कुछ दशक पहले तक गोरखपुर और इसके आस-पास के क्षेत्र की पहचान बुनकरों के बनाए कपड़ों से होती थी, लेकिन हथकरघों के बंद होने के बाद पावरलूम के ख़र्च न उठा सकने के चलते कइयों ने यह काम छोड़ दिया. अब लॉकडाउन के दौरान हाल यह है कि पावरलूमों पर पूरी तरह ताला लगा हुआ है और दिहाड़ी कारीगर फ़ाक़ाकशी को मजबूर हैं.
कोरोना महामारी को रोकने के लिए हुए लॉकडाउन ने गोरखपुर और संतकबीरनगर के बुनकरों की हालत और खस्ता कर दी है. दोनों जिलों में एक पखवाड़े से अधिक समय से दस हजार से अधिक पावरलूम खामोश पड़े हैं.
पावरलूम इकइयों द्वारा उत्पादित कपड़ा डंप है. पावरलूम पर काम करने वाले कारीगर फाकाकशी को मजबूर हैं क्योंकि पावरलूम चलने पर ही उनकी दिहाड़ी मिलती थी.
सरकारी आंकड़ों के अनुसार गोरखपुर में 3,192 और संतकबीरनगर में 4,242 पावरलूम हैं.
गोरखपुर में 1990 तक 17 हजार से अधिक हथकरघे थे लेकिन अब बमुश्किल 150 से भी कम हथकरघे बचे हैं. वर्ष 1990 के बाद से बुनकरों ने पावरलूम पर काम शुरू किया.
गोरखपुर में साढ़े आठ हजार पावरलूम लगे, लेकिन अब इनकी संख्या कम होते-होते तीन हजार तक पहुंच गई है.
गोरखपुर के 14 मोहल्ले- चक्सा हुसैन, जमुनहिया, अहमदनगर, नौरंगाबाद, जाहिदाबाद, पुराना गोरखपुर, हुमांयूपुर, रसूलपुर, दशहरी बाग, अजय नगर आदि बुनकर बाहुल्य हैं, जिनकी आबादी करीब एक लाख है.
ये मोहल्ले गोरखपुर शहरी और गोरखपुर ग्रामीण विधानसभा क्षेत्र में आते हैं. अधिकतर बुनकर बस्तियां गोरखपुर ग्रामीण विधानसभा क्षेत्र में हैं.
तीन दशक पहले तक गोरखपुर की पहचान बुनकरों के हाथों से बुने चादर, तौलिया, गमछा, सेना की वर्दी सहित तमाम कपड़ों से होती थी.
एक समय था जब इन मोहल्लों में बंगाल और बिहार से बुनाई करने मजदूर आते थे और कलकत्ता से व्यापारी. बुनकरों के बनाए चादर, तौलिए, गमछे, लुंगी की बहुत मांग थी.
यहां की शॉल भी बहुत मशहूर थी जो सिर्फ ढाई रुपये में बिकती थी जिसे स्टेपल धागे से बुना जाता था. इस शॉल को खरीदने के लिए व्यापारी यहां महीनों डेरा डाले रहते थे लेकिन अब यह सब कुछ खत्म हो गया है.
बुनकरों को सबसे बड़ा धक्का 1990 में लगा जब उत्तर प्रदेश की 9 कताई मिलों के साथ-साथ यूपी स्टेट हैंडलूम कॉरपोरेशन बंद कर दिया गया. इस कारण बुनकरों को सूत और उत्पादित कपड़ों के विक्रय के लिए बाजार पर निर्भर होना पड़ा.
हथकरघों का बंद होना शुरू हुआ. हथकरघे बंद होने के बाद अपने को बचाने के लिए बुनकरों ने पावरलूम पर काम करना शुरू किया.
हैंडलूम से पावरलूम पर शिफ्ट होने की प्रक्रिया में हजारों कारीगर बेकार हो गए क्योंकि उनके पास पावरलूम खरीदने के लिए पैसे नहीं थे. ये कारीगर, पावरलूम मजदूर में बदल गए.
शुरू में पावरलूम पर काम बढ़िया चला लेकिन बाद में सरकारी नीतियों के चलते ये भी खस्ताहाल होते चले गए. यूपी स्टेट हैंडलूम कॉरपोरेशन से बुनकरों को न सिर्फ सस्ता सूत मिलता था बल्कि उनके द्वारा तैयार कपड़ें खरीद लिए जाते थे.
कताई मिलें और कॉरपोरेशन के बंद होने से बुनकर मुकम्मल तौर पर महाजनों के मोहताज हो गए. अब उन्हें सस्ता सूत मिलना बंद हो गया. साथ ही वह अपनी पसंद के कपड़े तैयार करने के बजाय मांग के अनुरूप कपड़े तैयार करने पर विवश हुए.
महाजन अब बुनकरों को वजन कर धागा देते और बुनकर बुनाई कर उतने ही वजन का कपड़ा वापस देते हैं. इसके एवज में मीटर के हिसाब से बुनकर को मजदूरी मिलती है.
वर्ष 1995 में बुनकर को 4 रुपये 10 पैसे प्रति मीटर के हिसाब से मजदूरी मिलती थी जो अब घटकर 3 रुपये 80 पैसे हो गई है.
आज स्थिति यह है कि एक कारीगर 12 घंटे से अधिक काम करने के बाद सिर्फ 175 रुपये कमा पाता है जबकि एक पावरलूम वाले बुनकर की कमाई एक दिन में सिर्फ 33 रुपये है.
कबाड़ में बिकते पावरलूम
गोरखपुर पिछले तीन वर्ष में 500 से अधिक पावरलूम बंद हो गए. बुनकरों ने अपने 80 हजार के पावरलूम 18-20 हजार में कबाड़ में बेच दिया.
नौरंगाबाद के कमरूद्दीन ने 2017 में अपने सभी सात पावरलूम बेच दिए. उनके पास 15 वर्ष पहले सात पावरलूम थे. उन्होंने एक-एक पावरलूम 80-80 हजार में खरीदा था.
पहले उन्होंने दो पावरलूम बेचा. वर्ष 2017 में उन्होंने अपने पांच पावरलूम 18 से 20 हजार में कबाड़ी को बेच दिया क्योंकि उनके उपर 32 हजार का बिजली का बकाया हो गया था और उसे चुकाने का और कोई रास्ता नहीं था.
कमरूद्दीन अब ट्यूशन पढ़ा कर गुजारा कर रहे हैं. यही हाल उन जैसे कई बुनकरों का हुआ.
मकबूल अंसारी ने अपने पावरलूम बेचकर फल की दुकान खोल ली. इससे भी गुजारा नहीं हुआ तो पैसा कमाने सउदी अरब चले गए.
उनके सामने वाले घर में पावरलूम बंद पड़ा है और वहां सब्जी की दुकान खुल गई है. युवा बुनकर पावरलूम बेचकर पासपोर्ट बनवा रहे हैं और खाड़ी देशों में जा रहे हैं.
आज बुनकरों के बनाए उत्पाद की मांग नहीं है. गोरखपुर के बाजार में चीनी चादरें और तकिये के गिलाफ बिक रहे हैं और बुनकर खाली हाथ बैठे हैं. उनके हुनरमंद हाथ अब चाय बना रहे हैं या ठेला खींच रहे हैं.
संतकबीरनगर जिले के अमरडोभा में रहने वाले मोहम्मद इसहाक अंसारी आल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज से भी जुड़े हुए हैं. अमरडोभा में उनके कई लूम हैं.
उन्होंने बताया कि संतकबीरनगर जिले में अमरडोभा, मगहर, नेटुआ महुआ, मेंहदावल आदि स्थानों पर पावरलूम इकाइयां है.
ये पावरलूम गमछा, धोती, लुंगी व कुर्ते बनाते हैं. पूरे जिले में करीब छह हजार परिवार पावरलूम से होने वाली आजीविका पर निर्भर हैं.
उन्होंने बताया कि संतकबीरनगर जिले में जब हथकरघे बंद हुए तो हजारों कारीगर बेकार हो गए. कुछ लोग आजीविका के लिए बाहर चले गए तो कुछ दूसरे रोजगार में खप गए. अभी सैकड़ों बुनकर सिलाई मशीन पर स्कूल ड्रेस सिलने का काम करते हैं.
इसके अलावा वे मफलर, लोअर आदि रेडीमेड कपड़े भी तैयार करते हैं और जिला मुख्यालय के बरदहिया बाजार में लगने वाले साप्ताहिक बाजार में बेचकर वे अपना गुजारा कर रहे हैं.
अंसारी कहते हैं कि पावरलूम सेक्टर बर्बाद होगा तो सिर्फ बुनकर ही बेरोजगार नहीं होंगे बल्कि इसका असर सूत बनाने वाली दक्षिण भारत की मिलों पर भी होगा. सरकार को राजस्व की हानि होगी और ट्रांसपोर्टेशन से जुड़े लोगों की आजीविका पर भी असर पड़ेगा.
नेपाल का ढाका टोपी भी बनाने हैं गोरखपुर के बुनकर
गोरखपुर के कुछ बुनकर अभी भी हाथ से काम करते हैं. इनमें से कुछ लोग नेपाली नागरिकों द्वारा पहनी जाने वाली ढाका टोपी तैयार करते हैं.
ढाका टोपी या नेपाली टोपी, टोपी का एक प्रकार है जो नेपाल में बहुत प्रचलित है. यह टोपी जिस कपड़े से बनायी जाती है, उसे ढाका कहते हैं. इसलिए इसका नाम ढाका टोपी पड़ा.
इन्हें बुनने वालों में गोरखनाथ क्षेत्र के बुनकर अलाउद्दीन भी एक हैं. उन्होंने बताया कि ढाका टोपी बनाने के लिए उन्होंने अपने हैंडलूम को जुगाड़ से अपग्रेड किया.
अमूमन हैंडलूम एक बॉक्स में बनाया जाता लेकिन इसमें दो बॉक्स का जुगाड़ कर अलाउ्दीन नेपाली टोपी के कपड़े की बिनाई करते है.
अलाउद्दीन कहते हैं नेपाली व्यापारियों का गोरखपुर आना-जाना होता था. कुछ नेपाली व्यापरियों ने उनसे कहा कि नेपाल आकर हथकरघे की शुरूआत करें लेकिन काम के एवज में कम पैसे मिलने की वजह से वे नहीं गए और यहीं रहकर नेपाली टोपी के कपड़े की बिनाई करने लगे.
अलाउद्दीन बताते हैं, ‘नेपाली टोपी में झंडीनुमा डिजाइन होती है. इस डिजाइन को बनाने के लिए सबसे पहले डिजाइन का ग्राफ तैयार जाता है. फिर दफ्ती के पत्ते पर खाका तैयार किया जाता है. पत्ते पर बनी डिजाइन बनारस में काटी जाती है. पत्ते को सिलकर जकाट तैयार किया जाता है. जकाट को पावरलूम पर लगाकर कर नेपाली टोपी के कपड़े की बिनाई की जाती है.’
एक दर्जन स्कीम लेकिन कारगर कोई नहीं
कहने के लिए तो केंद्र और प्रदेश सरकार द्वारा पावरलूम सेक्टर के लिए कई योजनाएं चलाई जा रही हैं.
वर्ष 2017 में केंद्र सरकार ने कॉम्प्रिहेंसिव स्कीम फॉर पावरलूम सेक्टर डेवलमेंट एक अप्रैल 2017 में शुरू की. इस योजना की अवधि इस वर्ष 31 मार्च को पूरी हो गई.
इस योजना के एक दर्जन से अधिक घटक थे जिसमें अपग्रेडेशन ऑफ प्लेन पावरलूम, ग्रुप वर्कर स्कीम, यार्न बैंक स्कीम, कॉमन फैसिलिटी सेंटर, प्रधानमंत्री क्रेडिट स्कीम ऑफ पावरलूम वीवर, सोलर एनर्जी स्कीम ऑफ पावरलूम आदि प्रमुख हैं.
इन योजनाओं का धरातल पर हाल यह है कि गोरखपुर और संतकबीरनगर के बुनकर इसका नाम तक नहीं जानते. इनमें से एक योजना अपग्रेडेशन ऑफ प्लेन पावरलूम को जरूर धरातल पर उतारने की कोशिश हुई जो सफल नहीं हो पाई.
गोरखपुर के सहायक आयुक्त हथकरघा एवं वस्त्रोद्योग रामबड़ाई के अनुसार इस योजना के तहत 47 पावरलूम इकाइयों का अपग्रेड करने के लिए पैसा आया था लेकिन बुनकरों द्वारा अपना अंश जमा नहीं करने के कारण यह धन वापस चला गया.
वह कहते हैं कि यहां के बुनकर गरीब हैं, इसलिए वे योजना के तहत अपना अंशदान नहीं दे पाए.
संतकबीरनगर के बुनकर नेता इसहाक अंसारी कहते हैं, ‘पावरलूम अपग्रेड योजना व्यावहरिक नहीं थी, इसलिए बुनकर इस योजना से नहीं जुड़े. सरकार जिस अपग्रेडेड पावरलूम को बुनकर को 50 हजार अंशदान में देने की बात कर रही थी, वह बाजार में इतने ही मूल्य पर उपलब्ध था. ऐसे में कोई सरकार की योजना से सेमी ऑटोमेटिक पावरलूम लेने क्यों जाएगा, जब उतनी ही रकम में उसे बाजार में मशीन उपलब्ध है. सरकार को व्यावहारिक योजना लानी चाहिए.’
रामबड़ाई बताते हैं, ‘बुनकरों की आय बढ़ाने के लिए सरकार ने ट्रायल बेस पर उनसे ड्रेस मैटेरियल तैयार कराने का निर्णय लिया है. बुनकरों द्वारा तैयार स्कूल ड्रेस यूपिका द्वारा खरीदा जाएगा और उसे गोरखपुर के कैम्पियरगंज ब्लाक के स्कूलों में दिया जाएगा. यह प्रोजेक्ट सफल रहा तो इसे और विस्तारित किया जाएगा.’
वह कहते हैं कि यदि बुनकर कुछ यूनिक कट वर्क करें जैसा कि एक-दो बुनकर कर रहे हैं तो उनके उत्पादित वस्त्र के एक्सपोर्ट होने की संभावना होगी.
बिजली सब्सिडी का मुद्दा
बुनकरों के लिए केंद्र और प्रदेश सरकार की तमाम योजनाएं व घोषणाएं हैं लेकिन इनमें से सिर्फ एक योजना ही उनके काम आई है हालांकि यह भी उनसे छिनने वाली है.
वर्ष 2006 से बुनकरों को फ्लैट रेट पर बिजली मिल रही है. तत्कालीन मुलायम सरकार ने वर्ष 2006 में एक पावरलूम को 144 रुपये महीना बिजली बिल फिक्स किया था, जो अब तक चला आ रहा है.
अब यूपी सरकार ने फ्लैट रेट पर बिजली दर खत्म करने की मंशा जाहिर की है. इसके लिए पावरलूम इकाइयों का सर्वे भी किया गया है.
इस वर्ष अप्रैल माह से लोड व यूनिट के हिसाब से पावरलूम इकाइयों से बिजली बिल लेना प्रस्तावित किया गया था, जिसके विरोध में दिसंबर 2019 में गोरखपुर के बुनकरों ने एक दिन के काम बंद हड़ताल भी की थी. बुनकर संगठन इसके खिलाफ आंदोलन की योजना भी बना रहे थे.
लॉकडाउन की वजह से फिलहाल फ्लैट रेट पर बिजली देने को बंद करने की योजना अमल में लाई नहीं गई है लेकिन बुनकरों का कहना है कि अगर ऐसा हुआ तो बुनकरों के सामने अपने इस पुश्तैनी पेशे को हमेशा के लिए छोड़ देने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचेगा.
फ्लैट रेट पर बिजली मिलने का फायदा बुनकरों को मिल रहा था लेकिन इसने एक दूसरे तरीके से बुनकरों को नुकसान भी बहुत पहुंचाया.
पता नहीं किस कारणों से फ्लैट रेट पर बिजली दिए जाने के फैसले में बाद में एक संशोधन कर सब्सिडी का फायदा 120 किलोवाट तक कर दिया.
इसका फायदा बड़े महाजनों ने उठाया और उन्होंने 200 से 400 की संख्या में पावरलूम के कारखाने बना लिए और दो-दो शिफ्ट में काम करने लगे. इससे उन्हें दोहरा फायदा हुआ.
एक तो उन्हें बिजली सब्सिडी का पूरा फायदा मिला और दूसरे उनकी घर में पावरलूम चलाकर काम करने वाले बुनकरों पर निर्भरता खत्म हो गई.
अब उन्हें बुनकरों से बुने कपड़े लेने की जरूरत कम पड़ती है क्योंकि उनके कारखाने में खूब उत्पादन हो रहा है. ऐसे बड़े कारखानेदारों की संख्या एक दर्जन ही है लेकिन वे एक लाख बुनकरों की रोजी-रोटी पर भारी हैं.
दूसरी तरफ कपड़ों की बाजार व महाजनों से मांग न होने के कारण बुनकरों के पास कोई काम का अभाव होता गया. यही कारण है कि बुनकरों को अपना काम बंद करना पड़ा.
जिन बुनकरों ने अपना काम बंद किया उन्हें बिजली का बिल बंद नहीं हुआ. इस चक्कर में अधिकतर बुनकरों पर हजारों का बिजली बिल बकाया हो गया.
बिजली का बिल चुकाने के लिए तमाम बुनकरों को अपने पावरलूम बेचने पड़े. पावरलूम बेचने के बाद कई बुनकरों ने चाय, फल, सब्जी की दुकान खोल ली तो कुछ मजदूरी भी करने लगे हैं.
एक पावरलूम की एक दिन की कमाई 33 रुपये
हर क्षेत्र में मजदूरी बढ़ी है लेकिन बुनकरों की मजदूरी घटती जा रही है. गोरखपुर के नौरंगाबाद के ओबेदुर्रहमान नदवी के पास पांच पावरलूम है.
वे बताते हैं, ‘एक पावरलूम पर 12 घंटे लगातार काम होने पर पांच थान यानी 92 मीटर कपड़ा तैयार होता है. हमें महाजन से जितने वजन का धाग मिलता है, उतना वजन कपड़ा तौलकर देना पड़ता है. यदि कपड़े का वजन कम हुआ तो उसका नुकसान भी हमें ही उठाना है. बदले में हमें महाजन से 3.80 रुपये मीटर की दर से मजदूरी मिलती है. इस मजदूरी में हमें 1.90 रुपये कारीगर को देना होता है.
वे आगे बताते हैं, ‘इसके अलावा बीम, धागा और तैयार कपड़े की ढुलाई, मेंटेनेंस आदि का खर्च हमें ही उठाना होता है. एक थान कपड़े की ढुलाई पर चार रुपये, एक पेटी धागे की ढुलाई पर 12 रुपये का खर्च आता है. इस तरह एक पावरलूम पर 12 घंटे काम करने वाले कारीगर को सिर्फ 175 रुपये की कमाई हो पाती है जो मनरेगा मजदूर के एक दिन की मजदूरी से भी कम है.’
यदि कारीगर खुद पावरलूम चलता है तो उसकी कमाई 350 रुपये ही हुई. इसी कमाई से उसे धागे, कपड़े व बीम की ढुलाई, बिजली का बिल, मेंटेनेंस आदि भी खर्च करना होता है. इस तरह किसी भी हालत में उसकी कमाई 200 रुपये से अधिक नहीं हो सकती.
नदवी बताते हैं, ‘आज की तारीख में हमें एक पावरलूम से एक दिन की कमाई सिर्फ 33 रुपये ही हो पाती है. यदि बिजली का फ्लैट रेट खत्म कर दिया गया और यूनिट के हिसाब से कामर्शियल बिजली लेनी पड़ी तो अपने पावरलूम बेचने के अलावा और कोई चारा नहीं बचेगा.’
मशहूर बरदहिया बाजार की घटती रौनक
संतकबीरनगर के खलीलाबाद के पास बरदहिया बाजार में लगने वाला साप्ताहिक बाजार बुनकरों द्वारा उत्पादित वस्त्रों का मशहूर बाजार है लेकिन अब इसकी रौनक कम होती जा रही है.
इस बाजार में उत्तर प्रदेश के अलावा बिहार तक के व्यापारी बुनकरों के बनाए कपड़े खरीदने आते थे. अब बाजार का रूप-रंग बदला है और इसके बदले रूप-रंग से हैंडलूम उद्योग के बदलते स्वरूप को भी पहचाना जा सकता है.
बरदहिया बाजार पर सप्ताह में दो दिन- रविवार और सोमवार को लगता है. रविवार को हैंडलूम का बाजार होता है तो सोमवार को रेडीमेड का.
रेडीमेड बाजार में अब कोलकाता से भी माल आता है. रेडीमेड का कारोबार बढ़ता जा रहा है जबकि हैंडलूम और पावरलूम उत्पादित कपड़ों की पूछ कम होती जा रही है.
रविवार को संतकबीरनगर जिले के बुनकर अपने द्वारा उत्पादित तौलिया, धोती, गमछा, बेडशीट बेचने आते हैं. गोरखपुर के बुनकरों द्वारा बनाए गए कपड़े अब यहां नहीं आते.
लॉकडाउन का प्रभाव
गोरखपुर और संतकबीरनगर जिले में पावरलूम घरेलू उद्योग की तरह काम करता है. अधिकतर लोग अपने घरों में एक या दो पावरलूम चलाते हैं.
कुछ मास्टर बुनकर हैं जिनके पास पांच से अधिक पावरलूम हैं. ये खुद भी काम करते हैं और उनके घरेलू कारखाने में कारीगर भी काम करते हैं. कई मास्टर बुनकर खुद काम नहीं करते और अपने घरेलू कारखाने में कारीगरों से काम कराते हैं.
गोरखपुर के गोरखनाथ, रसूलपुर, नौरंगाबाद, दशहरी बाग, जाहिदाबाद, जामियां नगर, जमुनहिया बाग, पिपरापुर, मोहनलालपुर, चक्शा हुसैन मोहल्लों आदि मोहल्ले के सैकड़ों घरों में चलने वाले पावरलूम बंद पड़े हैं.
लॉकडाउन होने के बाद भी सोशल डिस्टेंस बनाए रखते हुए एक व्यक्ति दो लूम चला सकता है लेकिन इस बारे में सरकार की ओर से कोई निर्देश जारी नहीं हुआ है जैसा कि उद्योगों के बारे में किया गया है. इस कारण कोई पावरलूम चला नहीं रहा है.
यदि कोई सरकारी निर्देश आता भी है तो पावरलूम में चलाने के लिए सबसे ज्यादा महत्व रखने वाला धागा बुनकरों को नहीं मिल पाएगा क्योंकि लॉकडाउन की वजह से धागा नहीं आ पा रहा है.
लूम में प्रयोग होने वाला धागा महाराष्ट्र, गुजरात, हैदराबाद, नेपाल, सिलवासा के साथ ही खलीलाबाद से भी आता है.
अमूमन पावरलूम पर तैयार होने वाले कपड़े की रोज डिलीवरी हो जाती है. इसके बाद नये मॉल तैयार करने की तैयारी शुरू हो जाती है.
लॉकडाउन की वजह से बुनकरों के यहां तैयार पर मॉल महाजन को डिलीवर नहीं हो पा रहा है और धागा खत्म होने की वजह नया माल भी तैयार नहीं हो पा रहा है.
गोरखपुर के बुनकर मोहल्ले नौरंगाबाद में रहने वाले पत्रकार अशफाक अहमद बताते हैं कि 90 फीसदी कारखानों में तकरीबन 23 लाख मीटर कपड़ा (25 हजार थान) तैयार पड़ा है जिसकी डिलीवरी नहीं हो पा रही है. इस वजह से पावरलूम वालों को पेमेंट भी नहीं मिल पा रहा है.
गोरखपुर के वसी अहमद बताते हैं, ‘तैयार मॉल कारखाने में डंप है. पावरलूम पर पूरी तरह ताला लगा हुआ है. अपने कारखाने के मजूदरों को जैसे-तैसे दिहाड़ी दे रहा हूं.’
मगहर के रहने वाले 60 वर्षीय बिस्मिल्लाह 25 वर्ष पहले बुनकर थे. उनकी खुद की खड्डी यानि करघा था. कताई मिल व कॉरपोरेशन बंद हो जाने के बाद जब सूत महंगी हो गई तो उन्हे करघे पर काम बंद करना पड़ा.
इसके बाद वह मजदूरी करने लगे. करीब छह महीने हरियणा में रहे और वहां करघा चलाने का काम किया. वहां एक दिन की कमाई सिर्फ 100 रुपये होती थी. इसलिए वापस मगहर चले आए और यहां अपने घर पर तख्त लगाकर मूंगफली बेचने लगे.
उनकी इस दुकान का स्वरूप बदलता रहता है. लॉकडाउन के पहले तक वह अंडे बेचते थे. लॉकडाउन के कारण डेढ़ सप्ताह से उनकी दुकान बंद हैं.
उनके परिवार में कुल 10 लोग हैं जिसमें उनका एक बेटा दोनों आंख से देखने में असमर्थ है. एक बेटा पढ़ता है. सबसे बड़ा बेटा हैदराबाद में काम करता है. लॉकडाउन के कारण वह वहीं फंसा है.
अंडे की दुकान बंद होने से उनका परिवार मुश्किल में है. वह कहते हैं, ‘खड्डी चलती थी तो जिंदगी बेहतर थी. अपनी पूंजी अपना काम था. अब तो जिंदगी जिधर ले जा रही, उधर ही जा रहे हैं. आखिर हम क्या कर सकते हैं?’
बिस्मिल्लाह की व्यथा ही गोरखपुर और संतकबीरनगर के हजारों बुनकरों की आज की कथा है.
(लेखक गोरखपुर न्यूज़लाइन वेबसाइट के संपादक हैं.)