सरकार से पुष्टि के बाद कोरोना वायरस से संबंधित ख़बरें मीडिया द्वारा चलाए जाने के सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के अलग-अलग मायने निकले जा सकते हैं. हो सकता है कि केंद्र इसे मीडिया सेंसरशिप के लिए इस्तेमाल करने लगे या मीडिया सेल्फ सेंसरशिप करने लगे. अगर ऐसा होता है तो यह अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए गंभीर ख़तरा होगा.
नई दिल्ली: बीते मंगलवार को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से गुजारिश की कि कोरोना वायरस (कोविड-19) के संबंध में कोई भी जानकारी छापने या दिखाने से पहले मीडिया सरकार से इसकी पुष्टि कराए.
इसके बाद हालांकि न्यायालय ने कोरोना महामारी को लेकर ‘स्वतंत्र चर्चा’ में कोई हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया, लेकिन मीडिया को ये निर्देश दिया कि वे खबरें चलाने से पहले उस घटनाक्रम पर आधिकारिक बयान लें.
दरअसल, सुप्रीम कोर्ट 21 दिनों के लॉकडाउन से प्रभावित होने वाले प्रवासी मजदूरों को राहत पहुंचाने की मांग वाली दो याचिकाओं पर सुनवाई कर रहा था, जिसे केंद्र ने कोविड-19 महामारी के कवरेज को अप्रत्यक्ष रूप से अपने नियंत्रण में लेने के मुद्दे में तब्दील कर दिया.
केंद्र की ये दलील थी कि मीडिया द्वारा दिखाए जा रहीं खबरों की वजह से लोगों में घबराहट है, जिसके चलते बड़ी संख्या में लोग पलायन करने की कोशिश कर रहे हैं.
प्रथमदृष्टया ऐसा लग सकता है कि इस मांग में क्या गड़बड़ी है कि कोई भी खबर प्रकाशित करने से पहले मीडिया केंद्र से उसे जांच ले, लेकिन हकीकत ये है कि अभी भी कोरोना वायरस से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारियां छिपाई जा रही हैं.
सरकार ने आनन-फानन में लॉकडाउन की घोषणा तो जरूर कर दी लेकिन विभिन्न वर्गों की परेशानियों को दूर करने के लिए अभी भी कोई खास रोडमैप दिखाई नहीं दे रहा है.
इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट सौंपे स्टेटस रिपोर्ट में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार ने दावा किया था:
इस तरह की अप्रत्याशित स्थिति में जान-बूझकर या अनजाने में किसी भी इलेक्ट्रॉनिक, प्रिंट या सोशल मीडिया खासकर वेब पोर्ट्ल पर चलाई गई फर्जी या गलत खबर से समाज के वर्गों में गंभीर घबराहट की स्थिति पैदा हो सकती है. इस संक्रामित बीमारी की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए, जिससे पूरी दुनिया जूझ रही है, ऐसी रिपोर्टिंग से न सिर्फ समाज का वो वर्ग प्रभावित होगी बल्कि ये पूरे देश के लिए खतरनाक है.
कोरोना वायरस के खिलाफ लड़ाई का सहारा लेते हुए केंद्र ने सर्वोच्च न्यायालय से अप्रत्यक्ष रूप से मीडिया सेंसरशिप की मांग करते हुए कहा था:
इसलिए व्यापक जनहित को ध्यान में रखते हुए माननीय न्यायालय से गुजारिश की जाती है कि वे निर्देश जारी करें कि कोई भी इलेक्ट्रॉनिक/प्रिंट मीडिया/वेब पोर्टल या सोशल मीडिया केंद्र सरकार से वास्तविक स्थिति का पता लगाए बिना ऐसी किसी भी खबर को प्रकाशित नहीं करेगा.
हालांकि कोर्ट ने मीडिया पर किसी भी तरह की सेंसरशिप लगाने से मना कर दिया और कहा:
हम मीडिया (प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक या सोशल) से उम्मीद करते हैं कि वे अपनी जिम्मेदारी समझते हुए ये सुनिश्चित करें कि कोई भी असत्यापित खबर, जिससे लोगों में घबराहट पैदा हो सकती है, का प्रकाशन नहीं किया जाएगा. जैसा कि भारत के सॉलिसीटर जनरल ने कहा है कि भारत सरकार की ओर से एक डेली बुलेटिन 24 घंटे के भीतर सोशल मीडिया समेत सभी मीडिया संगठनों को मुहैया करा दिया जाएगा. हम इस महामारी को लेकर हो रही मुक्त चर्चा में हस्तक्षेप नहीं करेंगे, लेकिन निर्देश देते हैं कि मीडिया घटनाक्रमों को लेकर आधिकारिक बयान का उल्लेख करे और प्रकाशित करे.’
लेकिन चिंता की बात ये है कि सुप्रीम कोर्ट के इस निर्देश के अलग-अलग मायने निकले जा सकते हैं. हो सकता है कि केंद्र इसे मीडिया सेंसरशिप के लिए इस्तेमाल करने लगे या मीडिया सेल्फ सेंसरशिप करने लगे. अगर ऐसा होता है तो यह अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए गंभीर ख़तरा होगा.
सर्वोच्च न्यायालय ने आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005 का उल्लेख किया, जिसके तहत अगर कोई आपदा के समय अफवाह फैलाता है तो उसे एक साल तक की सजा या उस पर जुर्माना लगाया जा सकता है.
कोर्ट ने आईपीसी की धारा 188 की तरफ भी लोगों का ध्यान खींचा जिसके तहत सरकारी आदेश की अवहेलना करने पर सजा का प्रावधान है.
हालांकि इसका मतलब ये नहीं है कि सरकार इन प्रावधानों का इस्तेमाल मीडिया सेंसरशिप के लिए कर सकती है. दूसरे शब्दों में कहें तो ये प्रावधान इस महामारी में किसी भी फेक न्यूज या अफवाह के खिलाफ कार्रवाई के लिए पर्याप्त हैं. इसलिए कोर्ट स्पष्ट रूप से ये बात कह सकती थी ताकि उनके आदेश का कोई और मतलब न निकाला जा सके.
सुप्रीम कोर्ट का ये कहना कि किसी भी घटनाक्रम को लेकर मीडिया ‘आधिकारिक बयान’ जरूर शामिल करें, पत्रकारों के लिए मुश्किल खड़ी कर सकता है, क्योंकि सरकार बहुत सारे सवालों को लेकर जवाब देती ही नहीं है. न तो फोन कॉल्स के जवाब दिए जाते हैं और न ही ईमेल के.
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की हर रोज होने वाली प्रेस वार्ता में जाने वाले पत्रकार का आरोप है कि मंत्रालय एवं उससे जुड़े विभागों के अधिकारी या तो सवाल का जवाब नहीं देते हैं या फिर उस पर टालमटोल करते हैं. कई मौकों पर तो वे बिल्कुल सही खबर को सिर्फ इस आधार पर फेक न्यूज कह देते हैं, ताकि उन्हें इसका जवाब न देना पड़े.
कई सारे महत्वपूर्ण सवाल मसलन भारत में कोरोना वायरस के सामुदायिक प्रसार का पता लगाने के लिए कितने लोगों का टेस्ट किया गया, कोरोना वायरस से संक्रमण की पुष्टि वाले कुल ऐसे कितने लोग हैं, जिन्होंने विदेश में यात्रा नहीं की और न ही किसी संक्रमित के संपर्क में आए, इस तरह के कुल कितने लोगों को आइसोलेट या क्वारंटाइन किया गया है, कोरोना वायरस से लड़ने के लिए कितने सुरक्षा उपकरणों की जरूरत है, कितने खरीदे गए और कहां-कहां पहुंचाए गए, कहां से ये सारे सामान खरीदे गए, ऐसे ढेरों सवालों का जवाब केंद्र सरकार को देना बाकी है.
जब भी ऐसे सवाल पूछे जाते हैं तो इनका सीधा और स्पष्ट जवाब देने के बजाय केंद्र सरकार इन्हें टालने की कोशिश करती है. इस रवैये से अजिज आकर विभिन्न मीडिया संस्थानों के स्वास्थ्य पत्रकारों के समूह को 10 सवालों की एक सूची जारी करनी पड़ी, जिसमें उन्होंने मांग की कि प्रशासन इस पर जवाब दे.
पत्रकारों के सवालों का जवाब न देने का इसी तरह का रवैया राज्य सरकार और स्थानीय प्रशासनों का भी है. डीएम, एसडीएम से लेकर राज्य और केंद्र के सचिवों तक का यही हाल है.
ऐसे में जो भी खबरें स्वतंत्र रूप से आ रही हैं और इसे लेकर प्रशासन पर सवाल उठाए जा रहे हैं, उसे भी सरकार अपने नियंत्रण में करने की कोशिश कर रही है.
इस महामारी में किसी भी अफवाह को खत्म करने का एकमात्र तरीका है उच्च स्तर की पारदर्शिता हो. सूचना प्रौद्योगिकी के विकास में ऐसा करना और आसान हो गया है.
सरकार को अपनी कार्यप्रणाली से जुड़े सभी संभावित सवालों के जवाब और उससे जुड़े दस्तावेज अपनी वेबसाइट पर डालना चाहिए और सोशल मीडिया के जरिये इसका प्रचार करना चाहिए.