मध्य प्रदेश में ख़ुशहाली मंत्रालय है, राज्य को 4 बार कृषि कर्मण अवॉर्ड मिल चुका है, सरकार कृषि क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति का दावा करती है, फिर राज्य के किसान क़र्ज़ में कैसे डूबे हैं और वे आत्महत्या क्यों कर रहे हैं?
होशंगाबाद, मध्य प्रदेश के गांंव चपलासर में एक दलित परिवार के मुखिया सुखलाल अहिरवार से बातचीत के बाद जब मैं चलने लगा तो उन्होंने आंखों में आंसू भरके, आम के पेड़ की तरफ इशारा करके, लरजते शब्दों में कहा था, ‘इसी पेड़ पर फांसी लगा लूंगा लेकिन अपनी ज़मीन नहीं दूंगा.’ वह दृश्य किसी भी इंसान के लिए भूलना मुश्किल है.
खेती से जुड़ी मुश्किलों से परेशान होकर मरने की सोचने वाले सुखलाल अकेले नहीं हैं. मुख्यमंत्री शिवराज चौहान के गृह जिले सीहोर के बुधनी विधानसभा के जाजना गांव में दुलीचंद गीर ने आत्महत्या कर ली थी. उनके बेटे इंद्रजीत गीर ने बातचीत में कहा, ‘सरकार हमारा क़र्ज़ माफ़ नहीं करेगी तो मैं भी सुसाइड कर लूंगा.’ यह मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में आम किसानों की मन:स्थिति है.
मध्य प्रदेश देश का अकेला ऐसा राज्य है जहां पर हैपिनेस मिनिस्ट्री यानी ख़ुशहाली मंत्रालय है. लेकिन सिर्फ़ जून, 2017 में ही राज्य में 50 से ज़्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं. यह वही राज्य है कि जिसे पिछले 4 बार लगातार कृषि कर्मण अवॉर्ड मिल चुका है. राज्य सरकार का दावा है कि राज्य ने पिछले कुछ सालों में कृषि में अभूतपूर्व प्रगति की है. तो फिर राज्य के किसान क़र्ज़ में क्यों हैं और वे आत्महत्या क्यों कर रहे हैं?
किसान आंदोलन के दौरान छह किसानों की मौत हुई थी. एक जून से 10 जून तक हुए आंदोलन की आग भले शांत हो गई हो, लेकिन तंगहाली के चलते किसानों में ग़ुस्से की चिंगारी अब भी सुलग रही है. छह जुलाई से फिर से ‘किसान मुक्ति यात्रा’ शुरू हो रही है. सोशल मीडिया के ज़रिये फिर से हड़ताल और कृषि उत्पादों की आपूर्ति रोकने के लिए किसानों का आह्वान किया जा रहा है.
जून के दूसरे सप्ताह में हम मध्य प्रदेश के मंदसौर और आसपास के ज़िलों में थे. इसी क्रम में होशंगाबाद के एक वीरान सिवान में चपलासर गांव का रास्ता खोज रहे थे. हम एक जगह पहुंचे जहां आसपास दूर दूर तक वीरान था. हम कोई आदमी खोज रहे थे, जो हमें गांव जाने का रास्ता बता दे. थोड़ी दूर पर हमें कुछ लोग दिखाई दिए जिनके पीछे हम चलने लगे. कुछ दूर तक उनका पीछा किया तो एक बाग में एक झोपड़ी दिख गई.
आम, कटहल, जामुन, नीबू आदि के पेड़ों वाले इसे घने बाग में बनी झोपड़ी के आसपास हमें सुखलाल का परिवार मिला. बात करने पर पता चला कि यह उनका खेत है. डेढ़ एकड़ में उन्होंने चालीस साल पहले बाग लगाया था, बाक़ी डेढ़ एकड़ में खेती करते हैं. उनकी ज़मीन के बगल 1700 एकड़ का एग्रो का फार्म था. अब वह कोकाकोला कंपनी को दे दिया गया है. यहां पर कोकाकोला प्लांट लगेगा.
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कंपनी का प्लांट तैयार करने की ज़िम्मेदारी बंसल ग्रुप के पास है. कुछ समय पहले इस ग्रुप के कुछ लोग आए और बाग समेत सुखलाल की आधी ज़मीन को फार्म की ज़मीन बताकर पत्थर के खंभे गाड़कर चले गए. उन लोगों ने सुखलाल से कहा कि अपने सारे पेड़ काट लो, झोपड़ी हटा लो और ज़मीन ख़ाली कर दो. उन्होंने धमकाया कि अगर ज़मीन अपने से ख़ाली नहीं कि तो हम बुल्डोजर चलवा देंगे और तुम्हें बांधकर उठा ले जाएंगे.
सुखलाल ने कहा, ‘हमारे पास मतदाता पत्र है, हमारे पास राशन कार्ड है, लेकिन हमें आज तक एक दाना अनाज नहीं मिला. हम दोनों पति पत्नी को कोई पेंशन नहीं मिली. बस चुनाव आता है तो कुछ लोग आते हैं, गाड़ी में बिठाकर ले जाते हैं, वोट ले लेते हैं फिर उसके बाद कभी कोई नहीं आता.’
हमने पूछा, आपने कभी कोशिश नहीं की? सुखलाल ने ज़मीन छीने जाने को लेकर पांच दरख़्वास्त की नक़ल दिखाई जो वे तहसील में लगा चुके हैं. उन्होंने कहा, ‘जबसे इस देश में वोटिंग होने लगी, सरकार ने सुनना बंद कर दिया. अब कोई सुनवाई नहीं होती. अब न्याय नहीं है. अंग्रेज़ों के समय में ऐसा नहीं था. तब शिकायत करने पर सुनवाई होती थी.’ सुखलाल की यह शिकायत और उनका दृढ़ता से यह कहना कि अगर हमारी ज़मीन ली तो हम इसी पेड़ से लटक कर आत्महत्या कर लेंगे, इस तंत्र पर गंभीर सवाल खड़े करता है.
सुखलाल का बाग 40 साल पुराना है. उन्होंने कहा, ‘ज़मीन मेरी है. इसका काग़ज़ मेरे पास है. अपने हाथों से 40 साल पहले बाग लगाया था. कंपनी वाला हमारा बाग, हमारी ज़मीन कैसे ले लेगा.’
सुखलाल के बेटे बबलू ने बताया, ‘हम सब इकट्ठा होकर तहसीलदार के पास गए थे तो वे बोले हमारे पास कई आवेदन आए हैं, हम किस किस की सुनें. आप लोग पटवारी से मिलिए. पटवारी कहते हैं तहसीलदार से मिलिए. हमारी कोई नहीं सुन रहा.’
सुखलाल की इस झोपड़ी के ठीक बगल में एक आदिवासी परिवार है. इस परिवार की तारावती ने बताया कि उनका भी घर कंपनी वाले ले रहे हैं. अभी उन्हें ख़ाली करने को नहीं कहा गया है, लेकिन कंपनी वाले यह कह गए हैं कि उनका घर अब कंपनी की ज़मीन में आ गया है, हालांकि, वे यहां रह सकते हैं. तारावती के पति को इस बात से सदमा लगा है और वे अब चारपाई पर हैं. चारपाई पर बैठै तारा के पति ने कहा, ‘वे कह रहे हैं कि उपर जाकर लड़ो. अब पहाड़ में सिर मारने से पहाड़ तो टूटेगा नहीं, सर ही फूटेगा.’
जिन लोगों ने आत्महत्या की, जिन्होंने नहीं की और जो पुलिस गोलीबारी में मारे गए, उन सबकी हालत एक दूसरे से ज्यादा जुदा नहीं है. वे सब छोटे किसान हैं, ज़्यादातर क़र्ज़ में हैं और सब कृषि मजदूर भी हैं.
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जून बीत चुका है और इस एक ही महीने में 50 से ज़्यादा आत्महत्याओं के बाद मैं सोच रहा हूं सुखलाल और इंद्रजीत अकेले तो नहीं थे जो आत्महत्या के बारे में सोच रहे थे. उन दोनों के गांव चपलासर और जाजना में सन्नाटा पसरा था. इन गांवों में आधे से ज़्यादा परिवार क़र्ज़ में हैं. क़र्ज़ वसूली के लिए बैंक और सूदखोरों का उनपर लगातार दबाव है और खेत में लागत के बराबर भी उपज न होने से भयंकर निराशा. यह दबाव और निराशा उन्हें न जीने देने को मजबूर करता है.
मंदसौर में छह जून को पुलिस गोलीबारी में छह किसान मारे गए थे. दस जून को आंदोलन समाप्त हो गया. आंदोलन के दौरान भी राज्य में किसानों की आत्महत्या जारी रही.
इसी दौरान, जाजना के दुलीचंद पर सरकारी बैंक और सूदखोर को मिलाकर सात लाख का क़र्ज़ था. वे क़र्ज़ नहीं चुका पा रहे थे, इसलिए आत्महत्या कर ली. उनके बेटे इंद्रकुमार गीर ने बताया, ‘पांच साल से फ़सल ठीक से नहीं हो रही थी. सोयाबीन की फ़सल ख़राब हो गई. मूंग बोयी थी, वह भी ख़राब हो गई. इतनी पैदावार हुई ही नहीं कि क़र्ज़ चुकाया जा सके, इसलिए क़र्ज़ और बढ़ता जा रहा था.’
अब तक किसान आत्महत्याओं पर हमने मीडिया में कहीं भी जितनी भी ख़बर पढ़ी है, या जहां जहां हम गए, सब मामलों में पुलिस का पक्ष यह होता है कि यह आत्महत्या क़र्ज़ के कारण नहीं है. या फिर पुलिस कह देती है कि जांच चल रही है. मीडिया जिन मौतों को किसानों की आत्महत्या के तौर पर रिपोर्ट कर रहा है, प्रशासन उन सबको क़र्ज़ या कृषि संकट के चलते की गई आत्महत्या होने से इनकार कर देता है, जबकि परिजन बता रहे होते हैं कि सूदखोर प्रताड़ित कर रहा था, या बैंक के नोटिस भेजने से परेशान होकर आत्महत्या कर ली. सबसे अहम यह है कि पुलिस को आत्महत्या का कारण नहीं पता होता तो यह कैसे पता होता है कि ये आत्महत्याएं क़र्ज़ के कारण नहीं हो रही हैं?
दुलीचंद के पास नौ एकड़ खेत है. उनके परिवार में अब छह लोग हैं. उनके पिता, पत्नी, बेटी और तीन बेटे. बेटी अभी 17 साल की है, लेकिन वह भी मज़दूरी करने जाती है क्योंकि पूरा परिवार मज़दूरी करता है. उनका बेटा मुझसे पूछता है, ‘आप ही बताइए हम मज़दूरी करके किसी तरह रोटी चलाते हैं, हम इतना क़र्ज़ कैसे देंगे?’ दुलीचंद का परिवार अकेला नहीं है जो मज़दूरी करता हो. जितने भी छोटे और मझोले दर्जे के किसान हैं वे सभी अपने खेत में काम करने के अलावा दूसरे के खेतों में, या जहां भी मिल जाए मज़दूरी करते हैं. बालू, ईंट ढोने से लेकर कुदाल चलाने तक.
दुलीचंद के परिवार के पास कहने को नौ एकड़ जमीन है, लेकिन उनके बेटे के मुताबिक, ज़मीन उंची नींची है. पानी नहीं रुकता. सिंचाई की भी दिक्कत है. बिजली छह आठ घंटे आती है. कभी बिगड़ गई तो कई दिन तक नहीं आती. इस बार हमने 60 किलो मूंग बोयी थी. पैदावार हुई कुछ एक क्विंटल. अब इसमें जुताई, निराई, खाद, बीज, कटाई, मढ़ाई सब मिलाकर जितना लागत आई, उतना भी पैसा नहीं मिला. इस कारण पिताजी बहुत टेंशन में थे.’
दुलीचंद ने अपने बेटे इंद्रजीत से आत्महत्या के एक दिन पहले कहा था, ‘इतने में हम किस किसका क़र्ज़ चुकाएंगे?’ लेकिन इंद्रजीत को यह अंदाजा नहीं था कि उनके पिता अगले दिन खेत जाएंगे तो वहां से फिनायल पीकर लौटेंगे. दुलीचंद के तीनों बेटे दिहाड़ी मज़दूरी करते हैं. उन्हें ढेड़ सौ रुपये रोज़ मिलते हैं. हालांकि, इंद्रजीत बताते हैं, ‘हर दिन काम भी तो नहीं मिलता. खेती के सीजन पर ही काम मिलता है. इसलिए हम किसी भी तरह का काम करते हैं, चाहे खेती से जुड़ा हो या कोई भी अन्य काम.’
होशंगाबाद के चपलासर गांव के नर्मदा प्रसाद ने रसायन पीकर आत्महत्या की थी. आत्महत्या से पहले नर्मदा प्रसाद साहूकार के चंगुल में थे. नर्मदा प्रसाद के खेत में मूंग तैयार हुई थी कि साहूकार चढ़ बैठा. नर्मदा प्रसाद के साथ मंडी जाकर उसने ज़बरन मूंग बिकवाई. 45 हज़ार की मूंग बिकी. सारे पैसे साहूकार ने ले लिए. लेकिन इतने से नर्मदा का क़र्ज़ नहीं उतरना था.
नर्मदा प्रसाद ने पांच से छह लाख रुपये क़र्ज़ लिया था जो बढ़कर 30 लाख हो गया था. इसमें बैंक का भी क़र्ज़ था और साहूकार का भी. उक्त साहूकार का नाम प्रभाकर है, जिससे नर्मदा ने 50 हज़ार रुपये लिए थे. एक साल बाद ही प्रभाकर नर्मदा से 2.5 लाख रुपये मांग रहा था.
मूंग बेचकर मिले 45 हज़ार रुपये के साथ प्रभाकर ने नर्मदा प्रसाद का ट्रैक्टर और ट्रॉली भी जब्त कर लिया. नर्मदा प्रसाद के भाई अशोक को शक है कि उनके भाई को ज़हर पिलाया गया है क्योंकि जब वे पहुंचे तो साहूकार और उसके लोग वहां मौजूद थे और पास में ही नर्मदा की लाश पड़ी थी. इस गांव में जिनके पास खेती है, वे सभी क़र्ज़ में हैं और गांव के 60 फीसदी लोग बैंक की तरफ से डिफाल्टर घोषित हो चुके हैं. नर्मदा प्रसाद के अड़ोस पड़ोस में रह रहे लोग भी क़र्ज़दार हैं और सरकारी रिकॉर्ड में डिफ़ॉल्टर हैं.
गांव से लौटते हुए एक किसान रामकुमार ने बताया कि ‘हमने छह एकड़ खेत में मूंग बोई थी. कुल उपज मात्र एक क्विंटल हुई है. जितना बीज लगा था, उससे थोड़ा ही ज्यादा. रामकुमार मैंने पूछा अब क्या करेंगे, बोले ‘जितनी मूंग पैदा हुई है, उसे रख लेंगे बीज के लिए. खाद, पानी, मज़दूरी, जुताई वगैरह का पैसा तो डूब ही चुका है.’
मंदसौर, देवास, रतलाम, सागर, उज्जैन आदि जिलों में हम जिस भी परिवार से मिले, उनकी समस्याएं एक समान थीं. फ़सलों का बर्बाद होना और पैदावार सही दाम न मिलना. इन वजहों से किसान परिवारों पर लगातार क़र्ज़ बढ़ता जा रहा है. वे सिर्फ़ खेती के लिए क़र्ज़ नहीं लेते, वे जीवन चलाने के लिए, किसी के बीमार होने या घर में खाना न होने पर भी कई बार क़र्ज़ लेते हैं.
जिन प्रदेशों में किसान क़र्ज़ के चलते आत्महत्या कर रहे हैं, वहां सबसे बड़ी समस्या रोज़गार की है. रोज़गार के नाम पर सिर्फ़ खेती है. किसान अपने खेतों के अलावा बड़े किसानों के खेतों में काम करते हैं. लेकिन खेती से सीजनल मजदूरी ही मिल पाती है. असली समस्या है कि खेती क़र्ज़ और बर्बादी की फांस बनती जा रही है और किसानों के पास कोई ऐसा अवसर मौजूद नहीं है कि वे अपनी जीविका चलाने के लिए कोई रोज़गार कर पाएं.
देशबंधु अख़बार की वेबसाइट ने आज 5 जुलाई को ख़बर दी है कि ‘मध्य प्रदेश में बीते 24 घंटों में क़र्ज़ और सूदखोर से परेशान होकर तीन और किसानों ने आत्महत्या कर ली है. राज्य में 24 दिनों में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या बढ़कर 42 हो गई है. सागर के मनेशिया गांव के परशुराम साहू ने क़र्ज़ और सूदखोरों से परेशान होकर कीटनाशक पदार्थ खा लिया. इसी तरह शिवपुरी जिले के राधापुर गांव में किसान गोविंद दास (70) ने फांसी लगा ली. तीसरा मामला रायसेन जिले के शाहपुरा गांव का है, जहां संजीव राय ने फांसी लगाकर जान दे दी.’
मंदसौर गोलीबारी कांड के बाद से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के गृह ज़िले सीहोर में अब तक 10 किसान आत्महत्या कर चुके हैं. पूरे मध्य प्रदेश में यह सर्वाधिक है.
राज्य में अब भी किसानों के आत्महत्या करने की घटना में कोई कमी नहीं आ रही है. 4 जुलाई को शिवपुरी ज़िले के बदरखा के रहने वाले एक किसान गोविंद दास जाटव (70) ने आत्महत्या कर ली. उनका शव एक जंगल में पेड़ से लटकता हुआ पाया गया.
4 जून को ही रायसेन की उदयपुरा तहसील में शाहपुरा गांव में किसान संजीव कुमार राय ने आत्महत्या कर ली. संजीव पर 3.5 लाख का क़र्ज़ था. ग्रामीणों का कहना है कि वे क़र्ज़ की वजह से तनाव में थे.
मध्य प्रदेश में मंदसौर की घटना के बाद 23 जून तक एक पखवाड़े में 26 किसानों ने आत्महत्या की थी. तबसे हर दिन दो चार किसानों के आत्महत्या करने की ख़बरें आई हैं. विपक्षी पार्टी कांग्रेस का कहना है कि प्रदेश में एक महीने में 50 से ज़्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं.
चार जुलाई को ही सागर ज़िले के मनेशिया गांव में परसराम साहू (65) ने ज़हर खाकर आत्महत्या कर ली. परिजनों के मुताबिक, उनपर 2.30 लाख का क़र्ज़ था, जिसके चलते उन्होंने आत्महत्या की है.
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जिस राज्य में एक महीने में 50 से ज़्यादा किसानों ने क़र्ज़, फ़सलों की बर्बादी और कृषि उपज का सही दाम न मिलने के कारण आत्महत्या कर ली हो, वहां पर ख़ुशहाली मंत्रालय की क्या भूमिका है? उस राज्य को 4 बार कृषि कर्मण अवॉर्ड किस बात के लिए मिला है? वहां पर कृषि में प्रगति हुई तो किस दिशा में हुई है?
जब मध्य प्रदेश सरकार कृषि क्षेत्र में प्रगति को लेकर अपनी पीठ थपथपाते नहीं थकती, तब सवाल उठता है कि सरकार किस बात का उत्सव मना रही है? क्या किसानों की ताबड़तोड़ ख़ुदकुशी का?