कोरोना काल में अनेकों मनुष्य मानवता से ही ‘मुक्त’ हुए जा रहे हैं…

अतीत में हमने कोरोना से ज़्यादा संहारक महामारियां झेली हैं, वो भी तब, जब हमारे पास आज जैसा ज्ञान-विज्ञान नहीं था लेकिन कभी इतने भयाक्रांत नहीं हुए कि अपने मनुष्य होने पर ही संदेह होने लगे और संक्रमण से बचाव का डर उस हद तक पहुंच जाए, जहां से घर लौटते प्रवासी मज़दूर अवांछनीय नज़र आने लग जाएं!

/
(फोटो: पीटीआई)

अतीत में हमने कोरोना से ज़्यादा संहारक महामारियां झेली हैं, वो भी तब, जब हमारे पास आज जैसा ज्ञान-विज्ञान नहीं था लेकिन कभी इतने भयाक्रांत नहीं हुए कि अपने मनुष्य होने पर ही संदेह होने लगे और संक्रमण से बचाव का डर उस हद तक पहुंच जाए, जहां से घर लौटते प्रवासी मज़दूर अवांछनीय नज़र आने लग जाएं!

(फोटो: पीटीआई)
(फोटो: पीटीआई)

लोभ और लालच तो हमारी आदमीयत को पहले से ही भयाक्रांत किए हुए थे, अब कोरोनाजनित नया मृत्यु भय भी तेजी से उसका शिकार करता दिखाई देने लगा है- न सिर्फ हमारे देश बल्कि दुनिया भर में. अलबत्ता, चूंकि मृत्यु से जुड़े दर्शन व चिंतन सारे देशों में एक जैसे नहीं हैं, यह नया मृत्यु भय भी सर्वत्र समरूप नहीं है.

अपने देश की बात करें तो इसको मनुष्य के आदिम भयों में से एक माना जाता है. प्राचीन भारतीय साहित्य गवाह है कि जैसे ही मनुष्य ने समझा कि मां की कोख से धरती पर गिरने और धाय द्वारा गोद में उठाए जाने से पहले ही जीवन की अनिश्चितता ने उसे अपनी बांहों में ले लिया है, वह इस पर विजय पाने की सोचने लगा.

इस क्रम में कई बार वह अपने अभियानों को इस रहस्योद्घाटन के प्रयासों तक भी ले गया कि मौत वास्तव में है क्या और उसके बाद क्या होता है. इस सिलसिले में कई बार वह अमरत्व की खोज तक भी गया.

लेकिन धरती का कोना-कोना खंगाल और अंतरिक्ष तक को आक्रांत कर डालने के बावजूद न वह मौत या उसके भय को जीत सका और न अमरत्व की मृगतृष्णा से ही मुक्त हो सका है. उलटे उसके मृत्यु भय को भुनाने वाली कई ऐसी जमातें पैदा हो गई हैं, जो उसे गाहे-ब-गाहे सताती रहती हैं.

कई मुक्ति चिंतनों में मृत्यु के चक्र से छूटने के लिए जन्म के चक्र से छुटकारे की बात भी कही जाती है- देह और जगजीवन से विश्राम को ही मुक्ति बताया जाता है. निश्चित ही यह ‘न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी’ जैसी बात है. जन्म ही नहीं होगा, तो मृत्यु का सवाल ही नहीं उठेगा.

बहरहाल, इस नाकामी को कोई मनुष्य का दुर्भाग्य कहता है तो कोई सौभाग्य. किसी को ‘जिंदगी मौत के पहलू में भली लगती है’ तो कोई कहता है- हर बात में बेहिसी होती, हर मसर्रत बुझी-बुझी होती होती, होती न जो मौत जिंदगी में, तो जिंदगी मौत बन गई होती.

जो भी हो, मनुष्य की जिजीविषा ऐसी है कि भले ही वह मौत को ‘शाश्वत सत्य’ के आसन से बेदखल नहीं कर पाया है, उसने उसके आगे आत्मसमर्पण नहीं किया है. कर देता तो पल की खबर न होने के बावजूद सौ बरस के सामान पर टेक कैसे रखता?

सच कहें तो मिर्जा गालिब का यह सवाल भी कि नींद क्यों रात भर नहीं आती, इसी अर्थ में ज्यादा प्रासंगिक है कि मनुष्य को मौत का एक दिन मुअय्यन होना कुबूल नहीं और ऐसा मानकर खुद को बेफिक्र नींद के हवाले करके वह ‘मरते हैं आरजू में मरने की, मौत आती है पर नहीं आती’ की गति को प्राप्त नहीं होना चाहता.

हां, कई कवियों व दार्शनिकों के निकट मृत्यु भय से पार पाने की एक जुगत निर्भय होकर उसका स्वागत करने की भी है. मनुष्यता की लंबी यात्रा में ऐसे अनेक पड़ाव हैं, जहां इस आधार पर मृत्यु भय से मुक्त वीरों ने किसी उदात्त लक्ष्य के लिए अपना जीवन दांव पर लगाकर अपना सच्चा मनुष्य होना सिद्ध किया.

फिर कोरोनाकाल में इतना मृत्यु भय कहां से आ गया है कि अनेक मनुष्यदेहधारी उसके बजाय मनुष्यता से ही ‘मुक्त’ हुए जा रहे हैं? जानकार बताते हैं कि हमारे ज्ञात इतिहास में न कोरोना पहली महामारी है, न अभूतपूर्व.

अतीत में हमने इससे ज्यादा संक्रामक व संहारक महामारियां झेली हैं. सो भी, जब हमारे पास ज्ञान-विज्ञान के आज जैसे कवच और कुंडल नहीं थे. लेकिन हम कभी इतने भयाक्रांत नहीं हुए कि अपना मनुष्य होना ही संदिग्ध करने लगें और संक्रमण से बचाव को भीरुता के उस चरम तक ले जाएं, जहां अपनी बालकनी से देखने पर स्पेशल ट्रेनों से घर लौटते प्रवासी मजदूर किसी दूसरे ग्रह के सर्वथा अवांछनीय प्राणी नजर आने लग जाएं!

लेकिन इस भय की ‘तीव्रता’ इतनी ही नहीं है. अयोध्या जिले के मसोधा ब्लाॅक के एक गांव में एक मां को जैसे ही पता चला कि परदेस में रह रहा उनका बेटा और बहू संकट की इस घड़ी में लौटकर घर आ रहे हैं, वह इतनी आक्रांत हुई कि घर में ताला लगा दिया और उनके पिता को साथ लेकर रिश्तेदारी में चली गई.

अनेक दूसरे प्रवासी मजदूरों द्वारा अपने गांवों में अपने ही खून-पसीने की कमाई से बनवाए घरों के दरवाजे उनके लिए नहीं खुल पा रहे-कोरोना वाॅरियरों के भरोसे जैसे-तैसे क्वारंटीन के दिन काट लेने के बावजूद.

इस बेगानगी का त्रास ऐसा है कि देश में कई कोरोना संक्रमित संक्रमण होते ही अपने को अकेला, घृणा का पात्र और जीवन को निस्सार मानकर आत्महत्या कर चुके हैं. यह बताने पर कि वे जल्दी ही ठीक हो जाएंगे, उन्हें मृत्युभय-संक्रमितों की ओर से आसन्न सामाजिक रुसवाई परेशान करने लगती है.

यह आशंका भी कि बाहर निकलने पर वे उनसे जानें कैसा व्यवहार करेंगे? इस बात को समझेंगे या नहीं कि लड़ाई कोरोना वायरस से लड़नी है, उससे संक्रमितों से नहीं? समझते तो अनेक संक्रमितों के एचआईवी पीड़ितों से ज्यादा तिरस्कार की खबरें क्यों आतीं?

संक्रमितों की आशंकाएं अकारण नहीं हैं. होती रही होगी कभी डर के आगे जीत, आजकल जीत सामने आकर खड़ी हो जाए तो भी मृत्यु भय से संक्रमित महानुभाव इस भय से उसे गले नहीं लगाने वाले कि कहीं वह वायरस की वाहक न हो.

बेचारे अपनी बगल से किसी अजनबी के गुजरते ही सिहरकर रह जा रहे और संक्रमितों के डाॅक्टरों तक को ‘बर्दाश्त’ नहीं कर पा रहे. अपने आसपास की जगहों पर, भले ही वे कब्रिस्तान और श्मशान ही क्यों न हों, कोरोना से जानें गंवाने वालों का अंतिम संस्कार भी नहीं ही करने दे रहे.

उनका कोई अपना जान गंवा दे तो मेडिकल प्रोटोकाॅल फॉलो करते हुए भी उसके अंतिम दर्शन की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे. प्रेमचंद के शब्द उधार लेकर कहें तो कोरोना के डर से जन्मी अपने भविष्य की भीषण चिंता ने उनके सारे आंतरिक सद्भावों का विनाश कर दिया है.

इनमें से कई महानुभाव कल तक लोगों को ‘होइहिं सोई जो राम रचि राखा’ का पाठ पढ़ाया करते थे, मगर आज कोई ‘शास्त्रार्थ’ उन्हें आश्वस्त नहीं कर रहा. मैंने ऐसे ही एक सज्जन को याद दिलाया- 1971 में आई ‘अंदाज’ नामक फिल्म में किशोर कुमार ने एक बड़ा ही मस्ती भरा गीत गाया था.

फिर कहा कि आइये, इसकी कुछ पंक्तियां जोर-जोर से गाकर अपने अंदर के भय को बाहर निकाल दें- मौत आनी है/आएगी एक दिन/जान जानी है/जाएगी एक दिन… ऐसी बातों से क्या घबराना/जिंदगी एक सफर है सुहाना…

लेकिन ‘जिंदगी एक सफर है सुहाना’ तक पहुंचते-पहुंचते उनका कंठ सूख गया तो मैंने उन्हें एक कुख्यात डकैत का अदालत में दिया गया बयान सुनाया, जिसमें उसने कहा था कि उस पर लगाया गया हत्याओं एक भी आरोप सही नहीं है.

सच्चाई यह है कि उसने जिनकी भी कनपटी पर बंदूक रख दी, उन्होंने डर के मारे उससे गोली चलने से पहले ही दम तोड़ दिया. फिर कहा- मृत्यु भय से आपकी तरह एक ही दिन में सौ बार मरने से तो वाकई मर जाना ही अच्छा.
वे तुनक गए.

लंबी चुप्पी के बाद प्रसंग बदला तो बताने लगे-जांच होने जा रही है कि कोरोना वायरस चीन की प्रयोगशाला में बना या उसके पीछे अमेरिकी साजिश है? जानें क्यों, मैं खीझ उठा. बोला-लेकिन इस बाबत किसी जांच की जरूरत नहीं कि आप जिस मृत्यु भय से संक्रमित हैं, उसे लोभ और लालच फैलाने वालों ने ही फैला रखा है. पहचान लीजिए, वे अभी से कोरोना की उस वैक्सीन पर एकाधिकार के लिए मरे जा रहे हैं, जो अभी बनी भी नहीं है.

सावधान रहिए, कोरोना तो आज नहीं तो कल चला जाएगा, लेकिन लोभ, लालच और मृत्यु भय फैलाने वाले ऐसे योजनाबद्ध प्रयासों में लगे ही रहेंगे, जिनसे तीनों अजर-अमर हो जाएं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25 bandarqq dominoqq pkv games slot depo 10k depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq slot77 pkv games bandarqq dominoqq slot bonus 100 slot depo 5k pkv games poker qq bandarqq dominoqq depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq