महामारियों ने हमेशा से ही इंसान को अतीत से नाता तोड़कर एक नए भविष्य की कल्पना करने के लिए मजबूर किया है. यह महामारी भी नए और पुराने के बीच एक दरवाज़ा है और यह हम पर है कि हम पूर्वाग्रह, नफ़रत, लोभ आदि के कंकाल ढोते हुए आगे बढ़ें या बिना ऐसे बोझों के एक नई और बेहतर दुनिया की कल्पना के साथ आगे निकलें.
‘यह तो वायरल हो गया’- बिना थोड़ा-सा घबराए आज यह बात कोई कैसे कर सकता है?
दरवाजे के किसी हैंडल, गत्ते के किसी डिब्बे या सब्जी के किसी थैले को बिना यह कल्पना किए कोई कैसे देख सकता है कि इस पर मौजूद अदृश्य, जीवित या मृत बूंदों में कुछ ऐसा भी हो सकता है जो हमारे फेफड़ों को जकड़ने का इंतजार कर रहा है.
कोई भी व्यक्ति आज बिना किसी डर के किसी अजनबी को चूमने, किसी बस पर लपककर चढ़ने या फिर अपने बच्चे को स्कूल भेजने की कल्पना कैसे कर सकता है?
कौन होगा जो छोटी-छोटी खुशियां पाने की तो सोचेगा पर उससे जुड़े खतरों के बारे में नहीं? हम में से आज कौन कोई नीम हकीम, महामारी-विशेषज्ञ, वायरस-विशेषज्ञ, सांख्यिकीविद या पैगंबर नहीं बना है?
कौन-सा ऐसा वैज्ञानिक और डॉक्टर है जो आज किसी तरह के चमत्कार की कल्पना नहीं कर रहा? कौन सा ऐसा पंडित-पुरोहित है जो आज गुपचुप ही सही, विज्ञान की ओर नहीं ताक रहा?
और अब जब वायरस हर जगह फैल रहा है तो कौन होगा जो शहरों में पंछियों की चहचहाहट सुनकर, सड़कों पर मोरों को नाचते देखकर, आसमान की खामोशियां सुनकर रोमांचित नहीं हो रहा होगा?
दुनिया भर में संक्रमण के शिकार लोगों की संख्या लगभग 10 लाख तक पहुंच गई है. 50,000 से अधिक लोग मर चुके हैं. ऐसी आशंका है कि यह संख्या हजारों लाखों तक जा सकती है.
यह वायरस बड़ी बेफिक्री से दुनियाभर में जा रहा है और इसने संपूर्ण मानव जाति को अपने देशों, शहरों और घरों में कैद कर दिया है.
इस वायरस का फैलना पूंजी के फैलने से थोड़ा अलग किस्म का है. इस वायरस की चाहत मुनाफा नहीं प्रसार है और बेशक अनजाने में ही सही इसने पूंजी के प्रसार के पहिए को पलट कर रख दिया है.
यह वायरस इमीग्रेशन कंट्रोल, बायोमीट्रिक्स, डिजिटल निगरानी और किसी भी तरह के डेटा विश्लेषण की लगातार खिल्ली उड़ा रहा है.
और अब तक दुनिया के सबसे अमीर और शक्तिशाली देशों पर इसकी सबसे ज्यादा मार पड़ी है, जहां इसने पूंजीवाद के इंजन को जाम कर दिया है.
शायद अस्थाई तौर पर ही ऐसा हो, लेकिन यह हम सबसे यह अपेक्षा तो कर ही रहा है कि हम इस इंजन के सभी हिस्सों की जांच करें, उनका आकलन करें और फैसला करें कि क्या हम इस इंजन को ठीक करना चाहते हैं या फिर हमें किसी बेहतर इंजन की जरूरत है.
इस महामारी के प्रबंधन में जुटे दुनिया के हाकिमों को युद्ध की बातें करने का बहुत शौक है. वे इस शब्द का प्रयोग किसी रूपक के तौर पर नहीं उसके शाब्दिक अर्थ में करते हैं.
लेकिन अगर यह वास्तव में ही युद्ध होता तो अमेरिका से ज्यादा मुस्तैद भला कौन होता?
अगर मास्क और दस्तानों की बजाए अग्रिम पंक्ति के सैनिकों को लड़ने के लिए बंदूकों, स्मार्ट बमों, बंकरो को भस्म करने वाले हथियारों, पनडुब्बियों, फाइटर जहाजों और परमाणु बमों की जरूरत होती तो भला उनकी उसके पास क्या कमी थी?
पिछले कुछ दिनों से रोज रात को दुनिया के दूसरे छोर पर बैठे हम में से कुछ लोग न्यूयॉर्क के गवर्नर की प्रेस ब्रीफिंग को नाकाबिले-बयान सम्मोहन के साथ देखते हैं, उनके दिए गये आंकड़ों पर यकीन करते हैं.
इसके साथ ही हम सुनते हैं, अमेरिका के अस्पतालों से रोज़-बरोज़ आ रही खबरों के बारे में.
इन खबरों में होती हैं बेहद कम मजदूरी पर, बेहद ज्यादा काम करने वाली नर्सें, जो कचरे के डिब्बों पर इस्तेमाल किए जाने वाले अस्तर और पुराने रेनकोट से बने मास्क पहनकर, हर प्रकार का खतरा उठा रही हैं ताकि बीमारों को कुछ राहत मिल सके.
वेंटिलेटर लेने के लिए अमेरिका का एक राज्य दूसरे राज्य से ज्यादा बोली लगाने के लिए मजबूर हैं और वहां के डॉक्टर इस धर्मसंकट में हैं कि किस मरीज को वेंटिलेटर पर रखा जाए और किसे मरने के लिए छोड़ दिया जाए.
ऐसे दृश्य देखकर सिर्फ यही ख्याल आता है कि, ‘हे भगवान! यह अमेरिका ही है!’
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यह त्रासदी तात्कालिक, वास्तविक और बहुत बड़ी है जो हमारे सामने घट रही है. लेकिन यह त्रासदी नई भी नहीं है.
यह उस रेलगाड़ी की तरह हैं जो वर्षों से पटरियों से उतर कर टकराने के लिए आगे बढ़ रही थी. ‘पेशेंट डंपिंग’ के वीडियो भला किसे याद नहीं होंगे?
इन वीडियो में अस्पताल के कपड़ों में लिपटे अर्धनग्न मरीज किसी कूड़े के ढेर की तरह सड़क के किसी कोने में पड़े नज़र आते हैं. कुछ बदनसीबों के लिए अमेरिका के अस्पतालों के दरवाजे अक्सर बंद किए जाते रहे हैं.
इस बात से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे कितनी तकलीफ में हैं या कितने बीमार हैं. अभी तक तो बिल्कुल नहीं- क्योंकि वायरस के इस युग में एक गरीब आदमी की बीमारी, अमीर समाज की सेहत को नुकसान पहुंचा सकती है.
आज बर्नी सांडर्स जैसे सीनेटर, जो सबके लिए स्वास्थ्य सुविधाओं जैसे अभियान में निरंतर जुटे रहे हैं, व्हाइट हाउस में पहुंचने की अपनी कोशिशों के बीच, अपनी ही पार्टी में गैर हो गए हैं.
और हमारे गरीब-अमीर देश, जिस पर धुर दक्षिणपंथी हिंदू राष्ट्रवादियों की सत्ता है और जो देश सामंतवाद और धार्मिक कट्टरता, जातिवाद और पूंजीवाद के बीच लटका है, उसकी क्या बात करना?
दिसंबर में जब चीन, वुहान में वायरस के संकट से जूझ रहा था उस समय भारत सरकार, संसद में पारित भेदभावपूर्ण और मुस्लिम-विरोधी नागरिकता क़ानून के विरोध में देशभर में लाखों लोगों द्वारा चलाये जा रहे जन-आंदोलनों से निपट रही थी.
भारत में, कोविड-19 का पहला केस गणतंत्र दिवस परेड के माननीय मुख्य अतिथि, अमेजन के जंगलों को निगलने और कोविड को नकारने वाले, जेर बोलसोनारो की दिल्ली से विदाई के कुछ ही दिन पश्चात 30 जनवरी को प्रकाश में आया था.
फरवरी माह में इस वायरस से निपटने की बजाय सत्ताधारी पार्टी के पास करने के लिए और बेहद ज़रूरी काम थे. महीने के आखिर में राष्ट्रपति ट्रंप की अधिकारिक यात्रा तय थी.
उनसे वादा किया गया था कि उनके स्वागत के लिए गुजरात के एक खेल स्टेडियम में दस लाख लोग जुटेंगे. इस आयोजन पर बेतहाशा पैसा और समय खर्च हुआ.
उसके बाद आए दिल्ली विधानसभा चुनाव. भारतीय जनता पार्टी को किसी भी तरह इस चुनाव में हार से बचने के लिए अपना असली खेल खेलना था और उसने खेला भी.
भाजपा का शातिराना और बेरोकटोक हिंदू राष्ट्रवादी चुनाव अभियान, शारीरिक हिंसा की धमकियों और ‘गद्दारों’ को गोली मार देने के नारों और भाषणों से भरपूर था.
बावजूद इसके, भाजपा यह चुनाव बुरी तरह से हार गई. और अब बारी थी मुसलमानों को सबक सिखाने की. हार के अपमान का ठीकरा मुसलमानों के सिर फोड़ दिया गया.
पुलिस की मदद से हिंदू रक्षकों की हथियारबंद भीड़ ने उत्तर पूर्वी दिल्ली के इलाकों में साधारण कामगार मुसलमानों की बस्तियों पर हमले करने शुरू कर दिए.
घरों, दुकानों, मस्जिदों और स्कूलों को आग के हवाले कर दिया गया. हमलों से आशंकित मुसलमानों ने भी जवाबी कार्यवाही की.
50 से ज्यादा लोग, जिनमें मुसलमान और कुछ हिंदू भी थे, इस हिंसा में मारे गए. हजारों मुसलमानों को स्थानीय कब्रिस्तान में बने शरणार्थी शिविरों में पनाह लेनी पडी.
जब सरकारी अधिकारियों ने कोविड-19 पर अपनी पहली बैठक की उस समय तक गंदगी से भरे नालों से क्षत-विक्षत शव बाहर निकाले जा रहे थे. बहुत से भारतीयों ने तब पहली बार सुना ही था कि ‘हैंड सैनिटाइजर’ नाम की भी कोई चीज होती है.
मार्च में भी काफी व्यस्तताएं थीं. पहले दो सप्ताह तो मध्य प्रदेश राज्य की कांग्रेस सरकार को गिराने और भाजपा सरकार स्थापित करने में निकल गए.
11 मार्च को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोविड-19 को महामारी घोषित किया. इसके दो दिन बाद 13 मार्च को स्वास्थ्य मंत्रालय ने बताया कि कोरोना को लेकर स्वास्थ्य संबंधी आपातकाल की स्थिति नहीं है.
आखिरकार 19 मार्च को प्रधानमंत्री ने राष्ट्र को संबोधित किया. इस संबोधन के लिए उन्होंने कोई विशेष तैयारी नहीं की थी. उन्होंने इटली और फ्रांस से थोड़ा सा ‘ज्ञान’ उधार लिया.
उन्होंने हमें बताया कि ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ क्यों ज़रूरी है. (जातियों के जंजाल में फंसे समाज के लिए इस शब्द को समझना बेहद आसान है.)
इसके साथ ही उन्होंने 22 मार्च को देश में जनता कर्फ्यू लगाने का आह्वान किया. उन्होंने ऐसा कुछ नहीं बताया कि इस संकट से निपटने के लिए उनकी सरकार की क्या योजना है.
हां, उन्होंने यह ज़रूर कहा कि सब लोग अपनी बालकनी में खड़े होकर तालियां, थालियां और घंटियां बजाकर स्वास्थ्यकर्मियों को धन्यवाद अर्पित करें और उन्हें सलाम करें.
उन्होंने यह भी नहीं बताया कि ठीक उन्हीं क्षणों तक भारत सुरक्षा उपकरणों और सांस लेने संबंधी उपकरणों को अपने स्वास्थ्यकर्मियों और अस्पतालों के लिए सुरक्षित रखने की बजाय उनका निर्यात कर रहा था.
इसमें हैरानी की बात नहीं कि नरेंद्र मोदी के आग्रह का बेहद उत्साह से पालन किया गया. तालियां बजाते हुए सामूहिक नृत्य किए गए, जलसे-जुलूस निकाले गए. किसी प्रकार की सोशल डिस्टेंसिंग नहीं थी.
उसके बाद बहुत लोग गाय के ‘पवित्र गोबर’ से भरी हौद में डुबकी लगाने लगे. भाजपा समर्थकों द्वारा गोमूत्र पार्टियां आयोजित की गईं.
कहीं हम पीछे न रह जाएं, यह सोचकर कई मुस्लिम संगठनों ने घोषणा कर दी कि इस वायरस का जवाब सिर्फ खुदा के पास है और उन्होंने लोगों को मस्जिदों में इकट्ठा होने का आह्वान कर दिया.
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24 मार्च को रात 8:00 बजे मोदी एक बार फिर टेलीविजन पर अवतरित हुए और उन्होंने घोषणा की कि रात 12:00 बजे से पूरे भारत में लॉकडाउन लागू हो जाएगा.
बाजार बंद रहेंगे. निजी हों या सार्वजनिक, यातायात के कोई भी साधन सड़कों पर नहीं उतरेंगे. उन्होंने यह भी कहा कि वह यह निर्णय देश के प्रधानमंत्री के तौर पर नहीं अपितु परिवार के मुखिया के तौर पर ले रहे हैं.
राज्य सरकारों से कोई चर्चा किए बिना, जिन्होंने इस निर्णय को दरअसल झेलना था, 130 करोड़ की आबादी वाले देश को बिना किसी तैयारी के और सिर्फ चार घंटे के नोटिस पर लॉकडाउन कर देने का फैसला, उनके अलावा भला कौन कर सकता था.
प्रधानमंत्री के तौर-तरीकों को देखकर कई बार ऐसा आभास होता है जैसे कि अपने देश के नागरिकों को दुश्मन समझते हैं जिस पर एकाएक अचानक घात लगानी है और उन पर भरोसा नहीं करना है.
हम अपने घरों में बंद हैं. कुछ स्वास्थ्य विशेषज्ञों और महामारी विशेषज्ञों ने इस कदम की सराहना भी की है. सैद्धांतिक रूप से वे शायद ठीक भी हैं.
पर इस बात से कोई भी सहमत नहीं होगा कि दुनिया के सबसे बड़े लॉकडाउन को बिना किसी योजना और तैयारी के लागू कर दिया गया?इसका जो वास्तविक उद्देश्य था, जमीन पर उसके उलट ही हुआ.
एक तमाशा-पसंद व्यक्ति ने दुनिया का सबसे बड़ा तमाशा रच डाला.
पूरी दुनिया हैरान होकर तमाशा देख रही थी जब भारत पूरी बेशर्मी से अपनी निर्मम, ढांचागत, सामाजिक और आर्थिक असमानता और पीड़ा के प्रति अपनी कठोर उदासीनता की नुमाइश कर रहा था.
लॉकडाउन ने एक ऐसे रासायनिक प्रयोग की तरह कार्य किया जिसके परिणामस्वरूप अचानक छिपी चीजें धीरे-धीरे बाहर निकलने लगीं.
जैसे ही दुकानें, रेस्टोरेंट, कारखाने और निर्माण उद्योग बंद हुए और जब अमीर और मध्यवर्ग ने अपनी कॉलोनियों के फाटक बंद कर दिए, हमारे नगरों और महानगरों ने कामगार नागरिकों को बाहर निकालना शुरू कर दिया.
प्रवासी मजदूरों की उपस्थिति अब पूरी तरह अवांछित थी. बहुतों को उनके मालिकों और मकान मालिकों ने बाहर निकाल फेंका था.
लाखों गरीब, भूखे-प्यासे, जवान और बूढ़े आदमी, औरत, बच्चे, बीमार, नेत्रहीन, विकलांग लोग कहां जाते? यातायात का कोई साधन सड़क पर था नहीं और वे सब पैदल ही अपने सुदूर गांव की ओर निकल पड़े.
कई दिनों तक सैंकड़ों किलोमीटर दूर, बदायूं, आगरा, आजमगढ़, अलीगढ़, लखनऊ और गोरखपुर की ओर लगातार चलते रहे. कुछ ने तो रास्ते में ही दम तोड़ दिया.
वे जानते थे कि वे रास्ते में भूख का शिकार हो सकते हैं. शायद वे यह भी जानते थे कि हो सकता है कि वे वायरस का शिकार हो चुके हों और घर पर रह रहे उनके परिवार के सदस्य, मां-बाप या दादा-दादी भी उनसे संक्रमित हो सकते हैं, पर उन्हें उस समय सबसे ज़रूरी लग रहा था, प्यार न सही पर थोड़ा-सा अपनापन, सिर पर छत, आत्मसम्मान और निसंदेह भोजन भी.
जब वे लौट रहे थे तो काफी लोगों को पुलिस ने पीटा और प्रताड़ित किया. पुलिस जैसे पूरी तरह कर्फ्यू लागू करने पर आमादा थी. युवकों को सड़कों पर कहीं मुर्गा बनाया गया तो कहीं उनसे मेंढक की तरह कूद कर चलवाया गया.
बरेली शहर की सीमा पर ऐसे ही एक समूह को इकठ्ठा कर उनपर रसायनिक छिड़काव किया गया.
कुछ दिन बाद सरकार को चिंता हुई कि पैदल जा रही इतनी बड़ी आबादी अपने गांवों में वायरस फैला सकती है, इसलिए पैदल यात्रियों तक के लिए राज्यों की सीमाएं बंद कर दी गईं.
पैदलयात्रियों को उन्हीं शहरों में बने शिविरों में भेज दिया गया, जिन शहरों ने उन्हें बेदखल कर दिया था.
बुजुर्गों के जहन में 1947 के भारत विभाजन की आबादी के तबादले वाली तस्वीरें उभरने लगीं. अंतर सिर्फ इतना था कि लोगों की वो आवाजाही धर्म के आधार पर हुई थी और यहां ऐसा वर्ग के आधार पर हो रहा था.
पर ये लोग भारत के सबसे गरीब लोग नहीं थे. ये वे लोग थे जिनके पास शहर में काम था और काम से लौटने के बाद एक घर.
बेरोजगार, बेघर, और नाउम्मीद लोग जहां थे वहीं रह गए, चाहे शहरों में या गांवों में और यह संकट इस त्रासदी से बहुत पहले से ही बढ़ रहा था. इन सब कठिन दिनों में गृहमंत्री अमित शाह कहीं नज़र नहीं आए.
जब दिल्ली से पैदल यात्रा शुरू हुई तो एक मैगज़ीन, जिसके लिए मैं अक्सर लिखती हूं, का प्रेस पास लेकर मैं दिल्ली और उत्तर प्रदेश की सीमा पर गाजीपुर गई थी.
सामने जैसे बाइबिल का दृश्य था. या शायद नहीं. बाइबिल को भी शायद इतनी संख्या के बारे में जानकारी न हो.
जिस शारीरिक दूरी को लागू करने के लिए लॉकडाउन किया गया था, यह नजारा बिल्कुल उसके विपरीत था. हजारों की संख्या में आपस में सटकर चलते लोगों के रेले के रेले सड़कों पर थे.
भारत के कस्बों और शहरों की भी यही स्थिति है. मुख्य सड़कें भले ही खाली हों, गरीब छोटे-छोटे मकानों और झुग्गी-झोपड़ियों में ठुंसे रहने को मजबूर हैं.
जिस किसी पैदल यात्री से मैंने बात की वह वायरस को लेकर चिंतित था. पर यह भय बेरोज़गारी, भुखमरी और पुलिस की मार से कम वास्तविक था.
थोड़े ही दिन पहले मुसलमानों के खिलाफ हिंसा के शिकार मुस्लिम दर्जियों के समूह सहित जितने भी लोगों से मैंने बात की उनमें से एक व्यक्ति की बात ने मुझे परेशानी में डाल दिया.
वह व्यक्ति बढ़ई का काम करने वाला रामजीत था, जिसका इरादा पैदल चलकर नेपाल की सीमा के पास गोरखपुर पहुंचने का था.
‘जब मोदी जी ने इस बारे में फैसला लिया होगा तो शायद उन्हें हमारे बारे में किसी ने बताया नहीं होगा, या यह भी हो सकता है कि उन्हें हमारे बारे में जानकारी ही न हो’, उसने कहा
‘हमारे बारे में’ यानी करीब 46 करोड़ लोगों के बारे में.
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अमेरिका की तरह, भारत के राज्यों ने भी इस संकट से निपटने की दिशा में कहीं अधिक भावनापूर्ण समझदारी दिखाई है.
ट्रेड-यूनियनें, आम नागरिक और अन्य संगठन भोजन और दूसरी आवश्यक सामान बांट रहे हैं. धनराशि जारी करने की बार-बार अपील के बावजूद केंद्र सरकार की प्रतिक्रिया अत्यंत धीमी है.
पता लगता है कि प्रधानमंत्री राहत कोष में पर्याप्त नकदी ही नहीं है. इसकी बजाय ‘पीएम केयर्स’ नाम से रहस्यमय तरीके से एक नया ट्रस्ट बनाया गया है, जिसमें शुभचिंतकों के द्वारा दान के रूप में पैसा डाला जा रहा है.
भोजन के पैकट, जिन पर नरेंद्र मोदी की तस्वीर चस्पा है, नज़र आने लगे है. इसके अतिरिक्त, प्रधानमंत्री ने योग के वीडियो साझा किए हैं.
एकांतवास में तनाव-मुक्त रहने के सबक देने के इरादे से इन वीडियो में कुछ बदले-बदले से, परफेक्ट शरीर वाले एनिमेटेड मोदी जी योगासन कर रहे हैं.
आत्ममुग्धता बेहद परेशान करने वाली चीज़ है. इतने सारे योगासनों में से एक आग्रह-आसन भी हो सकता था.
इस आसन के माध्यम से, मोदी जी फ्रांस के प्रधानमंत्री को रफाल फाइटर विमानों के अनुबंध को रद्द करने का आग्रह कर सकते थे और 7.8 बिलियन यूरो की धनराशि बचाकर कुछ लाख भूखे लोगों की मदद कर सकते थे. और निश्चित तौर पर फ्रांस सरकार उनके इस आग्रह को मान भी लेती.
लॉकडाउन का दूसरा सप्ताह शुरू हो चुका है. दवाइयों और अन्य बेहद ज़रूरी चीज़ों की आपूर्ति सुनिश्चित करने वाली कड़ियां टूट रहीं हैं, जिसके कारण इन की आपूर्ति बाधित हो रही है.
भूख-प्यास से बेहाल हजारों ट्रक-चालक सड़कों पर फंसे हैं. कटाई के लिए तैयार फसलें धीरे-धीरे खराब है रही हैं. आर्थिक संकट दरवाज़े पर खड़ा है. राजनीतिक संकट चल ही रहा है.
मुख्यधारा के मीडिया के लिए कोविड की खबर चौबीसों घंटे मुस्लिम-विरोधी अभियान बन कर रह गई है. तबलीगी जमात नाम के एक संगठन, जिसने लॉकडाउन से ठीक पहले एक बैठक का आयोजन किया था, को ‘सुपर स्प्रेडर’ यानी महामारी का महाप्रसारक बना दिया गया है.
इसके बहाने समूचे मुस्लिम समुदाय को कलंकित और बदनाम किया जा रहा है. इस पूरे प्रकरण में ऐसी कहानियां गढ़ी जा रहीं हैं जैसे इस वायरस की खोज मुसलमानों ने की है और जिहाद के तौर पर वे इसे जगह-जगह फैला रहे हैं.
कोविड का संकट अभी आना बाकी है या नहीं, हमें इस बारे में कुछ नहीं पता. मगर यह ज़रूर पता है कि यह जब कभी भी आएगा, सारे मौजूदा धार्मिक, जाति और वर्ग संबंधी पूर्वाग्रहों के साथ ही इससे निपटा जाएगा.
आज 8 अप्रैल को, भारत में कोरोना संक्रमण के 5,000 से ज्यादा मामले सामने आ चुके हैं और डेढ़ सौ के क़रीब मौतें हो चुकी हैं. यह संख्या इसलिए प्रमाणिक नहीं है क्योंकि पर्याप्त संख्या में कोरोना संक्रमण के परीक्षण ही नहीं हो रहे हैं.
इस बारे में विशेषज्ञों की राय भी अलग-अलग है. कुछ लोगों का कहना है कि यह संख्या लाखों तक जा सकती है और कुछ का यह मानना है कि संख्या इतनी ज्यादा नहीं होगी.
हमें सचमुच नहीं मालूम कि आगे क्या होने वाला है और यह संकट कितना और बढ़ेगा; लेकिन एक बात जो इस वक़्त हम सब जानते हैं वह यह है कि अस्पतालों में अभी भीड़ नहीं है.
भारत के सार्वजनिक अस्पताल और दवाखाने तो हर साल डायरिया और कुपोषण से मरने वाले दस लाख बच्चों, हजारों टीबी मरीजों (जो दुनिया के कुल मरीजों का चौथाई हैं) खून की कमी और कुपोषण की शिकार एक बड़ी आबादी, जिनके लिए कोई छोटी-सी बीमारी भी जानलेवा हो सकती है, को भी उचित इलाज दे पाने में समर्थ नहीं हैं.
और जिस संकट से निपटने के लिए यूरोप से अमेरिका तक की सांस फूल रही है उससे निपटना इनके लिए तो नामुमकिन ही है.
तमाम अन्य स्वास्थ्य सेवाएं फिलहाल स्थगित हैं क्योंकि सारे अस्पताल वायरस से निपटने में लगे हैं. नई दिल्ली के भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के ट्रॉमा सेंटर को बंद कर दिया गया है.
कैंसर के सैकड़ों मरीज़, जो कैंसर शरणार्थी के रूप में जाने जाते हैं और जो इस बड़े अस्पताल के निकट की सड़कों पर रहते हैं, उन्हें जानवरों की तरह खदेड़ दिया गया है.
लोग बीमार पड़ेंगे और अपने घर पर ही मर जायेंगे. हमें उनकी असल कहानी कभी पता नहीं चलेगी. हो सकता हैं कि वे आंकड़ों में भी न आएं.
हम सिर्फ यहीं उम्मीद कर सकते हैं कि वे शोध सच साबित हों जिनके हवाले से यह कहा जा रहा है कि इस वायरस को सर्द मौसम पसंद है. [हालांकि अन्य अनेक शोधकर्ताओं को इस दावे पर संदेह है].
अब से पहले, लोगों ने भारत की चिलचिलाती गर्मी का ऐसा तर्कहीन इंतज़ार शायद ही कभी पहले किया हो.
आखिर हम लोगों के साथ हो क्या गया है? क्या एक वायरस के कारण? हां एक वायरस के कारण, इस पर यकीनन कोई विवाद नहीं है.
पर निश्चित रूप से यह किसी वायरस से भी बड़ी चीज़ है. कुछ लोगों का मानना है कि यह हमारे होश ठिकाने लाने के लिए खुदा की कोई करामात है. कुछ लोग यह भी मानते हैं कि पूरी दुनिया पर कब्ज़ा करने के लिए चीन ने कोई साजिश रची है.
कुछ भी हो, पर कोरोना वायरस ने शक्तिशाली देशों तक को घुटनों के बल खड़ा कर दिया है और जैसा कभी नहीं हुआ, वैसे पूरी दुनिया को रोककर रख दिया है.
हम सब बहुत कुछ सोच रहे हैं, बेसब्री से हालात ‘सामान्य’ हो जाने की इच्छा लिए अपने अतीत और वर्तमान को जोड़ने की कोशिश करते हुए समय में आई इस दरार के अस्तित्व को मानने से इनकार कर रहे हैं. पर यह दरार है तो सही.
और इस भयानक निराशा के दौर में हमें एक अवसर यह भी मिला है कि थोड़ा रुककर सोचें कि हमने कैसी क़यामत लाने वाली मशीनें इजाद की हैं. सामान्य हालात की ओर वापस लौटने से बदतर कुछ नहीं हो सकता.
ऐतिहासिक रूप से देखें तो महामारियों ने मनुष्य को हमेशा ही अतीत से नाता तोड़कर नये भविष्य की कल्पना करने के लिए मजबूर किया है. यह महामारी भी अलग नहीं है. यह भी एक है दरवाजा है आज की दुनिया और आने वाली दुनिया के बीच का.
हम पूर्वाग्रह और नफरत, लोभ, हमारे डेटा बैंक और मर चुके विचार, मरी हुई नदियों और धूसरित आसमान के कंकालों को अपने कंधों पर ढोते हुए इस दरवाजे से आगे जा सकते हैं.
या फिर बिना ज्यादा बोझ के एक नई दुनिया की कल्पना करते हुए और इसके लिए लड़ने को तैयार हो आगे बढ़ सकते हैं.
(यह लेख मूल रूप से फाइनेंशियल टाइम्स में 3 अप्रैल को प्रकाशित हुआ है, जिसे लेखक की अनुमति से पुनर्प्रकाशित किया गया है.)
(कुमार मुकेश द्वारा अंग्रेजी से अनूदित)