न्यायिक और प्रशासनिक मामलों में किसी की जाति का उल्लेख संविधान के ख़िलाफ़: राजस्थान हाईकोर्ट

साल 2018 के एक मामले का जिक्र करते हुए राजस्थान हाईकोर्ट ने एक स्थायी आदेश जारी करते हुए कहा है कि किसी व्यक्ति की जाति का उल्लेख किसी भी न्यायिक और प्रशासनिक मामले में नहीं किया जाना चाहिए.

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साल 2018 के एक मामले का जिक्र करते हुए राजस्थान हाईकोर्ट ने एक स्थायी आदेश जारी करते हुए कहा है कि किसी व्यक्ति की जाति का उल्लेख किसी भी न्यायिक और प्रशासनिक मामले में नहीं किया जाना चाहिए.

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जयपुर: राजस्थान हाईकोर्ट ने आदेश दिया है कि किसी व्यक्ति की जाति का उल्लेख किसी भी न्यायिक और प्रशासनिक मामले में नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि यह ‘संविधान के खिलाफ’ था.

अदालत ने 2018 के एक मामले का जिक्र करते हुए यह निर्देश दिया, जिसे जयपुर पीठ ने सुना था.

इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, अदालत के रजिस्ट्रार जनरल द्वारा जारी स्थायी आदेश में कहा गया, ‘यह देखा गया है कि अभियुक्त और अन्य व्यक्तियों की जाति को इस न्यायालय की रजिस्ट्री के अधिकारियों/अधीनस्थ न्यायालयों के अधिकारियों/ विशेष न्यायालयों/ विशेष न्यायालयों के अधिकारियों द्वारा न्यायिक और प्रशासनिक मामलों में शामिल किया जा रहा है, जो भारत के संविधान की भावना के विरुद्ध है.’

आदेश में कहा गया कि यह ‘राजस्थान हाईकोर्ट के निर्देशों के अनुरूप नहीं था.’

साल 2018 में एक आपराधिक मामले में एक आवेदन सुनवाई करते हुए जस्टिस संजीव प्रकाश शर्मा की एक पीठ को यह जानकर अजीब लगा कि वकील गिर्राज पी. शर्मा के मुवक्किल 24 वर्षीय बिशन को हाईकोर्ट के आदेश के बावजूद पांच दिन बाद भी जेल अधिकारियों द्वारा जमानत पर रिहा नहीं किया गया. इसका कारण यह था कि आदेश पर उनकी जिस जाति का उल्लेख था वह पुलिस गिरफ्तारी ज्ञापन में दर्ज जाति के समान नहीं था.

शर्मा ने कहा था, ‘याचिकाकर्ता को 29 जून, 2018 को जमानत दी गई थी, लेकिन टाइपोग्राफिक गलती के कारण जाति के स्थान पर मेव लिखा गया था जबकि उसकी जाति जाटव थी. केवल इसी कारण से जमानत बॉन्ड को स्वीकार नहीं किया गया और याचिकाकर्ता पिछले पांच दिनों से जेल में बंद है.’

उस समय जस्टिस शर्मा की अदालत ने कहा था कि किसी व्यक्ति की पहचान उसकी जाति से नहीं बल्कि उसके माता-पिता से होनी चाहिए.

अदालत ने कहा था, ‘एक आरोपी को गिरफ्तार करने के दौरान गिरफ्तारी ज्ञापन में जाति का उल्लेख किया जाता है और व्यक्ति की पहचान करने में भी जाति का उल्लेख किया जाता है, जो संविधान में निर्धारित सिद्धांतों के विपरीत बेहद घृणित और विपरीत है. किसी व्यक्ति की पहचान उसकी जाति से नहीं बल्कि उसके माता-पिता से होती है.’

जस्टिस शर्मा ने कहा था, ‘समय आ गया है कि राज्य एक जाति विहिन समाज की ओर आगे बढ़े. हालांकि, राज्य के पदाधिकारी इसके बजाय जाति का उल्लेख करने पर जोर देते हैं.’

उन्होंने निर्देश दिया था कि निकट भविष्य में जमानत के आवेदनों पर आरोपी की जाति का उल्लेख नहीं होना चाहिए.

जस्टिस शर्मा ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारक) अधिनियम, 1989 के मामलों को अलग रखते हुए कहा, ‘यह भी निर्देश दिया जाता है कि पुलिस गिरफ्तारी ज्ञापन में किसी व्यक्ति की जाति का उल्लेख नहीं करेगी क्योंकि जाति द्वारा किसी व्यक्ति की पहचान न तो सीआरपीसी के तहत की जाती है और न ही संविधान में किसी कानून के तहत इसकी व्यवस्था की गई है.’

अनुपालन के लिए आदेश की एक प्रति राज्य सरकार और पुलिस महानिदेशक कार्यालय को भेजी गई थी.

सोमवार को जारी किए गए आदेश में कहा गया कि यह सुनिश्चित करना सभी संबंधित लोगों की जिम्मेदारी है कि अभियुक्त सहित किसी भी व्यक्ति की जाति को किसी भी न्यायिक या प्रशासनिक मामले में शामिल नहीं किया जाए.