बीते दस दिनों में पूर्वी उत्तर प्रदेश के रहने वाले दो मज़दूरों ने बीमारी के चलते मुंबई और दिल्ली में दम तोड़ दिया, पर लॉकडाउन और ख़राब आर्थिक स्थिति के चलते परिजन उनका शव लाने नहीं जा सके. आजीविका के लिए परिवार से हज़ारों मील दूर रह रहे इन लोगों को अंतिम समय में भी अपनों का साथ नसीब नहीं हुआ.
‘मरले के एक दिन पहिले फोन पर बात भइल रहे. कहलन कि तबियत खराब बा. हम कहनी कि दवाई ले लीं. बोलनन कि दवाई कराके सूतल बांटी. हम का जानि कि हमेशा के लिए सूत जइहें. अगले दिन दोपहर में खबर आइल कि नाहीं रहलन. हम यहां से का जानि कि उनके उ बीमारी भइल रहे कि इ बीमारी भइल रहै. वहां से इहे कहत रहनन कि जब ट्रेन चली तब हम घरे आ जाइब. हम छटपटात रहनी कि कइसवों उ आ जइतं या हमहीं वहां चल जइतीं. ए भगवान काहें हमरे साथ अइसन कइल.’
यह बोलते हुए राजेंद्र कुशवाहा की पत्नी फूलपति रोने लगती हैं. रोते-रोते कहती हैं कि हमसे उन्होंने (राजेंद्र) अपनी परेशानी के बारे में ज्यादा कुछ नहीं बताया था. बेटी ललिता से बोले थे कि ‘ अब देहिया में हिम्मत नइखे, ताकत नइखे. ’
कुशीनगर जिले खड्डा क्षेत्र के छितौनी बुलहवा जोकहिया निवासी 53 वर्षीय राजेंद्र कुशवाहा की 16 अप्रैल को मुंबई के कमाठीपुरा में मौत हो गई थी. वे यहां पर 16-17 वर्ष से सब्जी बेचते थे.
लॉकडाउन में राजेंद्र मुंबई में फंस गए. तमाम प्रयास के बाद भी घर नहीं लौट सके. उन्हें 15 अप्रैल की सुबह बुखार के साथ-साथ खांसी, सांस में दिक्कत व पेट में दर्द की समस्या हुई.
उनके गांव के छोटेलाल जायसवाल और बलराम वहीं रहते हैं. दोनों एम्बुलेंस से उन्हें कस्तूरबा हॉस्पिटल ले गये जहां चिकित्सक ने इलाज के लिए मना कर दिया.
इसके बाद उन्हें नायर हॉस्पिटल ले जाया गया, जहां उन्हें देखकर कोरोना के लक्षण बताते हुए सर जेजे ग्रुप ऑफ हॉस्पिटल को रेफर कर दिया गया.
बलराम और छोटेलाल उन्हें कई अस्पतालों में लेकर गए लेकिन कोई अस्पताल उन्हें भर्ती करने को राजी नहीं हुआ. किसी भी अस्पताल में जगह नहीं मिली तो वह अपनी सब्जी के खटाल में वापस आ गए.
यहीं से उनकी आखिरी बार 15 अप्रैल को पत्नी व बेटी से बात हुई, अगले दिन दोपहर में उनकी मौत हो गई.
राजेंद्र की मौत के बाद म्युनिसिपल कार्पोरेशन द्वारा जारी डेथ सर्टिफिकेट में उन्हें संदिग्ध कोविड-19 रोगी बताया है, हालांकि जीवित रहते या मृत्यु के बाद उनकी कोई जांच नहीं हुई.
राजेंद्र कुशवाहा के घर से कुछ दूर रहने वाले स्टेशनरी विक्रेता सुभाष जायसवाल बताते हैं कि राजेंद्र को बुखार के साथ-साथ ब्लड प्रेशर लो था. कोरोना के डर से उनको अस्पताल में भर्ती नहीं किया गया नहीं तो उनकी जान बच सकती थी.
राजेंद्र कुशवाहा की तरह गोरखपुर जिले के चौरीचौरा क्षेत्र के डुमरी खुर्द गांव निवासी सुनील की दिल्ली में मौत हो गई. वह भी लॉकडाउन में फंस गए थे और लाख कोशिशों के बावजूद अपने गांव लौट नहीं सके.
राजेंद्र कुशवाहा की तरह सुनील का शव भी गांव नहीं आ सका. राजेंद्र का पुतला बनाकर गांव में अंत्येष्टि की गई थी. सुनील के यहां भी गांव में पुतला बनाकर उनके एक वर्ष के बेटे से अंत्येष्टि कराई गई.
दोनों की ही पत्नियों की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि वे अपने पति का शव मंगवा सके और अंतिम दर्शन कर सकें.
राजेंद्र के घर वालों ने शव मंगवाने के लिए बातचीत की थी, लेकिन पता चला कि इसमें 70-80 हजार रुपये खर्च हो जाएंगे. इतने खर्च की बात जानकर वे हिम्मत हार गए.
गांव के ही लड़के बलराम से कहा गया कि वह उनका वहीं अंतिम संस्कार कर दे. बलराम ने राजेंद्र की मुंबई में अंत्येष्टि की.
गोरखपुर के डीएम के विजयेंद्र पंडियन 22 अप्रैल को सुनील की पत्नी पूनम से मिले और उसको आर्थिक सहायतास्वरूप दो लाख रुपये का चेक दिया था.
उन्हें राष्ट्रीय पारिवारिक लाभ योजना के तहत 30 हजार रुपये दिए गए हैं. इसके पहले एसडीएम ने अपनी तरफ से 74 हजार रुपये का सहयोग भी दिया था.
सरकार की ओर से आवास, जमीन का पट्टा और पूनम को प्राथमिक विद्यालय में रसोइए की नौकरी देने का आश्वासन दिया गया है.
एख टूटी-फूटी झोपड़ी में रहने वाली पूनम को किसी भी कल्याणकारी योजना का लाभ नहीं मिला था. हालांकि उनकी सास कमली देवी के नाम अंत्योदय का कार्ड है पर एक अदद शौचालय के अलावा आवास, पेंशन, रसोई गैस आदि की सुविधाएं नहीं मिली हैं.
कमली देवी ने आवास व पेंशन के लिए प्रधान व संबंधित अधिकारियों से कई बार गुहार लगाई थी लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई.
सुनील की मौत के बाद उसे इन योजनाओं का लाभ दिया जा रहा है. लॉकडाउन के इस दौर में सुनील की दिल्ली में मौत नहीं होती तो शायद उसके परिवार की गरीबी और बेबसी की खबर सरकार-प्रशासन तक नहीं पहुंचती!
उधर, कुशीनगर में राजेंद्र कुशवाहा के परिवार से अब तक कोई भी अफसर या जन प्रतिनिधि मिलने नहीं गया है और न उन्हें किसी तरह की सहायता दी गई है.
गांव के ही एक व्यक्ति उनसे मिले और राशन के अलावा पांच हजार रुपये का सहयोग दिया. राजेंद्र की चार बेटियां और एक बेटा है.
तीन बेटियों की शादी हो चुकी है. सबसे छोटी ललिता टाइफाइड से पीड़ित है और बीए द्वितीय वर्ष में पढ़ती है. बेटा भी बीए फाइनल इयर में है और उसकी भी तबियत अक्सर खराब रहती है.
उसका स्थानीय चिकित्सकों के यहां कई बार इलाज हुआ, राजेंद्र इलाज के लिए एक बार उसे मुंबई भी ले गए थे लेकिन अभी वह पूरी तरह ठीक नहीं हो सका है. पिता की मौत के बाद फिर उसकी तबियत खराब हो गई है.
फूलपति ने बताया कि जब उनकी बड़ी बेटी गोदी में थी, तभी से राजेंद्र कमाने के लिए बाहर निकल गए. गांव पर आजीविका का कोई साधन नहीं था. उनके पास खेती की जमीन नहीं है.
दस वर्ष तक मुंबई में इधर-उधर काम करते रहे. साल में एक से दो बार घर आते. कुछ समय तक वह मुंबई में खिलौने भी बेचे लेकिन अतिक्रमण हटाने के नाम पर अक्सर उनके खिलौने जब्त कर लिए जाते, कभी ठेला उलट दिया जाता.
करीब डेढ़ दशक पहले मुंबई में रहने वाले इसी गांव के ईश्वर की मदद से उन्हें सब्जी बेचने की एक खटाल मिल गई जिसका पांच हजार रुपये महीना किराया देना पड़ता था. इसी खटाल में वह रहते थी थे. किराए के अलावा 1500 रुपये बिजली का बिल भी देना पड़ता था.
सब्जी के इस खटाल से राजेंद्र को स्थायित्व तो मिला लेकिन उनकी दुश्वारियां कम नहीं हुई. आर्थिक तंगी बराबर बनी रहती थी. इस दौरान उन्होंने किसी तरह तीन बेटियों की शादी की और परिवार के रहने के लिए एक कोठरी बनवाई.
घर का खर्च चलाने के लिए पत्नी ने गांव पर गाय खरीदी और उसका दूध बेचने लगीं. लेकिन चार वर्ष पहले उनकी तबियत खराब होने से गाय की देखरेख न हो पाने के चलते इसे बेचना पड़ा.
फूलपति कहती हैं, ‘सब्जी के दुकान से खइले-पियले क परेशानी नाहीं रहे, पर कभी इतनो भी नाहीं भइल की कुछ धरा जाए.’ इस परिवार को सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिला है. तीन महीने से उन्हें राशन नहीं मिल रहा है.
बताया गया कि उनका राशन कार्ड कट गया है. इस महीने कोटेदार ने चावल दिया है. राजेंद्र आखिरी बार अपने घर पिछले वर्ष दीपावली पर आए थे और करीब महीने भर रहकर चले गए थे.
पत्नी बताती हैं कि कुछ दिन और रुकने को कहा तो बोले रुक गए तो तुम लोग खाओगे क्या! कहकर गए थे कि दो-तीन साल में बेटे-बेटी की शादी कर देंगे तब घर आकर रहेंगे, लेकिन होनी को कुछ और मंजूर था.
चौरी चौरा के डुमरी खुर्द की पूनम की कहानी भी इसी तरह की है. उनके 33 वर्षीय पति सुनील 10 वर्ष से अधिक समय से दिल्ली में मजदूरी कर रहे थे.
पूनम की चार बेटियां और एक बेटा है. सबसे बड़ी बेटी 10 वर्ष की है. सुनील आखिरी बार बीते जनवरी में खिचड़ी के त्योहार पर घर आए थे.
वह दिल्ली के भारत नगर क्षेत्र में रहते थे. वे वहां टाइल्स लगाने का काम करते थे. जिस साइट पर काम करते था, वहीं रहते भी थे. वे 11 अप्रैल को बीमार पड़े थे.
पूनम बताती है कि मौत के दो दिन पहले उनकी बातचीत हुई थी. उन्होंने बताया था कि उनके शरीर में दाने निकल आए हैं. बोला नहीं जा रहा है, न खाया जा रहा है.
सुनील ने यह भी बताया था जिस साइट पर काम कर रहे थे उसके मुंशी और चौकीदार उन्हें अस्पताल में भर्ती कराकर चले गए हैं, देखरेख करने वाला कोई नहीं है.
सुनील की 14 अप्रैल को मौत हो गई. मौत का कारण चिकन पॉक्स बताया गया. पूनम को यह नहीं पता कि सुनील को किस अस्पताल में भर्ती कराया गया था और कहां इलाज हुआ.
सुनील की मौत की खबर पूनम को मुंशी ने फोन कर दी और बोला कि आकर शव ले जाएं. पूनम ने उनसे कहा कि लॉकडाउन में वह छोटे-छोटे बच्चों को लेकर या छोड़कर वहां कैसे आ पाएंगी. उसके पास इतने पैसे भी नहीं है.
सुनील के बड़े भाई अनिल गांव अपने परिवार के साथ अलग रहते हैं और पल्लेदारी करके जीवन यापन करते हैं. उनकी भी ऐसी स्थिति नहीं थी कि वह दिल्ली जा सकें.
उधर जब परिवार के लोग दिल्ली नहीं पहुंचे तो भारत नगर थाने के पुलिसकर्मियों ने सुनील के शव को मोर्चरी में रखवा दिया.
यहां पूनम ने 17 अप्रैल को सुनील का पुतला बनवाकर अपने एक वर्ष के बेटे से अंत्येष्टि करवा दी और मृत्यु संबंधी सभी संस्कार कर दिए.
इसके पहले उन्होंने तहसीलदार के माध्यम से नॉर्थ वेस्ट दिल्ली के एडीशनल डीसीपी को पत्र लिखकर पैसे की कमी के चलते दिल्ली आने-जाने व शव लाने की व्यवस्था करवाने में असमर्थता जताते हुए सरकारी व्यवस्था से पति का पोस्टमार्टम करा अंतिम संस्कार करवाने गुजारिश की.
पूनम की बेबसी की खबर स्थानीय अखबारों में आई तो प्रशासन हरकत में आया. चौरीचौरा के एसडीएम ने पूनम से संपर्क किया और कहा कि वह यदि दिल्ली जाना चाहेगी तो उसकी व्यवस्था की जाएगी.
लेकिन पूनम छोटे बच्चों और बीमार ससुर बीमार की जिम्मेदारी के बारे में बताते हुए इससे इनकार कर दिया. गोरखपुर के अफसरों ने बताया कि पूनम की इच्छा से दिल्ली के अफसरों को अवगत करा दिया गया और दिल्ली प्रशासन के अधिकारियों ने 22 अप्रैल को अपनी देखरेख में सुनील का अंतिम संस्कार करा दिया.
देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा के बाद लाखों प्रवासी मजदूर अपने घर-गांव के लिए निकल पड़े. सरकारें जब उन्हें आने-जाने का साधन मुहैया नहीं करा सकीं तो वे पैदल, ठेले, साइकिल या रिक्शे से ही चल पड़े.
उनका यही कहना था कि यदि वे गांव नहीं पहुंचे तो कोरोना से पहले भूख से मर जाएंगें, यहां मरने से अच्छा है कि गांव जाकर मरें.
इस समय भी लाखों प्रवासी मजदूर मुंबई, दिल्ली, सूरत जैसे शहरों में फंसे हुए हैं और उनकी सुनने वाला, मदद करने वाला कोई नहीं है.
सुनील और राजेंद्र उन्हीं लाखों प्रवासी मजदूरों में से थे जो घर पहुंचने की आस लिए इस दुनिया से चले गए. उनकी बेबसी का बयान तो दुनिया के सामने आ गया है लेकिन तमाम ऐसे भी होंगे जिनकी बेबसी का पता शायद अभी न चल पाए.
(मनोज सिंह गोरखपुर न्यूज़लाइन वेबसाइट के संपादक हैं.)