विचारधारा की जकड़न से विचारों की स्वतंत्रता की नवल जी की यात्रा कष्टसाध्य रही. उन्हें ख़ुद को ही कई जगह अस्वीकार करना पड़ा. लेकिन चूंकि उनकी प्रतिबद्धता रचनाकार से भी आगे बढ़कर रचना से थी, और विचारधारा से तो कतई नहीं, सो उन्हें ख़ुद को बदलने में संकोच नहीं हुआ.
आलोचक नंदकिशोर नवल ने 83 साल की उम्र में 12 मई को इस दुनिया से विदा ली. एक जमाना जैसे गुजर गया. हमारा 40 साल का साथ था और उसके कई पड़ाव थे, लेकिन उसके बारे में आज नहीं.
अभी जब मैं लिख रहा हूं, उनके स्वजन, परिजन उनके शरीर को अग्नि को सौंपने निकले हैं. रास्ते में वे पटना विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में कुछ विराम लेंगे. यही नवल जी की इच्छा थी.
संयोग है कि उनके प्रिय छात्र तरुण कुमार अभी विभागाध्यक्ष हैं और उन्हें अपने अध्यापक की यह बात याद है. मेरे सहकर्मी मित्र गोपेश्वर सिंह ने मुझे बताया कि 1998 में विभाग की सेवा से मुक्ति के समय की उनकी कामना थी उनका शव विभाग से जरूर गुजरे, उससे उन्हें इतनी मोहब्बत थी.
वे उन चंद लेखकों में थे जो सच्चे अर्थ में साहित्यव्यसनी अध्यापक कहे जा सकते थे. वे आलोचक, संपादक के तौर पर जाने जाते हैं लेकिन अपने छात्रों के लिए वे एक समर्पित अध्यापक ही रहे. बल्कि वे हमेशा कहा करते थे कि उन्होंने अध्यापन से ही लिखना सीखा, वही उनके लेखन का स्रोत था.
अगर किसी रचना को ठीक से समझना हो उसे पढ़ाना चाहिए. पढ़ाने के दौरान वह धीरे-धीरे उभरती है और पीढ़ियों तक उसे पढ़ाते हुए उसकी परतें खुलती जाती हैं , आप उससे नित नया साक्षात्कार करते हैं.
बातचीत में अपने छात्रों को उन्होंने हमेशा कहा कि उन्हें नहीं पता कि उनसे छात्रों को कुछ मिला या नहीं, लेकिन वे जरूर अपनी सारी कक्षाओं और छात्रों की पीढ़ियों के कृतज्ञ हैं क्योंकि उनके माध्यम से ही वे साहित्य को समझ पाए.
यह कोरी विनम्रता नहीं थी. जैसे उनका यह कहना भी कि तकरीबन 60 साल तक लिखते रहने के बाद मुझे यह लगता है कि अब जाकर मैं थोड़ा-थोड़ा साहित्य को और लेखकों को समझ पाया हूं. यह भी मिथ्या विनम्रता का प्रदर्शन न था.
आलोचक का व्यापार रचना से निरंतर संवाद का है और कुछ नहीं. इस संवाद में उसे निरस्त्र और निष्कवच होकर ही रचना से मिलना है, इस रूप में जैसे रचना ही उसे हर बार समृद्ध करने वाली है और हर मुलाकात एक नई मुलाकात है.
रचना के प्रति इस निरंतर उत्सुकता के बिना किसी का खुद को आलोचक कहना भुलावा है. इस भेंट में उसे रोमांच भी होना चाहिए, रचना उसे आह्लादित कर नहीं कर पाती तो उसमें कोई कमी है. आलोचक ग्रहण करता है. लेकिन इसकी पात्रता हासिल करना होती है.
वह कठिन अभ्यास, दीर्घ अध्ययन के रास्ते ही मिल सकती है. ‘सही’ सिद्धांत या ‘प्रासंगिक’ राजनीति इसका स्थान नहीं ले सकती. इस रास्ते ही उसमें साहित्य-विवेक पैदा होता है. फिर उसकी कसौटी प्रामाणिक मानी जाती है.
यह बात वे मानते थे और हर नए लेखक को कहते थे कि लिख रहे हों तो हमेशा याद रखें कि आप उस हिंदी में लिख रहे हैं जिसको तुलसी, कबीर, रहीम, भारतेंदु, प्रेमचंद, निराला, मुक्तिबोध जैसे अनगिनत लेखकों ने अपने खून-पसीने से सींचा है.
साहित्य की इस परंपरा में पांव रखने की जिम्मेदारी का एहसास बना रहना चाहिए. अगर परंपरा का यह बोध सतत न हो तो नई परंपरा शुरू भी नहीं की जा सकती है. लेकिन लिखना किसी परंपरा की वकालत के लिए नहीं.
असल बात है हर लेखक की विलक्षणता को पहचानकर उसका सम्मान कर पाना. साहित्य में कोई प्रतिनिधि नहीं है, हरेक एक अद्वितीय स्वर है.
नंदकिशोर नवल का साहित्यिक जीवन कई साहित्यिक पीढ़ियों के संसर्ग से समृद्ध हुआ. वैशाली के एक छोटे से गांव में अपने मास्टर साहब और पुस्तकालय से उन्होंने साहित्यिक यात्रा का आरंभ किया.
साहित्यिक रुचि का निर्माण उत्तर छायावादी दौर में हुआ लेकिन जल्दी ही नई कविता से उनका परिचय हुआ और उनके सामने एक नई खिड़की सी खुल गई.
अकविता और अकहानी, युवा कविता, भूखी पीढ़ी, श्मसानी पीढ़ी की भीषण उथल-पुथल और रोमांचकारी बहसों में वे शामिल हुए. इस समय के स्वभाव के अनुसार ही उन्होंने ‘ध्वजभंग’ और ‘सिर्फ’ नामक पत्रिकाएं भी निकालीं.
इसी समय वे नक्सलवादी आंदोलन के संपर्क में आए और उनकी राजनीतिक सक्रियता आरंभ हुई. कुछ वक्त बाद वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बन गए. इस रूप में भी वे एक समर्पित कार्यकर्ता थे.
पार्टी से उनका लगाव और उसके प्रति उनका समर्पण पूरा था. पिछली सदी के आठवें दशक में जब प्रगतिशील लेखक संघ का पुनर्गठन हुआ तो वे जोश के साथ उसमें संगठनकर्ता के तौर पर सक्रिय हुए.
उनकी और खगेंद्र ठाकुर की जोड़ी के बिना बिहार प्रगतिशील लेखक संघ का कार्यक्रम संभव न था. इस दौर में बने उनके मार्क्सवादी आग्रह ने उन्हें साहित्य को पढ़ने की एक अलग निगाह दी. इसी कारण उन्हें मार्क्सवादी आलोचक माना जाता है.
लेकिन कोई दो दशक बाद वे नामवर सिंह की इस बात से सहमत हुए कि लेखक या आलोचक के आगे मार्क्सवादी जैसे विशेषण की कोई जरूरत नहीं.
इस दरमियान उन्होंने जो लिखा उस पर यह मार्क्सवादी आग्रह हावी दिखता है. चाहे ‘प्रेमचंद का सौन्दर्यशास्त्र’ हो या ‘कविता की मुक्ति,’ इन संकलनों के निबंधों में इसी दृष्टिकोण से लेखकों पर विचार किया गया है.
लेकिन साहित्य मात्र की अपनी सत्ता को लेकर भी वे सजग थे. लेखक को उसकी सारी जटिलता में अपने लिए उद्घाटित करना आलोचक का दायित्व है, इस समझ ने उन्हें जड़ हो जाने से बचा लिया.
सोवियत संघ में ग्लास्नोस्त और पेरेस्त्रोयिका के समय से पार्टी से उनका मोहभंग शुरू हुआ और वे लेखक संघ से भी विरत हो गए.
साहित्य और कला में ‘मार्क्सवादी’ संकीर्णता ने जो हानि पहुंचाई थी, उसका बोध उन्हें हुआ. वे उन लेखकों की ओर उन्मुख हुए जिन्हें मार्क्सवाद विरोधी मानकर तिरस्कृत किया गया था.
मुझे याद है कि पटना में जब हमने ‘मेरे प्रिय रचनाकार’ शृंखला के आरंभ के लिए बुलाया, तो उन्होंने अज्ञेय को प्रिय कवि के तौर पर चुना. उनके इस ‘पतन’ को तब नोट किया गया था. तब से अब तक गंगा में न जाने कितना पानी बह गया और वह पटना कॉलेज से जाने कितनी दूर खिसक भी गई!
‘निराला रचनावली’ के संपादन के दौरान उनके कड़े परिश्रम और शोधकर्ता के तौर पर प्राथमिक स्रोत की तलाश की उनकी लगन की याद है.
यह रचनावली अभी भी हिंदी के संपादकों के लिए मानक है. रचनाओं के प्रथम संस्करण की खोज, बाद के रूपों से उसकी तुलना की सावधानी और यह एहसास कि फिर भी कुछ छूट गया है.
बार-बार दुहराना, संदर्भ बिना सामने रखे उद्धरण को पास न करना, यह भी उस शख्स के द्वारा जिसकी ज़बान पर अनेकानेक कवियों की काव्य पंक्तियां रहती थीं, सिर्फ लेखन कर्म को लेकर उनके सम्मान का एक उदाहरण था.
याददाश्त एक धोखेबाज दोस्त है, वे सावधान करते रहते थे. संपादन में उनकी खास दिलचस्पी थी. निराला के अलावा दिनकर रचनावली का उन्होंने संपादन किया.
उत्तर छायावादी कवि रामगोपाल शर्मा रुद्र की रचनाओं का तो राम इकबाल सिंह ‘राकेश’ और रामजीवन शर्मा ‘जीवन’ की कविताओं का भी. अपने जनपद वैशाली के कवियों का संकलन भी उन्होंने संपादित किया.
लिखने के साथ संपादन करना, खुद प्रूफ देखना, नए लेखकों से बात करते रहना, सब कुछ उनके मुताबिक साहित्य के व्यापार में शामिल है. साहित्य का अर्थ सलीका, सभ्यता भी है. फूहड़पन, सतहीपन, कामचलाऊपन और हड़बड़ी को वे नापसंद करते थे.
मेरे जानते ‘धरातल,’ ‘उत्तरशती,’ ‘आलोचना’ और आखिर में ‘कसौटी’ के उनके द्वारा संपादित अंकों में प्रूफ की गलती शायद ही मिले. यह उनकी कड़ी मेहनत के बिना संभव न था.
तीन-तीन प्रूफ खुद देखना और उस मामले में किसी पर भरोसा न करना. इन सबमें उन्होंने नए से नए लेखकों से लिखवाया. कई कवियों को गद्य लिखने का अभ्यास इस कारण ही हुआ.
उनकी समझ थी कि साहित्य का परिसर अत्यंत विशाल है और उसकी जान उनके बिना नहीं जिन्हें गौण मानकर नजरंदाज कर दिया जाता है.
आलोचक का काम साहित्य की दुनिया के हर कोने-अंतरे पर रोशनी फेंकने का है. उसे रचनात्मकता को लेकर हर प्रकार से सजग होना चाहिए और कहीं भी एक नया पल्लव, नया टूसा दिखते ही उसे दर्ज करना चाहिए.
नवल जी उदार थे तो सख्त भी. कभी-कभी वे कहते थे कि साहित्य पर बात वह करे, जिसकी देह से साहित्य की गंध आती हो. जिसकी महत्त्वाकांक्षा साहित्य के अलावा यश और धन है, उसे इस इलाके में कदम नहीं रखना चाहिए.
इसी कारण नवल जी कुछ-कुछ नामवर जी और अशोक वाजपेयी की तरह नएपन से स्नेह था. वे पोस्टकार्ड और अंतर्देशीय पत्र युग के लेखक थे. कहीं भी जरा भी संभावना दिखने पर वे लेखक को लिखना अपना फर्ज मानते थे.
उनके लिखे पत्र कई पीढ़ियों के लेखकों के पास होंगे. इस तरह वे साहित्य की दुनिया को हर दिन थोड़ा बड़ा करते जाते थे. उनकी समझ यह थी कि नए लेखक से मांग नहीं करनी चाहिए, उसके साथ भर रहना चाहिए.
पत्रिकाएं निकालते हुए संपादक के तौर पर उन्होंने जिन कवियों को प्रमुखता से छापा और उनकी ओर साहित्य जगत का ध्यान खींचा, उनमें से कइयों ने उनके विश्वास की रक्षा भी की.
निराला को पढ़ते हुए उन्हें अपने आदर्श रामविलास शर्मा की व्याख्याओं को अस्वीकार करना पड़ा, वैसे ही जैसे मुक्तिबोध पर लिखते हुए अपने प्रिय आलोचक नामवर सिंह से उन्हें असहमति जतानी पड़ी, लेकिन फिर भी दोनों को वे महान लेखक मानते रहे.
खुद कई रचनाकारों के बारे में उन्होंने अपनी राय बदली, वे चाहे धूमिल हों या अशोक वाजपेयी. उनकी आलोचना कृतियां रचनाकारों और रचनाओं का पाठ ही हैं.
निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन, दिनकर, मैथिलीशरण गुप्त के अलावा धूमिल, केदारनाथ सिंह, श्रीकांत वर्मा, कुंवर नारायण, अशोक वाजपेयी का उनका अध्ययन इन लेखकों को पढ़ने वाले के लिए हमेशा एक संदर्भ बिंदु बना रहेगा.
विचारधारा की जकड़न से विचारों की स्वतंत्रता की नवल जी की यात्रा कष्टसाध्य रही. उन्हें खुद को ही कई जगह अस्वीकार करना पड़ा. लेकिन चूंकि उनकी प्रतिबद्धता रचनाकार से भी आगे बढ़कर रचना से थी, और विचारधारा से तो कतई नहीं, सो उन्हें खुद को बदलने में संकोच नहीं हुआ.
अंतिम दौर में वे तुलसी, सूरदास, कबीर, रहीम, बिहारी को रस लेकर पढ़ रहे थे. इस पढ़ने के क्रम में इन पर उन्होंने किताबें भी लिखीं. लेकिन उनके बारे में भी वे यही कहते थे कि ये किताबें तो सिर्फ इन कवियों का रसास्वादन करने के क्रम में लिख दी गई हैं.
उनके गुजर जाने के बाद वेंकटेश कुमार ने उनकी आरंभिक पुस्तक ‘हिंदी आलोचना के विकास’ की अपनी प्रति के पहले पन्ने पर नवल जी के एक वाक्य की तस्वीर लगाई है: ‘इस पुस्तक को पढ़ें, लेकिन इसकी सीमाओं को भी समझें.’
अपनी सीमा की यह संवेदना ही उनकी रचनात्मकता की स्रोत रही. हिंदी साहित्य को जानने वाले मानेंगे कि सर्जनात्मकता के प्रति चिर उत्सुक, रचना के प्रबल पक्षधर नंदकिशोर नवल के न रहने से रचना के संसार ने अपना एक पुराना मित्र खो दिया है.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)