टी के चरित्र को समझना होगा.
यह सही है कि कांग्रेस का राष्ट्रीय नेतृत्व स्वतंत्रता-संग्राम की उपज था और काफी हद तक धर्मनिरपेक्षता जैसे मूल्यों में विश्वास करता था. महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू जैसे नेतृत्व की वजह से ही यह संभव हुआ कि विभाजन की विभीषिका में निर्मित यह देश अपने को धर्मनिरपेक्ष घोषित कर सका.
1947 की कल्पना कीजिए, जब दो राष्ट्रों के सिद्धांत के आधार पर भारत का विभाजन हो रहा था और यह कहा जा रहा था कि हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग राष्ट्र हैं तथा ये साथ नहीं रह सकते. चारों तरफ भयानक मार-काट मची हुई थी.
उस समय यह गांधी और नेहरू जैसा नेतृत्व ही था जिसने मज़बूती के साथ खड़े होकर हिंदू और मुसलमानों के अलग राष्ट्र होने की धारणा का खंडन किया और भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाने का प्रयास किया. पर यह भी एक दिलचस्प तथ्य है कि कांग्रेस में ही बहुत-सारे लोग भारत को एक हिंदू राष्ट्र के रूप में देखना चाहते थे .
जहां कब्रें खोदी गई थीं, वहां 9 दिन तक रामायण-पाठ और रोज़ भंडारे भी किए गए. इनमें महात्मा गांधी को भी गाली वाली नोटिसें बांटी जाती थीं. इस रामायण-पाठ और भोज में ज़िले के अधिकारियों की भी उपस्थिति रहती थी. खोदी गई कब्रों के स्थान पर शिव-मूर्ति और हिंदू देव-मूर्तियां भी स्थापित कर दी जाती थीं.
इस प्रकार संगठित रीति से सांप्रदायिक विष का प्रचार किया जा रहा था. अधिकारियों के व्यवहार से लोगों को लगे कि यह सब सरकार की इच्छा से हो रहा है. यानी यह पहले से सोचे-समझे पूर्व निर्धारित कार्यक्रम का अंग था.
22-23 दिसंबर, 1949 यानी रामलला के प्राकट्य या बाबरी मस्जिद में मूर्ति की स्थापना के बाद स्थानीय विधायक बाबा राघव दास ने 4 जनवरी, 1950 को भगवान रामलला की बरही (बच्चे के जन्म के 12वें दिन मनाई जाने वाली) के उत्सव का आयोजन विवादित स्थल पर ही किया था, क्योंकि अब इसे बाबरी मस्जिद के बजाय विवादित स्थल या राम जन्मभूमि के नाम से प्रचारित किया जाना आरंभ हो गया था.
रणनीति यह थी कि विवादित ढांचा कहने से स्थल का महत्व घट जाता है, इसलिए बाबरी मस्जिद के नाम से इसे प्रचारित किया जाता था.
‘विरक्त’ साप्ताहिक समाचार-पत्र के अनुसार, इस सभा में राम गोपाल दास, ओंकार दास, श्री दिनेश जी साकेतवासी, श्री गोपाल सिंह विशारद आदि ने कविताएं पढ़ी थीं. इसकी अध्यक्षता रुद्रनाथ सिंह पंचगोवा कर रहे थे और इसमें बाबा राघव दास का मार्मिक भाषण हुआ.
उन्होंने यह भी घोषणा की कि 23 जनवरी से 1 लाख पच्चीस हज़ार रामचरित मानस के नवाह्न-पाठ का आयोजन किया जाएगा. ‘विरक्त’ साप्ताहिक के संपादक रामगोपाल शारद इस आंदोलन से जुड़े थे. उनके अनुसार इसके पहले 2 जनवरी को ब्रह्मचारी वासुदेवाचार्य और दंडी-स्वामी सहजानन्द की काशी में जन्मभूमि के संबंध में गुप्त मंत्रणा हुई थी.
‘विरक्त’ के 10 जनवरी, 1950 के अंक में ये सूचनाएं प्रकाशित की गई थीं. इस सिलसिले में अक्षय ब्रह्मचारी जी की ओर से 28 मार्च, 1951 को लखनऊ में एक राष्ट्रीय एकता सम्मेलन भी आयोजित किया गया था.
उसके आयोजकों में आचार्य नरेन्द्र देव (कुलपति, लखनऊ विश्वविद्यालय) कृष्णदत्त पालीवाल (अध्यक्ष, जन कांग्रेस, उप्र) आचार्य युगल किशोर पूर्व अध्यक्ष, प्रा-कां- कमेटी उप्र, सरदार शिव मंगल सिंह कपूर (एमएलए), गोविंद सहाय, संचालक कां- डेमोक्रेटिक फ्रंट, उप्र, हयातुल्ला अंसारी, (संपादक: कौमी आवाज़), साहित्यकार यशपाल आदि थे. जबकि अध्यक्ष पंडित सुन्दर लाल संरक्षक थे.
इस प्रकरण का औचित्य इसलिए है कि बाबरी मस्जिद में मूर्ति रखने वालों का समर्थन करने वालों में से कोई नेता इस आयोजन में दिखायी नहीं पड़ा.
ब्रह्मचारी जी के पास प्रधानमंत्री, गृहमंत्री व मुख्यमंत्री आदि को लिखीं चिट्ठियां और उनके जवाब आते रहते थे. उनका प्रमुख दुख यही था कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष उनके इस कार्य से इतने नाराज़ थे कि वे उनसे मिलने और बात करने की कौन कहे आलोचना ही करते थे.
मुख्यमंत्री पं. गोविंद बल्लभ पंत तथा अयोध्या-फ़ैज़ाबाद के अधिकारियों के साथ हिंदुत्ववादियों की मिलीभगत थी. कई स्थानीय कांग्रेस के नेता खुलेआम हिंदुत्ववादियों के साथ थे. उनकी यह घोषणा थी कि अक्षय ब्रह्मचारी को देखते ही जो हिंदू आक्रमण नहीं करेगा, वह पातकी (घोर पापी) होगा. उन्हें पीटना और सबक सिखाना चाहिए.
यह था तत्कालीन कांग्रेस का अयोध्या-विवाद के संबंध में दृष्टिकोण. जब प्रदेश सरकार की ओर से इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया तो उन्होंने 30 जनवरी, 1950 से प्रदेश कांग्रेस कार्यालय के सामने आमरण अनशन आरंभ कर दिया.
प्रदेश सरकार के गृहमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को 17 जनवरी को उन्होंने कहा था कि प्रांतीय कांग्रेस कमेटी कार्यालय (लखनऊ) के सम्मुख आमरण अनशन आरंभ करने का उद्देश्य किसी प्रकार का दबाव डालना नहीं, बल्कि अपने बलिदान द्वारा पूज्य महात्मा जी के पवित्र आदेश को पहुंचाने का प्रयत्न होगा.
उन्होंने अपना 4 फरवरी, 1950 को लाल बहादुर शास्त्री के इस आश्वासन पर कि इस अनशन से सरकार तथा कांग्रेस के नेताओं में अयोध्या के मसले का समाधान करने की प्रेरणा प्रबल हो गई है और शीघ्र ही वहां की सांप्रदायिक ज्वाला को शांत करने के लिए सरकार उचित व्यवस्था करेगी, उन्होंने अपना अनशन समाप्त कर दिया.
उल्लेखनीय है कि बाबा राघव दास द्वारा रामजन्मभूमि पर भाषण, प्रवचन और रामचरित मानस के पचीस हज़ार नवाह्न पाठों का आरंभ और घोषणाएं 4 जनवरी, 1950 के पहले ही हो चुकी थीं.
प्रयाग प्रांत के आरएसएस के प्रचारक नानाजी देशमुख का भी आगमन 14 जनवरी, 1950 को हुआ और इस घटना की एक खबर भी ‘ऑर्गनाइज़र’ में प्रकाशित हुई थी कि रामलला के प्राकट्य के साथ उस स्थल पर कैसे उजाला हो गया था जिससे लोग चकित हो गए थे और यह बात पुलिस के एक मुसलमान सिपाही ने बतायी थी जिसकी मौके पर ड्यूटी थी.
बाबा राघव दास की जीत के बाद उन्माद बढ़ता ही जा रहा था. मूर्तियां तो 22-23 दिसंबर, 1949 को अस्तित्व में आईं, लेकिन इस क्षेत्र में भड़काऊ कार्रवाई का दौर पहले से चल रहा था.
इस बीच वह भाग, जिसे सेंट्रल सुन्नी वक्फ बोर्ड ने अपने मुकदमे में गंज-शहीदा के नाम से नक्शा-नज़री में ई-एफ-जी-एच- के रूप में प्रतिपादित किया है, वहां कब्रें खोदने का अभियान भी चल रहा था.
यह अभियान उनका था जो राम मंदिर के पक्षधर और मस्जिद के विरोधी थे. इसका नेतृत्व वही लोग कर रहे थे जिन्होंने आचार्य नरेंद्र देव के चुनाव में विरोधी की भूमिका निभायी थी. गोकुल-भवन के सामने रामआसरे यादव का मकान था. वे पहलवानी भी करते थे तथा कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता और नेता भी थे.
1972 के उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव के पहले वे सांसद रामकृष्ण सिन्हा के साथ जनमोर्चा-कार्यालय आए और बताने लगे कि वे खुद राम जन्मभूमि मंदिर-आंदोलन के लिए कितने सक्रिय थे! गंज-शहीदा में पचासों कब्रें तो उन दिनों उन्होंने स्वयं खोदीं और खुदवायी थीं.
कब्रें खोदने के अभियान की शिकायतें मुस्लिमों की ओर से ज़िला प्रशासन से की जाती थीं, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं होती थी. रणनीति यह थी कि पहले कब्रें खोदकर उन्हें सपाट किया जाए. बाद में उस पर पुआल और दरी बिछाकर रामायण-पाठ कराया जाए. प्रचारित कर दिया जाता था कि यह तो अमुक संत की समाधि थी और हम उनकी आत्मा की शांति के लिए रामायण-पाठ कर रहे हैं.
इसकी शिकायतें मुख्यमंत्री तथा लखनऊ के अधिकारियों से भी की गईं. वे सभी आवश्यक कार्यवाही लिखकर ज़िला प्रशासन को भेज दी जाती थीं. इस संबंध में न तो कभी कोई मुकदमा दर्ज हुआ और न कार्रवाई हुई.
जिस जिलाधीश केकेके नायर के ठहाकों का ज़िक्र अक्षय ब्रह्मचारी ने किया है उनका व्यक्तित्व भी बड़ा विवादास्पद रहा है. इस घटना के विभिन्न पहलुओं पर उनके व्यवहार का सूक्ष्म परीक्षण किया जाए तो यह तय करना मुश्किल होगा कि वे रामलला के प्रकट होने में सक्रिय भूमिका निभा रहे थे अथवा उनकी दिलचस्पी कानून का पालन कराने और न्यायसंगत कार्रवाई करने में थी?
एक आईसीएस अधिकारी से अमूमन अपेक्षा यही की जा सकती थी कि वह धार्मिक कठमुल्लेपन से दूर होकर कानून-व्यवस्था लागू करेगा. केकेके नायर के आचरण के बारे में कुछ भी लिखने से पहले यह उल्लेख करना उचित होगा कि त्याग-पत्र देने के बाद वे फ़ैज़ाबाद में ही बस गए.
बाद में उन्होंने जनसंघ के टिकट पर फ़ैज़ाबाद, बहराइच और गोंडा से स्वयं अपनी पत्नी, ड्राइवर और चपरासी तक को भी एमएलए व एमपी का चुनाव जिता दिया. (डीबी राय, अयोध्या : 6 दिसंबर का सत्य, पृष्ठ-25)
अक्षय ब्रह्मचारी ने एक लंबे इंटरव्यू के दौरान मुझे बताया था कि उनके बार-बार यह आग्रह करने पर कि मूर्ति हटा दी जाए, केकेके नायर ने संयुक्त प्रांत के तत्कालीन चीफ सेक्रेट्री से टेलीफोन पर वार्ता की और ज़रूरी निर्देश मांगे. नायर ने अक्षय ब्रह्मचारी को बताया कि चीफ सेक्रेट्री ने प्रीमियर से दिशानिर्देश लेने की बात की है.
प्रीमियर गोविंद बल्लभ पंत राजधानी से बाहर कहीं दौरे पर थे और मुख्य सचिव और प्रीमियर की बात दो-तीन दिन बाद ही हो सकी. तब तक काफी देर हो चुकी थी. अक्षय ब्रह्मचारी द्वारा लिखित संस्मरणों तथा उनके इंटरव्यू से यह स्पष्ट होता है कि केकेके नायर, चीफ सेक्रेट्री तथा प्रीमियर के बीच संवाद का अभाव अनायास नहीं था.
बाद की घटनाएं यह प्रमाणित करती हैं कि कम-से-कम जिलाधीश केकेके नायर तथा प्रीमियर गोविंद बल्लभ पंत यदि मूर्ति स्थापित करने के षड्यंत्र में शरीक न भी रहे हों तब भी मूर्ति को हटाने में उनकी दिलचस्पी नहीं थी.
नायर मूर्ति रखने वालों और भविष्य में राम जन्मभूमि मंदिर बनाने के लिए आंदोलन करने वालों के लिए कितने महत्वपूर्ण थे, इसका पता इस तथ्य से भी चलता है कि राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के बीच की आंतरिक दीवार पर तथा कथित गर्भगृह में सिर्फ दो लोगों की तस्वीरें दीवार में चित्रित थीं. ये थीं, तत्कालीन जिलाधीश केकेके नायर और सिटी मजिस्ट्रेट ठाकुर गुरुदत्त सिंह की.
संभवत: यह मंदिर-समर्थकों का मूर्ति-प्रकटीकरण में इन दोनोंं महानुभावों की भूमिका के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन था .
अक्षय ब्रह्मचारी ने मूर्ति रखे जाने के विरोध में 30 जनवरी, 1950 से 4 फरवरी और पुन: 22 अगस्त से 24 सितंबर, 1950 तक उत्तर प्रदेश कांग्रेस कार्यालय, लखनऊ में मूर्ति रखे जाने के विरोध में अनशन किया था.
श्री विशम्भर दयाल त्रिपाठी तथा श्री राघव दास जैसे कांग्रेसी नेताओं ने भी इस अवसर पर अपने को असंयमित किया और अयोध्या की मस्जिद वाली सभा में प्रतिक्रियावादियों के इन कार्यों के समर्थन में भाषण दिया कि प्रजातंत्र का अर्थ ही यह है कि बहुमत जिसे पसंद करे वह हो.
मैं देखता हूं कि यहां के लोग मस्जिद पसंद नहीं करते. अत: कोई उसे लौटा नहीं सकता. यदि सरकार ने इसमें हस्तक्षेप किया तो मैं त्याग-पत्र दे दूंगा. मैं सरकार की ओर से आया हूं और उत्तरदायित्व के साथ यह कह रहा हूं. (अक्षय ब्रह्मचारी, कौमी एकता की अग्निपरीक्षा, कौमी एकता मंडल, सत्याश्रम चिनहट, लखनऊ)
जवाहरलाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री ज़रूर थे, पर प्रदेशों में मौजूद तत्कालीन नेतृत्व काफी मज़बूत था और कई प्रदेशों के प्रीमियर तो अपने कद-काठी में केंद्रीय नेतृत्व से किसी भी मायने में छोटे नहीं थे.
1950 में संविधान लागू होने के बाद जब प्रदेशों के प्रीमियर मुख्यमंत्री कहलाने लगे और केंद्र और राज्यों के संबंध काफी कुछ संस्थाबद्ध हुए- देश के प्रधानमंत्री द्वारा बार-बार लिखे जाने के बावजूद संयुक्त प्रांत के प्रीमियर पंत जी ने ऐसा कुछ नहीं किया, जो उनके दिनांक 26 दिसंबर, 1949 के टेलीग्राम की भावनाओं के अनुकूल हो.
गोविंद बल्लभ पंत उस सोच के समर्थक थे जिसके अनुसार यदि कांग्रेसी सरकार मस्जिद में स्थापित मूर्तियों को हटाएगी तो बहुसंख्यक हिंदू समुदाय उससे नाराज़ होगा और चुनावी राजनीति में कांग्रेस को नुकसान पहुंचेगा. प्रांतीय सरकार के सभासचिव गोविंद सहाय सेक्युलर माने जाते थे, डेमोक्रेटिक फ्रंट नामक मंच चलाते थे, अयोध्या में उनके भाषण के समय कांग्रेस के उन नेताओं ने, जो मूर्ति रखे जाने के समर्थक थे, उनकी सभा में हंगामा भी किया था.
संभवत: यही मानसिकता थी कि प्रधानमंत्री नेहरू के बार-बार लिखने के बावजूद गोविंद बल्लभ पंत ने मूर्ति हटाने का फैसला नहीं लिया और स्थितियों को उस हद तक पहुंच जाने दिया जहां बाद में यदि कोई सरकार चाहती भी तो मूर्ति न हटा पाती.
पंत किस हद तक अयोध्या और राम जन्मभूमि का राजनीतिक इस्तेमाल कर सकते थे, इसे आचार्य नरेंद्र देव के 31 मार्च, 1948 को कांग्रेस से इस्तीफा देने के बाद हुए उपचुनाव में देखा जा सकता था.