धोनी पर कई बार अपने चहेते खिलाड़ियों को टीम में लेने का आरोप लगा. लेकिन कप्तान विराट कोहली सहित टीम के कई मौजूदा खिलाड़ी मानते हैं कि उनकी सफलता में धोनी द्वारा उन पर दिखाए गए भरोसे का बड़ा हाथ है.
ये वो दौर था जब भारतीय क्रिकेट में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा था. भारत के तब तक के सफलतम कप्तान कोच-कप्तान विवाद की बलि चढ़कर टीम से बाहर हो गये थे.
मैदान पर सचिन चोट से जूझ रहे थे, तो मैदान के बाहर अपने आलोचकों द्वारा बनाये जा रहे संन्यास के दबाव से. युवराज सिंह और मोहम्मद कैफ जैसे खिलाड़ी प्रदर्शन में निरंतरता के अभाव के चलते टीम में अंदर-बाहर होते रहते थे.
इरफान पठान कोच ग्रेग चैपल की प्रयोगशाला बनकर न तो गेंदबाज रहे और न ही ऑलराउंडर बन सके. अनिल कुंबले एकदिवसीय फॉर्मेट में फिट नहीं बैठ रहे थे. कप्तानी द्रविड़ के कंधों पर थी.
टीम में अंदरुनी राजनीति चरम पर थी. नतीजा बांग्लादेश से हारकर भारत शर्मनाक तरीके से 2007 एकदिवसीय विश्वकप के लीग चरण में ही बाहर हो गया. छह महीने के अंदर ही पहले टी-20 विश्वकप का आयोजन दक्षिण अफ्रीका में था. यह उस शर्मनाक हार से उबरकर खुद को साबित करने का मौका था. भविष्य की तैयारियों को देखते हुए चयनकर्ताओं ने एक युवा टीम चुनी, जिसमें न सचिन थे, न द्रविड़- कुंबले और गांगुली.
सबसे चौंकाने वाला फैसला था कि टीम की कप्तानी नये-नवेले खिलाड़ी महेंद्र सिंह धोनी को सौंप दी गयी. इसकी काफ़ी आलोचना हुई. विशेषज्ञों ने इस टीम को विश्वकप की चोटी की आठ टीमों में सबसे फिसड्डी आंका. लेकिन फिर जो हुआ वह इतिहास में दर्ज हो गया.
धोनी की कप्तानी में भारत विश्व चैंपियन बन गया. यहां से जुमला चल पड़ा, ‘अनहोनी को होनी कर दे, महेंद्र सिंह धोनी.’
रांची के लंबे बाल और गठीले बदन वाले धोनी ने 2004 में भारतीय टीम में अपनी जगह बनाई. उस समय तक भारत अपने 30 साल के एकदिवसीय क्रिकेट के इतिहास में 19 विकेटकीपर इस्तेमाल कर चुका था. पर कोई ऐसा नहीं मिला था जो बल्ले से भी कमाल दिखाने की काबिलियत रखता हो.
2000 में फिक्सिंग के चलते जब नियमित विकेटकीपर नयन मोंगिया टीम से रुखसत हुए, तब से चयनकर्ताओं ने अगले चार सालों में 9 विकेटकीपर पर दांव खेला. किसी का भी प्रदर्शन संतोषजनक न रहने पर आखिरकार राहुल द्रविड़ को ही विकेट के पीछे की बागडोर सौंप दी गयी.
द्रविड़ नियमित कीपर नहीं थे, लिहाजा विकेट के पीछे की उनकी गलतियां टीम पर भारी पड़ती थीं. इस दबाव में धोनी भी बिखर गये. घरेलू क्रिकेट में अपनी आतिशी बल्लेबाजी के लिए जाने जाने वाले धोनी अपने पहले 4 मैचों में फेल हुए. लेकिन कप्तान के भरोसे ने उन्हें पांचवे मैच में भी जगह दिलाई. और यहां वो हुआ जो तीन दशक में भारतीय क्रिकेट में हो न सका था.
धोनी पाकिस्तान के ख़िलाफ़ धुंआधार सैकड़ा जड़कर भारतीय क्रिकेट इतिहास के ऐसे पहले विशेषज्ञ विकेटकीपर बल्लेबाज बन गये जिन्होंने एकदिवसीय क्रिकेट में शतक बनाया था. हालांकि द्रविड़ पहले ऐसा कर चुके थे लेकिन वे विशेषज्ञ विकेटकीपर नहीं थे.
अब टीम में उनकी जगह पक्की हो गयी. पर उनकी बल्लेबाजी तकनीक पर हमेशा आलोचकों की टेढ़ी निगाह बनी रही. इसलिए एकदिवसीय में तो वे अच्छा करते रहे, पर टेस्ट में उन्हें नहीं आजमाया गया. अपने आलोचकों को उन्होंने सालभर के अंदर ही श्रीलंका के ख़िलाफ़ 183 रनों की पारी खेलकर जबाव दिया. यह किसी भी भारतीय का तब दूसरा सबसे बड़ा व्यक्तिगत स्कोर था.
मैदान पर पहले जहां सचिन-सचिन की आवाजें गूंजती थीं, अब धोनी-धोनी दर्शकों की ज़बान पर चढ़ चुका था. उन्हें दिनेश कार्तिक की जगह टेस्ट टीम में लिया गया. एकदिवसीय का कमाल टेस्ट में भी दिखा और दूसरे ही मैच में तूफानी अर्द्धशतक जड़ दिया. पाकिस्तान के फैसलाबाद में अपना पहला टेस्ट शतक जड़कर धोनी पहले विशेषज्ञ विकेटकीपर बने जिन्होंने टेस्ट व एकदिवसीय में शतक मारा था.
धोनी के आने से टीम इंडिया को संतुलन मिल गया था. अब विकेटकीपर अब बल्लेबाजी भी कर सकता था. महज डेढ़ साल के अपने करियर में 2006 में धोनी बल्लेबाजी की एकदिवसीय विश्व रैंकिंग में पहले पायदान पर पहुंच गये.
आलोचकों का मुंह पूरी तरह से बंद हो गया, लेकिन यहां से उनके प्रदर्शन में गिरावट आयी. वे फिर आलोचकों के निशाने पर आये. उनकी विकेटकीपिंग को दोयम दर्जे का ठहराया गया. दिनेश कार्तिक को बेहतर बताकर मौका देने की बात चली. लेकिन यह धोनी की ही प्रतिभा थी कि दिनेश कार्तिक जैसा विश्वस्तरीय विकेटकीपर बल्लेबाज जो अगर किसी और देश में होता तो उस टीम का नियमित हिस्सा होता, धोनी के चलते हमेशा बाहर बैठा रहा.
धोनी ने विश्वकप 2007 के पहले फिर लय पकड़ी. लेकिन विश्वकप में लीग चरण में ही भारत के बाहर होने ने उनके करियर को एक नयी दिशा दे दी. इंग्लैंड के दौरे पर उन्हें एकदिवसीय टीम का उपकप्तान नियुक्त किया गया. दौरा खत्म होने के बाद द्रविड़ ने कप्तानी छोड़ दी.
टी20 विश्वकप के लिए धोनी को कप्तानी दी गयी और यहां भारत ने इतिहास रच दिया. जल्द ही वे एकदिवसीय कप्तान भी बना दिए गए.
और यहां से मानो भारत में क्रिकेट के एक नये युग की शुरुआत हुई. न्यूजीलैंड और श्रीलंका पर उसी की ज़मीन पर पहली बार सीरीज फतेह की. विश्व चैंपियन ऑस्ट्रेलिया को उसी की ज़मीन पर त्रिकोणीय सीरीज के फाइनल में हराकर कॉमनवेल्थ सीरीज जीती. कप्तान के तौर पर धोनी का विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी शांत रहने के गुण के चलते ‘कैप्टन कूल’ की छवि लोगों का दिल जीत रही थी.
नवंबर 2008 में कुंबले ने टेस्ट कप्तानी छोड़ी दी. धोनी कप्तान बने. उनकी कप्तानी के पहले 11 टेस्ट मैचों में भारत अपराजित रहा. जो अपने आप में एक रिकॉर्ड था.
2011 में भारत ने धोनी की कप्तानी में एकदिवसीय विश्वकप जीता. अनहोनी को होनी करने वाले धोनी अब किस्मत के धनी माने जाने लगे. आगे उन्होंने भारत को एशिया कप जिताया तो वहीं 2013 में आईसीसी चैंपिंयंस ट्रॉफी जीतकर वे विश्व के ऐसे इकलौते कप्तान बन गये जिन्होंने आईसीसी के तीनों बड़े टूर्नामेंट जीते थे.
धोनी की ही कप्तानी में ऐसा संभव हुआ कि भारत पहली बार क्रिकेट के तीनों प्रारुपों में विश्व रैंकिंग में चोटी की टीम बना. आईपीएल में भी चेन्नई सुपरकिंग्स के कप्तान के तौर पर धोनी अतुलनीय रहे. उनकी कप्तानी में टीम हर सत्र में प्ले ऑफ तक पहुंची. दो बार ट्रॉफी जीती और तीन बार रनर अप रही.
आगे जाकर धोनी भारत के सफलतम एकदिवसीय और टेस्ट कप्तान बने, लेकिन एक दाग उनकी कप्तानी पर हमेशा लगा कि विदेशी ज़मीन पर उनकी कप्तानी में भारत का प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा, जिसके चलते 2014 के ऑस्ट्रेलिया दौरे में उन्होंने अचानक ही बीच सीरीज टेस्ट क्रिकेट से संन्यास की घोषणा कर दी.
उस समय तक उनकी कप्तानी में विदेशों में खेले पिछले 19 टेस्ट में से भारत बस 1 ही जीत सका था, बल्कि 14 मैच गंवाए. टीम की कमान विराट कोहली को सौंपी गई. धोनी हालांकि सीमित ओवर के क्रिकेट में कप्तान रहे.
टेस्ट क्रिकेट में घरेलू ज़मीन पर कोहली की अगुवाई में लगातार भारत के अच्छे प्रदर्शन ने कोहली को सीमित ओवर की कप्तानी का भी दावेदार बना दिया. धोनी को कप्तानी से हटाने की मांग उठने लगी. लेकिन उससे पहले ही धोनी ने कप्तानी से इस्तीफा देकर सबको चौंका दिया.
ऐसा करके उन्होंने भारतीय क्रिकेट की उस परंपरा को भी तोड़ दिया जहां अक्सर खिलाड़ी तब तक कप्तानी नहीं छोड़ते या संन्यास नहीं लेते जब तक कि उन्हें टीम से बाहर न किया जाये.
धोनी की कप्तानी के शुरुआती दौर में सचिन, सौरव, द्रविड़, लक्ष्मण जैसे सीनियर खिलाड़ी भी टीम में थे. क्रिकेट में कहा जाता है कि बड़े नामों की मौजूदगी में यदि टीम का कप्तान किसी युवा को बना दिया जाये तो वह दबाव में रहता है. लेकिन धोनी की खासियत यह रही कि उन्होंने इस दबाव को खुद पर हावी नहीं होने दिया.
कारण था कि वे अपनी टीम से किसी भी कीमत पर प्रदर्शन निकलवाना चाहते थे. इस मामले में कोई भी समझौता उन्हें बर्दाश्त नहीं. वे इतने दृढ़ थे कि 2008 की सीबी सीरिज में सचिन तेंदुलकर तक को उन्होंने नसीहत दे डाली. टूर्नामेंट के दसवें मैच में जब भारत ऑस्ट्रेलिया सा हारा तो धोनी ने कहा, ‘सीनियर खिलाड़ियों को अपनी ज़िम्मेदारी समझनी होगी और नाम के अनुरुप प्रदर्शन करना होगा.’
धोनी के इन शब्दों ने असर दिखाया. अगले ही मैच में सचिन ने अर्द्धशतक जमाकर टीम को फाइनल में पहुंचाया. उसके बाद दोनों फाइनल में सचिन ने शतक और एक बड़ी पारी खेलकर टीम को जीत दिलवा दी. धोनी की यही ढृढ़ता टीम चयन में भी देखने को मिलती थी.
टीम तो चयनकर्ता चुनते थे लेकिन पसंद धोनी की होती थी. इस बीच उन पर आरोप भी लगे कि वे अपने चहेतों को टीम में जगह दिलाते हैं. अपनी आईपीएल फ्रेंचाइजी के खिलाड़ियों को चुनकर राष्ट्रीय टीम में लाते हैं, जिसके चलते योग्य खिलाड़ी बाहर बैठे रहते हैं.
लेकिन धोनी ने इन आरोपों की कोई परवाह नहीं की. आज रविंद्र जडेजा और रविचंद्रन अश्विन सफलता की जिस ऊंचाई पर हैं, उसमें धोनी द्वारा उन पर दिखाए गए भरोसे का बड़ा हाथ है.
टीम के वर्तमान कप्तान विराट कोहली कहते हैं, ‘मेरे करियर के शुरुआती दौर में उन्होंने हमेशा मुझे गाइड किया और मौके दिये. मुझे एक अच्छा खिलाड़ी बनने में पूरा समय और स्पेस दिया. कई बार टीम से ड्रॉप होने से बचाया.’
धोनी की बल्लेबाजी में समय के साथ परिपक्वता भी आई. जहां शुरुआती करियर में वे गेंद पर प्रहार करने के लिए जाने जाते थे, बाद में वे क्रीज पर समय बिताने लगे. वे टीम की ज़रुरत के हिसाब से खेलने वाले बल्लेबाज बनकर उभरे. इसका एक नजारा विश्वकप 2011 के फाइनल में तब देखने मिला, जब वे सभी को चौंकाते हुए युवराज से पहले मैदान में उतर आये क्योंकि टीम को ज़रुरत थी.
धोनी कप्तानी में भी नये-नये प्रयोग करते रहे जो चौंकाने वाले रहे. लेकिन परिणाम सुखद रहा. कुछ ऐसा ही प्रयोग था 2007 टी20 विश्वकप का फाइनल ओवर जोगिंदर शर्मा को देना या 2016 विश्वकप में बांग्लादेश के ख़िलाफ़ अहम मैच का फाइनल ओवर हार्दिक पांड्या से कराना.
जहां अन्य विकेटकीपर विकेट के पीछे से बल्लेबाज को दबाव में लाने स्लेजिंग का सहारा लेते हैं, धोनी ने इसके विपरीत जाकर गेंदबाज का हौंसला बढ़ाने की नीति अपनाई. अगर इतिहास को खंगालें तो संभव है कि वे विश्व के ऐसे चुनिंदा कप्तानों में शुमार होंगे जो मैदान पर विवादों से परे रहे. यही कारण रहा कि आईपीएल का फेयर प्ले अवॉर्ड हमेशा उनकी ही टीम को मिलता रहा.
वहीं एक समय भारत के पास छठवें और सातवें क्रम पर खेलने वाले बल्लेबाज नहीं थे. युवराज और कैफ इस ज़िम्मेदारी को संभालते थे लेकिन उनका कहना था कि इस क्रम पर बल्लेबाजी करके उनका प्रदर्शन बिगड़ता है. भारत अक्सर ही 4-5 विकेट गिरने के बाद लड़खड़ा जाती थी, लेकिन यहां से यह ज़िम्मेदारी धोनी ने निभाई.
धोनी का बल्लेबाजी प्रदर्शन तीसरे और चौथे क्रम पर उम्दा था लेकिन टीम हित में वे छठवें और सातवें क्रम पर बल्लेबाजी करने लगे और विश्व के सर्वश्रेष्ठ फिनिशर बनकर उभरे. इस क्रम पर बल्लेबाजी करने के कई रिकॉर्ड अपने नाम किए. धोनी का नाम माइकल बेवन और लांस क्लूजनर से ऊपर लिया जाने लगा.
धोनी मैच की अंतिम गेंद तक संघर्ष करने वाले जाने जाते हैं. कई मैच उन्होंने आखिरी गेंद पर बाउंड्री लगाकर जिताए. एक कप्तान के तौर पर उनका यह जुझारुपन पूरी टीम को प्रोत्साहित करने वाला था, जिसका असर टीम के प्रदर्शन में देखा भी गया.
वक्त के साथ सुधार उन्होंने विकेटकीपिंग में भी किया. एक औसत दर्जे के विकेटकीपर से विश्व के सबसे चालाक विकेटकीपर तक का सफर तय किया. अपने आलोचकों को विकेट के पीछे अपनी क्षमता से जवाब दिया. और विश्व के सबसे अधिक स्टंपिंग (148) करने वाले विकेटकीपर बने.
धोनी की विकेटकीपिंग के बार में अब कहा जाता है कि उनके सिर के पीछे भी दो आंखें हैं. धोनी पारंपरिक विकेटकीपर की तरह नहीं हैं कि केवल ग्लव्स से विकेट के पीछे कमाल दिखाएं कई बार उन्होंने यही काम अपने पैड से भी किया है. भला कौन भूल सकता है बांग्लादेश के ख़िलाफ़ 2016 टी20 विश्वकप का वह मैच जब उन्होंने अपनी कीपिंग से मैच की अंतिम गेंद पर विपक्षी के जबड़े से जीत छीन ली.
आंकड़े बताते हैं कि वे भारत के तो सफलतम विकेटकीपर रहे ही, साथ ही विश्व के भी सफल विकेटकीपर में शुमार किए जाते हैं. विकेट के पीछे उनकी समझ ऐसी रही कि उनके द्वारा लिये गये रिव्यू पर अंपायर द्वारा नॉट आउट दिये गये बल्लेबाज का आउट होना तय माना जाता है.
अपने आलोचकों को जवाब उन्होंने हमेशा अपने प्रदर्शन से दिया. फिर चाहे बात उनके शुरुआती करियर में बल्लेबाजी तकनीक में ख़ामी की रही हो या फिर ख़राब विकेटकीपिंग की. इस बार आईपीएल में उनकी उनकी पुणे फ्रेंचाइजी के मालिक ने उनके ख़राब प्रदर्शन को लेकर उन्हें निचा दिखाने के लिए हर हथकंडा अपनाया, लेकिन कैप्टन कूल धोनी शांत रहे और बल्ले से जवाब दिया.
हालिया आईसीसी चैंपियंस ट्राफी में भारत की हार के बाद द्रविड़ ने धोनी के भविष्य के बारे में सोचने की बात कही लेकिन अगली ही सीरीज में उनके बल्ले से बैक टू बैक दो अर्द्धशतक ऐसे समय पर निकले जब टीम मुश्किल हालातों में थी.
कुछ इसी तरह जब साल के शुरुआत में उन्होंने कप्तानी से इस्तीफा दिया था तो समझा गया कि अब धोनी बीते युग की बात हो गये. लेकिन इस्तीफे के बाद अपने दूसरे ही मैच में उन्होंने सैकड़ा लगाकर बता दिया कि अभी उनमें और भी क्रिकेट बाकी है.
सही मायने में धोनी इस ‘जेंटलमेन गेम’ के सबसे बड़े जेंटलमैन में से एक रहे. इसकी बानगी 2008 में तब मिली जब गांगुली उनकी कप्तानी में ऑस्ट्रेलिया के ख़िलाफ़ अपना आखिरी टेस्ट खेल रहे थे. मैच का आखिरी दिन था. अचानक से धोनी ने कप्तानी की कमान गांगुली को सौंप दी. कप्तान न होकर भी गांगुली मैदान पर कप्तानी करते नज़र आये. ऐसा धोनी ने देश के तब तक के सफलतम कप्तान को ट्रिब्यूट देने किया.
इस दौरान धोनी पर कई आरोप भी लगे. मसलन उन्हें गौतम गंभीर, वीरेंद्र सहवाग और युवराज सिंह जैसे खिलाड़ियों को टीम से बाहर करने के लिए ज़िम्मेदार ठहराया गया.
युवराज सिंह के पिता योगराज सिंह ने धोनी को मीडिया में आकर काफी भला-बुरा कहा. हालांकि कभी युवराज ने ऐसा कुछ नहीं कहा और न ही सहवाग ने ऐसे कोई संकेत दिए कि धोनी से अलगाव की स्थिति है.
पर गंभीर की ओर से ऐसे संकेत एक बार तब ज़रूर मिले जब उन्होंने टीम से बाहर रहते हुए एक बार धोनी की मैच फिनिशर की भूमिका पर यह कहते हुए सवाल उठाये कि आखिर क्यों धोनी मैच को अंतिम ओवर तक खींचकर ले जाते हैं और पहले ही खत्म करने की कोशिश नहीं करते?
2015 में आईपीएल कांड सामने आया और उनकी टीम चेन्नई सुपरकिंग्स के मालिक इसमें दोषी पाये गये तो मैच फिक्सिंग में उनका भी नाम उछला. साथ ही रीति स्पोर्ट्स कंपनी में उनके शेयर को लेकर हितों के टकराव के भी आरोप लगे. धोनी यहां बैकफुट पर नज़र आये. मीडिया के सवालों से वे बचते भी दिखे.
बहरहाल धोनी अब अपने करियर के अंतिम पड़ाव पर हैं. आज वे 36 साल के हो गये हैं, लेकिन मैदान पर किसी युवा की तरह ही चुस्त-फुर्तीले दिखाए देते हैं. विकेट के पीछे इस उम्र में भी उनकी तेजी और चालाकी का कोई सानी नहीं.
बल्लेबाजी में पुरानी आक्रामकता भले ही कम दिखाई दे लेकिन उनके प्रदर्शन में निरंतरता बनी हुई है. वहीं उनका अनुभव भी टीम के काम आ रहा है. कप्तान भले ही कोहली हों लेकिन मैदान पर क्षेत्ररक्षण की सजावट अक्सर धोनी ही करते दिखाई देते हैं. कोई भी अहम फैसला कोहली धोनी से पूछे बिना लेने का जोखिम नहीं उठाते.
वे खुद स्वीकारते हैं कि अभी वे इतने परिपक्व नहीं, उन्हें धोनी के अनुभव की ज़रुरत है. और वास्तव में ऐसा है भी. कोहली को धोनी से काफी कुछ सीखने की ज़रुरत है. धोनी लगभग 10 साल टीम के कप्तान रहे. इस दौरान कई कोच बदले लेकिन कभी कोच-कप्तान मतभेद जैसे हालात नहीं बने. पर कोहली को कप्तान बने ज्यादा समय ही नहीं हुआ है और कोच कुंबले के साथ उनका विवाद सुर्खियां बटोर रहा है.