कोरोना: देश की अर्थव्यवस्था को लॉकडाउन के चक्रव्यूह से कैसे निकालेंगी केंद्र और राज्य सरकारें

अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लगता है कि भारत बाकी देशों की तरह लगातार चल रहे एक पूर्ण लॉकडाउन के प्रभाव को कम करने के लिए बड़ा आर्थिक पैकेज नहीं दे सकता तो उन्हें ज़रूरी तौर पर लॉकडाउन में छूट देने के बारे में सोच-समझकर अगला क़दम उठाना चाहिए.

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EDS PLS TAKE NOTE OF THIS PTI PICK OF THE DAY:::::::: **EDS: VIDEO GRAB** New Delhi: Prime Minister Narendra Modi wearing a protective mask chairs a meeting with chief ministers on COVID-19 lockdown via video conference, in New Delhi, Saturday, April 11, 2020. (PTI Photo) (PTI11-04-2020_000045B)(PTI11-04-2020_000222B)

अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लगता है कि भारत बाकी देशों की तरह लगातार चल रहे एक पूर्ण लॉकडाउन के प्रभाव को कम करने के लिए बड़ा आर्थिक पैकेज नहीं दे सकता तो उन्हें ज़रूरी तौर पर लॉकडाउन में छूट देने के बारे में सोच-समझकर अगला क़दम उठाना चाहिए.

EDS PLS TAKE NOTE OF THIS PTI PICK OF THE DAY:::::::: **EDS: VIDEO GRAB** New Delhi: Prime Minister Narendra Modi wearing a protective mask chairs a meeting with chief ministers on COVID-19 lockdown via video conference, in New Delhi, Saturday, April 11, 2020. (PTI Photo) (PTI11-04-2020_000045B)(PTI11-04-2020_000222B)
शनिवार को विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ ऑनलाइन बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फोटो: पीटीआई)

देश का राजनीतिक नेतृत्व कोविड-19 से कितने प्रभावशाली तरीके से निपट पाया है, यह तो लॉकडाउन खत्म होने के बाद ही पता चलेगा. इस लॉकडाउन को बढ़ाना एक ऐसा तरीका था, जिस पर अधिक सोच-विचार की जरूरत नहीं महसूस की जा रही है .

केंद्र और राज्य सरकारों को बस सब कानून लागू करने वाली खाकी वर्दी के हवाले करना होगा. वहीं दूसरी तरफ, सभी मानवीय गतिविधियों पर लगे निरंतर लॉकडाउन से निकलने के लिए समझ-बूझ भरे प्रशासन की जरूरत होगी, जो भारत में होना मुश्किल है.

कोविड-19 से निपटने के लिए काम कर रहे भारतीय मेडिकल अनुसंधान संस्थान (आईसीएमआर) के वैज्ञानिकों के एक समूह ने फरवरी में लिखा गया एक शोध अध्ययन जारी किया है, जिसमें लॉकडाउन को ‘सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए एक कड़ा कदम’ कहा गया है, जिसके ‘दीर्घकालिक प्रतिकूल परिणाम’ हो सकते हैं.

नोवेल कोरोनावायरस पर लिखे गए इस रिसर्च पेपर में ‘प्रशासन द्वारा लगाए जाने जबरन क्वारंटाइन के तरीकों’ को सही न बताते हुए सामुदायिक तौर पर इस्तेमाल हो सकने वाले तरीकों की पैरवी की गई है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस बारे में भी गंभीरता से सोचना होगा.

मोदी पारंपरिक धर्मग्रंथों और लोककथाओं के दृष्टांत देने के शौक़ीन हैं. यकीनन उन्होंने अभिमन्यु के बारे में सुना होगा, जिसे चक्रव्यूह के अंदर जाना तो आता था, लेकिन उससे बाहर निकलना नहीं.

मोदी देशव्यापी पूर्ण तालाबंदी को लेकर देश को तैयार करने का श्रेय ले सकते हैं, लेकिन उनके असली कौशल और नेतृत्व की पहचान उन तरीकों से ही होगी, जिनके सहारे वे एक चरणबद्ध तरीके से आर्थिक बंदी से बाहर निकल आने में कामयाब होंगे.

यह देश की लगभग आधी से अधिक आबादी को निकट भविष्य में सामने आने वाली गरीबी और बड़े सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट से बचाने के बारे में है. प्रशासन के लिए आज की तारीख में यह सबसे बड़ी चुनौती है.

और इसके लिए प्रधानमंत्री को सभी राज्यों के नेताओं की सक्रिय भागीदारी की जरूरत होगी. दुर्भाग्य से लॉकडाउन लागू करने से पहले वे सभी मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक नहीं कर सके थे, लेकिन अब वे सभी राज्यों के प्रतिनिधियों से विचार-विमर्श करते नजर आ रहे हैं.

वास्तव में, ऐसा लगता है कि मोदी को यह आभास हो चुका है कि वर्तमान संकट इतना बड़ा है कि यह केवल एक आदमी के बस का नहीं होगा और कुछ ही महीनों में उसके दुष्परिणाम सामने आने लग जाएंगे.

प्रधानमंत्री के व्यवहार में बदलाव स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है और वे लॉकडाउन को बढ़ाने को लेकर कई मुख्यमंत्रियों से सतर्कतापूर्वक ध्यान लगाकर चर्चा करते दिखे हैं.

संकट के स्वरूप ने साझा जिम्मेदारी और जवाबदेही के एक नए विचार के लिए मजबूर किया है, जो पहले कभी मौजूद नहीं दिखा.

यह स्पष्ट होता जा रहा कि भारत एक और महीने के लिए सभी आर्थिक गतिविधियों को पूरी तरह से बंद नहीं कर सकता है.

प्रधानमंत्री और राज्य के मुख्यमंत्रियों के पास इस लॉकडाउन से बाहर निकलने के लिए एक रोड मैप, जिससे आर्थिक गतिविधियां धीरे-धीरे फिर शुरू हो सकें, बनाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है.

नोबेल विजेता अर्थशास्त्री एस्थर डुफ्लो ने इसे संक्षेप में कहा है कि वर्तमान संकट के किसी भी समाधान को जीवन और आजीविका के बीच समझौता नहीं माना जा सकता. यह एक गलत बहस है. आजीविका की समस्या फौरन जिंदगियां बचाने और सार्वजनिक स्वास्थ्य से निपटने से जुड़े अधिक मुद्दों में बदल जाएगी. तो यह लॉकडाउन के बाद ज्यादा से ज्यादा जिंदगियां बचाने के बारे में है.

बेहतर रहेगा कि मोदी ने अपनी बैठकों में इस बारे में भी चर्चा की हो. इस पूर्ण तालाबंदी से निकलने की जरुरत इसलिए भी है क्योंकि लॉकडाउन की अवधि के दौरान केंद्र और राज्यों के राजस्व में अनुमानतः 60 से 70 फीसदी की कमी आयी है.

दिल्ली के वित्त मंत्री मनीष सिसोदिया ने मुझे बताया कि राज्य का अधिकतर राजस्व जीएसटी के अलावा पेट्रोल, डीजल और शराब के टैक्स से आता है. लॉकडाउन के दौरान ये सभी नीचे आ गए हैं. पेट्रोल और डीजल की बिक्री में 90 प्रतिशत की गिरावट आई है.

तेलंगाना, तमिलनाडु और महाराष्ट्र जैसे अन्य राज्यों के अधिकारी भी सिसोदिया की बात से इत्तेफाक रखते हैं. असल में जिस दर से राज्यों का राजस्व नीचे जा रहा है, उसके चलते अधिकतर राज्य अप्रैल से आगे अपने वेतन तक भी नहीं दे सकेंगे.

कई प्रदेशों ने सरकारी कर्मचारियों के वेतन का आंशिक भुगतान रोक दिया है. यह संविधान के अनुच्छेद 360 के तहत वित्तीय आपातकाल घोषित करने से कम नहीं है.

तमिलनाडु ने प्रधानमंत्री को लिखा है कि राज्य की कर्ज लेने की क्षमता, जो इस समय राज्य की जीडीपी का करीब 3 फीसदी है, को वर्तमान सीमा से 33% तक बढ़ाया जाए.

राज्य ने प्रधानमंत्री से एक लाख करोड़ रुपये का एक विशेष कोविड-19 फंड बनाने की भी मांग की है, जिसे प्रदेशों को उनकी जीडीपी के अनुसार बांटा जा सके. अन्य राज्यों ने भी अतिरिक्त कर्ज सीमा को लेकर प्रधानमंत्री को लिखा है.

तो इस तरह देख सकते हैं कि केंद्र और राज्यों के सामने एक बड़ा सार्वजनिक आर्थिक संकट है. इस समय एकमात्र उपाय बस यह हो सकता है कि रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया अधिक से अधिक नोट छापे और केंद्र व राज्यों के बॉन्ड्स खरीदे.

लेकिन अब तक प्रधानमंत्री मोदी ने यह भी इंगित किया है कि भारत वह नहीं कर सकता जो दुनिया की बाकी अर्थव्यवस्थाओं ने किया है- जीडीपी के 7% से 15% तक का प्रोत्साहन पैकेज देना.

केंद्र ने अब तक जीडीपी का 0.8% प्रोत्साहन पैकेज दिया है और जिसका कुछ हिस्सा कंस्ट्रक्शन लेबर और खनिज विकास से जुड़े राज्य के फंड्स से लिया गया था.

बड़ी बात यह है कि अगर मोदी को लगता है कि भारत बाकी देशों की तरह लगातार चल रहे एक पूर्ण लॉकडाउन के प्रभाव को कम करने के लिए बड़ा आर्थिक पैकेज नहीं दे सकता तो उन्हें जरूरी तौर पर लॉकडाउन में छूट देने के बारे में सोच-समझकर अगला तार्किक कदम उठाना चाहिए और निर्माण और अन्य मैन्युफैक्चरिंग केंद्रित उद्योगों के कामगारों को काम पर लौटने देना चाहिए.

कई बड़े उपभोक्ता आधार वाली कंपनियों और कंस्ट्रक्शन प्रोजेक्ट के प्रमुखों का मानना है कि वे अभी अपनी कुल क्षमता के 20% के साथ काम कर रहे हैं और आने वाले दो महीनों में पर्याप्त सुरक्षा उपायों के साथ नौजवान कामगारों को लाते हुए वे इसे धीरे-धीरे 50-60 फीसदी करना चाहते हैं.

यह कैसे किया जाएगा, इस बारे में प्रधानमंत्री को मुख्यमंत्रियों से बात करनी होगी. इसी जगह उनके नेतृत्व की जरूरत है. उनके पास ऐसा करने या फिर मई के आखिर तक 35-40%तक बढ़ी युवा बेरोजगारी में से किसी एक को चुनने का विकल्प है.

ओडिशा, महाराष्ट्र और पंजाब जैसे कई राज्यों ने लॉकडाउन को आगे बढ़ाने का विकल्प चुना है क्योंकि वह एक आसान रास्ता नजर आता है.

आईसीएमआर के वैज्ञानिकों की चेतावनी के अनुसार, आने वाले समय में उन्हें इस आसान विकल्प को चुनने के गंभीर परिणाम मालूम पड़ेंगे. वास्तव में असली प्रशासनिक कौशल का पता इसी बात से चलेगा कि भारत इस पूर्ण तालाबंदी से बाहर कैसे निकलता है.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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