सरकार द्वारा ग़रीबों की मदद के नाम पर स्वास्थ्य संबंधी मामूली घोषणाएं की गई हैं. हमें नहीं पता अगर कोई ग़रीब कोरोना से संक्रमित हुआ तो उसे उचित स्वास्थ्य सुविधा मिल सकेगी. अगर अस्पताल में भर्ती होने की नौबत आई तो बेड और वेंटिलिटर जैसी सुविधाएं मिलेंगी?
कोरोना के मद्देनजर तालाबंदी (लॉक डाउन) की वजह से दिल्ली के लाखों बेघर-मजदूरों का जीवन तबाह हो गया है. न उन्हें काम मिल पा रहा है और न दो वक्त की रोटी.
सरकार के एक फ़ैसले ने उन्हें सड़कों पर ला दिया है. इन्हीं कुछ असहाय लोगों के भोजन का प्रबंध करने के वास्ते मैं अपने युवा साथियों के साथ पुरानी दिल्ली इलाके में गया था. इनकी पीड़ा देख हमारा दिल टूट गया.
दर्जनों मजदूरों ने हमसे कहा कि कोरोना से पहले भूख ही हमें मार डालेगी. कुछ मजदूर आज की परिस्थिति को नोटबंदी से भी बदतर बता रहे थे. उनका कहना था, ‘आज जैसी दुर्गति तो नोटबंदी के समय भी नहीं थी. पता नहीं यह वक्त कब और कैसे पार होगा.’
मजदूरों से इस मुलाकात के एक घंटे बाद मैंने वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के राहत घोषणाओं को सुना. सरकार के अदूरदर्शी और अपर्याप्त घोषणाओं से मुझे हताशा हुई.
वित्त मंत्री का दावा था कि उनकी सरकार गरीबों को कोरोना महामारी के आर्थिक प्रभाव से उबारने के लिए प्रतिबद्ध है. और यह राहत पैकेज इसी उद्देश्य के साथ दिया जा रहा है.
वित्त मंत्री का कहना था कि उनकी सरकार किसी को भी भूखा नहीं रहने देगी. क्या इस राहत पैकेज से वाकई यह संभव है?
वित्त मंत्री जी का मानना है कि महीने में 5 किलो अतिरिक्त चावल या गेहूं और एक किलो दाल देकर गरीब परिवारों को पेट भरा जा सकता है.
क्या विधवा-बुजुर्गों और विकलांगों को 1,000 रुपये और जनधन खाताधारी महिलाओं के खाते में 1,500 रुपये भेज देने मात्र से सरकार की जिम्मेदारियां ख़त्म हो जाती हैं?
क्या वित्त मंत्री इस बात की गारंटी दे सकती हैं कि मुफ़्त गैस सिलिंडर और किसानों के खाते में 2,000 रुपये भेजे देने मात्र से उनका जीवन सामान्य हो जाएगा?
प्रधानमंत्री के संबोधनों से भी ग़ायब रहे असंगठित क्षेत्र के मजदूर
प्रधानमंत्री ने कोरोना वायरस के संक्रमण को लेकर देश को तीन बार संबोधित किया, लेकिन असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले और बेघर लोगों के जीवन पर इसके असर को लेकर उन्होंने कोई चर्चा नहीं की.
वित्त मंत्री के संबोधन में भी इस तबके का ध्यान नहीं रखा गया. प्रधानमंत्री मोदी के भाषण में संक्षेप में गरीबों का जिक्र हुआ. उन्होंने सुझाव दिया कि सिविल सोसाइटी के लोगों को गरीबों की मदद के लिए आगे आना चाहिए.
निर्मला सीतारमण के वक्तव्य में गरीबों का जिक्र अधिक हुआ, लेकिन शायद वित्त मंत्री की धारणा है कि निर्धन परिवारों को कुछ अनाज और पैसे भेज देने मात्र से ही उन्हें इस विपदा से निकाला जा सकेगा.
तकनीकी ख़ामियों की अड़चनें
वित्त मंत्री की घोषणाओं का लाभ गरीबों को मिल सके, इसके पीछे तकनीकी खामियां भी हैं. आज जब पूरे देश में कर्फ्यू-सा माहौल बन गया है, ये लोग अपने पैसे किस प्रकार निकाल सकेंगे?
यह सर्वविदित है कि बेघर लोगों, विकलांगों और आदिवासियों के पास आज भी न बैंक खाता है और ना एटीएम कार्ड. सबसे महत्वपूर्ण तो यह है कि मोदी सरकार इस तालाबंदी के भयावह आर्थिक नुक़सान को अभी भी समझ नहीं पा रही है.
अर्थशास्त्री जयति घोष ने अपने एक हालिया साक्षात्कार में संभावना जताई है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को जितना नुक़सान नोटबंदी के कारण हुआ था, उससे कहीं ज्यादा नुक़सान दो दिन की तालाबंदी ने करा दिया है.
उनका मानना है कि पहले से ही लुढ़कती हमारी अर्थव्यवस्था अब रसातल में जा रही है. हम अपने आसपास के हालात देखकर भी मौजूदा स्थिति की गंभीरता का अंदाजा लगा सकते हैं.
आज के हालात में कौन किसान फसल उगा पाएगा और अगर फसल हुई भी, तो उसे खरीदेगा कौन? देश के सभी लघु और मध्यम उद्योग ठप पड़ गए हैं. छोटे-छोटे होटल और सिलाई की दुकानें तक बंद हो गई हैं.
एक बेघर आदमी ने मुझसे कहा, ‘मेरा बचपन सड़कों पर भटकते-भटकते बीता. मेरा कोई परिवार नहीं है. किसी तरह तंदूरी रोटी बनाना सीख गया और तंदूरी रोटी के कारण ही दिनभर में 500 रुपये कमा पाता था. आज मैं दो रोटी के लिए आपके सामने हाथ फैलाए हूं.’ मेरा सिर शर्म से झुक गया.
घंटों लाइन में लगने पर आधा पेट भोजन पा रहे मजदूर
हम लोग जिस जगह पर खाना बांट रहे थे, वहां हजारों भूखे लोग थे. कई लोगों ने कहा कि वो छह घंटे से इसी इंतजार में हैं कि कहीं से कोई खाना बांटने आए.
पिछले तीन दिनों से उन्हें दो वक्त का खाना नहीं मिल पा रहा था, अगर कभी मिलता भी है तो वह पेट भरने के लिए पर्याप्त नहीं होता.
खाना बंटने की अफवाह पर सैकड़ों लोगों की भीड़ इकट्ठा हो जाती है. विकलांग, बुजुर्ग, महिलाएं और बच्चे इस भीड़ में पीछे रह जाते हैं. लोग अपने स्वाभिमान की बलि देकर आधा पेट भोजन पा रहे हैं.
यह दुखद है कि सरकार के एक फ़ैसले के कारण खड़ी हुई परेशानी ने मजदूरों को किसी के आगे हाथ बढ़ाने को मजबूर किया है. सभी लोगों को सम्मानजनक तरीके से भोजन उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी सरकार की थी.
गांव लौटना भी मुश्किल
21 दिनों की तालाबंदी की वजह से गरीब-बेघर लोगों को कम से कम तीन हफ़्ते इसी तरह से गुजारा करना पड़ेगा. आगे का वक्त और अधिक कठिन होने वाला है.
बहुत सारे मजदूरों ने हमसे कहा कि चूंकि दिल्ली में उन्हें न काम मिल पा रहा है न राशन, ऐसे में बेहतर होगा कि वापस गांव लौट जाएं.
लेकिन तालाबंदी की घोषणा के तुरंत बाद ही सभी ट्रेनों और बसों को रद्द कर दिया गया. अब इन मजदूरों का हजारों किलोमीटर दूर यूपी-बिहार के गांवों में लौटना मुश्किल हो गया है.
भारत सरकार विदेशों से अपने नागरिकों को बुलाने के लिए प्राइवेट विमान भेजती है, लेकिन अपने देश में लाखों प्रवासियों को वापस गांव भेजने के बारे में कोई फैसले नहीं लेती.
पैदल जा रहे मजदूरों पर राज्यों की पुलिस डंडे बरसा रही है. साइकिल से हजारों किलोमीटर की दूरी तय करने के लिए भी दिल्ली से मजदूर रवाना हुए हैं.
देशभर में हजारों ट्रक ड्राइवर बीच हाईवे पर फंसे हुए हैं. इन सबके बारे में सरकार को नहीं सोचना चाहिए था?
कोरोना महामारी में गरीबों की मदद के नाम पर सरकार ने स्वास्थ्य संबंधी मामूली घोषणाएं की हैं. इन घोषणाओं से हमें उम्मीद नहीं कि जब एक गरीब आदमी कोरोना से ग्रसित होगा तो उसे उचित स्वास्थ्य सुविधा मिल सकेगा.
वित्त मंत्री ने स्पष्ट नहीं किया कि गरीबों के लिए कोरोना की जांच मुफ़्त होगी या उसके लिए पैसे देने होंगे? अगर अस्पताल में भर्ती होने की नौबत आए तो गरीबों को बेड और वेंटिलिटर जैसी बेसिक सुविधाएं भी मिल पाएंगी या नहीं?
स्पेन और न्यूजीलैंड की सरकार ने कोरोना वायरस के मद्देनजर वहां के निजी स्वास्थ्य सेवाओं का राष्ट्रीयकरण कर दिया है. हमें उन देशों से सीखना चाहिए.
अगर हमने भी ऐसे क़दम नहीं उठाए तो हमारे देश की गरीब जनता भूख और कोरोना वायरस से जंग लड़ती हुई मर जाएगी.
गरीब विरोधी है लॉक डाउन
आज सभी लोग एक स्वर में प्रधानमंत्री को अपना समर्थन दे रहे हैं. पी. चिंदबरम ने कहा है कि इस युद्ध काल में वो प्रधानमंत्री को अपना कमांडर इन चीफ मानते हैं.
कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों का रुख भी इसी तरह का है. लेकिन मैं भयभीत हूं. मैं तालाबंदी जैसे गरीब विरोधी कदम की सराहना नहीं कर सकता.
भारत को दक्षिण कोरिया और ताइवान जैसे देशों से सीखना चाहिए. वहां की सरकारों ने बिना तालाबंदी किए ही कोरोना वायरस का प्रकोप खत्म किया है. सरकार को तालाबंदी का यह फैसला वापस लेना चाहिए.
हमारी सरकार अपनी जनता की पीड़ा नहीं समझ रही है. उसकी मंशा गरीब और अमीर का एक समान ध्यान रखने की नहीं है.
गांधी जी ने अपनी हत्या से कुछ महीने हम भारतीयों को एक जंतर दिया था. आज हमें उसे याद करने की सख्त जरूरत है.
गांधी जी ने कहा था, ‘जब भी तुम दुविधा में हो या जब अपना स्वार्थ तुम पर हावी हो जाए, तो इस जंतर का प्रयोग करो. उस सबसे गरीब और दुर्बल व्यक्ति का चेहरा याद करो जिसे तुमने कभी देखा हो, और अपने आप से पूछो- जो कदम मैं उठाने जा रहा हूं, वह क्या उस गरीब के कोई काम आएगा? क्या उसे इस कदम से कोई लाभ होगा?’
बीते दो-तीन दिनों में जब मैं उन्हीं कुछ सबसे गरीब और दुर्बल लोगों से मिला था. सरकार द्वारा उठाए जा रहे कदम मेरे, आपके या मध्यम वर्ग के लोगों के लिए लाभकारी साबित हो सकते हैं, लेकिन इन फैसलों से गरीब और मज़लूम लोगों के सम्मानजनक जीवन जीने की संभावनाएं ख़त्म होंगी.
(लेखक पूर्व आईएएस अधिकारी और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं.)
(मूल अंग्रेजी लेख से अभिनव प्रकाश द्वारा अनूदित.)