कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव के टेलिफोनिक सर्वे में ये जानकारी सामने आई है कि देश के अधिकतर सूचना आयोग एकाध स्टाफ के सहारे काम कर रहे हैं. अधिकतर आयोगों के ऑफिस नंबर या हेल्पलाइन नंबर पर कॉल करने पर किसी ने जवाब नहीं दिया.
नई दिल्ली: कोरोना महामारी के दौरान जहां एक तरफ केंद्र एवं राज्य सरकारें जनता को ‘सूचना का अधिकार’ के बजाय पहले के दौर वाली ‘जानने की जरूरत’ की आधार पर सूचनाएं दे रही हैं, वहीं दूसरी तरफ आरटीआई एक्ट को उचित तरीके से लागू करने के लिए बनाए गए देश भर के सूचना आयोग लगभग बंद पड़े हुए हैं.
केंद्रीय सूचना आयोग ने बीते 20 अप्रैल से वीडियो कॉन्फरेंसिंग के जरिए अपीलों एवं शिकायतों पर सुनवाई शुरू कर दी है. लेकिन राज्यों के सूचना आयोगों की हालात काफी खराब है. आलम ये है कि लॉकडाउन के पहले चरण में सिर्फ हरियाणा, राजस्थान और उत्तराखंड के राज्य सूचना आयोग खुले हुए थे.
वहीं लॉकडाउन के दूसरे चरण में आंध्र प्रदेश, गोवा, तेलंगाना और तमिलनाडु के भी सूचना आयोग खुले हुए थे. ये आयोग एकाध स्टाफ के सहारे ‘सिर्फ खुले’ हुए थे और अभी भी ये स्पष्ट नहीं है कि यहां पर कब से मामलों की सुनवाई शुरू हो पाएगी. पारदर्शिता के मुद्दे पर काम करने वाली गैर सरकारी संस्था कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव (सीएचआरआई) के टेलिफोनिक सर्वे में ये जानकारी सामने आई है.
रिपोर्ट के मुताबिक लॉकडाउन के पहले चरण में हरियाणा, राजस्थान और उत्तराखंड के सूचना आयोग खुले जरूर थे लेकिन एक या दो स्टाफ के सहारे यहां काम चल रहा था. सर्वे के दौरान हरियाणा के आयोग में एक गार्ड ने फोन उठाया और बताया कि यहां पर लॉकडाउन के दौरान कोई स्टाफ नहीं था.
इसी तरह उत्तराखंड सूचना आयोग कुछ जूनियर स्टाफ के सहारे चल रहा था लेकिन ये स्पष्ट नहीं कि यहां कब से सुनवाई शुरू होगी. लॉकडाउन के दूसरे चरण में उत्तराखंड आयोग में किसी ने भी फोन नहीं उठाया. वहीं हरियाणा सूचना आयोग में एक कर्मचारी ने बताया कि लॉकडाउन खत्म होने के बाद यहां काम शुरू हो सकता है.
लॉकडाउन के दूसरे चरण में गोवा राज्य सूचना आयोग कुछ जूनियर कर्मचारियों के साथ खुलने लगा था लेकिन यहां भी स्पष्ट नहीं है कि सुनवाई कब से शुरू होगी.
आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और तमिलनाडु के सूचना आयोग सिर्फ एक स्टाफ के सहारे चल रहे थे. इसमें से सभी स्टाफ ने बताया कि उन्हें जानकारी नहीं है कि उनके संबंधित आयोग में कब से सुनवाई शुरू हो पाएगी. गोवा और तेलंगाना का सूचना आयोग सिर्फ एक महिला स्टाफ के सहारे चल रहा है.
सर्वे के मुताबिक असम सूचना आयोग से एक ऐसा मामला सामने आया है जहां एक महिला पत्रकार के द्वितीय अपील आवेदन को लेने से मना कर दिया गया. वहां पर मौजूद एकमात्र स्टाफ ने कहा कि अभी कुछ पता नहीं है कि कब से आयोग का काम फिर से शुरू हो पाएगा. हालांकि जब यहां के नंबर पर कॉल किया गया तो किसी ने भी फोन नहीं उठाया.
इसी तरह ओडिशा राज्य सूचना आयोग भी बंद पड़ा हुआ था और यहां का एक भी लैंडलाइन नंबर काम नहीं कर रहा था. यहां पर कई बार कॉल किया गया लेकिन किसी ने भी जवाब नहीं दिया.
इसके अलावा अन्य बाकी सूचना आयोगों के भी उनकी वेबसाइट पर दिए गए नंबर या हेल्पलाइन नंबर पर कॉल करने पर कोई जवाब नहीं मिला.
बता दें कि असम, बिहार, गोवा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के सूचना आयोग बिना मुख्य सूचना आयुक्त के काम कर रहे हैं. यहां पर पिछले कई महीनों से ये पद खाली पड़ा है.
बिहार और मध्य प्रदेश के सूचना आयोग की एक बेवसाइट भी ऐसी नहीं है जो निरंतर काम कर रही हो. नागालैंड की वेबसाइट काम कर रही थी लेकिन लॉकडाउन के बाद इसने काम करना बंद कर दिया है.
‘जानने का अधिकार, जीवन के अधिकार का हिस्सा’
देश के सूचना आयोगों की इस बदहाल स्थिति को लेकर आरटीआई कार्यकर्ताओं ने चिंता जाहिर की है और कहा है कि लोगों के जानने का अधिकार न सिर्फ संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत बोलने एवं अभिव्यक्ति के अधिकार का हिस्सा है बल्कि ये संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीने एवं स्वतंत्रता के अधिकार का भी भाग है.
सीएचआरआई के एक्सेस टू इन्फॉर्मेशन प्रोग्राम के प्रोग्राम हेड वेंकटेश नायक ने कहा कि हाल फिलहाल में कुछ लोगों ने कहा कि इस समय लोगों को सूचना का अधिकार से ज्यादा जरूरी स्वास्थ्य सुविधाओं और सरकार द्वारा घोषित राहत एवं पुनर्वास पैकेज को लागू करना है.
नायक ने कहा, ‘इस तरह के विचार वाले लोगों ने ये बात नजरअंदाज कर दी कि सूचना प्राप्त करने का मौलिक अधिकार केवल संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत गारंटीकृत बोलने एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का हिस्सा नहीं है. बल्कि जानने का अधिकार, जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का भी एक हिस्सा माना जाता है.’
करीब तीन दशक पहले भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि लोगों के जानने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत जीवन के अधिकार का हिस्सा है. रिलायंस पेट्रोकेमिकल्स लिमिटेड बनाम इंडियन एक्सप्रेस न्यूजपेपर्स लिमिटेड के प्रोपराइटर्स मामले में दो जजों वाली बेंच, जिसमें जस्टिस एस. रंगनाथन और जस्टिस सब्यसाची मुखर्जी शामिल थे, ने कहा था:
’34..हमें याद रखना चाहिए कि औद्योगिक जीवन और लोकतंत्र में भागीदारी विकास में हिस्सा लेने में सक्षम होने के लिए जनता को जानने का अधिकार है. जानने का अधिकार एक बुनियादी अधिकार है जो एक स्वतंत्र देश के नागरिकों के लिए है, जो कि हमारे संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीने के अधिकार के व्यापक विचार में शामिल है. यह अधिकार नए आयामों और अति-आवश्यकता तक पहुंच गया है. यह अधिकार उन लोगों पर अधिक जिम्मेदारी डालता है जो सूचित करने की जिम्मेदारी लेते हैं.’
इस फैसले के 16 साल बाद 2004 में जस्टिस रूमा पाल और जस्टिस बीएन श्रीकृष्णा की एक अन्य खंडपीठ ने इसी विचार को दोहराया. एस्सार ऑयल लिमिटेड बनाम हलार उत्कर्ष समिति एवं अन्य मामले में न्यायालय ने कहा:
‘अनुच्छेद 21 और विशेष रूप से जानने के अधिकार के बीच एक मजबूत संबंध भी है क्योंकि गोपनीय सरकार के फैसले स्वास्थ्य, जीवन और आजीविका को प्रभावित कर सकते हैं.’
ध्यान देने वाली बात ये है कि अनुच्छेद 19(1) का हिस्सा होते हुए सूचना का अधिकार सिर्फ देश के नागरिकरों तक सीमित है और यह संविधान के अनुच्छेद 19(2) के तहत तय की गईं प्रतिबंधों की सीमाओं में बंधा हुआ है. वहीं अनुच्छेद 21 का हिस्सा होते हुए जानने का अधिकार हर किसी के लिए है, चाहे वो किसी भी देश का हो.
संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत सूचना के अधिकार को मान्यता देने के लिए आरटीआई एक्ट, 2005 को संसद से पारित किया गया था. हालांकि अनुच्छेद 21 के तहत जानने के अधिकार को मान्यता देने के लिए अभी तक कोई कानून नहीं लाया गया. लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि कानून न होने की वजह से मौलिक अधिकार खत्म नहीं हो जाता या इसका प्रभाव कम नहीं होता है.