भारतीय मुसलमानों के लिए दोहरी मार बनकर आया है कोरोना वायरस

सब जानते हैं कि कोविड-19 एक घातक वायरस की वजह से फैला है, लेकिन भारत में इसे सांप्रदायिक जामा पहना दिया गया है. आने वाले समय में यह याद रखा जाएगा कि जब पूरे देश में लॉकडाउन हुआ था, तब भी मुसलमान सांप्रदायिक हिंसा का शिकार हो रहे थे.

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Prayagraj: Police personnel during a search operation for devotees who had recently attended the religious congregation at Tabligh-e-Jamaats Markaz in Delhis Nizamuddin area, in Prayagraj, Wednesday, April 1, 2020. 24 people who attended the Markaz were found positive for COVID-19 as Nizamuddin area became countrys hotspot for the disease. (PTI Photo)(PTI01-04-2020 000087B)

सब जानते हैं कि कोविड-19 एक घातक वायरस की वजह से फैला है, लेकिन भारत में इसे सांप्रदायिक जामा पहना दिया गया है. आने वाले समय में यह याद रखा जाएगा कि जब पूरे देश में लॉकडाउन हुआ था, तब भी मुसलमान सांप्रदायिक हिंसा का शिकार हो रहे थे.

Prayagraj: Police personnel during a search operation for devotees who had recently attended the religious congregation at Tabligh-e-Jamaats Markaz in Delhis Nizamuddin area, in Prayagraj, Wednesday, April 1, 2020. 24 people who attended the Markaz were found positive for COVID-19 as Nizamuddin area became countrys hotspot for the disease. (PTI Photo)(PTI01-04-2020 000087B)
(फोटो: पीटीआई)

कोरोना वायरस की महामारी और लॉकडाउन से पूरा देश अस्त-व्यस्त है, लेकिन भारत के मुसलमानों के लिए यह वायरस अतिरिक्त संकट बन कर आया है.

मुसलमानों को ख़लनायक की नज़र से देखा जाने लगा है. अपने रोजमर्रा के जीवन में अपमान और सामाजिक बहिष्कार झेल रहे मुसलमानों के लिए यह वायरस कैसी-कैसी समस्याएं खड़ी कर रहा है, हम और आप सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं.

आज़ाद भारत में मुसलमानों की तकलीफदेह यात्रा का एक लंबा-चौड़ा इतिहास रहा है. जब देश बंटा, तब हिंसा और नफ़रत की वजह से लाखों मुसलमानों को देश छोड़ना पड़ा.

इसके बाद राम मंदिर के नाम पर हुए कई दंगों ने मुसलमानों के जख़्मों को फिर से कुरेदा. फिर देश में हुए आतंकी हमलों ने मुसलमानों के ऊपर नया संकट पैदा किया.

आतंकी हमलों की आड़ में सरकारों ने मुसलमानों का उत्पीड़न करना शुरू कर दिया. मुस्लिम युवकों को दशकों तक क़ैद में रखकर यातनाएं दी गईं. बाद में ये लोग निर्दोष साबित हुए. इन सबका गुनहगार कौन है?

इधर पिछले कुछ सालों में गोरक्षा और लव जिहाद के नाम पर मुसलमानों की लिंचिंग और उन पर हुए हमले हमें याद दिलाते रहे कि भारत अब भी मुसलमानों के लिए उदार नहीं है.

2014 में जब पहली बार नरेंद्र मोदी की सरकार बनी, तब से मुसलमानों के ख़िलाफ़ माहौल और अधिक विषाक्त हो गया है. बड़े और संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों ने मुसलमानों के ख़िलाफ़ खुलेआम जहर उगला.

देश की मुख्यधारा के हिन्दी मीडिया और दूसरी भारतीय भाषाओं के टीवी चैनलों ने भी मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. मुसलमानों को राजनीतिक और सामाजिक तौर पर दरकिनार कर देने की एक पूरी प्रक्रिया सुनियोजित तरीके से चलाई गई.

2019 में सत्ता वापसी के बाद मोदी सरकार ने मुसलमानों के ऊपर कई संवैधानिक और क़ानूनी हमले किए.

कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाकर महीनों तक उसे क़ैद में रखना, तीन तलाक को आपराधिक घोषित करना और राम मंदिर निर्माण के फ़ैसले ने मुसलमानों को अलग-थलग महसूस कराया.

एनआरसी और नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ हुए प्रदर्शनों ने मुसलमानों को आपसी भाईचारे और उम्मीद की एक किरण दिखाई थी.

इन प्रदर्शनों में हर मजहब-पंथ के लोग कंधे से कंधा मिलाकर एकसुर में बोल रहे थे. छात्र हों या किसान, हर वर्ग ने इस क़ानून का मुखर होकर विरोध किया, लेकिन कोरोना की महामारी के कुछ दिन पहले ही दिल्ली में भड़की हिंसा ने मुसलमानों को फिर से आतंकित कर दिया.

देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की सरकार ने तो जैसे अपने ही मुस्लिम नागरिकों के ख़िलाफ़ जंग छेड़ दी.

21 दिनों के लॉकडाउन की घोषणा के बाद असंगठित क्षेत्र के करोड़ों कामगारों के ऊपर संकट आ गया है. काम ठप पड़ जाने के कारण इन्हें खाना और बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं भी नहीं मिल पा रही हैं.

इस मुश्किल दौर में हम सबको एक साथ मिलकर चलना चाहिए था, लेकिन हमारी सरकार को ऐसा मंजूर नहीं था. सरकार ने तो कुछ और ही सोच रखा था.

13 मार्च से 15 मार्च के बीच रूढ़िवादी मुसलमानों के तबलीग़ी जमात ने दिल्ली के निजामुद्दीन इलाके में मरकज का आयोजन किया. इसमें मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे कई देशों से लोग आए.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि यह आयोजन बहुत ही नुकसानदायक साबित हुआ. हालांकि हमें याद रखना चाहिए कि निजामुद्दीन में इस आयोजन से पहले तबलीग़ी जमात के लोगों ने दिल्ली और केंद्र सरकार से अनुमति ली थी.

देश के कई हिस्से में इसी तरह के आयोजन इस बीच किए गए, लेकिन किसी भी मीडिया या सरकार ने इसकी कोई खोज ख़बर नहीं ली.

गुजरात के मंदिरों और पंजाब में सिखों के जमावड़ों पर सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया और न ही इसके लिए कोई प्रेस विज्ञप्ति जारी हुई.

तबलीग़ी जमात के मामले में पूरी मीडिया और सरकार ने जैसे मोर्चा ही खोल लिया. प्रेस विज्ञप्ति में औपचारिक तौर पर तबलीग़ी जमात को कोरोना वायरस का मुख्य केंद्र बिंदु बताया जाने लगा.

दिल्ली सरकार अपनी विज्ञप्तियों में हर रोज ‘मरकज़ मस्जिद’ नाम से एक अलग आधिकारिक आंकड़ा जारी करने लगी.

स्क्रॉल डॉट इन में शोएब दानियाल की रिपोर्ट के मुताबिक तबलीग़ी जमात के मामले में सरकार ने भेदभावपूर्ण रवैया अपनाया. जहां तबलीग़ी जमात के 25,000 लोगों की स्क्रीनिंग की गई, वहीं दूसरे धार्मिक और राजनीतिक आयोजनों, जहां उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री समेत सत्ताधारी दल के बड़े नेता शामिल थे, की कोई जांच नहीं हुई.

आंकड़े बताते हैं कि चूंकि तबलीग़ी जमात के ज्यादा से ज्यादा लोगों की जांच हुई, इसी वजह से वहां कोरोना संक्रमितों की संख्या अधिक है.

तबलीग़ी जमात के सहारे निशाने पर आम मुसलमान

तबलीग़ी जमात का सहारा लेकर आम मुसलमानों के ख़िलाफ़ माहौल बनाया जाने लगा. सोशल मीडिया पर भाजपा के कुख्यात आईटी सेल ने फ़ेक वीडियोज़ डाल कर यह बताने की कोशिश की कि मुसलमान जान-बूझकर कोरोना वायरस फैला रहे हैं.

कई वायरल वीडियोज़ में बताया कि मुस्लिम दुकानदार फलों और सब्जियों में थूक रहे हैं और दूसरे धर्म के लोगों के सामने जाने पर जबर्दस्ती खांस रहे हैं ताकि कोरोना का संक्रमण फैले.

कई वीडियोज़ में यह बताया गया कि मुसलमान कोरोना की जांच नहीं करा रहे हैं और मस्जिद में सामूहिक नमाज पढ़कर लॉकडाउन की धज्जियां उड़ा रहे हैं. कोरोना जिहाद, बायो जिहाद और तबलीग़ी जमात वायरस जैसे कई शर्मनाक ट्रेंड सोशल मीडिया पर चलाए गए.

नई दिल्ली का निज़ामुद्दीन मरकज इलाका. (फोटो: पीटीआई)
(फोटो: पीटीआई)

नफ़रत की इस खेती का घातक परिणाम भी जल्दी ही दिखने लगा. तबलीग़ी जमात से जुड़े लोगों को आतंकवादियों के तौर पर देखा जाने लगा. जमात से जुड़े कम से कम दो लोगों ने इस वजह से खुदकुशी की.

ऊना जिले के रहने वाले 38 वर्षीय दिलशाद मोहम्मद तबलीग़ी जमात में शामिल होकर लौटे थे. जांच में उन्हें कोरोना निगेटिव पाया गया फिर भी पड़ोसियों के ताने और उत्पीड़न के कारण उन्होंने खुदकुशी कर ली.

इसके कुछ दिन बाद ही असम के 30 वर्षीय एक युवक ने महाराष्ट्र के एक अस्पताल में आत्महत्या कर ली. यह युवक तबलीग़ी जमात के आयोजन में शामिल हुआ था और यह कोरोना वायरस से संक्रमित पाया गया था.

मुसलमानों पर हमले

मेरे साथियों द्वारा लॉकडाउन से प्रभावितों के लिए चलाए जा रहे हेल्पलाइन पर मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा की कई घटनाओं की जानकारी मिली. तबलीग़ी जमात के साथ-साथ आम मुसलमानों पर भी हमले हुए, लेकिन शायद ही मुख्यधारा के किसी मीडिया चैनल से इसे कवर किया हो.

अरुणाचल प्रदेश में मुस्लिम ट्रक चालकों को मारा गया. हरियाणा के गुरुग्राम में धनकोट गांव में अज्ञात लोगों ने एक मस्जिद पर हमला कर दिया.

दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष जफरुल इस्लाम के मुताबिक उत्तर पश्चिमी दिल्ली के मुखमेलपुर में  200 लोगों की भीड़ ने एक मस्जिद पर हमला किया.

द क्विंट की रिपोर्ट के मुताबिक कर्नाटक के कई हिस्से में मुसलमानों के ऊपर हमले किए गए. बागलकोट जिले के बिदारी गांव में कृष्णा नदी के तट पर एक मुस्लिम मछुआरे पर हमला किया गया.

इस हमले के वीडियो में हमलावरों का कहना था, ‘तुम्हीं लोग (मुसलमान) ये बीमारी फैला रहे हो.’

इसी जिले के कदकोरप्पा गांव में मस्जिद में नमाज पढ़ रहे लोगों के ऊपर भीड़ ने हमला किया. 5 अप्रैल की रात प्रधानमंत्री की अपील पर बत्ती बंद न करने के कारण बेलागावी गांव में दो अन्य मस्जिदों पर भी हमला हुआ.

मुसलमानों पर हमले की फेहरिस्त काफी लंबी है और यह आज भी अनवरत जारी है. आने वाले समय में यह याद रखा जाएगा कि जब पूरा देश लॉकडाउन हुआ था, तब भी मुसलमान सांप्रदायिक हिंसा का शिकार हो रहे थे.

इसी बीच कर्नाटक में एक विचित्र वाकया हुआ. वहां के कई अख़बारों ने ख़बर चलाई कि कृष्णराजपेटे में 8 अप्रैल को तीन युवक एक ऑटो रिक्शा से यात्रा करके लॉकडाउन का उल्लंघन कर रहे थे और जब पुलिस ने इन्हें पकड़ा तो कहने लगे, ‘हम मुसलमान हैं और हमें कोरोना हुआ है. अगर तुम हमें पकड़ोगे तो हम छींक देंगे और तुम्हें भी कोरोना हो जाएगा.’

बाद में खुलासा हुआ कि इन तीनों का नाम महेश, अभिषेक और श्रीनिवास था!

मुस्लिमों के बहिष्कार के आह्वान

लॉकडाउन से प्रभावित लोगों के बीच राशन बांट रहे हमारी संस्था कारवां ए मोहब्बत के कुछ मुस्लिम साथियों ने बताया कि जब वे किसी हिंदू बहुल मुहल्ले में जाते हैं तो उनके साथ बदसलूकी होती है और बाहर कर दिया जाता है.

स्वराज अभियान के वॉलिंटियर्स को भी इसी तरह की ज्यादती का सामना करना पड़ा. उनका कहना है कि जब वे प्रवासी मजदूरों के बीच राशन बांट रहे थे तभी कुछ लोगों ने क्रिकेट बैट से उनकी पिटाई की.

सैय्यद तबरेज नाम के एक वॉलिंटियर ने द क्विंट को बताया, ‘उन्होंने कहा कि तुम्हें खाना नहीं बांटने देंगे क्योंकि तुम सभी लोग निजामुद्दीन इलाके से हो. तुम लोग ही वायरस को देशभर में फैला रहे हो.’

इसके साथ-साथ कई जगहों से मुसलमानों के सामाजिक-आर्थिक बहिष्कार की बातें भी सामने आईं. मध्यम और उच्च वर्ग के लोगों ने मुसलमानों का बहिष्कार करने का झंडा उठाया.

दिल्ली, उत्तराखंड और कई राज्यों से इस तरह की ख़बरें सामने आईं. द वायर  की ही रिपोर्ट के मुताबिक पंजाब के होशियारपुर में दूध बेचने वाले गुर्जर मुसलमानों पर हमले हुए. इन्हें अपना दूध नदी में बहाना पड़ा.

असम और कर्नाटक जैसे राज्यों के गांवों में मुसलमानों का प्रवेश रोकने वाला पोस्टर भी लगाया गया.

हम सब जानते हैं कि कोविड-19 एक घातक वायरस की वजह से फैला है. लेकिन, भारत में इस वायरस को सांप्रदायिक जामा पहना दिया गया है.

यह अफवाह बहुत गहरे में बिठा दिया गया है कि कोरोना वायरस मुसलमानों द्वारा एक साजिश के तहत हिंदुओं को मारने के लिए फैलाया जा रहा है.

दक्षिणपंथियों और सोशल मीडिया पर मौजूद ट्रोल्स ने इसके लिए झूठे फोटो और वीडियो वायरल किए.

मैंने कुछ ऐसे हिंदुओं से भी बात की, जो आम तौर पर इस्लाम से नफ़रत नहीं करते हैं. इन सबका भी यही मानना था कि कोरोना फैलने का मुख्य कारण मुसलमान ही हैं.

तबलीग़ी जमात और पूरे मुस्लिम समाज को कोरोना वायरस के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना महज एक संयोग नहीं है. केंद्र सरकार के एक मंत्री (जिनके ऊपर अल्पसंख्यक कल्याण की जिम्मेदारी है) ने तो तबलीग़ी जमात को तालिबानी अपराध करार दिया.

तबलीग़ी जमात के प्रकाश में आने से पहले देश के सभी लोगों का ध्यान लॉकडाउन की वजह से विस्थापन को मजबूर हुए ग़रीब-मजदूरों पर था.

लोग सरकार की नाकामियों पर सख्त सवाल पूछ रहे थे, लेकिन तबलीग़ी जमात के सामने आते ही मुद्दे को भटकाने का एक मौका मिल गया.

सरकार पोषित सांप्रदायिक मीडिया ने मुसलमानों को घेरना शुरू कर दिया. तमाम जरूरी सवालों को परे करके मुसलमानों पर निशाना साधा जाने लगा.

आम हिंदू भले ही सांप्रदायिक ना हों, लेकिन वे भी मीडिया के इस प्रोपेगैंडा के शिकार आसानी से हो गए. वे भी मानने लगे कि मुसलमान ही बाकी कौम के लोगों के बीच कोरोना फैला रहे हैं.

कोरोना महामारी की जितनी क़ीमत दूसरे क़ौम के लोग चुका रहे हैं, उतनी ही क़ीमत मुसलमान भी चुका रहा है.

सच तो यह है कि बाकी किसी भी समुदाय से ज्यादा तकलीफ़ में शहरी क्षेत्रों के छोटे मुस्लिम व्यापारी हैं. उन्हें कोई सरकारी राहत भी नहीं मिल सकती, क्योंकि वे पंजीकृत कामग़ार नहीं हैं.

आज इस महामारी में जब पूरा भारत विस्थापन, बेरोज़गारी और भूख जैसी समस्याओं से जूझ रहा है, भारत के मुसलमान इन सबके साथ-साथ अपने पड़ोसियों के नफ़रत और हिंसा को भी झेलने पर मजबूर हो रहे हैं.

कोरोना वायरस मुस्लिम भाई-बहनों के लिए दोहरी मार बनकर आया है. अपने ही लोगों के बीच नफ़रत और हिंसा का सामने कर रहे मुसलमानों के लिए यह सबसे भयावह और कठिन वक्त है.

लेखक पूर्व आईएएस अधिकारी और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं.

(मूल अंग्रेजी लेख से अभिनव प्रकाश द्वारा अनूदित.)