उत्तर प्रदेश के गोरखपुर-महराजगंज ज़िले को कभी बेशकीमती साखू-सागौन के जंगल लगाकर आबाद करने वाले वनटांगियों के पास पर्याप्त ज़मीन और कृषि संसाधन थे, लेकिन समय के साथ नई पीढ़ियां उचित आय और आजीविका के अभाव में शहर की राह पकड़ने को विवश हो गईं.
जिन वनटांगियों ने 100 वर्ष में हजारों एकड़ हेक्टेयर में बेशकीमती साखू-सागौन के जंगल लगाकर यूपी के गोरखपुर-महराजगंज जिले को हरा-भरा बनाया, उनकी संतानें अब मुंबई, पुणे, हैदराबाद, दिल्ली जैसे शहरों में टाइल्स, पेंट-पॉलिश लगाने में अपना भविष्य ढूंढ रही हैं.
हजारों किलोमीटर दूर से आया फ्रेंच परिवार महराजगंज के जिस जंगल किनारे अचलगढ़ गांव के रूप पर मोहित होकर ढाई महीने से अधिक समय तक वहां अपना डेरा बना लेता है, उसी गांव के 100 से अधिक युवक कई वर्षों से मजदूरी के लिए बाहर जाने को विवश हुए.
वन ग्रामों से बड़े शहरों की तरफ बड़ी संख्या में वनटांगियों के पलायन का पता तब चला जब वे कोरोना लॉकडाउन में अपने घरों को वापस लौटे हैं.
महराजगंज जिले के 18 वन ग्रामों में लॉकडाउन के दौरान एक हजार से अधिक मजदूर वापस लौटे हैं. वनटांगियों के बीच तीन दशक से काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता विनोद तिवारी की संस्था सर्वहितकारी सेवा संस्थान ने लॉकडाउन में वापस लौटे वन ग्रामों के 208 मजदूरों की सूची तैयार की है.
इस सूची के अनुसार बलुअहिया में 32, हथियहवा में 9, चेतरा में 12, बीट में 22, कानपुर दर्रा में 36, बेलौहा दर्रा में 50, कम्पार्ट-24 में 38, कम्पार्ट-28 में 8 मजदूर वापस आए हैं.
इसी तरह अचलगढ़ और तिनकोनिया में करीब 200 मजदूर वापस लौटे हैं. ये सभी मजदूर गुजरात, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान और दिल्ली में मजदूरी करते थे.
बेलौहा दर्रा गांव के 40 मजदूर सूरत से वापस आए हैं. ये वहां पर हीरा गढ़ने का काम करते थे. इसमें आधे से अधिक की आयु 20 वर्ष से कम है.
ये मजदूर अगस्त महीने में मजदूरी करने सूरत गए थे. गोल घंटी पर सुबह आठ बजे से रात आठ बजे तक 12 घंटों तक हीरा कटिंग कर ये एक दिन में 500 रुपये या उससे कुछ अधिक कमा लेते थे.
लॉकडाउन के बाद जब काम बंद हो गया तो बेकार हो गए. एक महीने तक तमाम जद्दोजहद के बाद उन्हें श्रमिक स्पेशन ट्रेन मिली, तो वे मई के आखिरी सप्ताह में घर लौट आए.
इन्हीं मजदूरों में एक 27 वर्षीय दुर्गेश हैं. दुर्गेश पांच भाई हैं, जिसमें से दो छोटे भाई उन्हीं के साथ सूरत में मजदूर करते हैं. एक भाई दिल्ली में मजदूरी करता है.
दुर्गेश छह वर्ष से सूरत में मजदूरी कर रहे हैं. वे कहते हैं, ‘गांव में खेती ठीक-ठाक है लेकिन जानवर बचने दें तब न उससे कुछ हो. रात भर मचान पर बैठकर रखवाली करनी पड़ती है. आवारा और जंगली जानवरों से खेती का काफी नुकसान हो रहा है. इसलिए मजदूरी करने बाहर गए.’
मजदूरों के गांव से शहर के पलायन के लिए बेकारी, भूमिहीनता, आपदा, जातीय भेदभाव सहित कई कारण गिनाए जाते हैं लेकिन बहुत कम ऐसे उदाहरण मिलते हैं, जब जंगल के अंदर बसे गांवों से भी बड़ी संख्या में पलायन हुआ हो.
खेती की जमीन होने के बावजूद जंगल से पलायन की वजह क्या?
महराजगंज जिले के 18 वन ग्रामों से बड़ी संख्या में मजदूरों के पलायन ने सोचने पर मजबूर कर दिया है कि आखिर वे कौन से कारण हैं, जिसके चलते वे पलायन को मजबूर हुए.
महराजगंज जिले के वन ग्रामों में करीब 4,745 वनटांगिया परिवार रहते हैं. इनमें से कोई भी भूमिहीन नहीं है. सबके पास कम से कम एक एकड़ और अधिकतम साढ़े तीन एकड़ खेती की भूमि है.
दौलतपुर वन ग्राम के वनटांगियों के पास सबसे अधिक 3.5-3.5 एकड़ भूमि है. बेलासपुर वन ग्राम में वनटांगियों के पास आधा-आधा एकड़ कृषि भूमि है. शेष वन ग्रामों में वनटांगियों के पास एक से दो एकड़ खेती की भूमि है.
यह भूमि उन्हें वन अधिकार कानून (अनुसूचित जनजाति एंव अन्य परंपरागत वन अधिकारों की मान्यता) के तहत पट्टे पर मिली है.
हालांकि वे इन जमीनों पर पहले से 1984 से खेती करते आ रहे थे. वन अधिकार कानून लागू होने के बाद उन्हें अपनी जमीन पर कानूनी मालिकाना मिल गया.
महराजगंज जिले के 3,798 परिवारों को 128.361 हेक्टेयर आवासीय और 1488.761 हेक्टेयर खेती की जमीन मिली. गोरखपुर जिले के 504 परिवारों को 24.970 हेक्टेयर आवासीय भूमि और 202.800 हेक्टेयर खेती की जमीन मिली.
अभी भी कुछ परिवार वन अधिकार कानून के तहत भूमि अधिकार पाने से वंचित हैं. महराजगंज जिले के 18 वन ग्रामों में 12 गांव सोहगीबरवां सेंचुरी के घने जंगल में हैं तो जबकि वेलासपुर, दौलतपुर, बरहवां, भारी वैसी, सूरपार और खुर्रमपुर जंगल किनारे हैं.
इन वन ग्रामों में वनटांगियों के पास उपजाऊ जमीन है, जिस पर वे गेहूं, धान के साथ-साथ सब्जी की खेती करते हैं. साथ ही बड़ी संख्या में मवेशी पालन करते हैं.
ये वन ग्राम वर्षों से बाहरी दुनिया से काफी कटे रहे इसलिए उन्होंने अपने को आत्मनिर्भर जीवन के लिए व्यवस्थित किया. काफी समय तक वनटांगियों के लिए खेती बहुत फायदेमंद रही और उन्हें आजीविका के लिए पलायन की जरूरत नहीं पड़ी.
तीन पीढ़ियों तक उनके परिवार छोटे थे और खेती से उनका काम चल जाता था. अब उनके परिवार बड़े हो गए हैं पर खेती की भूमि पहले जितनी ही है.
ऐसे में उन्होंने दो जून की रोटी के अनाज, सब्जी का इंतजाम हो जाता है लेकिन अन्य जरूरतों के लिए खेती से होने वाली आय कम पड़ती है.
जंगल में और जंगल से बाहर की आबादी में काम न मिलने के कारण उन्हें पलायन करने को विवश होना पड़ा.
आवारा पशुओं और जंगली जानवरों ने मुश्किल की खेती
हाल के वर्षों में वनटांगियों के लिए खेती करना बहुत मुश्किल हो रहा है. आवारा पशुओं से जंगल भर गया है. शहरों से अवारा गोवंशीय पशुओं को पकड़कर जंगल की तरफ छोड़ दिया जा रहा है.
ये आवारा पशु वन ग्रामों की फसल को काफी नुकसान पहुंचा रहे हैं. झुंड के झुंड पशु बड़ी मेहनत से तैयार फसल को तहस-नहस कर देते हैं.
जंगली जानवरों में जंगली सुअर, हिरन, साही, नील गाय आदि भी फसलों को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं. इनसे फसलों को बचाने के लिए वनटांगियों को दिन के अलावा रात में भी रखवाली करनी पड़ती है.
वनटांगिया खेतों में मचान बना कर रात भर उसमें रहते हैं और टिन-कनस्तर पीटते रहते हैं. इस तरह से फसल बचाने के लिए उन्हें परिवार के कई सदस्यों को लगना करना पड़ता है और वे दूसरा कोई काम नहीं कर पाते हैं.
सूरपार गांव में 40 से अधिक मजदूर वापस लौटे हैं. इसी गांव में वनटांगिया विकास समिति के अध्यक्ष जयराम रहते हैं. जयराम के दो बेटे अलग-अलग शहरों में मजदूरी कर रहे हैं.
एक बेटा गांव में रहकर मोबाइल मरम्मत का काम करता है. एक बेटा रवींद्र केरल में है तो दूसरा शिवेंद्र बेंगलुरू में. शिवेंद्र लॉकडाउन में घर लौटे हैं लेकिन रवींद्र वापस नहीं आए है.
उनका कहना है कि वह केरल में अच्छे से हैं और कोई दिक्कत नहीं है. वह पेंट पॉलिश का काम करते हैं. उनको काम देने वाले व्यक्ति ने उनके रहने सहित बाकी इंतजाम किए हैं, इसलिए उन्हें वापस लौटने की जरूरत महसूस नहीं हुई.
58 वर्षीय जयराम कहते हैं, ‘अब हमारी नयी पीढ़ी में खेती में ज्यादा रुचि भी नहीं दिखती. वह अपनी जिंदगी को बेहतर बनाना चाहते हैं. वे हमारी तरह संतुष्ट नहीं हैं. वे बदलाव चाहते हैं, इस चाहत ने उन्हें जंगल से शहरों की तरफ जाने का रास्ता दिखाया है.’
जयराम वनटांगियों की तीसरी पीढ़ी के हैं. उनके दादा जंगल में अंग्रेजों के राज में शाल वन को लगाने आए थे.
जयराम जैसे लोगों के पास साखू-सगौन के वन तैयार करने का पीढ़ियों का अनुभव है लेकिन इसका अब कोई उपयोग नहीं. वन विभाग ने उनसे 35 वर्ष पहले काम लेना बंद कर दिया.
कानपुर दर्रा में रहने वाले 19 वर्षीय अमित साहनी गुजरात से अहमदाबाद से लौटे हैं. वे वहां पर शटरिंग का काम करते थे. उनके दो बड़े भाई भी मुंबई में मजदूरी करते हैं. एक भाई पीआरडी में जवान हैं, जिन्हें ड्यूटी मिलने पर ही पारिश्रमिक मिलता है.
अमित पहली बार नवंबर 2019 में मजदूरी करने गए थे. पिता घर पर खेती करते हैं. पिता भी एक बार मजदूरी के लिए बाहर जा चुके हैं.
अमित कहते हैं, ‘खेती के काम से खाना-पीना हो जाएगा लेकिन बाकी जरूरतें कैसे पूरी होंगी? घर का विकास कैसे होगा? जंगल के गांव में कोई और काम नहीं है. इसलिए हम और भाई मजदूरी करने गए.’
अमित बताते हैं, ‘जंगल में खेती में मेहनत बहुत है. फसल लगाने से ज्यादा मेहनत उसे रखाने में लगती है. गांव की फसल को जंगली जानवर व आवारा पशु बहुत नुकसान पहुंचा रहे हैं.’
उन्होंने बाढ़ से होने वाली परेशानी भी बताई. उन्होंने कहा, ‘पिछले वर्ष रोहिन नदी की बाढ़ से भी फसल खराब हो गई. जंगल के बाहर रोहिन नदी पर हर जगह तटबंध बना है लेकिन जंगल के अंदर नदी तटबंध मुक्त है इसलिए बाढ़ का पानी हमारे गांव और आस-पास ज्यादा फैल जाता है.’
बीट वन ग्राम में दो दर्जन से अधिक मजदूर लौटकर आए हैं. ये मुंबई, पुणे आदि स्थानों पर पेंट पॉलिश, टाइल्स लगाने का काम करते थे.
इस गांव के निवासी राम गुलाब बताते हैं कि वे भी एक बार मुंबई में मजदूरी करने गए थे. वहां मंडप सजावट का काम करते थे. उन्होंने एक दशक तक बाहर रहकर मजदूरी की और अब गांव में खेती कर रहे हैं.
उन्होंने बताया, ‘तीन बेटे अलग-अलग शहरों में मजदूरी कर रहे हैं. बड़ा बेटा मनोज परिवार सहित हैदराबाद में रहकर मजदूरी करता है. मंझला संजय भी वहीं पर मजदूरी कर रहा है. सबसे छोटा कृष्ण कुमार चेन्नई में फर्नीचर बनाने का काम करता है.’
उनके दो बेटे अलग रहते हैं जबकि छोटा बेटा साथ रहता है. राम गुलाब के पास एक एकड़ और छह डिस्मिल जमीन है. वे बताते हैं कि उनके गांव में आधे से अधिक वनटांगिया सब्जी की खेती करते है. करेला, लौकी, मटर आदि को अमहवा और लक्ष्मीपुर बेचने ले जाते हैं.
रामगुलाब के दादा 1920 में जंगल में साखू के पौधे लगाने आए थे. उन्होंने भी पांच वर्ष तक प्लाटेंशन का काम किया. जंगल की कटान-छंटान कर नाली खोदी, पौधे लगाए और साखू के पौधे के बड़े होने तक उसका रखरखाव किया.
वह बताते हैं, ‘वनटांगियों की तीसरी पीढ़ी के इक्का-दुक्का लोग पहली बार मजदूरी करने बड़े शहरों की तरफ गए. चौथी पीढ़ी के कुछ और लोग मजदूरी करने गए, लेकिन अब पांचवी पीढ़ी में हर घर से लोग मजदूरी करने शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं.’
रामगुलाब भी फसलों को आवारा और जंगली जानवरों से हो रहे नुकसान का जिक्र करते हुए कहते हैं कि जरूरी है कि वन ग्रामों की फसलों को बचाने के लिए सुरक्षा खाई खुदवाएं जाएं.
इसी तरह वन ग्राम अचलगढ़ के निवासी राममिलन ने बताया कि उनके गांव में 100 मजदूर तेलंगाना, महाराष्ट्र, कर्नाटक से वापस लौटे हैं.
खुद उनके तीन बेटे बाहर मजदूरी करते हैं जिसमें से मुंबई में मजदूरी करने वाला बेटा लौट आया है. पुणे में काम करने वाला बेटा अभी वहीं है. एक बेटा बहरीन में काम करता है.
राममिलन के पास एक एकड़ खेत हैं. वह कहते हैं, ‘हाल के वर्षों में पलायन बढ़ता जा रहा है. कोई घर ऐसा नहीं है जिसके यहां से युवा मजदूरी करने बाहर नहीं गए हों. युवाओं के बाहर चले जाने से खेती और भी मुश्किल हो गई है. जंगली पशु और आवारा गोवंशीय पशुओं से खेती करना मुश्किल हो गया. फसल की सुरक्षा के लिए तार-बाड़ लगाने में बहुत खर्च है.
वन ग्राम कम्पार्ट-28 में रहने वाले नूर मोहम्मद वन ग्रामों से वनटांगियों के पलायन के कई कारण गिनाते हैं.
वह कहते हैं, ‘जंगली और आवारा पशुओं से फसल हानि अब बड़ी समस्या हो गई है. कई किसान अपने खेत को परती छोड़ रहे हैं क्योंकि दिन-रात खेती कर फसल तैयार करना और फिर उसकी रखवाली करने में होने वाला परिश्रम व धन खर्च अब उनके बूते की बात नहीं रह गई है.’
वह आगे कहते हैं कि वन ग्रामों से बाहर जाने के लिए अच्छे संपर्क मार्ग नहीं है. इस कारण वे अपनी उपज को मंडियों तक नहीं ले जा पाते. व्यापारी गांव आकर ही उनकी सब्जियां व अन्य उत्पाद खरीदते हैं. इससे आसानी तो हैं लेकिन उपज का दाम कम मिलता है.
62 वर्षीय नूर मोहम्मद के दो बेटे हैं. एक बेटा मदरसा में आधुनिकीकरण शिक्षक है जिसे 46 महीने से सरकार की ओर से मिलने वाला मानदेय नहीं मिला है. दूसरा बेटा बेरोजगार है.
घर चलाने के लिए नूर मोहम्मद ने खेती करने के अलावा अपने गांव में दुकान खोल ली है. वे कहते हैं कि जंगली जानवरों और आवारा पशुओं से फसलों के बचाव के लिए सुरक्षा खाई बनाना एक उपाय हो सकता है लेकिन इसमें दिक्कत यह है कि वन ग्रामों का अभी तक सीमांकन नहीं हुआ है.’
वे आगे जोड़ते हैं, ‘यह कार्य राजस्व और वन विभाग को मिल कर करना है. गोरखपुर जिले के वन ग्रामों की चकबंदी हो रही है. यहां के वन ग्रामों की चकबंदी हो गई तो सुरक्षा खाई बनाने में आसानी होगी. वन ग्रामों का नक्शा-नजरी, खसरा-खतौनी तैयार न होने से बैंक किसान क्रेडिट कार्ड भी जारी नहीं कर रहे हैं.’
विनोद तिवारी शहरों से लौटकर आए मजदूरों से बातचीत कर उनके लिए गांव पर ही रोजगार की योजना बना रहे हैं. उनका कहना है कि जिन वन ग्रामों में सब्जी की खेती अच्छी है, वहां कम पलायन है. यदि सब्जी खेती और दुग्ध उत्पादन के कारोबार को ठीक से विकसित किया जाए तो कई युवकों के लिए रोजगार के अवसर मिल सकते हैं.
उनका कहना है कि महिलाओं द्वारा परंपरागत रूप से बनाए जाने वाले मौनी-डलिया के काम को भी तवज्जो देने की जरूरत है. साथ ही वनटांगियों को लघु वन उपज का अधिकार दिया जाए.
क्या है वन ग्रामों और वनटांगियों का इतिहास
वन ग्रामों की आम भारतीय गांवों से अलग स्थिति है. यहां पर जातीय भेदभाव का वह स्वरूप नहीं है, जो गांवों में पाया जाता है.
वन ग्रामों में सवर्ण जाति के लोग नहीं हैं बल्कि ज्यादातर अति पिछड़ी, दलित जाति के लोग हैं. कुछ मुसलमान भी हैं. जंगल में बाहरी दुनिया से कटे रहते हुए इन वन ग्रामों में आदिवासियों जैसी सामुदायिक एकता विकसित हुई और उन्होंने जाति भेद से उपर उठते हुए अपनी पहचान वनटांगिया समुदाय के रूप में विकसित की.
वन ग्रामों के आबाद होने की कहानी लगभग सौ वर्ष पुरानी है. अंग्रेजी राज में जब गोरखपुर जनपद में रेल पटरियों को बिछाने के लिए लकड़ियों की जरूरत हुई, तो बड़े पैमाने पर प्राकृतिक जंगल काटे गए.
प्राकृतिक जंगल के जगह अंग्रेजों ने प्लाटेंशन कर वन विकसित करने का निर्णय लिया और टांगिया पद्धति से जंगल तैयार करने का काम शुरू किया.
टांगिया दरअसल म्यांमार में पहाड़ों पर खेती करने की एक पद्धति का नाम है. इसमें पेड़ों के बीच की जगह में खेती करते हैं.
अंग्रेजों ने 1922 में इसी पद्धति से गोरखपुर-महराजगंज में मजदूरों से साल यानी साखू और सागौन के जंगल तैयार कराए. टांगिया पद्धति से साखू के जंगल तैयार करने के कारण इन्हें वनटांगिया कहा गया.
साखू और सागौन के जंगल तैयार करने के लिए अंग्रेजों को बड़ी संख्या में मजदूरों की जरूरत थी. उन्होंने गोरखपुर जनपद के गांवों के मजदूरों को जंगल में बुलाया.
जमींदारी और जातीय उत्पीड़न से त्रस्त भूमिहीन अति पिछड़ी व दलित जाति के मजदूर जंगल में साखू-सागौन के पौधे रोपने के लिए चले आए.
उन्हें गांवों से जंगल की तरफ पलायन उत्पीड़न से मुक्ति का मार्ग लगा लेकिन यहां आने के बाद वे अंग्रेजों हूकुमत के बंधुआ मजदूर हो गए. उन्हें प्लांटेशन के लिए कोई मजदूरी नहीं दी जाती थी.
दो जून की रोटी के लिए उन्हें पौधरोपण के स्थान पर खाली भूमि धान-गेहूं, सब्जी की खेती के लिए आवंटित की जाती थी. इससे उन्हें अन्न व सब्जी उपजाकर अपना पेट भरना था और प्लांटेशन करना था.
साखू का जंगल लगाना आसान काम नहीं था. वनटांगिया साखू के बीज को नालियों में एक लाइन से रोपते थे. वे 18 इंच गहरी और 14 इंच चौड़ी नाली बनाते थे. एक नाली के अंदर और दूसरा उससे थोड़ा उपर साखू का बीज रोपते थे.
पौधे आने तक इसकी देखभाल की जिम्मेदारी वनटांगियों की ही होती थी. साल (साखू) के बीज उन्हें पेड़ पर चढ़कर तोड़ने पड़ते. पौधे जम जाते, तो उन्हें दूसरे वन खंड में भेज दिया जाता.
देश के आजाद होने के बाद से वन विभाग वनटांगियों से उसी तरह काम लेता रहा जैसे अंग्रेज लेते थे. वनटांगियों के साथ उनका व्यवहार भी अंग्रेजों जैसा ही था.
यह सिलसिला 1984 तक चला. वनटांगिए एक वनखंड से दूसरे वनखंड में साल के पौधे रोपते हुए विस्थापित होते रहे. वन विभाग ने 1984 में वनटांगियों से काम लेना बंद कर दिया और उन्हें अतिक्रमणकारी घोषित कर दिया.
वर्ष 1984 में वन विभाग ने वनटांगियों से एक एग्रीमेंट पर दस्तखत कराना शुरू किया. इस एग्रीमेंट से वनटांगियों का अपनी जमीन और खेती पर हक खत्म होता था.
वनटांगियों ने इसका विरोध किया तो वन विभाग ने उन्हें जबरन निकलने की कोशिश की. गोरखपुर के तिलकोनिया जंगल में वनटांगियों पर वनकर्मियों ने फायरिंग की, जिसमें दो वनटांगिए पांचू और परदेशी मारे गए.
इसके बाद वनटांगिए हाईकोर्ट चले गए जहां से उन्हें जंगल से बेदखली के खिलाफ स्टे मिल गया और यहां से उनके जीवन में नया मोड़ आया.
वनटांगियों ने अपना संगठन वनटांगिया विकास समिति बनाई और अपने हक के लिए लड़ाई शुरू की. विकल्प संस्था के स्व. कृष्णमोहन (जिन्हें वनटांगिए स्वामी जी कहते थे) उनके प्रेरणास्रोत बने.
वनटांगिया विकास समिति ने वन विभाग के उत्पीड़न का विरोध तो किया ही, वन ग्रामों में स्कूल चलाने का भी काम किया. साथ ही अवैध वन कटान, शराब निर्माण के खिलाफ अभियान चलाया.
बेशकीमती वन संपदा तैयार करने वाले वनटांगिया देश के नागरिक के बतौर अधिकार पाने से वंचित रहे. उनके गांव राजस्व गांव नहीं थे, लिहाजा कोई भी सरकारी योजना उनके गांव में लागू नहीं होती थी.
जंगल में रहने के कारण उन पर ऐसे-ऐसे प्रतिबंध लगाए गए कि उनकी जिंदगी नरक हो गई. वे अपना पक्का घर नहीं बना सकते थे. पानी पीने के लिए हैंडपंप नहीं लगा सकते. सूखी लकड़ी लेने पर भी चालान कट जाता था.
उन्हें वोट देने का अधिकार नब्बे के दशक में मिला. राशन कार्ड तो डेढ़ दशक पहले बने. गांवों में स्कूल न होने से वनटांगियों की कई पीढ़ियां पढ़ाई से वंचित हो गई.
वनटांगियों की यह कहानी कांजीव लोचन की किताब ‘हरी छांह का आतंक’ और आशीष कुमार सिंह व धीरज सार्थक की दस्तावेजी फिल्म ‘बिटवीन द ट्रीज़’ में दर्ज है.
वन अधिकार कानून से वन ग्रामों में आया बदलाव
जब 2005 में देश में वन अधिकार कानून लागू हुआ, तो वनटांगिया विकास समिति ने वनटांगियों को अन्य परंपरागत वनवासी की मान्यता देने और उन्हें इस कानून के तहत अधिकार दिलाने का काम शुरू किया.
समिति ने एक-एक वनटांगिया परिवार का रिकार्ड तैयार किया और उन्हें वन अधिकार कानून के तहत उनकी जमीन का मालिकाना हक दिलवाया.
मायावती सरकार में वर्ष 2011 में वन अधिकार कानून के तहत वनटांगियों को उनके घर व खेती की जमीन का कानूनी हक दिया गया. 2015 में अखिलेश यादव सरकार में वनटांगियों को पंचायत चुनाव में भागीदारी का अवसर मिला.
इसके लिए उन्होंने गोरखपुर कमिश्नर कार्यालय पर तीन दिन तक घेरा डालो-डेरा डालो आंदोलन किया था. इस आंदोलन के बाद उनके गांव ग्राम पंचायतों से जुड़े और विकास कार्य शुरू हुए. दो गांवों में तो वनटांगिया ही ग्राम प्रधान चुने गए.
योगी आदित्यनाथ ने मुख्यमंत्री बनने के बाद वर्ष 2017 में वन ग्रामों को वन अधिकार काननून के तहत राजस्व गांव घोषित किया.
पिछले तीन वर्षों में वनटांगियों को आवास व शौचालय दिए गए हैं. उनके गांवों में बिजली पहुंची है. सड़क, स्कूल बनाने की भी योजना है और कुछ काम शुरू भी हुए हैं. लेकिन ये विकास कार्य वन ग्रामों से नौजवानों का पलायन नहीं रोक पा रहे हैं.
लघु वन उपज पर अभी तक नहीं मिला अधिकार
वन अधिकार कानून जंगल में रहने वाले आदिवासियों व अन्य परंपरागत वनवासियों को जंगल के वन उपज का भी अधिकार देता है, लेकिन यह अधिकार भी तक वनटांगियों को नहीं मिला है.
नूर मोहम्मद बताते हैं कि वन अधिकारी सेंचुरी वन होने का हवाला देकर लघु वन उपज लेने से रोकते हैं जबकि वन अधिकार कानून हमें इसकी इजाजत देता है.
वह बताते हैं कि शहद, मशरूम, सागौन के बीज, मछली, बेंत फल, बेल सहित तमाम ऐसे वन उपज हैं जिससे वन ग्राम अपनी आय बढ़ा सकते हैं. जंगल के तालाबों में मछलियां ही मछलियां हैं लेकिन वनटांगियों का उस पर अधिकार नहीं.
नूर मोहम्मद कहते हैं, ‘वे पैसे देकर दूसरे राज्यों से आयी मछलियां खरीदने को विवश हैं. यही हाल अन्य वन उपज का है. यदि लघु वन उपज पर अधिकार मिले तो उनकी आय बढ़ेगी और पलायन रुक सकता है.’
ऐसे वक्त में जब शहरों से वापस लौटे मजदूरों को आजीविका प्रबंधन के बड़े-बड़े दावे किए जा रहे हों, सड़क-नाली, बिजली-पानी, स्कूल-अस्पताल को ही विकास कार्य मानने वाली सरकारों के लिए वन ग्रामों से युवाओं का पलायन एक बड़ा सबक है और सवाल भी.
(लेखक गोरखपुर न्यूज़लाइन वेबसाइट के संपादक हैं.)