ऐसे सामाजिक पारिवारिक परिवेश, जिसमें उच्च शिक्षा की कल्पना डॉक्टरी-इंजीनियरिंग के दायरे से पार नहीं गई और नौकरी से परे शिक्षा को देखना एक तरह से अय्याशी और दूर की कौड़ी समझा जाता था, जेएनयू ने समझाया कि ये एक साज़िश है- समाज के बड़े तबके को बराबरी महसूस न होने देने की.
जेएनयू होने के मायने क्या हैं-
एक छोटे शहर के सीमित आय वाले परिवार जहां उच्च शिक्षा को लेकर कोई ख़ास आग्रह नहीं था और पढ़ाई में औसत होने के चलते स्कूली शिक्षा खत्म करने के बाद गिरते-पड़ते पत्राचार से स्नातक करने के साथ-साथ, स्कूल- कोचिंग पढ़ाते नौ साल गुजार दिए इसी उम्मीद में कि कभी तो कॉलेज यूनिवर्सिटी जाएंगे.
मेरी दिक्कतें भी समाज के अस्सी फीसदी लोगों की तरह ही थी. मेरा शायद उनसे कम था क्योंकि मैं आखिरकार यूनिवर्सिटी जा पाया, जबकि उनमें से अधिकतर आज भी वंचित है.
खराब आर्थिक स्थिति का अक्सर लोग इतना ही अर्थ लगा पाते हैं कि पढ़ने के लिए पैसे नहीं होंगे, लेकिन ये भी सोचिए की सोलह-सत्रह साल की उम्र में जिसके घर में आर्थिक स्थिति खराब हो, उससे घर में नौकरी या काम करने की उम्मीद होती है और जो ऐसा नहीं कर पाते उनको स्वार्थी, ग़ैर-ज़िम्मेदार और न जाने क्या-क्या कहा जाता है!
तो आर्थिक के साथ ये सामाजिक संकट भी होता है. इसी कशमकश में लगभग एक दशक बीत गया. 2012 तक आते-आते ठीकठाक नौकरी भी लग गई. तब किसी ने जेएनयू के बारे में बताया कि कम पैसे में यहां पढ़ाई होती है, तब थोड़ी हिम्मत बंधी कि इस जीवन में यूनिवर्सिटी जा पाऊंगा.
कुछ समय लगा, फिर खुद को तैयारी करके एक महीने की छुट्टी लेकर तैयारी की. काफी दोस्तों ने दिल्ली में रहने-खाने और किताबों के साथ तैयारी में काफी मदद की. जुलाई महीने की शायद 12 तारीख के शाम के लगभग सात बजे के आसपास मेरे पास दिल्ली से एक दोस्त का फोन आया, ‘हो गया, तुम्हारा सलेक्शन हो गया!’
तब शायद ज़िंदगी में पहली बार मुक्ति शब्द के मायने समझे! और इस मौके पर किसी श्रेष्ठता के बनिस्बत यह महसूस किया की बराबरी का मौका मिलना कितना सुखद है!
गौरतलब है कि जेएनयू की प्रगतिशील और सामाजिक न्याय सम्मत प्रवेश परीक्षा नीति जाति-वर्ग-भाषा-लिंग-मूलनिवास आदि को आधार बनाते हुए समाज के पिछड़े और ग़ैर-प्रतिनिधित्व वाले तबके को प्राथमिकता देती है. जेएनयू का वातावरण इसलिए बेहतरीन हैं क्योंकि यहां देश की विविधता कुछ हद तक सही मायने में प्रतिबिंबित होती है.
ये सपने सच होने जैसी कोई छोटी घटना नहीं थी. ये सपने गढ़ने जैसी परिघटना थी. एकबारगी ज़रा सोचिए कि हमारे समाज में अधिकतर लोगों के लिए जेएनयू अपनी तमाम दिक्कतों के बावजूद, कल्पनातीत है. इसके मायने जेएनयू की पढ़ाई कम, हमारी सामाजिक विषमता समझा जाए न कि ‘पॉवर्टी ऑफ इमेजिनेशन’ कहकर हांक दिया जाए.
दो साल का वादा करके खुद से एमए में आए, जब आए तो दिल और दिमाग दोनों जम गए जेएनयू में. पहले ही दिन में वो सालों की कसक पूरी हो गई, फिर दो साल एमफिल किया. जमकर सीखा और डटकर लड़ा.
पढ़ाई और लड़ाई की जो खूबसूरत मिसाल देखी, और ‘लड़ो पढ़ाई करने को, पढ़ो समाज बदलने को’ का नारा जब हर दिन कक्षाओं, ढाबों, सड़कों और लाइब्रेरी में जिया, तो समझ में आया कि क्यों शिक्षा को परिवर्तनकारी माना जाता है.
एक ऐसे सामाजिक पारिवारिक परिवेश, जिसमें उच्च शिक्षा की कल्पना डॉक्टरी-इंजीनियरिंग के दायरे से पार नहीं गई और नौकरी से परे शिक्षा को देखना एक तरह से अय्याशी और दूर की कौड़ी समझा जाता था, जेएनयू ने समझाया कि ये एक साज़िश है- समाज के बड़े तबके को बराबरी और इंसान महसूस न होने देने की, अधिकार को समझने की.
जेएनयू ने सिखाया उस हक़ को महसूस करना और उसके लिए लड़ने का व्याकरण समझाया. और लड़ना भी इस अर्थ में कि ‘पहले की लड़ाइयों ने जेएनयू का रास्ता पिछड़ों, दलितों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों के लिए खोला जिसके चलते हम आ पाए, इसलिए हमारी जिम्मेदारी हैं कि जेएनयू इससे बेहतर रूप में आने वाली पीढ़ियों के लिए क़ायम रहे.’
इसलिए जेएनयू से होने की खुशी एक बेस्ट यूनिवर्सिटी का पूर्व छात्र होकर अकड़ने से ज्यादा जेएनयू को जीने और उसे अपने साथ संजोए रखने में है. शायद इसीलिए जेएनयू में पढ़ने का एहसास घमंड न देकर सुकून देता है.
और गाहे-बगाहे समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को निभाने की इच्छा- एक ऐसा समाज बनाने की, जिसमें जाति, वर्ग, धर्म, जेंडर, भाषा के परे सबको बराबरी का अधिकार मिले, जिसमें सवाल उठाना एक अपवाद नहीं, बल्कि कायदा हो.
मैं अपने परिवार की पहली पीढ़ी हूं, जिसने उच्च शिक्षा में कदम रखा और जेएनयू से होने के चलते आगे दुनिया के बेहतरीन विश्वविद्यालयों में पढ़ने का मौका मिल रहा हैं.
आज के दौर में जब राजनीतिक लोकतंत्र, सामाजिक लोकतंत्र को पोसने की अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी के उलट उसे नष्ट कर रहा है, जेएनयू उसके सामने सिर उठाकर सामाजिक लोकतंत्र का एक नायाब नमूना पेश कर रहा है, उसे आईना दिखा रहा है.
जेएनयू पर हमला इस संभावना को कुचलने की कोशिश है, जिसके लिए भगत सिंह लड़े. जेएनयू के स्टूडेंट्स इस लड़ाई को बखूबी लड़ रहे हैं. सबको सलाम!
जैसे पाश ने लिखा ही है-
हम लड़ेंगें साथी,
कि बिना लड़े कुछ नहीं मिलता
इसीलिए हमेशा की तरह- लड़ेगा जेएनयू, जीतेगा जेएनयू. और अंत में जेएनयू को बचाने का आग्रह किसी ‘खास’ नोबेल विजेता, आईएएस, आईपीएस, मंत्री, राजनेता के बिना पर नहीं, बल्कि आम अवाम के लिए हैं, जिसका वादा हमारा संविधान ‘हम, भारत के लोग’ से करता है.
(लेखक यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया में शोधार्धी हैं.)