प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि कोरोना महामारी से फैले अंधकार के बीच हमें निरंतर प्रकाश की ओर जाना है. जो इस कोरोना संकट से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं, हमारे ग़रीब भाई-बहन, उन्हें निराशा से आशा की तरफ ले जाना है. काश, वे यह समझते कि ये ग़रीब इस तरह निराश नहीं हुआ करते, वे तभी हारते हैं जब ढोंग और ढकोसलों में भरमा दिए जाते हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गत शुक्रवार को अपने नये संदेश में देशवासियों से कहा कि वे रविवार यानी पांच अप्रैल को रात नौ बजे अपने घर की सारी बत्तियां बुझाकर उसके दरवाजे या बालकनी पर आएं और वहां नौ मिनट तक दीपक, मोमबत्तियां या टार्च जलायें.
ऐसा न कर सकें तो चाहें अपने मोबाइल का फ्लैश ही चमकायें लेकिन निराशा के उस अंधेरे का सामूहिक प्रतिकार अवश्य करें, जो कोरोना की महामारी हमारे, खासकर गरीब भाई-बहनों के, जीवन में भर रही है.
प्रधानमंत्री की इस अपील को लेकर, जैसा कि बहुत स्वाभाविक है, सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं. लेकिन यहां हम उनसे परे आपको कुछ ऐसे तथ्य बता रहे हैं, जो दीपक जलाते वक्त आपकी जानकारी में रहेंगे तो आप कोरोना के अंधेरे का कहीं ज्यादा आत्मविश्वासपूर्वक और ज्यादा सार्थक प्रतिकार कर सकेंगे.
इनमें पहला यह कि महामारियां और मौतें हमें वास्तव में उतना ही डरातीं, जितना कोरोना के बहाने प्रचारित किया जा रहा है और सरकारें हमें उनसे बचाने की उतनी ही परवाह करतीं, जितनी इन दिनों करती दिखाई दे रही हैं तो देश और दुनिया का रूप ही कुछ और होता.
इसे यूं समझ सकते हैं कि हमारे देश में हर घंटे 17 लोग सड़क दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं यानी हर रोज चार सौ और साल भर में डेढ़ लाख से ज्यादा.
पर उनसे किसी भी स्तर पर इतना नैराश्य या अंधेरा नहीं फैलता कि कोई प्रधानमंत्री उसे लेकर हमसे ताली-थाली या घंटी बजाने अथवा लाइटें बुझाकर दीपक जलाने को कह सके.
2018 को दुनिया भर में प्रतिष्ठित मेडिकल जर्नल लैंसेट के हवाले से छपी एक रिपोर्ट के अनुसार देश में कोई 4,300 लोग प्रतिदिन अस्पतालों में समुचित देख-रेख के अभाव में अथवा डाॅक्टरों की गलतियों व लापरवाहियों के चलते दम तोड़ देते हैं.
साल भर में यह संख्या सोलह लाख तक पहुंच जाती है. रिपोर्ट में इसका बड़ा कारण देशवासियों की गरीबी को बताया गया है, जिसके कारण कई बार उनकी अच्छे अस्पतालों व डाॅक्टरों तक पहुंच ही संभव नहीं होती.
लेकिन यह स्थिति भी शायद ही कभी किसी सरकार के वक्त कोरोना जितनी चिंता का सबब बनी हो. तिस पर बात इतनी-सी ही नहीं है.
देश में हर साल पैंतालीस हजार से ज्यादा गर्भवती स्त्रियां शिशुओं के प्रजनन के वक्त जान गंवा देती हैं.
उनकी जान के जोखिम के लिहाज से हम दुनिया भर में नाइजीरिया के बाद दूसरे स्थान पर हैं और कांगो, इथियोपिया ओर पाकिस्तान की हालत भी हमसे बेहतर है. फिर भी जैसा हाहाकार कोरोना को लेकर मचा हुआ है, इन मौतों को लेकर नहीं मचता.
हर साल पच्चीस अप्रैल को विश्व मलेरिया दिवस मनाया जाता है और तोता-रटंत की तरह यह बात दोहराई जाती है कि भारत अभी भी इस बीमारी से होने वाली मौतों के आईने में दुनिया का चौथा सबसे ज्यादा मलेरिया पीड़ित देश है.
लैंसेट की रिपोर्ट के अनुसार यह हर बीमारी हर साल दो लाख पांच हजार भारतीयों की जान ले लेती है. देश के उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और उत्तर पूर्व के त्रिपुरा व मेघालय जैसे राज्यों में प्रायः हर साल इसका कहर टूटता है.
लेकिन सरकारें अपनी ही गति से चलती रहती हैं. इस बार तो कोरोना के शोर में शायद मलेरिया की किसी को याद भी न आए.
उत्तर प्रदेश और बिहार के कई क्षेत्रों में मस्तिष्क और चमकी ज्वरों से बच्चों की मौत होती हैं, तो उनका सिलसिला भी जल्दी टूटने को नहीं आता, लेकिन मौतें थमी नहीं कि हमें लापरवाह होते देर नहीं लगती.
फिलहाल, देश में मृत्यु दर 7.309 प्रति एक हजार है, जो 1950 में 28.161 थी. प्रधानमंत्री यह मानें कि उनके सत्ता में आने के पहले की सरकारों में भी देश में कुछ काम हुआ है तो मृत्यु दर में इस कमी का श्रेय उन्हें दे सकते हैं.
किन याद रखना होगा कि परिवार कल्याण योजनाओं के तमाम दावों के बावजूद जन्म दर 18.2 प्रति एक हजार है. देश की जनसंख्या वृद्धि की चिंताजनक तेज रफ्तार का खुला रहस्य भी यही है कि जन्म दर मृत्यु दर से कई गुनी ज्यादा है.
इस स्थिति से कई सामाजिक-आर्थिक विडंबनाओं व समस्याओं के जनन के बावजूद हमारा निजाम या समाज इन दोनों को ही लेकर गम्भीर नहीं हुआ करते.
ऐसे में कोरोना में जरूर ऐसी कोई खास बात है कि उसके संक्रमण को रोकने में शुरु में प्रदर्शित लापरवाही के बाद प्रधानमंत्री और उनकी सरकार चेते हैं तो यह मानकर हालात से निपट रहे हैं कि वह ‘विश्व युद्ध से भी विकट और व्यापक’ है.
अब तक तीन बार देश को संबोधित कर चुके प्रधानमंत्री ‘अनिश्चितता और अंधकार’ की इस चुनौती को इतनी बड़ी बता रहे हैं, तो देशवासियों से इतना ही नहीं कह रहे कि वे डरें नहीं, डाॅक्टरों द्वारा बताये गए एहतियात बरतें और घरों में बने रहें.
उनसे कभी बालकनी पर आकर ताली, थाली और घंटी बजाने को कह रहे हैं, जिसके बाद उनके अति उत्साही समर्थक स़ड़कों पर उतर जा रहे हैं तो कभी सारी लाइटें ऑफ करके दीपक जलाने की अपील कर रहे हैं.
कारण यह कि उनके मुताबिक कोरोना से सबसे अधिक प्रभावित ‘देश के गरीब भाई-बहनों’ में इतनी निराशा व्याप्त हो गई है कि प्रकाश की सामूहिक महाशक्ति और सामूहिकता से उसे हराना बेहद जरूरी है.
काश, प्रधानमंत्री समझते कि ये गरीब भाई-बहन इस तरह निराश नहीं हुआ करते. बड़ी से बड़ी विपत्तियों के बोझ उठाकर भी न थकने वाले ये लोग तभी हारते हैं जब ढोंगों और ढकोसलों में भरमा दिए जाते हैं.
प्रसंगवश, दूसरे विश्वयुद्ध में सात करोड़ पचास लाख लोग मारे गए थे, जिनमें दो करोड़ सैनिक और चार करोड़ से ज्यादा नागरिक थे.
बर्बर नरसंहारों, कारपेट बमबारियों, बीमारियों और भूख के चलते हुई मौतों को भी इनमें जोड़ लीजिए और प्रधानमंत्री द्वारा उससे की गई कोरोना की तुलना का मर्म समझ लीजिए.
यह भी कि उस त्रासदी से मानवता अपनी विजयिनी जिजीविषा के बूते ही उबरी थी, किन्हीं टोने-टोटकों से नहीं.
प्रधानमंत्री कोरोना की विश्वयुद्धों के संकट से तुलना करने के बजाय देशवासियों को बताते कि अभी तक देश में जितने लोगों ने कोरोना से संक्रमित होकर जानें गंवाई हैं, उनसे तीन से ज्यादा गुने लोग उसे मात देकर स्वस्थ हो चुके हैं.
साथ ही यह कि जो संक्रमित हो रहे हैं, उनमें भी ज्यादातर में वह घातक स्तर तक नहीं पहुंचा है, तो वह निराशा कहीं ज्यादा तेजी से दूर होती, जिसको लेकर खुद प्रधानमंत्री चिंतित हैं.
प्रधानमंत्री चाहते तो उनके पास बताने को एक बड़ा तथ्य यह भी था ही कि कोरोना संक्रमितों के मुकाबले एचआईवी, चेचक और खसरे के संक्रमितों की जीवन प्रत्याशा कई गुनी कम हुआ करती थी.
उन महामारियों में ज्यादातर अपने शिकारों से निर्ममता बरतने में बच्चों, जवानों और बूढ़ों में कोई फर्क नहीं करती थीं, जबकि कोरोना ज्यादातर कमजोर इम्यूनिटी वालों के लिए ही जानलेवा सिद्ध हो रहा है.
प्रधानमंत्री कह सकते थे कि जब हम उन अपेक्षाकृत ज्यादा संहारक महामारियों से परास्त नहीं हुए, तो कोरोना से क्यों कर हो सकते हैं?
अफसोस कि उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा, न ही बताया और संकट की इस घड़ी में विश्वास पैदा करने के लिए भुलावों पर निर्भर करने लगे.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)