फिल्म इंडस्ट्री हमेशा सत्ताधारियों के साथ रही है: नसीरुद्दीन शाह

साक्षात्कार: बीते दिनों द वायर के संस्थापक संपादक सिद्धार्थ भाटिया के साथ बातचीत में फिल्म अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने सीएए-एनआरसी-एनपीआर के विरोध में चल रहे विरोधी प्रदर्शनों, सांप्रदायिकता के उभार और अहम मसलों पर फिल्म उद्योग के बड़े नामों की चुप्पी समेत कई विषयों पर बात की.

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नसीरुद्दीन शाह. (फोटो: द वायर)

साक्षात्कार: बीते दिनों द वायर के संस्थापक संपादक सिद्धार्थ भाटिया के साथ बातचीत में फिल्म अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने सीएए-एनआरसी-एनपीआर के विरोध में चल रहे विरोधी प्रदर्शनों, सांप्रदायिकता के उभार और अहम मसलों पर फिल्म उद्योग के बड़े नामों की चुप्पी समेत कई विषयों पर बात की.

नसीरुद्दीन शाह. (फोटो: द वायर)
नसीरुद्दीन शाह. (फोटो: द वायर)

द वायर  के साथ एक बेबाक इंटरव्यू में अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने सीएए-एनआरसी-एनपीआर के विरोध में चल रहे विरोधी प्रदर्शनों, सांप्रदायिकता के उभार और अहम मसलों पर फिल्म उद्योग के बड़े नामों की चुप्पी के साथ ही साथ विभिन्न विषयों पर बात की.

शाह का परिवार अलग-अलग समयों पर सेना और भारत सरकार में प्रशासन के विभिन्न पदों पर रहा है. अपनी पूरी जिंदगी उन्हें कभी यह महसूस नहीं हुआ कि मुस्लिम होना किसी भी तरह से उनकी राह में कोई अड़चन खड़ी करता है. वे बताते हैं कि अब उन्हें हर समय उन्हें इस पहचान की याद दिलाई जाती है, जो काफी चिंताजनक है.

यह पूरा इंटरव्यू पेश है…

सिद्धार्थ: नसीरुद्दीन शाह- थियेटर अभिनेता, निर्देशक, निर्माता और निस्संदेह फिल्म अभिनेता भी, जिनका इन क्षेत्रों में 45 सालों से ज्यादा का अनुभव है. शाह न सिर्फ एक रचनात्मक व्यक्ति हैं, बल्कि दखल देने वाले नागरिक भी हैं, जिन्होंने कई मौकों पर अपने मन की बात कहने से गुरेज नहीं किया है. नसीर द वायर  के साथ जुड़ने और हमें यह इंटरव्यू देने के लिए आपका धन्यवाद.

इस समय देश में काफी उथल-पुथल है. आप नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के खिलाफ नागरिकों का विरोध प्रदर्शन देख रहे हैं. आप महिलाओं को अपने घर से निकलते और कई दिनों से शाहीन बाग में धरने पर बैठे देख रहे हैं. और अब विद्यार्थी सड़कों पर हैं जो शैक्षणिक संस्थाओं की तबाही की इबारत लिखने वाली सरकारी नीतियों और कदमों का विरोध कर रहे हैं.

एक तरह की राज्य की हिंसा के बावजूद लोगों का सड़कों पर उतरना जारी है और छात्र नेताओं को पीटा गया है…

नसीर: … और उन पर हिंसा करने का आरोप लगाया गया है.

सिद्धार्थ: और उन पर हिंसा करने का आरोप लगाया गया है, लेकिन इसने किसी के जोश को कम नहीं किया है. आप इसे किस नजरिये से देखते हैं? और अचानक ऐसा क्या हुआ है, जिसने लोगों को इस तरह से बाहर निकाला है.

नसीर : नौजवान अचानक जाग गया है और सहसा उसे यह एहसास हुआ है कि उन्हें कुचला जा रहा है. आज ही मैं अखबार में पढ़ रहा था कि शिक्षा बजट में 30,000 करोड़ रुपये की कटौती की गई है और हम हैं कि फिर से एनआरसी करने जैसी चीजों में खर्च कर रहे हैं, जो सत्ताधारी दल के मुताबिक ही पूरी तरह से नाकाम हो गयी क्योंकि इसने लाखों हिंदुओं को भी शामिल कर दिया.

सिद्धार्थ : सही कह रहे हैं.

नसीर : ‘अरे नहीं! यह सही नहीं हो सकता है.’ मतलब आप इस पूरी बेमानी कवायद को फिर से करना चाहते हैं. और तब उन्होंने निश्चित तौर पर बच निकलने के लिए सीएए के तौर पर एक चोर-रास्ता तैयार किया है, जिसके अनुसार अगर आप गैर-मुस्लिम हैं, तो आप नागरिकता के लिए अर्जी दे सकते हैं और आपको नागरिकता प्रदान की जाएगी.

Ahmedabad: Union Home Minister Amit Shah addresses party workers in Ahmedabad Saturday, Jan 11, 2020. (PTI Photo) (PTI1_11_2020_000225B)
अहमदाबाद में हुए एक कार्यक्रम में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह. (फोटो: पीटीआई)

सीएए में पहली खामी हमें यह नजर आती है कि मुस्लिमों को इससे बाहर रखा गया है, जो हैरान करने वाला नहीं है, लेकिन मुझे यह कतई उम्मीद नहीं थी कि केंद्र सरकार यह इतने खुलेआम करेगी.

जिस चीज की ओर लोगों की नजर गई है वह इसका कहीं घृणित पहलू है: इसके अनुसार अत्याचार सिर्फ इस्लामिक देशों में ही होता है. पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान… म्यांमार का कोई जिक्र नहीं, श्रीलंका का कोई जिक्र नहीं. ‘मुस्लिमों के पास जाने के लिए 15 देश हैं, हिंदुओं के पास सिर्फ भारत है.’

आप अपनी मामूली मिल्कियत के साथ जान बचाने के लिए भाग रहे एक शरणार्थी से, जो अपनी सारी जायदाद और वैसी हर चीज जिससे वह प्यार करता था, को पीछे छोड़कर आने के आघात से उबरने और सरहद को पार करने की कोशिश कर रहा है… आप उससे जेद्दाह के लिए टिकट बुक कराने की उम्मीद करते हैं? आप उससे यूएई या ऐसी कोई जगह जाने की उम्मीद करते हैं?

और यह छंटनी जानबूझकर की गई है. मैं यह एक मुस्लिम के तौर पर नहीं कह रहा हूं, क्योंकि मैंने कभी भी खुद को एक मुस्लिम के तौर पर नहीं देखा है.

सिद्धार्थ : आप कह रहे थे कि आपको कभी नहीं बताया गया…

नसीर : यह कभी भी मेरे रास्ते की रुकावट नहीं रहा है. मेरे भाई ने पूरी जिंदगी सेना में अपनी सेवा दी. एक भाई ने कॉरपोरेट में नौकरी की. मेरे अब्बा सरकारी नौकरी में थे. मेरे कई चाचा सेना में थे. भाई और चाचा पुलिस में थे, कई  और सरकारी मुलाजिम थे, डिप्टी डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट और इसी तरह से…

हम में से किसी ने भी हमारे मुस्लिम होने को किसी तरह की रुकावट के तौर पर महसूस नहीं किया है. और मेरे दिमाग में कभी यह ख्याल नहीं आया कि मैं एक मुस्लिम हूं.

तो मैं यह एक मुस्लिम के तौर पर नहीं कह रहा हूं और तथ्य यह है कि सिर्फ मुस्लिम ही विरोध नहीं कर रहे हैं- निस्संदेह, असम में लोग अलग वजह से विरोध कर रहे हैं. हिंदी पट्टी में उनके विरोध का कारण अलग है- लेकिन मैं यह एक मुस्लिम के तौर पर नहीं, बल्कि एक चिंतित नागरिक के तौर पर कह रहा हूं.

और इसके जिस घृणित पहलू के बारे में मैं बात कर रहा था, उसका मतलब यह है कि अत्याचार सिर्फ मुस्लिम देशों में ही होता है.

प्रधानमंत्री का यह कहना कि उन्हें पता है कि दंगों के पीछे कौन हैं, ‘आप उनके कपड़े से उन्हें पहचान सकते हैं’… जब केंद्र में मंत्री हैं जो कहती हैं कि ‘दीपिका पादुकोण उन लोगों के साथ खड़ी हैं, जो भारत के सैनिकों के मरने पर जश्न मनाते हैं- क्या ये कोई हिंदी फिल्म चल रही है?

और मुझे नहीं लगता है कि उन्हें सशस्त्र बलों के प्रति सम्मान के बारे में बात करने का कोई हक है. वे खुद एक ऐसी शख्स हैं, जिन्होंने जंग में भाग लेनेवाले एक पुरस्कृत पूर्व सैनिक का अपमान किया था, जो तब लौन्गेवाला में युद्ध लड़ रहा था, जब वे शायद बेहद छोटी थीं.

सिद्धार्थ: और आप किनकी बात कर रहे हैं, वे कौन हैं?

नसीर : मैं एक सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल की बात कर रहा हूं, जो भारतीय सेना में डिप्टी चीफ के पद तक पहुंचे. वे ऐसे व्यक्ति का अपमान करने से पहले दो बार नहीं सोचेंगीं. वे सशस्त्र बल के लिए सम्मान की बात कर रही हैं?

माफ कीजिएगा मैडम, आपके पास सशस्त्र सेना के लिए सम्मान की बात करने का कोई हक नहीं है. और मुसलमानों को बदनाम करने का जो पूरा अभियान चलाया जा रहा है और लगातार जो पाकिस्तान कनेक्शन निकाला जाता रहता है.. ऐसा लगता है कि इस सरकार को पाकिस्तान से बहुत ज्यादा प्यार है.

सिद्धार्थ : जो भारतीय मुस्लिम को निश्चित तौर पर नहीं हैं.

नसीर : और ऐसा बताया जाता है कि हम सब इस दुश्मन देश के प्रति सहानुभूति रखते हैं.

सिद्धार्थ : लेकिन आपने एक या दो बार यह कहा कि आप बतौर मुस्लिम बात नहीं कर रहे हैं. आपको ऐसा कहने की जरूरत क्यों महसूस हुई? क्या कुछ बदल गया है… कोई चीज जिसका एहसास आप अचानक कर रहे हैं या आपको बताया जा रहा है?

नसीर : मुझे लगता था कि मेरा पासपोर्ट, मेरा मतदाता पहचान पत्र, मेरा ड्राइविंग लाइसेंस, मेरा आधार कार्ड मुझे भारतीय साबित करने के लिए काफी होगा.

क्या यह तथ्य कि मेरी पांच पुश्तें इस मिट्टी में दफन हैं, मैंने अपनी जिंदगी के 70 साल यहां गुजारे हैं, मैंने शिक्षा या पर्यावरण जैसे सामाजिक मुद्दों के क्षेत्र में यथाशक्ति देश की सेवा की है… अगर यह मेरी भारतीयता को साबित नहीं करता है, तो फिर यह कैसे साबित होगा?

और मुझे नहीं लगता है कि मेरे पास जन्म प्रमाणपत्र है. मुझे नहीं लगता है कि मैं इसे पेश कर सकता हूं. मुझे नहीं लगता है कि बहुत से लोग ऐसा कर सकते हैं.

क्या इसका मतलब है कि हम सभी को बाहर कर दिया जाएगा? मुझे ऐसे किसी आश्वासन की जरूरत नहीं है कि मुस्लिमों को फिक्र करने की जरूरत नहीं है. मैं चिंतित नहीं हूं.

अगर 70 सालों तक यहां रहना इसे साबित नहीं करता है, और अपनी क्षमता में जितना बन सके उतना करना अगर मुझे भारतीय साबित नहीं करता है, तो मुझे नहीं पता है कि यह और कैसे साबित होगा.

मैं डरा हुआ नही हूं, मैं बेचैन नहीं हूं- मुझे इस बात का गुस्सा है कि ऐसा कानून हम पर थोप दिया गया है.

सिद्धार्थ: जाहिर तौर पर यह यह गुस्सा सड़कों पर छलक रहा है और आप इसे देख रहे हैं. अब सरकार कह रही है कि सीएए मानवतावाद की सच्ची भावना के अनुरूप है और एनआरसी पर तो चर्चा तक नहीं हुई है.

नसीर: गृहमंत्री बार-बार यह ऐलान कर रहे हैं कि इसे देशभर में लागू किया जाएगा. ‘एक-एक कर निकालेंगे… और कीड़े और दीमक और ये और वो..’

और उसके बाद प्रधानमंत्री भावावेश में आकर यह कहते हैं कि ‘ऐसा तो हुआ ही नहीं कभी भी’- मेरा कहना है कि आखिर कौन यकीन करेगा? यह सैमुएल बैकेट के नाटक जैसा हो गया है. यह पूरी तरह से बेतुका होता जा रहा है…जिस तरह का बचाव पेश किया जा रहा है…‘क्या विपक्ष इसके पीछे है?’

अगर विपक्ष इतने सारे लोगों को गोलबंद करने में सक्षम था, तो क्या उन्होंने चुनाव में बेहतर प्रदर्शन नहीं किया होता? और छात्रों के लिए अवमानना का भाव…जो बात मुझे सबसे ज्यादा पीड़ित कर रही है, वह है छात्र समुदाय का तिरस्कार, बुद्धिजीवियों का तिरस्कार.

New Delhi: Students protest shirtless at the campus against Delhi Police's action on students at Jamia Millia Islamia yesterday, in New Delhi, Monday, Dec. 16, 2019. (PTI Photo) (PTI12_16_2019_000034B) *** Local Caption ***
15 दिसंबर 2019 को जामिया मिलिया इस्लामिया में हुई दिल्ली पुलिस की कार्रवाई के बाद यूनिवर्सिटी गेट पर प्रदर्शन करते छात्र. (फोटो: पीटीआई)

सिद्धार्थ: आपको क्या लगता है, ऐसा क्यों है?

नसीर: मुझे लगता है कि ऐसे लोग जिन्हें यह पता नहीं है कि विद्यार्थी होना कैसा होता है, ऐसे लोग जिनका कोई बौद्धिक लक्ष्य नहीं रहा, वे छात्रों और बुद्धिजीवियों को कीड़े-मकोड़े की ही तरह देखेंगे. इसमें कोई हैरत की बात नहीं है कि प्रधानमंत्री में छात्रों के प्रति कोई संवेदना नहीं है… वे कभी विद्यार्थी नहीं रहे हैं.

उनके प्रधानमंत्री बनने से पहले का एक वीडियो क्लिप है, जिसमें वे कह रहे हैं,‘मैंने तो पढ़ाई-वढ़ाई की नहीं.’उस समय इसे काफी प्यारा और निश्छल माना गया था. लेकिन पिछले छह सालों में जो हुआ है, उसकी रोशनी में, उनके इस बयान ने काफी डरावना अर्थ धारण कर लिया है… उसके बाद वैसे उन्होंने राजनीति विज्ञान में डॉक्टरेट की उपाधि ग्रहण की.

सिद्धार्थ :  एंटायर पॉलिटिकल साइंस…

नसीर : एंटायर पॉलिटिकल साइंस…जिसे देखने में अनुराग (कश्यप) की काफी दिलचस्पी होगी. तो, कभी भी उस समुदाय का हिस्सा नहीं होने के कारण, जो खुद को इस देश के भविष्य के लिए जिम्मेदार महसूस करता है, जिसमें उसे जिंदगी गुजारनी है… आप उनसे विद्यार्थियों के लिए किसी संवेदना की उम्मीद कैसे करते हैं.

और दस्तावेजी सबूत, वीडियो सबूत होने के बाद दिल्ली पुलिस की करतबबाजी जिसमें जख्मी लोगों पर ही आरोप लगा दिया गया… जबकि इन छात्रों द्वारा किसी पर हमला करने का एक भी शॉट या एक भी तस्वीर नहीं है… आपके पास सिर्फ छात्रों पर हमला किए जाने की तस्वीरें हैं, आप सिर्फ यूपी पुलिस द्वारा राहगीरों की पिटाई करने की तस्वीरें देखते हैं… आप सिर्फ यह सुनते हैं कि छह साल पहले मर चुके लोगों पर एफआईआर दर्ज किया गया है… यह काफी चिंताजनक है.

सिद्धार्थ : जब आप छात्रों को सड़कों पर उतरता हुआ देखते हैं … जेएनयू से पहले, जाहिर तौर पर जिसे वर्तमान सत्ता विभिन्न वजहों से नापसंद करती है, जामिया लाइब्रेरी के भीतर, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के भीतर भी इस तरह की कार्रवाई की गई और सरकार छात्रों के खिलाफ काफी क्रूरता के साथ पेश आई… आपने बीच-बीच में संवेदना शब्द का इस्तेमाल किया… संवेदना छोड़िए, उसके अलावा भी चीजें वर्तमान माहौल में नहीं दिखाई दे रही हैं. क्या ऐसा नहीं है?

नसीर : बिल्कुल. अगर सत्ता के भीतर के लोग यह सकते हैं कि हम सीएए विरोधी आंदोलनकारियों को गोली मार देंगे, अगर आप मोदी के खिलाफ प्रदर्शन करेंगे तो हम तुम्हें जिंदा गाड़ देंगे- मेरा पूछता हूं कि क्या हम ईशनिंदा कर रहे हैं? यानी अगर आप मजहब के खिलाफ कुछ कहते हैं तो आपको मृत्युदंड दे दिया जाता है… आप सत्ताधारी दल के खिलाफ कुछ नहीं कह सकते हैं, और अगर आप कुछ कहते हैं तो आपको मृत्युदंड दे दिया जाएगा?

और कोई भी कार्रवाई नहीं करता है. इन लोगों को ऐसी बात कहने के लिए फटकार भी नहीं लगाई जाती है. यह एक सर्वविदित तथ्य है कि खुद प्रधानमंत्री ट्विटर पर नफरत फैलाने वाले लोगों को फॉलो करते हैं. वे ऐसा क्यों करते हैं, यह सिर्फ उन्हें मालूम है.

जाहिल ट्रोलों की यह सेना जो भाजपा के आईटी सेल के लिए काम करती है, चारों तरफ यह नफरत फैला रही है और यह हैरान करने वाला है, यह चकरा देनेवाला है कि आखिर यह सब आया कहां से.

शायद इसका जवाब यह है कि ये नौजवान नहीं है, बल्कि मेरी पीढ़ी के या उससे एक या दो दशक जवान पीढ़ी में से हैं, जो बचपन में सुनी गई बातों की स्मृतियों से संक्रमित हैं.

बचपन में मैंने हिंदुओं और सिखों को लेकर नफरत वाली कहानियां सुनी थीं. मैं 1949 मैं पैदा हुआ था. मुझे पक्का यकीन है कि सिख बच्चों ने मुस्लिमों को लेकर नफरत वाली कहानियां सुनी होंगीं. कुछ समय तक यह हम पर छाया रहा और स्कूल के दिनों में हम एक-दूसरे की तरफ गालियां उछाला करते थे. लेकिन कभी भी इस रेखा को पार नहीं किया गया.

मुझे याद नहीं है कि मजहब को लेकर मेरा किसी से झगड़ा हुआ हो जबकि ‘तुमने मेरा क्रिकेट बैट चोरी कर लिया’, तुमने मेरी क्रिकेट बॉल का इस्तेमाल किया, ऐसी चीजों को लेकर मेरे कई झगड़े हुए.

सिद्धार्थ : …और कभी भी भेदभाव किए जाने का एहसास नहीं हुआ.

नसीर : हां, कभी भी भेदभाव किए जाने का एहसास नहीं हुआ, जबकि मजहब को लेकर ताने दिए जाते थे. लेकिन मुझे लगता है कि कहीं न कहीं हमारे जहन में ये चीजें अटकी रह गई हैं.

विभाजन ने हमारे वालिदों की पीढ़ी को जो जख्म दिए उसने कहीं न कहीं हमें प्रभावित किया है. सौभाग्य से हमारी पीढ़ी खत्म होने की तरफ बढ़ रही है और एक ऐसी पीढ़ी सामने आ रही है, जिस पर इस स्मृति का जख्म नहीं है.

सिद्धार्थ : नहीं, लेकिन मैं यह कहना चाहूंगा कि एक प्रोपगेंडा भी चलाया चलाया जा रहा है…इस तरह से आपके पास एक ऐसी पीढ़ी भी हो सकती है, जो इस प्रोपगेंडा के साथ बड़ी हो रही है.

नसीर : मुझे लगता है वह पीढ़ी ढल रही है. कह सकते हैं कि एक पीढ़ी है, जो प्रोपगेंडा पर पल रही है और एक वह है तो प्रोपगेंडा फैला रही है. मुझे लगता है कि युवा पीढ़ी समझदार है और रोमियो स्क्वॉड चाहे जो कहे या करे, वे ज्यादा से ज्यादा एक मकसद के साथ आगे आ रहे हैं, जो न तो हिंदू है और न मुस्लिम.

ज्यादा से ज्यादा बच्चों को यह एहसास हो रहा है कि अंतरधार्मिक विवाह… तथ्य है कि मेरी पत्नी एक हिंदू है और उसकी कई दोस्त मिश्रित विवाह वाली हैं… और मेरा बेटा जब पहली बार एक समान धर्म की विवाहित जोड़ी से मिला तो उसने कहा, ‘ओह! एक हिंदू की शादी हिंदू से हुई है… यह काफी दिलचस्प है.’

यह तब की बात है, जब वह 5 साल का था. तो मुझे लगता है कि यह पीढ़ी इस बोझ से मुक्त है और यह उन पर है कि वे इस लड़ाई को जारी रखें…

सिद्धार्थ : इस पीढ़ी ने, अगर हम खासतौर पर फिल्म इंडस्ट्री को लें, तो जो कुछ चल रहा है, उसको लेकर काफी विरोध, सरकार का विरोध, वास्तव में युवा अभिनेताओं, युवा निर्देशकों, युवा लेखकों की तरफ से आया है.

नसीर : इन लोगों के पास ज्यादा साहस और स्थापित शख्सियतों की तुलना में खोने के लिए कम है. और जहां तक स्थापित शख्सियतों का सवाल है, यह समझ में आने लायक है कि वे क्यों नहीं बोलते हैं. लेकिन मन में यह सवाल आता है कि उनके पास खोने के लिए कितना है?

क्या उन्होंने इतना पैसा नहीं कमा लिया है, जिसमें सात पुश्तें खाएंगी? यह (खलील) जिब्रान की उस लाइन की तरह है- जब आपका कुआं पूरा भरा होता है, तब आपको प्यास का जो डर सताता है, वह प्यास कभी बुझाई नहीं जा सकती. यह बिल्कुल उसी तरह का लगता है- लोकप्रियता में कमी, कमाई में कमी? आखिर कितना चाहिए? क्या यह आपकी जान ले लेगी?

सिद्धार्थ : नहीं, लेकिन सोचिए, एक स्टार कुछ कहता है और यह उसकी फिल्म को प्रभावित करता है. यह फिल्म से जुड़े काफी लोगों पर असर डाल सकता है?

नसीर: मुझे लगता है कि स्टार मूल रूप से अपने बारे में सोचते हैं न कि अपने इर्दगिर्द के लोगों के बारे में. अगर ऐसा होता, तो (इंडस्ट्री में) ज्यादा समानता होती. लेकिन उसके बारे में फिर कभी. लेकिन आपको दीपिका के साहस की दाद देनी होगी, जो शीर्ष के लोगों में शुमार हैं, लेकिन फिर भी उन्होंने ऐसा कदम उठाया.

देखते हैं, कि वह इसका सामना कैसे करती है. उन्हें निश्चित तौर पर कुछ विज्ञापन करारों से हाथ धोना पड़ेगा. ठीक है, लेकिन क्या इससे वे गरीब हो जाएंगी? क्या इससे उनकी लोकप्रियता घट जाएगी? क्या इससे वे कम सुंदर हो जाएंगी? ये सब चीजें तो देर-सवेर आ ही जाएंगी…

फिल्म इंडस्ट्री सिर्फ एक भगवान की पूजा करती है और वह भगवान है पैसा और उस भगवान को खुश रखने का एकमात्र तरीका ज्यादा से ज्यादा कमाना है. लेकिन मुझे लगता है कि उनकी चुप्पी उतनी महत्वपूर्ण नहीं है, जितना महत्वपूर्ण है युवा पीढ़ी की मुखरता.

हालांकि वे सब अपने बयानों में थोड़ा सा संभल कर चले हैं, उन्हें मालूम है क्यों… और युवा पीढ़ी से मेरा मतलब सबसे है, देशभर के युवाओं से है- और औरतों का बाहर आना, यह बहुत शानदार चीज हुई है.

New Delhi: Protesters gather at Shaheen Bagh to oppose the amended Citizenship Act, in New Delhi, Tuesday, Dec. 31, 2019. (PTI Photo) (PTI12_31_2019_000226B)
दिल्ली के शाहीन बाग़ में सीएए विरोधी प्रदर्शन में महिलाएं. (फोटो: पीटीआई)

सिद्धार्थ : आप फिल्म इंडस्ट्री में साहसी आवाजों की बात कर रहे हैं, खासकर युवा पीढ़ी में और यहां तक कि दीपिका और साफतौर पर आप- आपके सामने एक ऐसी स्थिति है, जिसमें इंडस्ट्री ऐसी फिल्में बना रही है, जो राष्ट्रवादी एजेंडे को प्रोत्साहित करती हैं, जिसमें उस सीमा तक इतिहास के साथ तोड़-मरोड़ किया जा रहा है कि एक ऐतिहासिक युद्ध या एक सेनापति की कहानी को नए सिरे से कहा जा रहा है और ऐसे झंडों के साथ उसे नया रूप दिया जा रहा है, जो वर्तमान निजाम के हितों का प्रदर्शन करते हैं.

नसीर: तो इसमें नया क्या है? फिल्म उद्योग ने हमेशा सत्ताधारी लोगों के साथ रहा है. वहां बहुत ज्यादा पैसा दांव पर लगा होता है. वे वही करते हैं, जो केंद्र को पसंद आता है.

सिद्धार्थ : तो आप यह कह रहे हैं कि यह एक सनकी कदम है,  मगर एक व्यावसायिक कदम है?

नसीर : हां. मैं सचमुच सोचता हूं कि इतिहास को फिर से लिखने में मदद कर रहे फिल्मकारों में कितनी दृढ़ आस्था है? और इसका मकसद क्या है? जब हम एक काल्पनिक इतिहास का आविष्कार करने की कोशिश कर रहे होते हैं, तब हम एक काल्पनिक अतीत का भी आविष्कार करने की कोशिश कर रहे होते हैं.

हम वैदिक युग में किए गए खोजों का आविष्कार करने की कोशिश कर रहे हैं… और इसी तरह की चीजें…, जो मूर्खतापूर्ण है. क्या इन लोगों को यह एहसास नहीं है कि हमारे द्वारा मूर्खतापूर्ण दावे करने के कारण, दुनिया गणित, एस्ट्रोनॉमी, दर्शन, कविता आदि में हमारी वास्तविक उपलब्धियों का भी मजाक उड़ाएंगे? यह सब कितने दूर तक जाने वाला है.

यह सब होते देखना काफी हैरान कर देने वाला है. और जगहों का नाम बदलने में इतना महत्वपूर्ण क्या है? मेरा कहना है कि इसमें कौन सी बड़ी बात है? किसी सड़क का नाम क्या है, किसी शहर का नाम क्या है, इससे क्या फर्क पड़ता है?

लेकिन यही हो रहा है. इसलिए भारतीय सैनिकों की वीरता, जिस पर आज तक किसी को शक नहीं रहा है, उसे कई गुणा बढ़ाकर किसी रोमांटिक चीज की तरह पेश किया जा रहा है और मुगलों की खलनायकी…. और जिस ओर भी आप देखें मुगलों की आलोचना करने वाली और उन्हें आक्रमणकारी के तौर पर पेश करने वाली कहानियां चल रही हैं…

सिद्धार्थ : यह सिर्फ सड़कों का नाम बदलने या कोई फिल्म बनाने का मामला नहीं है, यह इतिहास की किताबों में भी हो रहा है.. यह एक प्रोपगेंडा भी है. यह व्याख्यानों और नफरत वाले भाषणों का भी मामला है. एक ऐसा माहौल बनाया जा रहा है, जहां आज, 2019 या 2020 में आप एक ऐसे माहौल का निर्माण करने जा रहे जो 10, 15या 20 साल बाद खुद को सबसे कुरूप रूप में प्रकट करेगा- आप वास्तव में कुएं में जहर घोल रहे हैं.

नसीर : हां, यहां तक कि 10-15 साल भी काफी लंबा समय है. मुझे लगता है कि यह इससे कहीं पहले हो जाएगा. और जब तक इसका विरोध पूरी ताकत के साथ नहीं किया जाएगा… और यही हमारे वश में है…क्योंकि जैसा कि मैंने अपने एक पहले के इंटरव्यू में भी कहा था, जिसने कारवां-ए-मोहब्बत  में तूफान खड़ा कर दिया…कि जहर फैल रहा है और यह सत्ताधारी दल के द्वारा किया जा रहा है. और वे हर किसी पर उस बात का आरोप लगा रहे हैं, जो वे कर रहे हैं.

वे इन काल्पनिक शत्रुओं का आविष्कार करते हैं और पाकिस्तान के प्रति यह दीवानगी… हम पाकिस्तान की बातें करते रहते हैं और हम यह आशा करते हैं कि हम पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर को फिर से जीत लेंगे, और हम यह कर देंगे, हम वह कर देंगे…

और यह जो लगातार सैन्य कार्रवाई की धमकी दी जाती रहती है, वह काफी हैरान कर देने वाला है. यह तथ्य कि हम इस तरह की भाषा में बात कर सकते हैं, ‘हम दो मोर्चों पर युद्ध की तैयारी कर रहे हैं’ और इस तरह की और चीजें… मेरा कहना है जो लोग युद्ध के लिए मरे जा रहे हैं, वे नहीं जानते हैं कि युद्ध का मतलब क्या होता है?

सिद्धार्थ : नसीर आप इंडस्ट्री के काफी लोगों के बारे में बात कर रहे हैं जिन्होंने विभेदकारी राजनीति और नीतियों के खिलाफ आवाज उठाई है और स्टैंड लिया है. लेकिन इसके साथ ही आपको यह स्वीकार करना होगा कि इंडस्ट्री ने इसे काफी समर्थन दिया है…

नसीर: वे इसका विरोध करने वालों की तुलना में काफी कम हैं.

सिद्धार्थ : क्या आपको ऐसा लगता है. लेकिन वे निश्चित तौर पर मुखर हैं.

नसीर : हां, वे ट्विटर पर हैं, मैं ट्विटर पर नहीं हूं. लेकिन ये लोग और ट्विटर यूजर्स- मैं सचमुच चाहता हूं कि वे जिस चीज में यकीन करते हैं, उसको लेकर अपना मन बनाएं.

अनुपम खेर जैसे कुछ लोग काफी मुखर रहे हैं. मुझे नहीं लगता है कि उन्हें गंभीरतापूर्वक लिया जाना चाहिए. वे एक विदूषक हैं. एनएसडी और एफटीआईआई में उनके कितने ही समकालीन उनके चाटुकार स्वभाव की गवाही देंगे. यह उनके खून में है, वे इससे मजबूर हैं.

दूसरे लोग जो इसका विरोध कर रहे हैं, उन्हें सचमुच यह फैसला करना चाहिए कि वे क्या कहना चाहते हैं और हमें अपनी जिम्मेदारियों की याद मत दिलाइए. हम अपनी जिम्मेदारियां जानते हैं.

सिद्धार्थ : तो आप कह रहे हैं कि संख्या और प्रभाव में उनका कोई खास महत्व है.

नसीर : मुझे लगता है कि वे विरोध करने वालों की तुलना में कम हैं.

सिद्धार्थ : भले वे शांत रहें?

नसीर : वे चुप नहीं हैं. वे काफी मुखर रहे हैं.

सिद्धार्थ : आपके एक भाई सेना में काफी सीनियर पद पर रहे हैं. सेना को पूरी तरह से अराजनीतिक होने के लिए जाना जाता है, लेकिन अचानक चीजें बदल गईं हैं और सेना की तरफ से काफी स्वर सुनाई दे रहे हैं. वरिष्ठ ऑफिसर ऐसे बयान दे रहे हैं जो सत्ताधारी दल के राजनीतिक मिजाज को दर्शाते हैं.

नसीर : हां, और उसी समय यह भी कह रहे हैं कि हम संवैधानिक मूल्यों का पालन करेंगे, लेकिन ठीक उसी वक्त वे यह भी कहते हैं कि अगर सरकार हमें हमला करने के लिए कहती है, तो हम हमला करेंगे- ये विरोधाभासी बयान हैं.

सिद्धार्थ : और शायद हर पक्ष को एक तरह से संतुष्ट रख रहे हैं.

नसीर : और मैं काल्पनिक शत्रुओं को खड़ा करने की बात कर रहा था… यह टुकड़े-टुकड़े गैंग की बकवास- मेरा कहना है कौन है ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’? अगर कोई है, तो सत्ताधारी पार्टी है.

वे ही हैं, जो हमें बांट रहे हैं. जो कोई भी बोल रहा है, उस पर आरोप उछाल दिया जा रहा है. और मैंने पहले भी दोहराया था, ‘क्या सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ या सरकार के खिलाफ बोलना ईशनिंदा है? आपको लिंचिंग से धमकाया जा सकता है, आपके बच्चे को धमकाया जा सकता है और आपकी व्यक्तिगत सुरक्ष दांव पर लग जाती है.

सिद्धार्थ : क्या यह आपके साथ हुआ है?

नसीर : यह मेरे साथ नहीं हुआ है और मैं यह उम्मीद करता हूं कि यह न हो. लेकिन मैं यह जानता हूं कि यह मेरे परिचित लोगों के साथ हो रहा है.

सिद्धार्थ : जब आप कहते हैं…आपने टुकड़े-टुकड़े गैंग’ की बात छेड़ी… यह वास्तव में एक ऐसी स्थिति का निर्माण कर सकता है, जहां नागरिक, नागरिक के खिलाफ उठ खड़े होंगे… लोग एक दूसरे के खिलाफ खड़े हो जाएंगे.. हमारे जैसे विविधतापूर्ण और बड़े देश के लिए आगे का रास्ता बहुत आशावादी नहीं दिखाई दे रहा है.

नसीर : हमें आशावादी होना होगा. हम यह नहीं कर सकते कि हम लेट जाएं और कहें कि हमें रौंद कर चले जाओ. हमें आशावादी होना होगा. मैं यह यकीन करता हूं कि सामान्य नागरिक जो कह रह है, ये मुस्लिम ऐसे हैं, ये मुस्लिम वैसे हैं, वे किसी न किसी दिन अपना दिमाग बदलेंगे. मैं आशावादी होने के लिए कृतसंकल्प हूं.

सिद्धार्थ : तो आप इस बात को लेकर साफ हैं कि इस देश के साधारण नागरिक…

नसीर : उसकी सद्बुद्धि वापस लौट कर आएगी.

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फिल्म अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है का पोस्टर. (फोटो साभार: विकिपीडिया)

सिद्धार्थ : और स्वभाव सांप्रदायिक न हों.

नसीर : मुझे नहीं लगता है कि कोई भी स्वभाव से सांप्रदायिक है. यह तो दिमाग में भरा जाता है. सरकार को जिस चीज ने झटका दिया है, वह यह है कि ये इन विद्यार्थियो को मवेशियों की तरह हांका नहीं जा सका है, जैसा कि उन्हें उम्मीद थी. और दिग्भ्रमित होनेवाले छात्रों पर आरोप लगाना, छात्र समुदाय के प्रति अवमानना का प्रदर्शन होगा.

इसका मतलब है कि इन छात्रों को कोई भी बहका दे, तो बहक जाते हैं. नहीं, नहीं नहीं. ऐसा नहीं है. अगर आप ध्यान दें, तो इस आंदोलन का कोई नेता नहीं है. यह अपने आप बाहर छलक आया गुस्सा है, जो सामने आया है. और अगर आप युवाओं के गुस्से को खारिज करते हैं, तो मैं सोचता हूं कि आप खुद अपने लिए खतरा तैयार कर रहे हैं. मैं इतना ही कह सकता हूं.

सिद्धार्थ : क्या आपको अपने विद्यार्थी जीवन की याद है?

नसीर : हां, मुझे हमेशा लगता था कि मुझे राजनीतिक होने की जरूरत नहीं है- मैं ठीक हूं. देश ठीक है. मैं किसी छात्र संघ या किसी तरह के आंदोलन या ऐसी किसी चीज का हिस्सा नहीं था.

धीरे-धीरे जब मैंने फिल्मों में काम करना शुरू किया, जो प्रकट तरीके से राजनीतिक थीं जैसे भवानी भवाई, अलबर्ट पिंटो आदि… तब राजनीति ने मुझे प्रभावित करना शुरू किया. मुझे याद आता है कि सईद मुझे कहा करते थे कि कुछ भी अराजनीतिक नहीं है. तुम अराजनीतिक नहीं हो सकते हो. इसको लेकर तुम्हारा गहरी आस्था होनी चाहिए. इसको लेकर आस्था विकसित करने में मुझे लंबा वक्त लगा, लेकिन जब जागो तभी सवेरा.

सिद्धार्थ : वास्तव में यह मेरा आखिरी पड़ाव होना था- मैं आपके सिनेमा पर आना चाहता था. 1970 के दशक में आप भवानी भाई, अल्बर्ट पिंटो में कला सिनेमा आंदोलन के काफी अभिन्न हिस्सा, उसका एक स्तंभ थे. एक तरह से कुछ अन्य फिल्में थीं जिनमें प्रगतिशील विचारों आदि का एक प्रकार का छिपा हुआ संदेश था. कला क्या कर रही है, सिनेमा क्या कर रहा है, इस सवाल को लेकर हम तब कहां थे और अब कहां हैं?

नसीर : मुझे लगता है कि राजनीतिक रूप से सिनेमा आगे नहीं बढ़ा है क्योंकि 70 के दशक के उन फिल्मकार अपनी आस्था पर अडिग नहीं रहे और वास्तव में एक आंदोलन का निर्माण नहीं किया. उन्होंने अपने बाद आने वाली एक पीढ़ी का निर्माण नहीं किया.

लेकिन उन्होंने उत्कृष्ट फिल्मकारों, जैसा कि आज के कई युवा फिल्मकारों के बारे में मेरा मानना है, की एक पीढ़ी तैयार करने काम किया. 70 के दशक के फिल्मकारों के कामों में भले अपनी खामियां हों, लेकिन उनके बगैर मसान, दम लगाकर हईशा, गली बॉय जैसी फिल्में या अनुराग जिस तरह की फिल्में बनाते रहते हैं, वैसी फिल्में नहीं होतीं.

थोड़ा और पीछे जाएं, तो वे फिल्मकार नहीं हो पाते, अगर पहली की पीढ़ी के मृणाल सेन और बासु चटर्जी या ख्वाजा अहमद अब्बास नहीं हुए होते. यानी हर पीढ़ी पहले की पीढ़ी से सीखती है और मुझे लगता है कि कला के हिसाब से आज की कम खर्चीली फिल्में 70 के दशक के कम बजट वाली फिल्मों से कहीं ज्यादा बेहतर हैं.

अभिनेता कहीं ज्यादा बेहतर हैं. मुझे सचमुच में इन अभिनेताओं से जलन होती है. मेरी इच्छा होती है कि काश मैं उनकी उम्र में उतना अच्छा होता. और उन सबके पास महान विचार हैं. हालांकि राजनीतिक रूप से मुझे नहीं लगता है कि अल्बर्ट पिंटो और इस तरह की फिल्मों की कोई वारिस पीढ़ी थी.

सिद्धार्थ : राजनीतिक तौर पर यानी वह प्रगतिशील फिल्म निर्माण, वे प्रगतिशील मूल्य…

नसीर : वे हैं, लेकिन मुझे लगता है कि वैसे दावे नहीं हैं. आप यह नहीं कह सकते हैं कि ये फिल्में गैरराजनीतिक हैं. मुक्केबाज या टू प्वाइंट जीरो जैसी फिल्मों के बारे में आप यह नहीं कह सकते हैं कि वे अराजनीतिक हैं. लेकिन वे दावे नहीं कर रही हैं. और मुझे लगता है कि यह बेहतर है क्योंकि इन बच्चों को अपने काम के क्राफ्ट पर कहीं बेहतर पकड़ है.

सिद्धार्थ : थियेटर को लेकर क्या कहेंगे?

नसीर: 50 साल पहले जब मैंने एनएसडी में दाखिला लिया, तबसे मैं यह सुन रहा हूं कि थियेटर मर रहा है. मैं आज भी यह सुन रहा हूं. यह काफी अच्छी सेहत में है और इस शहर में देश का संभवत: सबसे जीवंत थियेटर है. बेंगलुरू और पुणे में भी.

सबसे अच्छा यह देखकर लगता है कि कई नौजवान लोग इसमें भाग ले रहे हैं. लिख रहे है. प्रोड्यूस कर रहे हैं. निर्देशन कर रहे हैं.

नई जगहें खुल रही हैं. ऐसी जगहें जो 50-60 लोगों को बैठा सकती हैं. तो जो लोग पृथ्वी को अफोर्ड नहीं कर सकते हैं, क्योंकि पृथ्वी भी लोगों की जेब से बाहर हो गया है, एनसीपीए तो पूरी तरह से जेब से बाहर हो गया है.

ज्यादा लोग नाटक कर रहे हैं, बच्चे उन चीजों के बारे में लिख रहे हैं जो उनके लिए महत्वपूर्ण है और अपनी मान्यताओं को जाहिर कर रहे हैं और जहां तक हमारा संबंध है, हमारा राजनीतिक स्टैंड नहीं था.

हम थियेटर इसलिए किया करते थे, क्योंकि हमें वह पसंद था. लेकिन जैसे-जैसे समय बीत रहा है, ज्यादा से ज्यादा मायने नाटकों में दाखिल हो रहे हैं.

हमने एक नाटक किया था, ‘अ वॉक इन द वुड्स’ जो कि एक रूसी और अमेरिकी डिप्लोमैट के बीच की बातचीत है, जिसे हमने बदल दिया, जिसने भारत-पाकिस्तान के हालातों के संदर्भ में ज्यादा से ज्यादा अर्थ ग्रहण कर लिया.

हमारा नाटक आइंस्टीन, जो कि यहूदियों के साथ जो हुआ उसके बारे में बात करता है… वे याद कर रहे हैं कि किस तरह से छात्रों को हाशिये पर धकेला जा रहा था और किस तरह से किताबें जलाई जा रही थीं, कि किस तरह से उन्हें सिर्फ नाजियों के कारण अपने नाजी होने का इल्म हुआ, अन्यथा उन्होंने कोई यहूदी भाव महसूस नहीं करता… मैं इसे पूरी तरह से समझ सकता हूं.

जब वे अगले विश्वयुद्ध की बात करता है, अगले के बाद होने वाले विश्वयुद्ध को पत्थरों से लड़ा जाएगा, तो मैं यह समझ सकता हूं कि वे क्या बात कर रहे हैं.

एक नाटक के दौरान नसीरुद्दीन शाह (फोटो साभार: फेसबुक/Motley Theater)
एक नाटक के दौरान नसीरुद्दीन शाह. (फोटो साभार: फेसबुक/Motley Theater)

यहां तक कि कृश्न चंदर की कहानी एक गधे की आत्मकथा, जिस पर हमने नाटक किया, मुझे लगता है कि यह काफी राजनीतिक है. मतलब कि मैं राजनीतिक नाटक करने वाले लोगों को खारिज नहीं कर रहा हूं, लेकिन हम अर्थहीन नाटक नहीं करते हैं.

मेरा मिशन एक ऐसे थियेटर कंपनी का निर्माण करना है, जो जीवित रहेगा, मेरे बाद भी चलता रहेगा.

सिद्धार्थ : आपने वैसा काफी थियेटर किया है. मैं बर्तोल्ट ब्रेख्त का एक कथन पढ़ रहा था. ‘कला हकीकत को दिखाने वाला आईना नहीं है, बल्कि कला समाज को बदलने वाला हथौड़ा है.’ तो वह जोश, जो आप कह रहे हैं, अब कला, थियेटर, सिनेमा में दिखाई देना चाहिए.

नसीर: मुझे लगता है कि ऐसा होगा. मुझे आने वाली पीढ़ी में गहरी आस्था है. मैं सचमुच महसूस करता हूं कि यह संभवत: पहला राष्ट्रीय आघात है, जिससे हम गुजर रहे हैं. यह राष्ट्रीय है.

यह सवाल अक्सर लोगों के जेहन में आता है कि क्यों महान लेखन और महान कविता, महान फिल्में, महान नाटक सामने नहीं आए हैं- क्योंकि हमने पीड़ा सही नहीं है. जिस तरह से द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी, इटली, फ्रांस से महान लेखन आया. मैं यह नहीं चाह रहा हूं कि वैसा कुछ हमारे साथ हो, लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि यह कुछ ऐसी चीज है, जिसने हमें एकजुट किया है- सभी आजाद ख्याल वाले लोगों को और निश्चित तौर पर महान कला एक नतीजा है.

सिद्धार्थ : नसीर आपका बहुत-बहुत धन्यवाद. जो कुछ चल रहा है, यह उसको लेकर काफी बातें साफ करने वाली बातचीत थी. साथ ही यह काफी बेबाक थी. यह अक्सर नहीं होता है कि सार्वजनिक जीवन वाले लोग इतना खुलकर अपनी बात रखने के लिए तैयार होते हैं. इसलिए हमसे बात करने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया.

(इस साक्षात्कार को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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