कोविड-19 के चलते स्कूल बंद होने के बाद अब राज्य सरकारें मोबाइल और टीवी के ज़रिये छात्रों तक पहुंचने की कोशिश कर रही हैं. ऐसी कोशिश बिहार सरकार द्वारा भी की गई है, लेकिन आर्थिक-सामाजिक असमानता के बीच प्रदेश के सरकारी स्कूलों के बच्चों तक इन माध्यमों से शिक्षा पहुंचा पाना बेहद कठिन है.
कोरोना वायरस महामारी को लेकर बिहार में 14 मार्च से सभी स्कूल-कॉलेज और शिक्षण संस्थान बंद हैं. लॉकडाउन के कारण बड़ी संख्या में छात्र पूरी तरह से अपने स्कूलों और पाठ्यक्रमों से दूर हो चुके हैं.
इस बीच राज्य के निजी स्कूलों ने छात्रों के लिए ऑनलाइन क्लासेज शुरू कर दिए. बिहार सरकार ने भी अप्रैल में दूरदर्शन पर पढ़ाई शुरू करने का ऐलान किया था.
डीडी बिहार पर सरकार की ‘मेरा दूरदर्शन, मेरा विद्यालय’ योजना के तहत हर क्लास की पढ़ाई हो रही है. 20 अप्रैल से 9वीं और दसवीं तथा 4 मई से 11वीं-12वीं और छठी से आठवीं की भी क्लास जारी है.
1 जून से पहली से पांचवीं तक की पढ़ाई भी शुरू की गई थी. इन सब कक्षाओं के लिए सरकार ने दूरदर्शन पर 5 घंटे का स्लॉट बना रखा है.
बिहार सरकार दूरदर्शन पर यह कार्यक्रम यूनिसेफ के सहयोग से प्रसारित कर रही है. इस बीच 10वीं और 12वीं बोर्ड के छात्रों को छोड़कर एक से ग्यारहवीं तक सरकार ने बिना वार्षिक परीक्षा के प्रोन्नत भी कर दिया गया.
राज्य सरकार ने दूरदर्शन के अलावा ‘उन्नयन ऐप: मेरा मोबाइल, मेरा विद्यालय’ और वेबसाइट के जरिये भी पाठ्यक्रमों को छात्रों तक पहुंचाने की कोशिश की है लेकिन सवाल यह है कि बिहार जैसे राज्य में क्या यह सब कुछ इतना आसान है?
जवाब है नहीं. बेगूसराय जिले के नूरपुर पंचायत में रहने वाले कारू रजक कपड़ा धुलाई का काम करते हैं. उनकी चार बेटियां मुस्कान (13), खुशी (11), मौसम (9), नैना (7) प्राथमिक विद्यालय, महना में पढ़ती हैं.
लॉकडाउन के बाद से इन सबकी पढ़ाई बंद है. कारू रजक की पत्नी रानी देवी बताती हैं कि घर में न तो टीवी है और न ही स्मार्टफोन. इन सबकी पढ़ाई नहीं हो पा रही है.
वे कहती हैं, ‘घर में कोई पढ़ा-लिखा नहीं है इसके कारण घर में भी किसी तरीके से इनको नहीं पढ़ा सकते हैं.’ मिड-डे मील की राशि मिलने के बारे में पूछने पर रानी कहती हैं कि उन्हें इसके बारे में पता नहीं है.
बेगूसराय जिले के महना गांव में लॉकडाउन के दौरान कुछ छात्रों को मुफ्त में ट्यूशन दे रहे विकास कुमार बताते हैं कि गांव में सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले सभी छात्रों के घरों में स्मार्टफोन या टीवी नहीं है. जिनके पास टीवी है, उन्हें पता ही नहीं है कि कार्यक्रम कब आ रहा है. जानकारी की कमी है. सरकारी स्कूल के बच्चे तो पिछड़ रहे ही हैं, लेकिन छोटे निजी स्कूलों में पढ़ने वाले भी ऑनलाइन क्लास नहीं ले पा रहे हैं.
वे कहते हैं, ‘कुछ छात्र जो स्मार्टफोन पर पढ़ाई करने में सक्षम हैं, वे शिकायत करते हैं कि ऑनलाइन क्या पढ़ाया जाता है, वे कुछ समझ नहीं पाते हैं. नेटवर्क की बहुत समस्या है जिसके कारण न सही से सुन पाते हैं और न ही शिक्षकों से कुछ पूछ सकते हैं. यानी जिनके पास स्मार्टफोन है, उनके लिए भी ऑनलाइन पढ़ाई करना बहुत मुश्किल है.’
संसाधनों की अनुपलब्धता के कारण करीब चार महीने बाद भी बड़ी तादाद में बच्चे पढ़ाई से दूर हैं. आगे कितने समय तक ये दूरी रहेगी, कहना भी मुश्किल है.
अनलॉक-2 की गाइडलाइंस के तहत, देश भर में 31 जुलाई तक सभी स्कूल-कॉलेज और अन्य शैक्षणिक संस्थानों को बंद रखने का निर्णय लिया गया है. बिहार सरकार ने भी केंद्र के दिशा-निर्देशों को राज्य भर में लागू करने को कहा है.
दूरदर्शन की तरह उन्नयन ऐप को भी राज्य सरकार ने यूनिसेफ और एकोवेशन की साझेदारी से डेवलप किया है. ऐप के प्रमोशनल वीडियो के अनुसार, ऐप पर कक्षा 6 से 12वीं तक की सभी सिलेबस उपलब्ध है और इसमें छोटे-छोटे पाठ और वीडियो हैं जो शिक्षकों ने रिकॉर्ड करके डाले हुए हैं.
यूनिसेफ बिहार की कम्युनिकेशन स्पेशलिस्ट निपुण गुप्ता ने एक इंटरव्यू में बताया था कि इसमें सबसे अच्छी बात है कि इसमें लंबे-लंबे पकाऊ पाठ नहीं हैं. साथ ही एक्सरसाइज करने को दिया जाता है. ये हिंदी में है और लाखों लोगों ने इसे डाउनलोड किया है.
हालांकि गूगल प्लेस्टोर में सर्च करने पर अभी ऐसा कोई ऐप नहीं मिलता है. डीडी बिहार ने प्रसारित हो रहे कार्यक्रम का कोई वीडियो अपने यू-ट्यूब पेज पर भी नहीं अपलोड किया है.
एकोवेशन ने अपने पेज पर कुछ वीडियोज जरूर अपलोड किए हैं. जिसके व्यूज देखकर आप समझ सकते हैं कि इसे बहुत कम लोगों ने देखा है. इसके अलावा स्मार्टफोन की पहुंच भी बिहार के सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों के परिवार में काफी सीमित हैं.
बिहार के एक थिंकटैंक एजुकेशन पॉलिसी इंस्टीट्यूट ऑफ बिहार (ईपीआईबी) ने सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के घरों में स्मार्टफोन और टीवी जैसी सुविधाओं की उपलब्धता को एएसईआर (ASER) -2018 की रिपोर्ट के आधार पर मैप के जरिये समझाया है.
इसके अनुसार, बिहार के सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे 63 फीसदी बच्चों के घर में टीवी या स्मार्टफोन दोनों नहीं है. वहीं 21 फीसदी छात्रों के घरों में स्मार्टफोन है, 28 फीसदी छात्रों के घरों में टीवी है.
सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले 72 फीसदी छात्रों के घरों में साधारण मोबाइल सेट है. राज्य में कुछ जिले ऐसे भी हैं जहां स्मार्टफोन और टीवी दोनों नहीं होने की संख्या 75 फीसदी से भी ज्यादा है.
मधेपुरा में यह संख्या 81 फीसदी और सहरसा में 75 फीसदी है. जबकि इसी तस्वीर को केरल के हिसाब से देखा जाए, तो वहां सिर्फ 4 फीसदी सरकारी स्कूलों के छात्र ऐसे हैं जिनके घरों में टीवी या स्मार्टफोन दोनों नहीं हैं.
ईपीआईबी के प्रोजेक्ट मैनेजर अभिषेक आनंद कहते हैं, ‘सरकार दावा तो कर रही है लेकिन बहुत ज्यादा वो प्रभावी नहीं है. मेरी लगातार शिक्षकों से बात हो रही है जिनका कहना है कि जमीन पर चीजें हो नहीं रही है.’
वे आगे कहते हैं, ‘सरकार भले ही मीडिया के जरिये वाहवाही करा ले, लेकिन धरातल पर चीजें सही नहीं हैं. सरकार बच्चों के लिए बहुत सतही स्तर पर सब कुछ कर रही है.’
अभिषेक बताते हैं, ‘सरकार ने दूरदर्शन पर जो क्लास शुरू की, इसका सही से प्रचार-प्रसार तक नहीं किया गया. आधे से ज्यादा लोगों को इसके बारे में पता ही नहीं है, यहां तक कि कई शिक्षकों को भी इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है.’
उन्होंने बताया, ‘मैंने कुछ शिक्षकों को फोन किया तो उन्हें इसके बारे में पता नहीं था, जबकि यह शुरू हुए कई दिन हो गए. डीडी बिहार चैनल पहले से लोग नहीं देख रहे थे. आपने जो प्लेटफॉर्म चुना है, उसको अधिकतम लोगों तक पहुंचाने के लिए आप क्या कर रहे हैं?’
यूनेस्को की रिपोर्ट के मुताबिक, लॉकडाउन के कारण दुनिया भर में अब भी 1 अरब से अधिक छात्रों की पढ़ाई पर असर पड़ रहा है. अप्रैल महीने में यह संख्या डेढ़ अरब से भी अधिक थी. भारत में लॉकडाउन से 32 करोड़ से अधिक छात्रों की पढ़ाई पर असर पड़ा है.
रोहतास जिले के दिनारा ब्लॉक के स्वामी शिवानंद+2 उच्च विद्यालय, करहंसी में पढ़ाई करने वाले नौवीं कक्षा के छात्र कुमार रघुवीर गिरी बताते हैं कि उनके घर में टीवी है लेकिन उन्हें दूरदर्शन प्रोग्राम के बारे में कोई जानकारी नहीं है.
उन्होंने बताया कि स्मार्टफोन नहीं है, जिससे ऑनलाइन कुछ देख सकें. लॉकडाउन के बाद पढ़ाई पूरी तरह बंद थी हालांकि उन्होंने अब निजी ट्यूशन जाना शुरू किया है.
पटना जिले के धनरुआ प्रखंड के मध्य विद्यालय, पभेरा में सातवीं कक्षा में पढ़ने वाले राजकुमार के घर में भी न टीवी है और न ही स्मार्टफोन है. उन्हें भी दूरदर्शन के प्रोग्राम के बारे में कोई जानकारी नहीं है.
राजकुमार के पिता खेती करते हैं. वे कहते हैं, ‘स्कूल बंद है तो गांव में ही ट्यूशन जाकर पढ़ाई कर रहा हूं. स्कूल से अभी तक किताब नहीं मिला है.’
कितना गहरा है डिजिटल डिवाइड?
बिहार सरकार के आर्थिक सर्वे 2019-20 की रिपोर्ट के अनुसार, साल 2017-18 में कक्षा एक से आठ तक की पढ़ाई के लिए प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों की कुल संख्या 74,006 है.
इन विद्यालयों में कक्षा एक से पांचवीं तक पढ़ने वाले छात्रों की कुल संख्या 1.60 करोड़ और छठी से आठवीं तक पढ़ने वाले कुल छात्रों की संख्या 75.76 लाख है.
यानी राज्य सरकार के प्रारंभिक सरकारी विद्यालयों में कुल 2.35 करोड़ छात्र पढ़ाई कर रहे हैं. इन स्कूलों में दाखिला लेने वाले बच्चों में 51.6 फीसदी लड़के और 48.4 फीसदी लड़कियां हैं.
वहीं मैट्रिक और इंटर की परीक्षा में शामिल होने वाले छात्रों की संख्या के हिसाब से देखा जाए, तो 9वीं से 12वीं (माध्यमिक और उच्च माध्यमिक) में पढ़ने वालों की संख्या करीब 55 लाख है.
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शिक्षा का अधिकार फोरम के राष्ट्रीय संयोजक अंबरीश राय बताते हैं, ‘जिन सरकारी स्कूलों में बिहार के 85 फीसदी बच्चे पढ़ते हैं, उसकी हालत पहले से खराब है. हमारी शिक्षा व्यवस्था में सरकारी और निजी स्कूलों के बीच एक गैप पहले से मौजूद है. इस लॉकडाउन में सभी बच्चे निश्चित रूप से शिक्षा नहीं पा रहे हैं.’
वे कहते हैं, ‘ऑनलाइन पढ़ाई यानी उसके लिए स्मार्टफोन खरीदना और उसके बाद इंटरनेट पैक का इस्तेमाल करना, बिहार में ये एक बड़ी आबादी के लिए संभव ही नहीं है. अगर ऐसा कुछ लोग कर भी लेते हैं, तो जो मुफ्त शिक्षा उपलब्ध कराने की बात है, उसका भी ये उल्लंघन है.’
मार्च में मैंने बेगूसराय के गोविंदपुर स्थित एक उत्क्रमित मध्य विद्यालय का दौरा किया था, जहां कक्षा एक से आठवीं तक की पढ़ाई होती है.
प्रिंसिपल कक्ष में एक से लेकर आठवीं कक्षा तक के छात्रों की संख्या कैटेगरी के अनुसार लिखी हुई थी. इस स्कूल में 450 के करीब छात्र हैं, जिसमें सामान्य वर्ग के छात्रों की संख्या सिर्फ 10-12 है.
ये सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों की सामाजिक स्थिति को दिखाती है कि इन स्कूलों में अधिकांश बच्चे पिछड़े वर्ग, दलित और अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चे पढ़ते हैं.
शिक्षा की पहुंच और गुणवत्ता का अंतर सरकारी और निजी स्कूलों पहले से मौजूद है. बिहार जैसे राज्य में ये बहुत हद तक जातिगत विभाजन के तौर पर भी है.
यह अंतर ऑनलाइन पढ़ाई में भी साफ तौर पर देखा जा सकता है क्योंकि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले ज्यादातर छात्र पिछड़े और दलित वर्ग से आते हैं.
अगर ऑनलाइन शिक्षा सरकारी स्कूलों के बच्चों से दूर है तो ये समझना चाहिए कि डिजिटल डिवाइड जाति के रूप में भी मौजूद है.
अंबरीश भी इससे सहमति जताते हैं. वे कहते हैं, ‘इससे कई तरह की खाई पैदा हो जाएगी. जातिगत खाई के अलावा शहर और गांव की खाई, पुरुष और महिला की, अमीर और गरीब का तो पहले से ही है. अगर इस तरह की शिक्षा को सरकार माध्यम बनाएगी, तो बहुत बड़ा वर्ग शिक्षा से बाहर हो जाएगा.’
वे आगे जोड़ते हैं, ‘ऑनलाइन क्लासेज से सबसे ज्यादा नुकसान लड़कियों का होगा या हो रहा है. जिस तरीके का हमारा पितृसत्तात्मक समाज है उसमें पहली प्राथमिकता किसी भी चीज में लड़कों को दी जाती है. ऐसे में किसी घर में एक स्मार्टफोन है भी तो उसमें लड़कियों की शिक्षा का क्या होगा?
क्या ऑनलाइन क्लास समाधान है?
राज्य सरकार दूरदर्शन के साथ-साथ डिजिटल शिक्षा पहुंचाने की जो कोशिश कर रही है वो निजी साझेदारी से ही कर रही है.
इसमें कितनी प्रगति हुई और इसका कोई मूल्यांकन किया गया या नहीं, इसके बारे में जब शिक्षा विभाग के एक उच्च अधिकारी से जब संपर्क किया तो उन्होंने कहा, ‘हम फोन पर किसी व्यक्ति को इस तरह की सूचना नहीं देते हैं. यह हमारे एथिक्स के खिलाफ है.’
अंबरीश का कहना है कि पहले शिक्षा के प्रोग्राम शिक्षण संस्थान बनाते थे, सुप्रशिक्षित शिक्षक बनाते थे. सरकार के पास ऑनलाइन क्लास का अभी कोई ढांचा ही नहीं है और न अधिकांश छात्रों की ऐसे माध्यम तक पहुंच है.
उन्होंने बताया, ‘डिजिटलाइजेशन शिक्षा के निजीकरण का एक बहुत बड़ा माध्यम है. इसका कंटेंट अभी डिजिटल कंपनियां बना रही है. अगर सरकार ऑनलाइन शिक्षा को स्थायी बनाने की सोच रही है, तो यह प्राइवेट सेक्टर को हैंडओवर करने जैसा होगा.’
वे आगे कहते हैं, ‘जो सरकार सभी स्कूलों में पानी, शौचालय नहीं उपलब्ध करवा पाई, तो ये उम्मीद करना कि सरकारी स्कूलों के बच्चों को टीवी या ऑनलाइन तरीके से बेहतर शिक्षा मिल जाएगा, ये बेमानी है. ऑनलाइन क्लास से बच्चे लर्नर न बनकर कंज्यूमर बन जाएंगे. ये कंपनियां मार्केट की जरूरतों के हिसाब से पाठ्यक्रम बनाएंगी.’
झारखंड की भी यही स्थिति
ऑनलाइन शिक्षा पहुंचाने के मामले में झारखंड भी काफी दूर नजर आता है. ईपीआईबी की ही मैप रिपोर्ट के अनुसार, राज्य में सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले 68 फीसदी बच्चे ऐसे हैं जिनके घरों में स्मार्टफोन और टीवी दोनों नहीं है.
सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले 13 फीसदी छात्रों के घरों में स्मार्टफोन है और 26 फीसदी के घरों में टीवी है. झारखंड सरकार ने भी दूरदर्शन के जरिये क्लास शुरू की है, जिसमें सप्ताह में 5 दिन 4 घंटे के स्लॉट में सभी क्लास के छात्रों को पढ़ाने के लिए बनाया गया है.
लेकिन आंकड़ों को देखकर यही लगता है कि एक बड़ी आबादी इस पहल से काफी दूर है. हजारीबाग जिले के राजकीय मध्य विद्यालय, गोरहर में पढ़ने वाली सातवीं कक्षा (छठी से प्रोमोटेड) की छात्रा शबनम खातून की पढ़ाई लॉकडाउन के बाद से ही बंद है.
शबनम के मां और पिता दोनों अशिक्षित हैं, जिसके कारण वो उनकी मदद भी नहीं ले सकती हैं, घर में न ही टीवी है और न स्मार्टफोन.
शबनम बताती हैं, ‘पढ़ाई बिल्कुल भी नहीं कर पा रही हूं. अभी तक किताब भी नहीं मिला है. घर या खेत के काम में परिवार की मदद करती हूं.’
दूरदर्शन पर पढ़ाई के बारे में वो कहती हैं कि उन्हें नहीं मालूम है और टीवी ही नहीं है तो कहां से पढ़ेंगे.
क्या हो सकता है उपाय?
चूंकि 4 महीने से सरकारी स्कूल के अधिकतर बच्चे अपनी पढ़ाई से दूर हैं, ऐसे में छात्रों को कैसे जोड़कर रखा जाए.
अंबरीश राय छात्रों के भविष्य को लेकर कहते हैं, ‘बिहार जैसे राज्य में क्लासरूम और शिक्षक का कोई विकल्प नहीं है. धीरे-धीरे स्थिति को सामान्य करके सुरक्षा के साथ और स्थानीय स्तर पर मूल्यांकन करके स्कूल खोलने की तैयारी ही की जा सकती है. बच्चों पर परीक्षा का दबाव खत्म करना चाहिए.’
वे कहते हैं, ‘इसके अलावा छात्रों को उनके घरों में स्टडी मैटरियल पहुंचाया जाना चाहिए. शिक्षकों के जरिये बच्चों से सीखने-सिखाने का संबंध बनाकर रखा जाना चाहिए, ताकि वे स्कूल छोड़ने का मन नहीं बनाएं. क्योंकि ग्रामीण क्षेत्र के गरीब बच्चे लंबे समय तक स्कूल से दूर रहेंगे तो उनके स्कूल से लौटने की संभावना कम हो जाती है. सरकार को चाहिए कि शिक्षा पर खर्च बड़े पैमाने पर बढ़ाए.’
अभिषेक भी मानते हैं कि सरकारी स्कूलों की फंडिंग बढ़ाकर बच्चों के पोषण कार्यक्रमों पर जोर देना चाहिए ताकि उन पर नकारात्मक प्रभाव न पड़े.
वे कहते हैं, ‘मिड-डे मील की राशि डीबीटी के जरिये देने के बदले उन्हें राशन पहुंचाना चाहिए. एक छात्र को अगर 6.50 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से मिल रहे हैं तो इससे क्या होने वाला है. मिड-डे मील का मूल विचार यही है कि हम कैसे ड्रापआउट रेट को कम करें और बच्चों के पोषण का ख्याल रखें. पर सरकार को जरा भी परवाह नहीं है, वो चुनाव में व्यस्त हो चुकी है.’
वे आगे जोड़ते हैं, ‘जब भी स्कूल खुले तो सोशल डिस्टैंसिंग जैसी चीजें सुनिश्चित कराना सरकार के लिए बड़ी चुनौती होगी क्योंकि बिहार में पहले से स्कूलों में छात्रों की संख्या काफी ज्यादा है और अब प्रवासी मजदूर के बच्चों को भी दाखिल किया जा रहा है तो भीड़ बढ़ने ही वाली है. ऑड-इवन जैसा तरीका अपनाया जा सकता है, लेकिन ये भी कितना कारगर होगा नहीं कहा जा सकता है.’
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)