साक्षात्कार: जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पांच जनवरी को नकाबपोश हमलावरों द्वारा की गई हिंसा में 30 से अधिक छात्र घायल हुए थे, साथ ही कई शिक्षक भी चोटिल हुए थे. इनमें से एक प्रोफेसर सुचारिता सेन थीं. जेएनयू के इस घटनाक्रम पर सुचारिता सेन से रीतू तोमर की बातचीत.
जब पांच जनवरी की शाम कैंपस में हमला हुआ, तब आप कहां थीं और इसकी जानकारी कैसे मिली?
पांच जनवरी को हम सभी लोग साबरमती टी पॉइन्ट एक पीस अपील के लिए इकट्ठा हुए थे. हमारा मकसद यही था कि शांतिपूर्ण विरोध हो, किसी तरह की हिंसा नहीं हो. हम 30 से 40 शिक्षक थे और लगभग 150 से 200 छात्र थे. मीटिंग खत्म होने के बाद हमें पता चला कि एक लड़के को घेरकर पीटा गया.
हमें बताया गया कि बाहर से बस में कुछ गुंडे आए हैं, जिनके हाथ में लाठियां, डंडे, रॉड हैं और वे पेरियार हॉस्टल के सामने इकट्ठा हुए हैं. इस हलचल के बीच हमारे एक साथी उन्हें देखने गए, उन्हें घेरकर पीटा गया, वे बड़ी मुश्किल से भागकर आए और उन्होंने हमें इसके बारे में बताया.
इस बीच नकाबपोशों की भीड़ हमारे सामने आ गई. मैं सबसे आगे खड़ी थी. इससे पहले कि हम कुछ सोच पाते उन्होंने हम पर हमला कर दिया. उनके हाथ में जो कुछ भी था, उससे वो हम पर हमला कर रहे थे. हमें कुछ समझ में नहीं आया क्योंकि इस तरह की घटना पहली बार हो रही थी, वो भी कैंपस में.
जेएनयू में कभी ऐसा देखने को नहीं मिला. जेएनयू की रूह अहिंसा हैं. हम असहमत होते हैं, बहस करते हैं, विरोध करते हैं लेकिन हिंसा नहीं करते.
क्या उस समय लगा था कि आप प्रोफेसर हैं और आप पर हमला नहीं होगा?
सच बताऊं तो नहीं लगा था. उन्होंने हमें कुछ समझने या संभलने का भी मौका ही नहीं दिया. वे हम पर बड़े-बड़े पत्थर फेंकने लगे. इतना साफ कर दूं कि ये हमला सिर्फ डराने के लिए नहीं था, वे हमें मारने के इरादे से हम पर हमला कर रहे थे.
आप सोचिए, हम खुले में थे, कहीं भी छिपने की जगह नहीं थी. वे सीधे हमारे सिर की ओर पत्थर फेंक रहे थे. पहला पत्थर मेरे कंधे पर लगा. हालांकि वह ज्यादा बड़ा नहीं था लेकिन अचानक से एक पत्थर मेरे सिर में लगा और मैं असंतुलित होकर जमीन पर गिर गई और वो पत्थर जो मेरे सिर में लगा था, मेरे हाथ में आ गया.
वह एक बड़ी आधी ईंट जितना बड़ा था. मेरे सिर से लगातार खून बह रहा था. मैं अपना सिर पकड़कर भागने लगी, ये लोग हमारे पीछे भाग रहे थे. मैं एक पेड़ के पीछे छिप गई क्योंकि कुछ समझ ही नहीं आ रहा था.
इस बीच एक छात्र ने अपनी स्कूटी पर मुझे बिठाया, मैं नहीं जानती वह कौन था पर उसने मेरी चोट को देखकर मुझे बिठाया और मेन गेट की तरफ ले जाने लगा. गेट पर मैंने देखा कि एक तरफ दिल्ली पुलिस खड़ी थी तो दूसरी तरफ बहुत से लोग थे, जो जेएनयू के नहीं थे. वे बहुत उग्र थे. उन सब के बीच से निकल कर जाना मुमकिन नहीं था. वहां उस छात्र की बहस भी हुई लोगों से, लेकिन किसी तरह मैं एम्स ट्रॉमा सेंटर पहुंचीं.
इस हमले को लेकर कहा जा रहा है कि पहले एक धड़े ने हमला किया और बाद में दूसरे धड़े ने बर्बर तरीके से उस पर प्रतिक्रिया दी.
इतना मुझे नहीं पता लेकिन ये हमला पूरी तरह से एकतरफा था. एक तरफ हम छात्र और शिक्षक शांतिपूर्ण तरीके से बातें कर रहे थे, हमारे पास किसी तरह के हथियार नहीं थे. वहीं उनके पास पत्थर, लाठियां और रॉड थीं. सभी नकाबपोश थे. आप इससे क्या समझते हैं?
मैंने अपनी जिंदगी में पहली बार यूनिवर्सिटी में इस तरह का दृश्य देखा है. मैं जेएनयू को इस हिंसा से जोड़कर याद नहीं रखना चाहती. मैं बस इतना कहना चाहूंगी कि ये बाहर के लोग थे. छात्रों को चुन-चुनकर पीटा जा रहा था. सोए हुए छात्रों को पीटा गया, उनके मुंह पर जूता रखा गया. सो रही लड़कियों की चादरें हटाकर उन्हें प्रताड़ित किया गया. उनसे मारपीट हुई, उनका पीछा किया गया, उन्हें गालियां दी गईं.
इस पूरे घटनाक्रम में दिल्ली पुलिस की भूमिका पर सवाल उठ रहे हैं, आप क्या कहेंगी?
दिल्ली पुलिस की भूमिका संदेहास्पद नहीं थी, बल्कि वे इस घटना में पूरी तरह से शामिल थे. यह बिल्कुल स्पष्ट है. पुलिस की निगरानी में हथियारों के साथ इन नकाबपोशों में कैंपस में घुसाया गया. जिस यूनिवर्सिटी में बिना आईकार्ड के छात्रों को अंदर नहीं आने दिया जाता, वहीं दूसरी तरफ लाठी, डंडें लिए खुलेआम लोगों की एंट्री कराई गई. पुलिस वहीं तमाशबीन खड़ी रही, सिक्योरिटी गार्ड खड़े रहे.
एक बात और जेएनयू में हमारी मीटिंग में हमेशा सिक्योरिटी होती है लेकिन उस दिन एक भी गार्ड वहां नहीं था, ये मुझे बहुत बाद में समझ में आया. मैं कह सकती हूं कि दिल्ली पुलिस की देखरेख में ये हिंसा हुई.
मैं सोचना नहीं चाहती हूं कि उन पर भरोसा करूं लेकिन ये बहुत मुश्किल है. ये नहीं हो सकता कि पुलिस को पता ही न हो कि हमलावर कौन थे, वे चाह रहे थे कि वे हमें पीटे, वे चाह रहे थे कि कोई मरे. बाद में पता चला कि वे निशाना बनाकर लोगों को मार रहे थे, जैसे वहां पांच गाड़ियां थी लेकिन तीन को तोड़ रहे थे.
इस हमले के दो हिस्से हैं, पहला हिस्सा है कि सामान्य डर फैलाना और दूसरा टारगेट करके मारना. मैं अपने वाइस चांसलर से बस इतना पूछना चाहती हूं वे इस पूरी घटना के दौरान कहां थे.
इस घटना पर जेएनयू प्रशासन के रुख पर क्या कहेंगी?
जेएनयू प्रशासन से मुझे कोई उम्मीद नहीं थी. छात्र पिटते रहे और वाइस चांसलर कहां थे? किसी को नहीं पता था. वाइस चांसलर को बिल्कुल इस्तीफा देना चाहिए.
ओईशी घोष जो खुद गंभीर रूप से घायल हुई, सबसे ज्यादा बर्बरता उसके साथ हुई और उसी के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर लगी गई. इससे भद्दा कुछ नहीं हो सकता. मैंने भी एक शिकायत दर्ज कराई है, अभी उसे एफआईआर में तब्दील कराना बाकी है.
जेएनयू को ‘एंटी नेशनल’ यूनिवर्सिटी और ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ कहकर बुलाया जाता है, इस पर क्या कहना है?
पहले दुख होता था लेकिन अब आदत हो गई है. 2016 में बहुत दुख हुआ था. टुकड़े-टुकड़े गैंग का नैरेटिव बाहर से आया है, उसका जेएनयू से कोई लेना-देना नहीं है. जेएनयू एकता का प्रतीक है.
देश के मौजूदा हालातों को लेकर लगातार कहा है कि ये फासीवाद की तरफ बढ़ रहा है.
अब क्या कहूं, एक तरफ छात्र और शिक्षक पीस असेंबली कर रहे थे, पोस्टर बना रहे थे, पूरी तरह से शांतिपू्र्ण माहौल था तो वहीं दूसरी तरफ दिल्ली पुलिस और प्रशासन की शह पर हथियारों से लैस नकाबपोश हमलावर कैंपस में घुसते हैं और बर्बरता से पिटाई करते हैं.
जब आप फासीवाद कहते हैं, तो आपके मन में सबसे पहला शब्द क्या आता है- आतंक, डर! ये डर नहीं तो और क्या है.
क्या हमले के बाद आप डरी हुई हैं?
मैं झूठ बोलूंगी अगर कहूं कि उस वक्त बिल्कुल नहीं डरी. डर लगा. उस दिन डर लगा था. अगर उस दिन मुझे अस्पताल के बाद कैंपस जाना पड़ता तो शायद डर लगता लेकिन अब डर नहीं लगता.
डरना छोड़ दिया. मैं अब डरकर नहीं जी सकती, वो मेरा कैंपस है. मैं वहां दोबारा जाऊंगी. क्या होगा? दोबारा पिटाई होगी, कितना मारेंगे?