लॉकडाउन के दौरान भूख शहरी ग़रीबों की सबसे बड़ी दुश्मन बनकर उभरी है

बीते दो महीनों में दिल्ली में हज़ारों लोगों के बीच खाना और राशन पहुंचाते हुए देखा कि हम भूख के अभूतपूर्व संकट से गुजर रहे हैं. सैकड़ों लोग बेबसी और अनिश्चितता के अंधेरे में जी रहे हैं, उन्हें नहीं पता कि अगला निवाला उन्हें कब और किसके रहमोकरम पर मिलने वाला है.

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Slum dwellers in Ahmedabad receive free food packets during a 21-day nationwide lockdown [Amit Dave/Reuters]

बीते दो महीनों में दिल्ली में हज़ारों लोगों के बीच खाना और राशन पहुंचाते हुए देखा कि हम भूख के अभूतपूर्व संकट से गुजर रहे हैं. सैकड़ों लोग बेबसी और अनिश्चितता के अंधेरे में जी रहे हैं, उन्हें नहीं पता कि अगला निवाला उन्हें कब और किसके रहमोकरम पर मिलने वाला है.

Slum dwellers in Ahmedabad receive free food packets during a 21-day nationwide lockdown [Amit Dave/Reuters]
(फोटो: रॉयटर्स)
उस समय लॉकडाउन लागू हुए दो हफ्ते हो चुके थे. कारवां ए मोहब्बत की हमराही भोजन सेवा के तहत हम भोजन-राहत सामग्री लेकर दिल्ली के कश्मीरी गेट अंतरराज्यीय बस अड्डे के पास पहुंचे.

यहां कतार में खड़ा एक नौजवान मुंह पर रूमाल बांधे खिचड़ी मिलने का इंतजार कर रहा था. उसकी आंखें गुस्से से लाल थीं. वह कह रहा था, ‘सरकार कह रही है कि हम घर में बंद रहे. तो क्या वो चाहते हैं कि हम लोग दीवारों का ईंट खाकर पेट भरें?’

लॉकडाउन से पहले भी शहरों में भूख इतनी ही व्यापक था. बेघर लोगों, बेसहारा बुजुर्गों और विकलांगों के लिए भूख तब भी इतनी ही बड़ी समस्या थी, लेकिन अधिकांश समय कहीं न कहीं से इनके खाने का इंतजाम हो जाता था.

लोग रिक्शा चलाकर, कूड़ा चुनकर, दिहाड़ी मजदूरी करके या फिर सेक्स वर्कर्स के तौर पर काम करके अपना पेट पालते थे. अगर इन जगहों पर भी काम न मिले तो गुरुद्वारे, दरगाह या फिर मंदिरों में उन्हें कामचलाऊ भोजन मिल जाता था.

शहरों के बारे में एक धारणा बना दी गई है कि वहां गांवों की तरह भोजन की समस्या नहीं होती. ऐसा माना जाता है कि शहर में भले ही दंगे हो जाएं, लेकिन रोजी-रोटी की समस्या नहीं होती. लेकिन मेरा अनुभव इसके बिल्कुल उलट है.

करीब दो दशक तक बेघर शहरी लोगों के साथ काम करके मैंने जाना है कि चकाचौंध वाली शहरी दुनिया में भी लोग दो रोटी के लिए लोग तड़पते-तरसते हैं. बेघर, बेसहारा बुजुर्ग, विकलांग और एकल महिलाएं भूख की पीड़ा के सबसे अधिक शिकार होते हैं.

लेकिन इस महामारी के वक्त ग्रामीण हिस्सों में भूख की जो स्थिति है, शहरों में आम दिनों में इससे कम खराब स्थिति होती है. आदिवासी इलाकों, दलित बस्तियों, छोटे किसानों और एकल महिलाओं को आज जिस तरह से भूख का सामना करना पड़ रहा है, शहरों में आम दिनों में स्थिति उतनी बुरी नहीं होती.

मात्र 4 घंटे के नोटिस पर प्रधानमंत्री मोदी ने जिस तरह लॉकडाउन की घोषणा की, उसने शहरी गरीबों को बुरी तरह प्रभावित किया. बंदी के कुछ रोज बाद से ही शहरों में भूख एक संकट बनकर सामने आने लगी.

लोग रात-दिन लाइनों में खड़े होकर एक या दो वक्त के भोजन के जुगाड़ में लगे रहे. घंटों के इंतजार के बाद या कई किलोमीटर की यात्रा करने के बाद गरीबों को थोड़ी सी खिचड़ी मिल जाती थी. खाना बंटने की अफवाह मात्र पर ही लोग एक-दूसरे को पछाड़ते हुए दौड़ पड़ते थे.

ऐसा दृश्य मैंने दशकों पहले आईएएस रहते हुए गांवों में सूखे या अकाल के समय में देखा था. लेकिन शहरों में ऐसा मंजर कभी नहीं दिखा.

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दिल्ली में हजारों लोगों के बीच पका हुआ खाना और राशन किट पहुंचाते हुए मैंने देखा कि हम भूख के अभूतपूर्व संकट से गुजर रहे हैं. यहां लाखों लोग बेबसी और अनिश्चितता के अंधेरे में जी रहे हैं.

उन्हें नहीं पता कि अगला राशन उन्हें कब और किसके रहमोकरम पर मिलने वाला है और मिलने वाला है भी या नहीं. शहरों में बेघर लॉकडाउन और भूख के सबसे आसान शिकार बने.

दिल्ली में लॉकडाउन के चौथे दिन मैं और मेरे सहयोगी कंपनी बाग इलाके में खाना बांटने पहुंचे थे. पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन और टाउन हॉल की बिल्डिंग के बीचों-बीच यहां ‘लेबर अड्डा’ नाम की एक जगह है.

यहां हर सुबह हजारों बेघर लोग इकट्ठा होते हैं जो बिना किसी शर्त के किसी भी तरह की मजदूरी के लिए तैयार रहते हैं. जिस दिन हम लेबर अड्डा पहुंचे, वहां आम दिनों के मुकाबले कई गुना ज्यादा लोग मौजूद थे.

मैं जहां तक देख सकता था, सड़क किनारे बैठे हुए मजदूर ही दिखाई पड़ते थे. किसी ने उन्हें खाना बंटने की बात कही थी. नेपाल के एक युवा ने हमसे कहा, ‘चार दिन से मैंने रोटी का मुंह भी नहीं देखा है. मैं एक होटल में रोटी बनाकर हर दिन 500 से 600 रुपये तक की कमाई कर लेता था, लेकिन आज कई घंटों से आपके चावल और दलिया का इंतजार कर रहा हूं. यहां मेरे जैसे और भी कई कारीगर हैं.’

वहां मौजूद अन्य लोगों की कहानियां भी ऐसी ही थीं. लगभग सभी लोग किन्हीं होटलों में काम किया करते थे, लेकिन आज मामूली खाने के लिए भी उन्हें लाइनों में लगना पड़ रहा था.

उनका कहना था, ‘न हमारे पास कोई परिवार है और न ही राशन कार्ड. हमारे पास सिर्फ अपने हाथ का हुनर है जिसके बदौलत किसी तरह हमारा गुजारा होता है. दिनभर मेहनत करके हम 500 रुपये कमाते हैं और रात में कहीं भी किसी सड़क या गलियों में सो जाते हैं. आज जब हमसे हमारी रोजी-रोटी छिन गई है, हम कहां जाएं, क्या करें?’

यहां के लोग प्रधानमंत्री के प्रति काफी गुस्से में थे. उनका कहना था, ‘मोदीजी ने ऐसा क्यों किया हमारे साथ? अगर हम भूखे रहेंगे तो क्या हमें कोरोना जल्दी नहीं पकड़ लेगा?’

कुछ नौजवान साथियों ने यहां हमें एक नेत्रहीन व्यक्ति से मिलाया. वे भीख मांगकर अपना पेट भरते हैं. एक महिला गोद में अपना बच्चा लिए हमारे पास आईं. इन्हें बिहार जाना था, तब रेलवे ने परिचालन रोका हुआ था.

रेलवे स्टेशन के पास ही बस्ती में कुछ गरीबों ने इन्हें अपने यहां आश्रय दिया था. इनका कहना था, ‘हम कब तक उनके सिर पर बोझ बन कर रहेंगे? उनके पास भी खुद के लिए खाना नहीं है, वे हमें कहां से खिलाएंगे.’

कंपनी बाग में एक बात लगभग सभी लोगों ने कहा- ‘हम लोग कोरोना से मरें न मरें, भूख से जरूर मर जाएंगे.’

निगमबोध श्मशाम घाट के बगल में यमुना पुश्ता नाम की बस्ती है. यहां 4,000 के लगभग की आबादी में बेघर लोग रहते हैं, लेकिन लॉकडाउन के शुरुआती दिनों में यहां 10,000 से ज्यादा लोग इकट्ठा हो गए. इन सभी को उम्मीद थी कि ज्यादा संख्या में इकट्ठा होने पर कोई भोजन पहुंचाने जरूर आएगा.

इस जगह पर एक सज्जन सरदार जी बीते 15 सालों से हर रोज कम से कम 1,000 बेघर लोगों को खाना खिला रहे हैं. वे अपनी पहचान जाहिर नहीं करना चाहते.

जब वहां पहुंचे तो यमुना पुश्ता में कंपनी बाग से भी ज्यादा लंबी कतार लगी थी. लोग एक-दूसरे के बिल्कुल करीब-करीब होकर बैठे थे. सामाजिक दूरी का इनके लिए कोई मतलब नहीं था.

खाना बंटने की अफवाह पर लोगों की भीड़ लग गई थी. बुजुर्ग और विकलांग लोग ऐसी मारामारी में पीछे रह जाते और अमूमन उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ता.

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अगले दिन हम निजामुद्दीन इलाके में गए थे. यहां हजारों बेघर परिवारों की एक बस्ती है. भोजन और राशन की किल्लत के बारे में यहां जो कुछ देखा-सुना, वह विकास के सारे दावों की पोल खोल देता है.

एक महिला ने यहां कहा, ‘हम चाय पीकर अपना भूख मारने की कोशिश कर रहे हैं. 10 रुपये में एक कप चाय मिलता है जिसे पीकर हमारा पूरा परिवार अपनी भूख मिटा रहा है.’

किसी का कहना था कि बच्चे जब दूध के लिए रोते हैं तो उन्हें पानी वाली काली चाय बनाकर देती हूं. यहां के लोगों ने अपनी तकलीफें बताते हुए कहा, ‘आप ही बताओ कि हम काम के बगैर कब तक जिंदा रहेंगे? वो गरीबों को कुत्तों की तरह मार रहे हैं.’

एक बुजुर्ग ने हमसे कहा, ‘मैं ट्रैफिक सिग्नल के पास भीख मांगा करता था. चाय पीने के लिए बाहर निकला तो पुलिस ने हमको लाठियों से मारा. आप हमारे कपड़ों पर खून के छींटे देख रहे हैं न?’

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बेघर लोगों के बाद लॉकडाउन का सबसे अधिक खामियाजा अनधिकृत झुग्गियों में रहने वाले लोगों को भुगतना पड़ रहा है. मंत्रियों और बड़े-बड़े अधिकारियों के आलीशान मुहल्लों से कुछ ही दूरी बनी ये अनधिकृत झुग्गियां न्यू इंडिया की असलियत हैं.

मजनू का टीला इलाके में खाना बांटने के दौरान ऐसे ही एक बस्ती से होकर गुजरे. यहां एक झुग्गी में एक महिला बर्तन में कुछ पका रही थीं, लेकिन हमें देखते ही उन्होंने साड़ी के पल्लू से बर्तन को ढक दिया. दरअसल, वो मुर्गी का पैर था, जिसे अक्सर अखाद्य समझ कर फेंक दिया जाता है, वह उसे पका रही थीं.

हमें देखकर वो इस बात से शर्मिंदा थीं कि रद्दी समझे जाने वाली चीज उन्हें खानी पड़ रही है. उन्होंने कहा, ‘हम क्या करें जब हमारे पास पैसे नहीं हैं तो हम दूसरा क्या खाएं?’

हमने उन्हें बताने की कोशिश की कि उन्हें शर्मिंदा होने की कोई जरूरत नहीं है बल्कि यहां तो सरकार को शर्मिंदा होना चाहिए. वे अपने परिवार का पेट भरने के लिए जितना कुछ कर सकती थीं, कर रही थीं और इसके लिए उन्हें शर्म नहीं बल्कि गर्व करना चाहिए.

(फोटो: रॉयटर्स)
(फोटो: रॉयटर्स)

यहीं एक अन्य महिला ने भी अपनी पीड़ा हमसे सुनाई. उनका कहना था, ‘हमने सुना कि स्कूल के पास कुछ लोग खाना बांट रहे हैं. हम भागते-भागते वहां पहुंचे, लेकिन जब तक हमारी बारी आती, खाना खत्म हो चुका था. उन्होंने मुझे सिर्फ दो केले दिए.’

उन्होंने आगे कहा, ‘आप हमारे घर चलकर खुद ही देख लीजिए. हमारे पास बिल्कुल भी कुछ खाने-पीने का सामान नहीं है. कई दिनों से स्टोव नहीं जला पाए हैं. जब कुछ सामान ही नहीं है तो पकाएंगे क्या?’

आम दिनों में इन गंदी और भीड़भाड़ भरी बस्तियों में लोग पत्थरों के सिल-बटने को तराशकर, रिक्शा चलाकर, कूड़ा बीनकर या भीख मांगकर अपना गुजारा करते हैं. लेकिन लॉकडाउन के कारण इनका काम रातोंरात ठप हो गया. ट्रैफिक सिग्नल पर भीख मांगने वाले बच्चों को अब पुलिस डंडे मारकर भगा देती है.

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तुगलकाबाद किले के पास बनी झुग्गियों में भी कुछ इसी तरह के हालात हैं. यहां के लोग पुराने कपड़े के बदले बर्तन बेचकर, कूड़ा बीनकर या फिर भीख मांगकर अपना जीवन चलाते हैं. मेरे एक युवा साथी के साथ कैमरे पर बोलते हुए एक महिला ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से सवाल किया, ‘क्या आप लोग हमारा यही विकास कर रहे हो?’

तुगलकाबाद में ही एक अन्य महिला का कहना था, ‘हमें डर लग रहा है क्योंकि हमारी मौत नजदीक है. लोग कहते हैं कि यह (कोरोना का असर) एक साल तक रहेगा. अगर हम भूख से भी मर जाएं तो यह सरकार कोरोना का नाम लेकर बच जाएगी.’

इन दोनों बस्तियों में रहने वाले लोगों का कहना है कि जैसे-जैसे गर्मी बढ़ रही है, भोजन के साथ-साथ पानी की समस्या भी बढ़ती जा रही है. इन बस्तियों में पानी की कोई सप्लाई नहीं होती और न ही इनमें सरकारी नल का इंतजाम है.

मजनू का टीला के लोग एक किलोमीटर दूर एक अपार्टमेंट के बिल्डिंग से कंधे पर पानी का डिब्बा लादकर लाते हैं. तुगलकाबाद के लोग पेड़ों पर पानी डालने आने वाले टैंकर वाले से हाथ-पैर जोड़कर कुछ पानी लेते हैं.

इन लोगों के लिए हर रोज स्नान करना भी मुश्किल है, ऐसे में बार-बार हाथों को धोने का तो कोई सवाल ही पैदा नहीं होता. आम दिनों में इन्हें सुलभ शौचालय में स्नान या शौच करने के लिए सुबह में 10 तो दोपहर में 5 रुपये देने पड़ते हैं.

आज जब लॉकडाउन में इन पर पैसे और खाने-पीने का संकट मंडराने लगा है, ऐसे में जाहिर है कि ये लोग सुलभ शौचालय का यह खर्च नहीं उठा सकते.

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भूख की यह विकट समस्या सिर्फ झुग्गी-बस्तियों तक सीमित नहीं रहने वाली थी. इसने पूरे शहर के वंचितों को अपना शिकार बनाया.

हमें जानकारी मिली कि सेक्स वर्कर्स की हालत भी बहुत दयनीय है. उनका काम ठप हो गया है. हिंदी प्रदेशों से दिल्ली आईं ज्यादातर सेक्स वर्कर्स के पास न कोई राशन कार्ड है और न ही दिल्ली के पते पर आधार कार्ड, इसलिए ये लोग सरकारी मदद का लाभ भी नहीं ले पातीं.

हमारी टीम उन्हें जो राशन किट उपलब्ध करा रही थी, उसी के सहारे उनका जीवन कट रहा था.

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कारवां के हमारे हेल्पलाईन पर नांगलोई जैसे औद्योगिक क्षेत्र से भी मदद के लिए बहुत सारे कॉल आए. वहां हमने लघु और मध्यम उद्योग से जुड़ी फैक्ट्रियों में मजदूरी करने वाले लोगों के पास मदद पहुंचाए. इनमें से कोई जूते बनाने की फैक्ट्री में काम करता है तो कोई जींस की.

वहां जितने लोगों से बात की, आम दिनों में भी उन्हें उचित पगार नहीं मिलती, लेकिन फिर भी नियमित और नौकरी की सुरक्षा होने के कारण ये लोग यहां काम करते हैं. लॉकडाउन के बाद कई फैक्ट्री के मालिकों ने अपने मजदूरों को मार्च का वेतन दिया. बहुत सारे मालिकों के पास उतनी हैसियत नहीं थी कि वे अपने मजदूरों को पैसे दे सकें.

मकान मालिक भी इन मजदूरों पर किराए के लिए दबाव बना रहे थे, पर मजदूरों को अपने मकानमालिकों से कोई शिकायत नहीं है क्योंकि अधिकांश मकानमालिक खुद आर्थिक रूप से उतने मजबूत नहीं हैं और घर से मिलने वाले किराए के भरोसे ही उनका परिवार चलता है.

अब ये मजदूर पूरी तरह से सरकारी राशन पर निर्भर हो गए हैं. स्कूलों के बाहर घंटों तक लाइनों में खड़े होने पर इन्हें पका हुआ भोजन या राशन किट मिलता है.

बिहार, असम और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों से भूख के संकट की जो तस्वीरें सामने आ रही हैं, उसके मुकाबले दिल्ली का संकट कम लगता है. केरल के बाद दिल्ली ही ऐसा राज्य है जहां सरकार की मदद कुछ हद तक लोगों तक पहुंच पाई है.

इन सबके बावजूद जिन राज्यों में राशन-भोजन को लेकर अपेक्षाकृत ठीक काम हो रहे हैं, वहां भी मजदूरों के आत्मसम्मान और स्वास्थ्य को नजरंदाज किया जा रहा है. दो वक्त के खाने के लिए उन्हें दो बार लंबी लाइनों में लगना पड़ता है.

इसके साथ ही जहां-जहां हम गए, हमें शिकायत मिली कि भोजन ठीक से पका हुआ नहीं होता है. लोगों के अधपका भात और पनीली दाल परोसी जा रही है. चावल की क्वालिटी भी निम्न स्तर की है.

बारी आने पर खाना खत्म हो जाने की चिंता के कारण कई बार हल्की-फुल्की भगदड़ जैसे हालात बन जा रहे हैं. सरकार ने राशन देने के लिए ई-कूपन की सुविधा शुरू की है. लेकिन, इसमें वैसे लोग पूरी तरह से छूट जा रहे हैं जिनके पास राशन कार्ड, स्मार्ट फोन और दिल्ली का आवासीय प्रमाण पत्र नहीं है.

पिछले दो महीनों में मैंने दिल्ली में प्रभावित लोगों के बीच भोजन-राशन पहुंचाते हुए जो कुछ देखा और सुना है यह उसी की तस्वीर है. आने वाले समय में इस समस्या के और अधिक बढ़ने की संभावना है.

सरकार चाहे तो मजदूरों को भूख की अपमानजनक पीड़ा से मुक्ति दिला सकती है, लेकिन यह सरकार दूरदर्शिता और संवेदनाओं को ताक पर रखकर फैसले कर रही है. सरकार के इन रवैयों के कारण इस अभूतपूर्व मानवीय त्रासदी के खत्म होने के कोई आसार नजर नहीं आते.

(लेखक पूर्व आईएएस अधिकारी और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं.)

मूल अंग्रेजी लेख से अभिनव प्रकाश द्वारा अनूदित.