दूसरे राज्यों में फंसे कामगारों को उनके गृह राज्य पहुंचाने के लिए चलाई गई श्रमिक स्पेशल ट्रेन के रजिस्ट्रेशन की जद्दोजहद के बाद यात्रा की तारीख तय न होने से मज़दूर हताश हैं. कर्नाटक, कश्मीर और गुजरात के कई कामगार इस स्थिति से निराश होकर साइकिल या पैदल निकल चुके हैं या ऐसा करने के बारे में सोच रहे हैं.
विभिन्न राज्यों में फंसे हुए मजदूरों को उनके गृह राज्यों तक पहुंचाने के लिए केंद्र सरकार ने श्रमिक स्पेशल ट्रेन चलाई हैं, लेकिन इस सफर के लिए रजिस्ट्रेशन करवाने में प्रवासी श्रमिकों को काफी जद्दोजहद करनी पड़ रही है.
हाल यह है कि रजिस्ट्रेशन करने के दस दिन बाद भी उनकी यात्रा सुनिश्चित नहीं हो पा रही है. यही कारण है कि प्रवासी श्रमिक ट्रेन में बारी आने का इंतजार किए बिना पैदल या साइकिल से अपने गांव-घर की ओर चलने के बारे में सोच रहे हैं.
यूपी के कुशीनगर और महराजगंज जिले के अलावा बिहार के 300 से अधिक प्रवासी श्रमिक कर्नाटक, गुजरात, कश्मीर, तेलंगाना आदि स्थानों पर ट्रेन में अपनी बारी आने का इंतजार कर रहे हैं. इनमें से कई निराश होकर साइकिल या पैदल ही घर पहुंच रहे हैं या ऐसा करने के बारे में सोच रहे हैं.
सरकार की मदद के भरोसे न बैठकर अपने बुते घर पहुंचने के बारे में सोचने वालों में से एक है कर्नाटक के शिमोगा जिले में हल्लूर गांव में कुशीनगर जिले के 34 श्रमिकों का समूह.
लॉकडाउन में फंसे इन प्रवासी श्रमिकों ने घर आने के लिए प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, सांसद, विधायक के नाम वीडियो अपील भी जारी की थी. इन्होंने ग्राम प्रधान, ब्लॉक प्रमुख आदि को अपना नाम, पता, मोबाइल और आधार की जानकारी भेजी, लेकिन अब तक उन्हें अपने राज्य या जनपद से कोई मदद नहीं मिली है.
ये मजदूर भदरा नदी से बालू निकालने का काम कर रहे थे. ये मजदूर दिसंबर और जनवरी महीने पर यहां काम करने आए थे. एक मई से श्रमिक स्पेशल ट्रेन चलने पर इन मजदूरों में आस जगी कि अब वे वापस घर आ सकेंगे.
इन्होंने जिला मुख्यालय जाकर अपना रजिस्ट्रेशन कराया. इस प्रक्रिया में मजदूरों को चार बार जाना पड़ा और आने-जाने में तीन हजार रुपये खर्च हो गए.
इनमें से एक ओम प्रकाश सैनी बताते हैं, ‘जिस जन सेवा केंद्र पर रजिस्ट्रेशन हो रहा था, वहां दो दिन आठ घंटे से अधिक लाइन में लगना पड़ा. दो मई को नौ मजदूरों का रजिस्ट्रेशन हो पाया. दूसरे दिन तीन मई को बाकी 25 मजदूरों का रजिस्ट्रेशन हुआ. उस केंद्र पर बार-बार नेटवर्क फेल हो जा रहा था.’
रजिस्ट्रेशन हो जाने के बाद वह तीन बार पता लगाने जा चुके हैं कि उनका जाने का नंबर कब आएगा. हर बार यही कहा जाता है कि मोबाइल पर सूचना दी जाएगी लेकिन लेकिन अब तक उनके पास कोई सूचना नहीं आई है.
ओम प्रकाश सैनी कहते हैं कि ट्रेन यात्रा का इंतजार करते-करते सभी मजदूर उकता चुके हैं. परेशान हाल में सभी मजदूरों ने 14 मई को साइकिल से घर जाने का निर्णय ले लिया.
सभी ने अपने घर फोन कर एकाउंट में पैसे मंगाए और साइकिल खरीदने निकल पड़े लेकिन साइकिल की दुकान पर तीन हजार की सामान्य साइकिल भी पांच हजार से अधिक में बिक रही थी. पैसे कम होने के कारण मजदूर साइकिल नहीं खरीद पाए और वापस आ गए.
शाम को वे सभी पैदल ही निकल पड़े, लेकिन जब चौराहे पर पहुंचे तो एक पुलिस अधिकारी ने उन्हें रोक लिया और उनसे पूछताछ की. पूछताछ के बाद पुलिस अधिकारी ने उनके ठेकेदार को फोन कर कहा कि वह मजदूरों के रुकने का इंतजाम करें.
सैनी ने बताया कि जब वे लोग अपने आश्रय स्थल आ गए तो जिला मुख्यालय से फोन आया कि यूपी के जितने मजदूर हैं, वे आ जाएं. उन्हें रेलवे स्टेशन भेजा जाएगा. जब वे जिला मुख्यायल पहुंचे तो वहां कहा गया कि आप वापस जाइए, ट्रेन की इंतजाम हो जाने पर सूचना दी जाएगी. सभी मजदूर वापस आ गए.
ओम प्रकाश सैनी ने कहा कि वह इस बात से भी परेशान हैं कि वे अपने साथ के बिहार के मजदूरों को कैसे छोड़ कर जाएं. वे कहते हैं, ‘उनके और मेरे गांव के बीच ज्यादा दूरी नहीं है. नदी के इस पार हमारा गांव है और उस पार उनका. हमें तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा है कि क्या करें, कहां जाएं?’
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ओम प्रकाश सैनी के पड़ोस के गांव बोधी छपरा के दो प्रवासी कामगार विशाल चौधरी और दारा भारती इसी तरह बेंगलुरु में कई दिन तक ट्रेन यात्रा के लिए रजिस्ट्रेशन कराने में नाकामयाब होकर साइकिल से चल दिए और आठ दिन तक साइकिल चलाने के बाद 13 मई को अपने गांव पहुंचे.
विशाल और दारा बेंगलुरु में तालघर में पेंट-पॉलिश का काम कर रहे थे. वे अपने गांव से फरवरी में बेंगलुरु पहुंचे थे, जहां उन्हें कई मंजिल वाले एक भवन के पेंट का काम मिला था.
लॉकडाउन होने के कुछ दिन बाद उन्होंने अपना काम पूरा कर लिया लेकिन ठेकेदार ने उनका पूरा भुगतान नहीं किया इसलिए वे वहां रुके रहे. उन्हें उसी भवन के एक हिस्से में ठहराया गया था.
ठेकेदार से काफी झगड़ा होने के बाद उन्हें भुगतान तो मिल गया लेकिन दूसरे जगह कोई काम नहीं मिला. इसके बाद से वे वापस घर आने का प्रयास करने लगे. श्रमिक स्पेशल ट्रेन के लिए वे तालघर थाने में रजिस्ट्रेशन कराने गए, तो वहां उन्हें मना कर दिया गया.
विशाल बताते है, ‘हमें थाने से भगा दिया गया. इसके बाद हमने अपने जिले के कुछ मजदूरों से बात की, जो अमृतहल्ली में रह रहे थे. उन्होंने बताया था कि वहां रजिस्ट्रेशन हो रहा है. वहां जाकर आधार कार्ड की फोटोकॉपी जमा की. बताया गया कि मोबाइल पर सूचना दी जाएगी.’
वे आगे बताते हैं, ‘दो दिन बाद पता चला कि फॉर्म भरना है. अब हम लोग ज्यादा पढ़े-लिखे तो हैं नहीं. फॉर्म कहां से मिलेगा, कैसे भरा जाएगा कुछ पता नहीं चल पा रहा था. चार दिन बाद तक कोई सूचना नहीं मिली.’
इसके बाद उनके साथ के कुछ मजदूर जाने लगे तो उन दोनों ने भी पांच मई की सुबह साढ़े पांच हजार रुपये में दो साइकिल खरीदीं और शाम को सात बजे वहां से चल दिए.
हजार किलोमीटर से ऊपर आठ दिन तक लगातार साइकिल चलाने के बाद विशाल और दारा भारती 13 मई को दोपहर अपने गांव पहुंचे. उनका सफर काफी मुश्किल भरा रहा.
करीब 150 किलोमीटर चलने के बाद दारा भारती साइकिल से गिर गए थे और उनकी आंख के ऊपर चोट लग गई . रास्ते के बीच में बड़ी मुश्किल से मरहम पट्टी का इंतजाम हो सका.
विशाल चौधरी ने बताया कि कर्नाटक के बॉर्डर पर पुलिस ने उन्हें रोक लिया था. उस समय रात के करीब 11 बजे थे, जब वे लोग पीछे से पगडंडी के रास्ते आगे बढ़े और जंगल से चलते हुए रात दो बजे के लगभग एक गांव में पहुंचे.
वहां पेड़ के नीचे रात गुजारी और फिर सुबह ग्रामीणों से रास्ता पूछते हुए आगे निकले. करीब 15-20 किलोमीटर आगे चलने पर उन्हें नेशनल हाइवे मिल गया.
विशाल बताते हैं, ‘जल्दी पहुंचने के लिए हर रोज 20 घंटे से अधिक साइकिल चलायी. रात में सिर्फ चार घंटे सोते थे. कभी किसी गांव, तो कभी हाइवे के किनारे बने स्टॉप पर रात गुजारी.’
उन्होंने आगे बताया कि सात मई को हैदराबाद से कुछ 100 किलोमीटर आगे उन्हें एक ढाबे पर ट्रक मिला, जिसमें बहुत से मजदूर सवार थे. ट्रक चालक ने 700-700 रुपये लेकर उन्हें नागपुर के पहले उतार दिया.
वह उनसे आगे ले जाने के लिए तीन हजार रुपये और मांग रहा था, जो इन दोनों के पास नहीं थे. उस समय रात के करीब एक बज थे, तो दोनों ने सड़क किनारे ही कुछ घंटे आराम किया और फिर निकल पड़े.
विशाल कहते हैं, ‘हम दोनों से ही साइकिल चलाया नहीं जा रहा था. रास्ते में एक मेडिकल स्टोर से दर्द की छह खुराक ली, जब दर्द ज्यादा बढ़ जाता तो दवा खा लेते.’
उनका कहना है कि मजदूरों में ट्रेन का भरोसा खत्म हो गया है और वे अपने बूते चल दिए हैं. उनकी जानकारी में छह और मजदूर साइकिल से आ रहे हैं. इनमें दो मजदूर बिहार के गोपालगंज जिले के हैं. इसके अलावा उनके गांव के दो और मजदूर भी साइकिल से ही घर आए हैं.
मालूम हो कि कुशीनगर जिले के ही कप्तानगंज थाना क्षेत्र के बहुआस गांव के 40 वर्षीय राजू की गुजरात के अंकलेश्वर से 4 मई को साइकिल से आते हुए रास्ते में मौत हो गई थी.
राजू के भाई राजेश साथ में ही काम करते थे. राजू अभी अंकलेश्वर में ही हैं. भाई की मौत की खबर मिलने के बाद वह अंकलेश्वर से 55 किलोमीटर दूर पहुंचे और भाई का अंतिम संस्कार करने के बाद फिर वापस आ गए क्योंकि गांव जाने का कोई साधन नहीं था.
राजेश के अनुसार वहां 400 मजदूर अपने गांव जाने के इंतजार में श्रमिक स्पेशल ट्रेन की राह तक रहे हैं. गुरुवार को बताया गया था कि उन्हें लेने के लिए बस आ रही है, जो उन्हें भरूच रेलवे स्टेशन छोड़ेगी.
इसी तरह कश्मीर के पुलवामा में कुशीनगर जिले के ही नौतार जंगल गांव के पांच और महराजगंज जिले के दो मजदूर लॉकडाउन में फंसे हुए हैं. ये मजदूर यहां पर झेलम नदी से बालू निकालने का काम कर रहे थे.
इन मजदूरों में अनिरुद्ध साहनी, रमायन साहनी, नागेन्द्र, फेकू और पोला साहनी नौतार जंगल के रहने वाले हैं जबकि वंशी साहनी और जगदीश साहनी महराजगंज जिले के नौतनवा क्षेत्र के खालेगढ़ के रहने वाले हैं.
सभी मजदूर फरवरी महीने से यहां पर हैं. ये मजदूर पावपुर थाना क्षेत्र के पत्थलबाग गांव में हैं, जो पावपुर तहसील और थाने की दूरी तीन किलोमीटर से अधिक है.
इन मजदूरों में से एक 42 वर्षीय अनिरुद्ध साहनी ने बताया कि वह पिछले एक सप्ताह से श्रमिक स्पेशन ट्रेन से जाने के लिए रजिस्ट्रेशन कराने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन अभी तक सफल नहीं हो पाए है.
वे बताते हैं, ‘चार बार तहसील और चार बार थाने जा चुके हैं. थाने गए तो कहा गया कि तहसील जाइए. जब तहसील गए तो कहा गया कि थाने जाइए. एक बार प्राइमरी स्कूल में जाने को कहा गया, जहां नाम-पता नोट किया गया लेकिन अब तक ट्रेन से जाने के बारे में कोई सूचना नहीं मिली है.
अनिरुद्ध आगे कहते हैं, ‘यहां सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि अक्सर इंटरनेट बंद कर दिया जाता है. मोबाइल नेटवर्क भी गायब हो जाता है. इसमें किसी से संपर्क नहीं कर पाते हैं. दुकानें भी बंद रहती हैं, समझ में नहीं आ रहा कि आखिर रजिस्ट्रेशन कैसे कराएं?’
इन मजदूरों के लिए राहत की सिर्फ एक बात है कि बालू घाट के मालिक ने उनके रहने का इंतजाम किया हुआ है और उन्हें रहने का किराया नहीं देना है.
अनिरुद्ध ने 14 तारीख की सुबह हुई बातचीत में कहा था कि वे उस रोज फिर एक बार तहसील जाएंगे. अगर उन लोगों की जाने की कोई व्यवस्था नहीं हुई तो वे सभी पैदल चल पड़ेंगें.
उनका कहना है कि रास्ते में यदि उन्हें कुछ होता है तो इसकी जिम्मेदारी शासन-प्रशासन की होगी क्योंकि वह एक पखवाड़े से सांसद, विधायक से लेकर सभी को अपनी समस्या से अवगत करा चुके हैं.
(लेखक गोरखपुर न्यूज़लाइन वेबसाइट के संपादक हैं.)