किसानों को तो मरना ही था, पुलिस न मारती तो आत्महत्या कर लेते

किसान को मारना सबसे आसान है. बल्कि मैं तो कहता हूं कि किसान को मारना दूसरी क्लास में ही सबको सिखा देना चाहिए. उसे न भी मारो तो वह ख़ुद ही मर जाता है. यह इतना फ़नी है कि हमें इस पर चुटकुले बनाने चाहिए और वॉट्सऐप पर फ़ॉरवर्ड करने चाहिए.

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फोटो: पीटीआई

किसान को मारना सबसे आसान है. बल्कि मैं तो कहता हूं कि किसान को मारना दूसरी क्लास में ही सबको सिखा देना चाहिए. उसे न भी मारो तो वह ख़ुद ही मर जाता है. यह इतना फ़नी है कि हमें इस पर चुटकुले बनाने चाहिए और वॉट्सऐप पर फ़ॉरवर्ड करने चाहिए.

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(फाइल फोटो: रॉयटर्स)

मध्य प्रदेश की पुलिस ने पांच किसान मार गिराए. गद्दार थे- फ़सल की ज़्यादा क़ीमत मांग रहे थे. वैसे किसानों को तो मरना ही था. पुलिस न मारती तो आत्महत्या कर लेते. हां, इतना है कि इससे पुलिस वालों की खोई हुई सेल्फ़-ऐस्टीम तो लौटी होगी कि हां, हम भी मार सकते हैं.

भले ही हमें समझ नहीं आ रहा कि व्यापमं मंगल ग्रह से आई कोई बला है या पाताल से, लेकिन कम से कम किसान को तो हम मार ही सकते हैं.

किसान को मारना सबसे आसान है. बल्कि मैं तो कहता हूं कि किसान को मारना दूसरी क्लास में ही सबको सिखा देना चाहिए. और जैसा कि मैंने अभी कहा, कि उसे न भी मारो तो वह ख़ुद ही मर जाता है. यह इतना फ़नी है कि हमें इस पर कुछ चुटकुले बनाने चाहिए और एक दूसरे को वॉट्सऐप पर फ़ॉरवर्ड करने चाहिए.

शास्त्री जी बहुत मासूम थे. ‘जय जवान जय किसान’ बोला और फिर ख़ुद जल्दी निकल लिए. बाद में किसी ने ‘गरीबी हटाओ’ बोला और जादू देखिए – गरीबी हट गई.

ये इस कंट्री से मुझे इसीलिए इतनी मोहब्बत है. यहां आप बोलते हैं और काम हो जाता है. मतलब मोदी जी ने बोला बाद में, अच्छे दिन पहले आ गए. कभी- कभी मैं कहता हूं कि यार थोड़ा रुको तो, इंतज़ार का, उम्मीद का मज़ा भी लेने दो, लेकिन नहीं! सब कुछ तुरंत हो जाता है.

मगर इन किसानों को कुछ प्रॉब्लम है. मतलब जो बात गंगा के पानी की तरह साफ़ है, उसी को डिनाई कर रहे हैं. मैं ख़ुद किसानों की फ़ैमिली में पैदा हुआ, इसलिए आपको पक्के से बता सकता हूं कि हम थोड़े खिसके हुए लोग होते हैं. हमारी ज़िंदगी में इतनी फ़नी कहानियां होती हैं पर हमें रहना उदास ही है. अभी पुणे में क्या हुआ, सुनिए. स्टे विद मी, हां!

एक किसान ने 2 एकड़ ज़मीन में प्याज़ उगाए. उगे तो उसने अपने 952 किलो प्याज़ ट्रक से भेजे शहर की मंडी में बिकने के लिए. 1,523 रुपए में बिके – मतलब 1 किलो का 1 रुपये 60 पैसे. मैं सोच रहा हूं कि एक किलो ही बेचने होते तो डेढ़ रुपये के ऊपर के 10 पैसे कहां से आते, पर वो छोड़िए.

महाराष्ट्र में प्रदर्शन के दौरान किसान को पकड़ कर ले जाते पुलिसकर्मी. (फोटो: पीटीआई)
(फाइल फोटो: पीटीआई)

गणित ये है कि किसान ने 1,523 रुपये में प्याज़ बेचे. अब ट्रक वाला तो उसका रिश्तेदार था नहीं, इसमें से 1,320 उसने अपने भाड़े के ले लिए. बिकवाने वाले बिचौलिये ने 91 रुपये कमीशन लिया और 111 रुपये प्याज़ उतारने की मज़दूरी और मंडी की रसीद में गए.

इस तरह तीसरी क्लास का बच्चा भी आपको बता देगा- बशर्ते वो किसी किसान या मज़दूर का बेटा ना हो और सरकारी स्कूल में ना पढ़ता हो-कि कुल खर्चा हुआ-1,522 रुपये. कुल कमाई थी-1,523 रुपये.

इस तरह उस किसान ने साल भर की मेहनत के बाद 1 रुपया कमाया और उदास होकर घर लौट आया. आप मुझे बताइए, ये इतना दिलचस्प किस्सा घट रहा है उसकी ज़िंदगी में और वो फिर भी उदास हो रहा है, यह नॉर्मल है क्या?

इसीलिए मुझे लगता है कि सरकार को सब काम छोड़कर सबसे पहले सारे किसानों के दिमागों की जांच करवानी चाहिए. वे क्यों बो रहे हैं अनाज, दालें, सब्ज़ियां और गन्ना? वी डोन्ट इवन नीड इट.

दुकान पे जाएं और खरीद लें आटा, दाल और बाकी टाइम कुछ और काम करें, जैसे हम सब कर रहे हैं. बॉस, हम कौन सी भाषा में बताएं तुम्हें कि हमें तुम्हारी ज़रूरत नहीं है.

तुम जंतर-मंतर पे कंकाल गले में लटका के घूम रहे थे, अपना पेशाब पी रहे थे, हमें कुछ फ़र्क़ पड़ा? तुम्हारे जैसे 12,000 ख़ुदकुशी कर लेते हैं हर साल, हमें कुछ फ़र्क़ पड़ता है?

तुमसे अच्छे तो जवान हैं यार! हमें मालूम है कि तुम्हारे ही बेटे हैं और बहुत खराब हालात में जीते हैं लेकिन जब मरते हैं तो अर्णब के घर की रोज़ी-रोटी तो चलती है उससे. वे लोग, जो चैनलों पे लाल रंग से सने ग्राफ़िक्स बनाते हैं और जो उसपे दहाड़ता हुआ म्यूज़िक लगाते हैं, उनके घर का चूल्हा तो जलता है उससे.

मेरे यार दोस्त उस बहाने अपना देशभक्ति का कोर्स रिवाइज़ कर लेते हैं और सरकार सारे सवालों के जवाब में सौ नम्बर का आंसर हमारे मुंह पर फेंक देती है – जवान मर रहे हैं. पर साला, तुम मरते हो तो कुछ नहीं होता.

एक इंट्रेस्टिंग न्यूज़ तक नहीं बनती. दिस इज़ लाइक कि तुम्हारी न्यूज़ के साथ पॉपकॉर्न तक नहीं खाया जा सकता. और तो और, तुम्हारी न्यूज़ इतनी भी कूल नहीं बन सकती कि उसके साथ जन गण मन ही चला दें.

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(फाइल फोेटो: कृष्णकांत)

मेरे दोस्त, मेरे भाई, कुछ ढंग का करो यार. सरकारों के तुमको लेके जैसे लक्षण हैं, उनसे मुझे पक्का लग रहा है कि अभी थोड़े दिन में हम फैक्ट्रियों में गेहूं बनाने लगेंगे और फिर हमें तुम्हारी इतनी भी ज़रूरत नहीं रहेगी, जितनी अभी है.

तुम्हें अटेंशन चाहिए ना? तो ये क्या रुआंसे आर्ट फ़िल्म के तरीके अपना रहे हो? लोग मर रहे हैं, पेड़ों पे लटक रहे हैं – वॉट द हेल कैन यू प्ले विद दिस? ओनली सैड म्यूज़िक. लाइफ़ को श्याम बेनेगल की पिक्चर बना के रख दिया है तुम लोगों ने.

भाई हूं इसलिए एक सलाह दे रहा हूं. तुम्हारी लड़कियां प्रोटेस्ट के टाइम छोटे कपड़ों में डांस नहीं कर सकतीं क्या जैसे आईपीएल में करती हैं या जैसे फ़िल्मों में हम लोग प्रमोशनल आइटम सॉन्ग बनाते हैं?

नहीं, ऑफ़ेंड नहीं होओ यार प्लीज़, पर कुछ तो करो ना. हम चौबीस घंटे ग्लैमर की डोज़ पे हैं. तुम मरो, आई डोंट केयर अबाउट दैट, पर मरने से पहले थोड़ा तो एंटरटेन करके जाओ यार. प्लीज़.

(गौरव सोलंकी कहानीकार, कवि, गीतकार और स्क्रीनप्ले राइटर हैं . उन्होंने अनुराग कश्यप की फ़िल्म ‘अग्ली’ के गाने लिखे हैं. अपने पहले कविता संग्रह ‘सौ साल फ़िदा’ के लिए उन्हें 2012 में भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार भी मिला. गौरव आईआईटी रुड़की से इंजीनियरिंग ग्रेजुएट हैं. फ़ैंटम फ़िल्म्स ने उनकी कहानी ‘हिसार में हाहाकार’ पर फ़िल्म बनाने के लिए उसके अधिकार खरीदे हैं. फिलहाल वे उसके अलावा दो और स्क्रिप्ट्स लिख रहे हैं.)

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