कोरोना वायरस के कारण देशभर में लागू लॉकडाउन के दौरान आजीविका खोने के बाद दूसरे राज्यों में फंसे मज़दूर अपने घर वापस लौटने के लिए हर दिन जद्दोजहद कर रहे हैं.
नई दिल्ली: कोरोना वायरस के कारण लागू लॉकडाउन के दौरान आजीविका खोने के बाद अपने पैतृक स्थलों को वापस लौट रहे लोगों के साथ-साथ चल रहे उनके बच्चों कई जगह कड़ी धूप और लू में भूख एवं प्यास से बदहाल देखा जा सकता है.
एक जगह दो बच्चियों को एक पतले से ‘गमछे’ की छांव में अपने छोटे भाई को धूप के ताप से बचाते हुए देखा गया.
भारत में प्रवासी संकट लगातार जारी है. लाखों लोग पैदल ही अपने घर जा रहे हैं. इसके अलावा बसों और ट्रेनों से घर जाने लिए भी ये प्रवासी जद्दोजहद कर रहे हैं. अपने साथ कुछ ही सामान ले जा रहे ये प्रवासी खाने के लिए दान पर आश्रित हैं. इस सबके बीच उनके बच्चे मुश्किल हालात से गुजर रहे हैं.
बहुत से बच्चे निढाल हो गए हैं. उनके माता-पिता का कहना है कि भूख, चिलचिलाती धूप, तनाव और अपने घर लौटने चिंता ने उनके लिए कई मुश्किलें पैदा कर दी हैं.
दिल्ली-हरियाणा सीमा पर कुंडली इलाके में एक खुले मैदान में बैठीं नेहा देवी उत्तर प्रदेश के कानपुर में अपने गांव जाने के लिए बस का इंतजार कर रही हैं. वह अपने सात महीने के बच्चे की सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं.
केवल 22 साल की नेहा अपनी बेटी नैन्सी को स्टील के गिलास से पानी पिलाने की कोशिश करती हैं. नैन्सी गिलास पड़ककर थोड़ा सा पानी पीती है और फिर रोने लगती है.
नेहा उसे अपनी साड़ी के पल्लू से ढकने की कोशिश करती हैं, लेकिन चिलचिलाती धूप ने उन्हें परेशान कर रखा है. तापमान 40 डिग्री से ऊपर पहुंच गया है और यहां कोई छांव नहीं है.
नेहा ने कहा कि वह धूप से तंग आ गई हैं.
दिल्ली सीमा के निकट हरियाणा के सोनीपत कस्बे में गोलगप्पे बेचने वाले उनके पति हरिशंकर के पास 25 मार्च को लॉकडाउन लागू होने के बाद से कोई काम नहीं है. उनकी बचत खत्म होती जा रही है. उनके पास अपने घर जाने के अलावा कोई चारा नहीं है.
इससे कुछ ही दूर नौ साल की शीतल और सात साल की साक्षी अपने तीन साल के भाई विनय के साथ बैठी हैं. उनके पास एक गमछा है जिससे उन्होंने अपने भाई को ढक रखा है, लेकिन वह भी काम नहीं आ रहा है. उनका परिवार भी कई घंटों से बस का इंतजार कर रहा है.
इन बच्चों के माता-पिता राजपूत सिंह (35) और सुनीता असहाय नजर आ रहे हैं. वे अपने बच्चों को लेकर चिंतित हैं. उन्हें उत्तर प्रदेश के मऊ जिले में अपने घर जाना है, लेकिन सफर की चिंता उन्हें खाए जा रही है.
उन्होंने कहा कि बच्चों का भविष्य चिंता की बात है, लेकिन उनके पास घर जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है.
आजीविका खोने के बाद दूसरे राज्यों में फंसे तमाम मजदूर साधन के अभाव में पैदल ही अपने घरों के लिए निकल गए थे.
कुछ दिन पहले आगरा से एक महिला का वीडियो सामने आया था, जो अपने पहिये वाले बैग पर बेटे को सुलाकर बैग को घसीटती हुई ले जाती दिख रही है. सोशल मीडिया पर वायरल हुई यह वीडियो लाखों प्रवासी परिवारों के संघर्षों को बयां करने के लिए काफी है.
एक शख्स महिला से यह पूछता है कि वह कहां जा रही हैं. इस पर वह जवाब देती हैं कि उन्हें महोबा (झांसी) जाना है. मजदूरों का यह दल पंजाब से ही पैदल महोबा के लिए निकला था. इस दल में महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे.
इसी तरह सोशल मीडिया पर एक और वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें एक मजदूर अपनी गर्भवती पत्नी और दो साल की बच्ची को हाथ से बनाई गई लकड़ी की एक गाड़ी से खींचते हुए पैदल अपने घर लौट रहे थे.
एनडीटीवी की रिपोर्ट के अनुसार, मध्य प्रदेश के बालाघाट के ये मजदूर हैदराबाद से 800 किलोमीटर तक गर्भवती पत्नी और बच्ची को खींचते हुए चले आए थे.
रिपोर्ट के अनुसार, कुछ दूर तक तक तो उन्होंने अपनी बेटी को गोद में लेकर चलना शुरू किया था, लेकिन रास्ता लंबा होने के कारण रास्ते में ही लकड़ी और बांस के टुकड़े बीन उनसे एक गाड़ी बनाई और अपनी मासूम बेटी और पत्नी को बैठाकर उसे खींचते हुए वह 800 किलोमीटर दूर पैदल चले आए.
रामू नाम के ये मजदूर हैदराबाद से तपती दोपहरी में 17 दिन पैदल चलकर बालाघाट पहुंचे थे.
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)