इतिहास से अगर कुछ साबित होता है तो सिर्फ़ यही कि आधुनिक राज्य आम तौर पर हुकूमत करने के लिए और ख़ास तौर पर दमन करने के लिए जो तरीके अपनाता है, किस तरह उनकी जड़ें महामारियों से निपटने के उपायों तक भी जाती हैं.
आज जब करीब-करीब हर जगह कोरोना वायरस की रोकथाम के लिए महीनों से लगाई गई पाबंदियों में कमोबेश ढील दी जा रही है और इस बात की समझ गहराती जा रही है कि सामाजिक जिंदगी और कामकाज को इस तरह लंबे समय तक रोकने के गंभीर नतीजे होने वाले हैं.
ऐसे समय में हमें इस बात पर गौर करने की जरूरत है कि रोकथाम के इन कदमों का लोकतंत्र की हमारी उम्मीदों से कैसा रिश्ता है.
चाहे चीन हो या यूरोप के अलग-अलग देश, संयुक्त राज्य अमेरिका हो या भारत, हर जगह इन पाबंदियों ने अवाम की सामाजिक और सियासी जिंदगी पर गहराई से असर डाला है.
अलग-अलग मुल्कों में इन कदमों को लागू करने के तरीके और निजाम में फर्क भले हो, लेकिन अवाम और समाज के जम्हूरी अधिकारों के लिहाज से इन सभी कदमों का असर एक ही रहा.
अवाम की आवाजाही के अधिकार सीमित हो गए, उनके आपस में मिलने-जुलने और जरूरत के मुताबिक कारोबार करने पर रोक लग गई, मजहबी रिवाजों पर अमल करने की आजादी पर भी पाबंदियां लग गईं और सबसे बढ़ कर सरहदों पर आवाजाही पर सख्ती से रोक लगा दी गई.
जाहिर है कि इसके नतीजे में दुनिया भर में एक चिंता सिर उठाने लगी है. ये इस बात को लेकर है कि कोविड-19 जैसी एक महामारी की रोकथाम के लिए जो कदम उठाए जाते हैं, उनके साथ हम अपनी लोकतांत्रिक उम्मीदों और निजता के अधिकारों का तालमेल कैसे बिठाएं.
और यह चिंता बेबुनियाद नहीं है, इसकी जड़ें इतिहास में हैं. बहुत तेजी से और बहुत बड़े इलाके में फैलने वाली संक्रामक बीमारियों का सामना होने पर हमारा जो रवैया होता है, उसे यूरोप में 14वीं सदी के बाद प्लेग और फिर आगे चलकर यूरोप और भारत में टीबी और हैजे के ऐतिहासिक तजुर्बों ने हमें सिखाया है.
समय के साथ इन महामारियों ने हमें सिखाया कि ऐसे संकट पैदा होने पर हम खुद को कैसे बचाएं. इन तजुर्बों से ही हमने सीखा कि बीमार लोगों और परिवारों को कैसे अलग-थलग किया जाए, शहरों के हिस्सों या पूरे के पूरे शहरों की किस तरह घेरेबंदी करके उन्हें क्वारंटीन में डाल दिया जाए, हर अजनबी चीज पर कैसे संदेह और डर किया जाए, किस तरह निगरानी का एक पूरा ढांचा खड़ा किया जाए और आवाजाही को नामुमकिन बना दिया जाए. बीमारी फैलने से रोकने का तब यही उपाय था.
यह ऐसा दौर था जब लोकतांत्रिक उसूल राजकाज और समाज की उस तरह से रहनुमाई नहीं करते थे और न ही ऐसे राज्य वजूद में आए थे, जो लोकतांत्रिक होने का दावा करते हों.
उस दौर में जन्मे ये उपाय, उस दौर में जारी उसूलों के खिलाफ नहीं जाते थे और न ही बीमारी और इलाज को लेकर लोगों की समझ के साथ उनका कोई टकराव था.
अलग-थलग करने और इलाज के जो तरीके खोजे गए वे अलोकतांत्रिक थे, लेकिन तब हुकूमत करने के जो ढांचे थे वे भी अलोकतांत्रिक थे. और फिर उस दौर में ये उपाय, अपने आप में बीमारी और उसकी असली वजहों की वैज्ञानिक समझदारी पर आधारित नहीं थे.
लेकिन ये वही कदम थे जिन्होंने धीरे-धीरे प्रशासन का एक ऐसा ढांचा खड़ा किया, जो आज के आधुनिक राज्य की बुनियाद बना. और अब यह राज्य दावा करता है कि ‘लोकतंत्र’ के उसूल उसकी रहनुमाई करते हैं.
इन उसूलों में आवाजाही की आजादी और लोगों को हासिल कुछेक आजादियां ऐसी हैं जो उनसे छीनी नहीं जा सकतीं. क्योंकि आधुनिक राज्य का कामकाज, शासक की मर्जी के बजाए बने हुए कानून के मुताबिक चलता है, जिसकी निगाह में सभी इंसान बराबर हैं और यह सभी के लिए इंसाफ का समान वादा करता है.
लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि लोकतांत्रिक राज्य इन आजादियों के खिलाफ नहीं जाते: औपनिवेशिक कब्जे और दमन का इतिहास, जंगें, वैश्वीकरण, प्रवासी समुदायों के साथ पेश आने का तरीका और उन पर होने वाले जुल्म और ऐसे ही अनेक इतिहास हैं जो यह दिखाते हैं कि यह दावा कितना खोखला है.
इन इतिहासों से अगर कुछ साबित होता है तो सिर्फ यही कि आधुनिक राज्य आम तौर पर हुकूमत करने के लिए और खास तौर पर दमन करने के लिए जो तरीके अपनाता है, किस तरह उनकी जड़ें महामारियों से निपटने के उपायों तक भी जाती हैं.
इस तरह आधुनिक, लोकतांत्रिक राज्य के वजूद में आने से पहले जो अलोकतांत्रिक उपाय तलाशे गए थे वे अभी भी कायम हैं. जब भी इस राज्य के सामने महामारी का संकट आता है, उससे निपटने के लिए फौरन उन्हीं उपायों की मदद ली जाती है, जैसा कि कोविड-19 के दौरान भी देखा जा रहा है.
इसमें कोई शक नहीं कि ये कदम संक्रमण को रोकने में कमोबेश उपयोगी साबित होते रहे हैं, लेकिन उनके इस्तेमाल की कीमत हमें अपने लोकतांत्रिक अधिकारों से चुकानी पड़ती है, जिन्हें हासिल करने में हमें बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा है.
और सबसे बड़ा खतरा यह है कि लोकतांत्रिक आज़ादियों पर यह पाबंदियां स्थायी शक्ल न ले लें, जैसा कि महामारियों के इतिहास में बार-बार हमें दिखाई देता है. लोकतांत्रिक आज़ादियों को खोना जितना आसान है, उन्हें वापस हासिल करना उतना ही मुश्किल.
मसला सिर्फ राज्यों के रवैये का ही नहीं है, बल्कि समुदाय भी उन मिथकीय और हिंसक तरीकों की पनाह में चले जाते हैं, जिन्हें यूरोप में मध्य युग में देखा गया था.
अब यह खास तौर से चिंता का विषय है. इसकी वजह यह है कि अब हमारे पास बायोमेडिसिन जैसा विज्ञान है, जो किसी भी महामारी का कमोबेश जल्दी पता लगा सकता है, उनकी वजहों की पहचान कर सकता है.
अब हमारे पास स्वास्थ्य सेवाओं का एक औपचारिक ढांचा है, लेकिन इन संभावनाओं और उपलब्धियों के बावजूद जब भी कोई महामारी आती है, एक तरह से सदियों के बीच की यह दूरी मिट जाती है और हम खुद को उसी तरह बेबस और लाचार पाते हैं जैसा पहले के उन समाजों में हुआ करता था.
शायद ऐसा इसलिए होता है कि वैज्ञानिक मिजाज अवाम के बीच अपनी जगह नहीं बना पाया है, जो एक आधुनिक लोकतांत्रिक समाज के उसूलों के लिए इतनी बुनियादी बात है.
एक महामारी के आते ही लोग हर किस्म की साजिशों का सुराग खोजने लगते हैं, बेबुनियाद चलताऊ नुस्खों की तलाश में लग जाते हैं. भारत जैसे समाजों में, जहां सियासत ने समुदायों के बीच खाई को इतना गहरा कर दिया है, अवैज्ञानिक मिजाज के बड़े गंभीर और दूरगामी नतीजे हैं.
लोग बड़ी आसानी से ऐसी अफवाहों और गढ़े हुए झूठों के जाल में फंस जाते हैं और यकीन कर लेते हैं कि यहां बीमारी की वजह एक अल्पसंख्यक समुदाय है.
और किसी तरह वे यह भी मान बैठते हैं कि वायरस को दूर करने का बेहतर उपाय दीया जलाना और बरतन बजाना है और ऐसा करने के लिए वे दूरी बनाए रखने की जरूरत को भी भूल जाते हैं.
और ऐसा नहीं है कि सिर्फ समाज में ही वैज्ञानिक मिजाज की कमी है. सवाल विज्ञान के मिजाज का भी है. विज्ञान में भी सामाजिक नजरिये की कमी है, जिसकी वजह से लोग इसमें पूरी तरह यकीन नहीं कर पाते कि जरूरत पड़ने पर यह पूरी तरह भरोसेमंद और कारगर तरीका साबित होगा.
मिसाल के लिए बायोमेडिसिन के काम करने का तरीका उदारवाद के साथ मेल खाता है, जिसमें हर इंसान को अलग-अलग करके देखने और उनका इलाज करने का तरीका अपनाया जाता है, चाहे संकट पूरे समाज का संकट ही क्यों न हो.
बायोमेडिसिन समाज को अपने सरोकार का विषय नहीं बनाता, यह नहीं देखता कि बीमारी लाने वाले वायरस के साथ-साथ बीमारी के दौरान लोगों की सामाजिक और आर्थिक दशा भी तबाही की वजह बनती है. इसके नतीजे में लोगों की हालत और भी नाजुक और खतरनाक हो जाती है.
इससे लोगों में बेचैनी और डर पैदा होता है. लोग इससे खुद को असुरक्षित महसूस करने लगते हैं और उन्हें इलाज का जो भी तरीका समझ में आता है, उसे आजमाने लगते हैं.
एक ऐसी स्थिति में जब मेडिकल साइंस, राजनीति और समाज के ताने-बाने की अनदेखी करता हो, लोगों का चलताऊ नुस्खों और हर किस्म के फर्जीवाड़े के फंदे में फंसना लाजिमी है, लेकिन लोकतंत्र एक ऐसी बुनियाद पर नहीं टिक सकता.
और हमारा वजूद लोकतंत्र के वजूद पर कायम है. ऐसे में रास्ता क्या है?
जैसा कि आजकल इस पर बातें हो रही हैं और इतिहास भी इसका एक गवाह है. महामारियों का दौर एक ऐसा दौर होता है, जब हमें अपनी सीमाओं के पार जाकर कुछ नया सोचने की जरूरत होती है.
जैसा कि हमने देखा ये महामारियों का दौर ही था, जिसने एक ऐसा ढांचा कायम किया, जिसके मातहत आज हम जीते हैं और उसे लोकतंत्र कहते हैं, या उसे लोकतंत्र की शक्ल देना चाहते हैं.
इसलिए आज भी महामारी के इस संकट में हमें उन आपातकालीन कदमों से आगे जाकर क्यों नहीं सोचना चाहिए और कुछ ऐसा नया, अधिक कारगर और सचमुच के लोकतांत्रिक उपाय तलाशने चाहिए जो हमारी उम्मीदों पर खरे उतरें?
हमें बने-बनाए ढांचों के आगे जाकर क्यों नहीं यह देखना चाहिए कि और क्या-क्या मुमकिन है?
और ऐसा करना नामुमकिन भी नहीं है. हमें अपने पास मौजूद हर फन का इस्तेमाल करना होगा: समाजी और सियासी पहलकदमियां, मेडिकल साइंस, स्वास्थ्य सेवाएं, अर्थव्यवस्था, अदबी और सांस्कृतिक कल्पनाएं. हर वह चीज जो हमारे पास है.
हमें एक मिली-जुली कोशिश की दरकार है और इससे भी आगे हमें अपने तसव्वुरात (विचार) की मदद की दरकार है. हमें अपने भीतर वैज्ञानिक सोच को ले आना होगा और विज्ञान के भीतर एक सामाजिक सोच कायम करनी होगी.
लोकतंत्र की अपनी उम्मीदों के वास्ते हमें इतना तो करना ही होगा.
(फ़रहाना जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रही हैं और रेयाज़ुल बर्लिन स्थित लाइबनित्स-सेंट्रुम मोडेर्ने ओरिएंट में रिसर्च फेलो हैं.)