विश्व जल दिवस: दीवारें खड़ी करने से समुद्र पीछे हट जाएगा, तटबंद बना देने से बाढ़ रुक जाएगी, बाहर से अनाज मंगवाकर बांट देने से अकाल दूर हो जाएगा. बुरे विचारों की ऐसी बाढ़ से, अच्छे विचारों के ऐसे ही अकाल से, हमारा यह जल संकट बढ़ा है.
देश का पहला इंजीनियरिंग कॉलेज खुला था हरिद्वार के पास रुड़की नामक एक छोटे से गांव में और सन था 1847. तब ईस्ट इंडिया कंपनी का राज था. ब्रितानी सरकार तब नहीं आई थी. कंपनी का घोषित लक्ष्य देश में व्यापार था. प्रशासन या लोक कल्याण नहीं.
व्यापार भी शिष्ट शब्द है. कंपनी तो लूटने के लिए ही बनी थी. ऐसे में ईस्ट इंडिया कंपनी देश में उच्च शिक्षा के झंडे भला क्यों गाड़ती. वह किस्सा लंबा है. आज उसे यहां पूरा बताना ज़रूरी नहीं.
पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि उस दौर में आज के पश्चिमी उत्तर प्रदेश का यह भाग एक भयानक अकाल से गुज़र रहा था. अकाल का एक कारण था वर्षा का कम होना. पर अच्छे कामों और अच्छे विचारों का अकाल पहले ही आ चुका था और इसके पीछे एक बड़ा कारण था ईस्ट इंडिया कंपनी की अनीतियां.
सौभाग्य से उस क्षेत्र में, तब उसे नाॅर्थ वेस्टर्न प्रॉविंसेस कहा जाता था, एक बड़े ही सहृदय अंग्रेज़ अधिकारी काम कर रहे थे. ऊंचे पद पर थे. वे वहां के उपराज्यपाल थे. उनका नाम था जेम्स थॉमसन.
लोगों को अकाल में मरते देख उनसे रहा नहीं गया. उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के निदेशकों को एक पत्र लिखकर इस क्षेत्र में एक बड़ी नहर बनाने का प्रस्ताव रखा था. हालांकि उस पत्र का कोई जवाब तक नहीं आया. शायद पत्र मिलने की सूचना, पहुंच तक नहीं आई. थॉमसन ने फिर एक पत्र लिखा. इस बार फिर वही हुआ. कोई जवाब नहीं.
तब जेम्स थॉमसन ने तीसरे पत्र में अपनी योजना में पानी और अकाल, लोगों के कष्टों के बदले व्यापार की, मुनाफे की चमक डाली. उन्होंने हिसाब लिखा कि इससे इतने रुपये लगाने से इतने ज़्यादा रुपये सिंचाई के कर की तरह मिल जाएंगे.
ईस्ट इंडिया कंपनी की आंखों में चमक आ गई. मुनाफा मिलेगा तो ठीक. बनाओ. पर बनाएगा कौन? कोई इंजीनियर तो है नहीं कंपनी के पास. थॉमसन ने कंपनी को आश्वस्त किया था कि यहां गांवों के लोग इसे बना लेंगे.
कोई ऐरी-गैरी या छोटी-मोटी योजना नहीं थी यह. हरिद्वार के पास गंगा से एक नहर निकाल कर उसे कोई 200 किलोमीटर तक के इलाके में फैलाना था. यह न सिर्फ़ अपने देश की एक पहली बड़ी सिंचाई योजना थी बल्कि अन्य देशों में भी उस समय ऐसा कोई काम नहीं हुआ था.
विस्तृत योजना का विस्तार से वर्णन यहां नहीं करना है. बस इतना ही बताना है कि वह योजना खूब अच्छे ढंग से पूरी हुई. तब थॉमसन ने कंपनी से इसकी सफलता को देखते हुए इस क्षेत्र में इसी नहर के किनारे रुड़की इंजीनियरिंग कॉलेज खोलने का भी प्रस्ताव रखा.
इसे भी मान लिया गया क्योंकि थॉमसन ने इस प्रस्ताव में भी बड़ी कुशलता के साथ कंपनी को याद दिलाया था कि इस कॉलेज से निकले छात्र बाद में आपके साम्राज्य का विस्तार करने में मददगार होंगे.
यह था सन 1847 में बना देश का पहला इंजीनियरिंग कॉलेज. देश का ही नहीं, एशिया का भी यह पहला कॉलेज था, इस विषय को पढ़ाने वाला. और आगे बढ़ें तो यह भी जानने लायक तथ्य है कि तब इंग्लैंड में भी इस तरह का कोई कॉलेज नहीं था. रुड़की के इस कॉलेज में कुछ साल बाद इंग्लैंड से भी छात्रों का एक दल पढ़ने के लिए भेजा गया था.
तो इस कॉलेज की नींव में हमारा अनपढ़ बता दिया गया समाज मज़बूती से सिर उठाए खड़ा है. वह तब भी नहीं दिखा था अन्य लोगों को और आज तो हम उसे पिछड़ा बताकर उसके विकास की बहुविध कोशिश में लगे हैं.
इस प्रसंग के अंत में यह भी बता देना चाहिए कि सन 1847 में कॉलेज खुलने से पहले वहां बनी वह लंबी नहर आज भी उत्तराखंड के खेतों में गंगा का पानी सिंचाई के लिए वितरित करती जा रही है. आज रुड़की इंजीनियरिंग कॉलेज को शासन ने और ऊंचा दर्जा देकर उसे आईआईटी रुड़की बना दिया है.
कॉलेज का दर्जा तो उठा है पर दुर्भाग्य से कॉलेज जिन लोगों के कारण बना, जिनके कारण वह विशाल सिंचाई योजना ज़मीन पर उतरी, जिन लोगों ने अंग्रेजों के आने से पहले देश में देश के मैदानी भागों में, पहाड़ों में, रेगिस्तान में, देश के तटवर्ती क्षेत्रों में जल दर्शन का सुंदर संयोजन किया था वे लोग आज कहीं पीछे फेंक दिए गए हैं.
देश ने कई मामलों में खूब उन्नति की है, इसमें कोई शक़ नहीं है, लेकिन बेशक़ इतना तो जोड़ना ही पड़ेगा कि इसी दौर में देश में सबसे सस्ती कार बिकने आई थी और सबसे महंगी दाल भी तथा देश के आधे भाग में भयानक अकाल भी पड़ा था.
पानी तो गिरता ही है. कभी कम तो कभी ज़्यादा. औसत का एक आंकड़ा हम पिछले सौ-पचास साल से भले ही रखने लगे हों, यह बहुत काम नहीं आता. गणित के दम पर आंकड़ों के दम पर जीवन नहीं चल पाता.
आधुनिक बांधों से भी अकाल दूर हो गए हों- आज भी ऐसा पक्के तौर पर नहीं कह सकते. पंजाब, हरियाणा में, देश के अन्य भागों में, महाराष्ट्र में भयानक अकाल पड़ा था. पूर्व कृषि मंत्री शरद पवार इसी प्रदेश से हैं और उन्होंने ही अपने एक बयान में कहा था कि उन्होंने अपने जीवन में महाराष्ट्र सा भयानक अकाल पहले कभी नहीं देखा था.
इसलिए बड़े बांधों से बंध जाना ठीक नहीं है. उन बांधों में भी पानी तो तभी भरेगा जब ठीक वर्षा होगी. पर प्रकृति ठीक नहीं, ठीक-ठाक वर्षा करती है. वह मां है हमारी, लेकिन मदर डेयरी की मशीन नहीं कि जितने टोकन डालो, ठीक उतना ही पानी गिरा देगी.
एक तरफ हम बड़े बांधों से बंध गए और दूसरी तरफ नई तकनीक से भूजल को बाहर उलीज लेने के लिए नए साधन खोज निकाले हैं. शहरों, गांवों में छलनी की तरह छेदकर डाले हमने और सचमुच मिट्टी की विशाल गुल्लक में पड़ी इस विशाल जलराशि को ऊपर खींच निकाला.
उसमें डाला कुछ नहीं इस तरह यह धरती की गुल्लक ही खाली हो चली है. भूजल भंडार में आई गिरावट को बताने के लिए यों तो ज़िलावार, प्रदेशवार आंकड़े भी दिए जा सकते हैं पर जब जीवन का प्राणदायी रस ही निचुड़ता जा रहा हो तो नीरस आंकड़े नया और क्या बता पाएंगे.
फिर भी बिना किसी कटुता के यह तो कहा ही जा सकता है कि इस दौर में हमारी राजनीति ज़्यादा गिरी है कि भूजल, यह तय कर पाना कठिन है. इन दोनों का स्तर ऊपर उठना होगा.
पिछले कुछ समय से एक नया शब्द हमारे बीच आया है, जन-भागीदारी. जैसा अक्सर होता है ऐसे शब्द पहले अंग्रेजी में आते है, फिर हम बिना ज़्यादा सोचे-समझे उनका अपनी भाषा में अनुवाद कर लेते है. पर जब यह शब्द नहीं था, यह नकली शब्द नहीं था तब हमारे समाज में पानी के मामले में गजब की भागीदारी थी.
उस जन-भागीदारी में सचमुच तीन भूमिकाएं होती थीं. लोग ख़ुद अपने गांव में शहर में पानी की योजना बनाते. यह हुई पहली भूमिका. फिर उस योजना को अमल में उतारते थे, तालाब, नहर, कुएं आदि बनाते थे. यह थी दूसरी भूमिका.
और तीसरी भूमिका में इन बन चुकी योजनाओं के रखरखाव की ज़िम्मेदारी भी स्वयं ही उठाते थे. वह भी कोई दो-चार बरस के लिए नहीं बल्कि दो-चार पीढ़ी तक उसका रखरखाव करते थे. उसे अपना काम मानकर करते थे.
ऐसे में कहीं-कहीं समाज राज की भागीदारी भी कबूल कर लेता था. एक तरह से देखा जाए तो राज और समाज परस्पर तालमेल बिठाकर इन कामों को बड़ी सहजता से संपन्न कर लेते थे. आज बहुत कम लोगों को इस बात का कुछ अंदाज़ बचा है कि हमारे कुछ नामों के, परिवारों के नामों के चिह्न इन्हीं कामों में से निकले थे.
नहर की देख-रेख करने वाले नेहरू थे तो पहाड़ों में सिंचाई करने का ढांचा एक तरह की पहाड़ी नहर, कूल बनाने वाले कोहली थे तो गूल बनाने वाले गुलाटी थे. देश में इस कोने से उस कोने तक ऐसी अनेक जातियां, अनेक लोग थे जो गांवों और शहरों के लिए पानी का काम करते थे. इसमें अकाल और बाढ़ की मार को कम करने का काम भी शामिल था और यह सचमुच अपने तन, मन और धन से करते थे.
जो काम उनके मन में उतर गया था, उसे वे अपने तन पर भी संजोकर रखते थे. देश के सभी भागों में शरीर पर गुदना गोदवाने की एक बड़ी परंपरा रही है. इसमें शुभ चिह्न आदि तो चलन में थे ही पर पूरे देश के कुछ भागों में एक विशेष चिह्न भी पाया जाता था.
इसका नाम था सीता बावड़ी. सीधी सादी आठ दस रेखाओं से एक भव्य चित्र कलाई पर किसी भी मेले, ठेले में देखते ही देखते गोद दिया जाता था. इस तरह पानी का काम मन से तन पर तन से श्रम में उतरता जाता था ज़मीन पर.
लेकिन आज ज़मीन की कीमतें आसमान छूने लगी हैं. शहरों में भी और अनेक गांवों में भी तालाब एक के बाद कचरे से पटते जा रहे हैं. जल संकट सामने है पर हम उसे पीठ दिखा रहे हैं.
अपने तालाबों को, अपने जलस्रोतों को नष्ट कर देने के बाद ऐसे प्यासे शहरों के लिए दूर से, बहुत दूर से किसी और का हक़ छीनकर बड़ी ख़र्चीली योजनाओं को बनाकर पानी लाया जा रहा है.
पर हमें एक बात नहीं भूलनी चाहिए. इंद्र देवता से इन शहरों ने ऐसी अपील तो की नहीं है कि हमारा पीने का पानी तो अब सौ-दो सौ किलोमीटर दूर से आ रहा है. आप हम पर पानी ना बरसाएं. पहले ये तालाब ही वर्षा के दिनों में शहरों से गिरने वाले पानी को अपने में संजोकर, समेट कर इन शहरों को बाढ़ से बचा लेते थे.
इंद्र का एक पुराना नाम, विशेषण है पुरंदर. पुरंदर यानी जो पुरों को, किलों को, शहरों को तोड़ देता है. इस नाम को रखा गया है तो इसका अर्थ यह भी है कि इंद्र के समय में भी शहर नियोजन में कमियां होती थीं और ऐसे अव्यवस्थित शहरों को इंद्र अपनी वर्षा के प्रहार से ढहा देता था, बहा देता था.
दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, बंगलुरु, जयपुर, हैदराबाद जैसे पुराने, महंगे हो चले आधुनिक हो चले, सभी शहर बारी-बारी ऐसी बाढ़ की चपेट में आ रहे हैं, जैसी बाढ़ उन जगहों में पहले कभी नहीं आती थी.
हमारे देश की समुद्रतटीय रेखा बहुत बड़ी है. पश्चिम में गुजरात के कच्छ से लेकर नीचे कन्याकुमारी घूमते हुए यह रेखा बंगाल में सुंदरबन तक एक बड़ा भाग घूम लेती है. पश्चिमी तट पर बहुत कम, लेकिन पूर्वी तट पर अब समुद्री तूफानों की संख्या और उनकी मारक क्षमता भी बढ़ती जा रही है.
अभी कुछ साल पहले ओडिशा और आंध्र प्रदेश में आए चक्रवात की पूर्व सूचना समय रहते मिल जाने से बचाव की तैयारियां बहुत अच्छी हो गई थीं और इस कारण बाकी नुकसान एक तरफ, कीमती जानें बच गईं. लेकिन उसी के कुछ ही दिनों बाद वहां आई बाढ़ में उससे भी ज़्यादा नुकसान हो गया था.
हमारे पूर्वी तटों पर समुद्री तूफान आते हैं पर अब नुकसान करने की उनकी क्षमता बढ़ती ही जा रही है. इनके पीछे एक बड़ा कारण है हमारे कुल तटीय प्रदेशों में उन विशेष वनों का लगातार कटते जाना, जिनके कारण ऐसे तूफान तट पर टकराते समय विध्वंस की अपनी ताकत काफी कुछ खो देते थे.
समुद्र और धरती के मिलन बिंदु पर, हज़ारों वर्षों से एक उत्सव की तरह खड़े ये वन बहुत ही विशिष्ट स्वभाव लिए होते हैं. दिन में दो बार ये खारे पानी में डूबते हैं तो दो बार पीछे से आ रही नदी के मीठे पानी में.
मैदान, पहाड़ों में लगे पेड़ों से, वनों से इनकी तुलना करना ठीक नहीं. वनस्पति का ऐसा दर्शन अन्य किसी स्थान पर संभव नहीं. यहां इन पेड़ों की, वनों की जड़ें भी ऊपर रहती है. अंधेरे में, मिट्टी के भीतर नहीं, प्रकाश में, मिट्टी के ऊपर.
जड़ें, तना फिर शाखाएं, तीनों का दर्शन एक साथ करा देने वाला यह वृक्ष, उसका पूरा वन इतना सुंदर होता है कि इस प्रजाति का एक नाम हमारे देश में सुंदर, सुंदरी ही रख दिया गया था. उसी से बना है सुंदरबन.
लेकिन आज दुर्भाग्य से हमारा पढ़ा-लिखा संसार, हमारे वैज्ञानिक कोई 13-14 प्रदेशों में फैले इस वन के, इस प्रजाति के अपने नाम एकदम से भूल गए हैं. जब भी इन वनों की चर्चा होती है, इन्हें अंग्रेजी नाम मैंग्रोव- से ही जाना जाता है.
हमारे ध्यान में भी यह बात नहीं आ पाती कि देश में कम से कम इन प्रदेशों की भाषाओं में, बोलियों में तो इन वनों का नाम होगा, उसके गुणों की स्मृति होगी. प्रसंगवश यहां यह भी जान लें कि मैंग्रोव शब्द भी अंग्रेजी का नहीं है, उस भाषा में यह पुर्तगाली से आया है.
तटीय प्रदेशों से प्रारंभ करें तो पश्चिम में ऊपर गुजराती, कच्छी में इसे चैरव, फिर मराठी, कोंकणी में खारपुटी, तिवर, कन्नड में कांडला काडु, तमिल में सधुप्पू निल्लम काड्ड, तेलुगू में माडा आडवी, उड़िया में झाऊवन कहा जाता है. बांग्ला में तो सुंदरबन सबने सुना ही है.
एक नाम मकडसिरा भी है और हिंदी प्रदेश में तो समुद्र के तट से दूर ही है. पर ऐसा नहीं होता कि जो चीज़ जिस समाज में नहीं है उस समाज की भाषा उसका नाम नहीं रखे. हिंदी में चमरंग वन कहते थे. पर अब यह नए शब्दकोषों से बाहर हो गया है.
पर्यावरण को ठीक से जानने वाले बताते हैं कि आंध्र प्रदेश और ओडिशा में ख़ासकर पारद्वीप वाले भाग में चमरंग वनों को विकास के नाम पर खूब उजाड़ा गया है. इसलिए पारद्वीप ऐसे ही एक चक्रवात में बुरी तरह से नष्ट हुआ था. फिर यह भी कहा गया था कि उसके लिए एक मज़बूत दीवार बना दी जाएगी.
कुछ ठंडे देशों का अपवाद छोड़ दें तो पूरी दुनिया में धरती और समुद्र के मिलने की जगह पर प्रकृति ने सुरक्षा के ख़्याल से ही यह हरी सुंदर दीवार, लंबे-चौड़े सुंदरवन खड़े किए थे. आज हम अपने लालच में इन्हें काटकर उनके बदले पांच गज चौड़ी सीमेंट कंक्रीट की दीवार खड़ी कर सुरक्षित रह जाएंगे- ऐसा सोचना कितनी बड़ी मूर्खता होगी- यह कड़वा सबक हमें समय न सिखाए तो ही ठीक होगा.
चौथी की कक्षाओं में यह पढ़ा दिया जाता है कि पृथ्वी के 70 प्रतिशत भाग में समुद्र है और धरती बस 30 प्रतिशत ही है. समुद्र के सामने हम नगण्य हैं. ये सुंदरबन, चमरंग वन हमारी गिनती बनी रहे, ऐसी सुरक्षा देते हैं.
दीवारें खड़ी करने से समुद्र पीछे हट जाएगा, तटबंद बना देने से बाढ़ रुक जाएगी, बाहर से अनाज मंगवाकर बांट देने से अकाल दूर हो जाएगा, बुरे विचारों की ऐसी बाढ़ से, अच्छे विचारों के ऐसे ही अकाल से हमारा यह जल संकट बढ़ा है.
राजेंद्र बाबू ने अपने समय में या कहें समय से ही पहले ही समाज का ध्यान ऐसी अनेक बातों की तरफ खींचा था. श्री गोखले से भेंट होने के बाद राजेंद्र बाबू कोई 52 बरस तक सार्वजनिक जीवन में रहे.
उनका बचपन जिस गांव में बीता था, उस गांव में नदी नहीं थी, वे तैरना नहीं सीख पाए थे. लेकिन इस 52 बरस के लंबे दौर में उन्होंने अपने समाज को, देश को अनेक बार डूबने से बचाया था.
अंतिम 12 बरस वे देश के सर्वोच्च पद पर रहे. जब वह निर्णायक भूमिका पूरी हुई तो सन 1962 के मई महीने में वे एक दिन रेल में बैठे और दिल्ली से पटना के लिए रवाना हो गए थे. उसी सदाकत आश्रम के एक छोटे से घर में रहने के लिए, जहां से उन्होंने सार्वजनिक जीवन की अपनी लंबी यात्रा प्रारंभ की थी.
(अनुपम मिश्र गांधीवादी पर्यावरणविद थे. यह लेख मूल रूप से तहलका मैगज़ीन में प्रकाशित हुआ था.)