6 दिसंबर 1992 को सिर्फ एक मस्जिद नहीं गिरायी गई थी, उस दिन संविधान की बुनियाद पर खड़ी लोकतंत्र की इमारत पर भी चोट की गई थी. अतीत में जो कुछ हुआ उसे फिर से उलट-पलट कर देखने का मौका साहित्य देता है. हिंदी साहित्य में यह घटना भी कई रूपों में दर्ज है.
पानी में लाठी मारने से थोड़ी देर के लिए पानी गंदला भले हो जाए लेकिन पानी की धार फट नहीं जाती. इतिहास की बहुतेरी घटनाओं की हैसियत इस लाठी से ज्यादा नहीं होती. लेकिन 1947 में देश का बंटवारा और 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिराने की घटनाएं ऐसी हैं, जिन्होंने हमारे समाज के ताने-बाने को हमेशा के लिए बदल दिया.
फिलहाल राम जन्म भूमि बाबरी मस्जिद जमीन विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने 6 दिसंबर 1992 की घटना को एक बार फिर बहस के लिए हमारे सामने खड़ा कर दिया है. 6 दिसंबर संविधान निर्माता बाबा साहब अंबेडकर का परिनिर्वाण दिवस भी है.
इस बारे में भी बहस चलती रही है कि मस्जिद गिराने के लिए खास 6 दिसंबर का दिन ही क्यों चुना गया? क्या यह 1990 के दशक में उत्तर प्रदेश में उभरी दलित राजनीति के सबसे बड़े प्रेरणास्रोत की यादों पर धूल डालने की सोची-समझी रणनीति थी?
हिंदी साहित्य में 6 दिसंबर 1992 की घटना कई रूपों में दर्ज है. अतीत में जो कुछ हुआ उसे फिर से उलट-पलट कर देखने का मौका साहित्य हमें देता है. साहित्य में इतिहास के उन किरदारों के बयान दर्ज किए जा सकते हैं, जिन्हें उनके वक्तों में अनसुना कर दिया गया या किन्हीं कारणों से दर्ज नहीं किया जा सका.
रमाशंकर ‘विद्रोही’ जब मार दी गई औरतों के बारे में बात करते हैं तो उन्हें महसूस होता है कि कानून के ढांचे में दर्ज औरतों के बयान सही नहीं हैं. वे रचनाकार की हैसियत से अपराधियों को औरतों की अदातल में हाजिर करने की जरूरत महसूस करते हैं-
कुछ औरतों ने अपनी इच्छा से कूदकर जान दी थी
ऐसा पुलिस के रिकॉर्ड में दर्ज हैऔर कुछ औरतें अपनी इच्छा से चिता में जलकर मरी थीं
ऐसा धर्म की किताबों में लिखा हुआ हैमैं कवि हूं, कर्त्ता हूं
क्या जल्दी हैमैं एक दिन पुलिस और पुरोहित दोनों को एक साथ
औरतों की अदालत में तलब करूंगा
और बीच की सारी अदालतों को मंसूख कर दूंगा
इतिहास के सारे किरदारों को ‘अदीब’ की अदालत में हाजिर करने के ढांचे में लिखा गया कमलेश्वर के उपन्यास ‘कितने पाकिस्तान’ (2000) में ऐसे कई बयान दर्ज हैं, जिन्हें केवल अदीब की अदालतें ही स्वीकार करती हैं.
इस उपन्यास में मनुष्यता की शुरुआत से लेकर इसके लिखे जाने के समय तक के उस इतिहास का इकबालिया बयान दर्ज है, जिसे अदालतों और इतिहासकारों ने सुना ही नहीं.
‘कितने पाकिस्तान’ बंटवारे की मानसिकता, त्रासदी और अन्यायों को वक़्त के लंबे फलक पर रखकर उनके रेशे-रेशे से गुजरता है. इसी अदालत में पेशी होती है बाबर की. अदीब की अदालत में त्रिशूलधारी की मांग पर पेश होता है बाबर… मुग़ल साम्राज्य की नींव रखने वाला बाबर.
उस पर आरोप है कि उसने हिंदू भावनाओं को ठेस पहुंचाई, राम का मंदिर गिराया, बाबरी मस्जिद बनायी. बाबर के बयान के जरिये कमलेश्वर आपको अंग्रेजों द्वारा गढ़े गए इतिहास के पन्नों से बाहर ले जाते हैं.
वे अतीत के षड्यंत्रों और अतीत के बारे में अंग्रेजी सत्ता द्वारा फैलायी गई गलत धारणाओं पर सवाल खड़ा करते हैं. बाबर अपने बयान में बताता है कि वह भारत को खुद के लिए फतह करने आया था, इस्लाम के लिए नहीं.
बाबर जोर देकर कहता है कि अयोध्या की जिस मस्जिद को बाबरी मस्जिद कहकर उनके नाम से जोड़ा जा रहा है, उससे उसका कोई लेना-देना नहीं है. अपने पक्ष में गवाही देने के लिए वह आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के डायरेक्टर रह चुके ए. फ्यूहरर को अदालत में बुलाना चाहता है.
मजा यह कि बाबर अपनी मौत के करीब साढ़े तीन सौ साल बाद के आदमी का बयान दर्ज करवाना चाहता है. बाबरी मस्जिद से अपना कोई संबंध न होने के पक्ष में प्रमाण देना चाहता है.
वह फ्यूहरर के बारे में बताता है कि ‘उसने सन् 1889 में वह शिलालेख पढ़ा था, जो मेरे नाम पर थोपी जा रही मस्जिद में लगा हुआ था… आज वह शिलालेख पढ़ा नहीं जा सकता क्योंकि जाहिलों ने उसे पढ़ने लायक नहीं छोड़ा…’
ए. फ्यूहरर अदालत को बताता है कि उस शिलालेख में यही लिखा था कि ‘हिजरी 930 यानी करीब 17 सितंबर सन् 1523 में इब्राहिम लोदी ने उस मस्जिद की नींव रखवाई थी और जो 10 सितंबर 1524 में बनकर तैयार हुई, जिसे अब बाबरी मस्जिद कहा जाता है.’
इसके बाद बाबर की डायरी ‘बाबरनामा’ से उन्हीं साढ़े पांच महीनों के पन्ने गायब होने का जिक्र आता है. अंग्रेजी गजट के अनुसार इसी दौर में बाबर अयोध्या गया था और उसने मंदिर गिरवाकर मस्जिद बनायी थी. जबकि बाबर का सच यह है कि वह अवध तो गया था लेकिन अयोध्या कभी गया ही नहीं.
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फ्यूहरर बताता है कि 1857 के बाद हिंदू-मुसलमान एकता को तोड़ने के लिए गजट में षड्यंत्र के तहत यह सब छापा गया था. मजे की बात है कि जादू की छड़ी से बाबर और फ्यूहरर भले ही एक ही जगह पर खड़े कर दिए गए हों, लेकिन तथ्यों को बंधक नहीं बनाया गया है.
उपन्यास में अदीब के सामने एक विचित्र दृश्य है जिसमें बाजार है, धर्म है, मंदिर और मस्जिद हैं, मनुष्य हैं, लेकिन मनुष्यों के सिर नहीं हैं, उनकी आंखें नहीं हैं. यह हमारे समाज के विचारहीन हो जाने का विराट दृश्य है.
अंग्रेजी शासन ने हमें इतिहास का जो चश्मा दिया उसी से हम अपनी शक्ल पहचानने के इतने आदी हो चुके हैं कि उसके बगैर अपनी किसी तस्वीर की कल्पना ही नहीं कर पाते. ‘कितने पाकिस्तान’ औपनिवेशिक इतिहास से परे भारत की आत्मछवि गढ़ने की कोशिश है.
दूधनाथ सिंह के उपन्यास आखिरी कलाम (2003) की कथा का समय बाबरी मस्जिद गिराए जाने का ही है. 3 दिसंबर 1992 से लेकर 7 दिसंबर 1992 तक यानी 4 दिनों की घटनाओं पर केंद्रित इस उपन्यास की कथा बूढ़े प्रोफेसर तत्सत पांडे के सहारे आगे बढ़ती है.
यह उपन्यास 1992 में बाबरी मस्जिद गिराने के लिए खड़े किए गये आतंक और उन्माद के माहौल को आपने पाठक के सामने जीवंत कर देता है. उपन्यास की शुरुआत ही प्रोफेसर तत्सत पांडे द्वारा ‘किताबें शक पैदा करती हैं’ विषय पर फैजाबाद में व्याख्यान देने के निमंत्रण को स्वीकार करने से होती है.
तीन दिसंबर 1992 के आस-पास कुछ गड़बड़ होने की आशंका के चलते लोग फैजाबाद से दूर भाग रहे हैं, लेकिन तत्सत पांडे इसी के बीच में अयोध्या की यात्रा पर निकल पड़ते हैं. दूधनाथ सिंह ने तत्सत पांडे के जरिये मिथक और पुराण की सोच में जकड़े देश के सामने तर्कवाद का महत्व स्थापित करना चाहते हैं.
तत्सत पांडे अयोध्या को ‘धर्म की मंडी’ कहते हैं. वे तुलसीदास से लेकर ईश्वर की अमरता की धारणा तक पर सवाल खड़ा करते हैं. वे प्रश्न करते हैं कि ‘अगर सारी क्षणभंगुर वस्तुओं में ईश्वर का निवास है तो क्या वह भी क्षणभंगुर नहीं हुआ?’
6 दिसंबर 1992 को सिर्फ एक मस्जिद नहीं गिरायी गई थी, उस दिन संविधान की बुनियाद पर खड़ी लोकतंत्र की इमारत पर भी चोट की गई थी. आखिरी कलाम के तत्सत पांडे कुछ जगहों पर विभाजन के समय के गांधी की छाया लगते हैं- नैतिक प्रतिरोध में खड़ा अकेला बूढ़ा.
‘किताबें शक पैदा करती हैं’ विषय पर व्याख्यान देते समय पंडाल में आग लगा दी जाती है. तत्सत पांडे की कार और किताबों से भरी दो बसें जला दी जाती हैं. सांप्रदायिक उन्माद का अनिवार्य तत्व है- बुद्धि विरोध. आज यह अपने विकराल रूप में हर जगह मौजूद है.