आज के परिवेश में गुरु की भूमिका क्या है

बचपन से ही सुनते आए हैं कि गुरु-शिष्य परंपरा के समाप्त हो जाने से ही शिक्षा व्यवस्था में सारी गड़बड़ी पैदा हुई है. लेकिन इस परंपरा की याद किसके लिए मधुर है और किसके लिए नहीं, इस सवाल पर विचार तो करना ही होगा.

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(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

बचपन से ही सुनते आए हैं कि गुरु-शिष्य परंपरा के समाप्त हो जाने से ही शिक्षा व्यवस्था में सारी गड़बड़ी पैदा हुई है. लेकिन इस परंपरा की याद किसके लिए मधुर है और किसके लिए नहीं, इस सवाल पर विचार तो करना ही होगा.

(फोटो: रॉयटर्स)
(फोटो: रॉयटर्स)

गुरु पूर्णिमा बीत गई. देर से जागने वाले अभी भी उसकी बधाई और शुभकामना भेज रहे हैं. अब लिखने की जहमत भी मोल नहीं लेनी पड़ती.

बने-बनाए संदेश हैं. दिमाग पर जोर नहीं डालना पड़ता, उपयुक्त शब्दों की तलाश नहीं करनी पड़ती. एक ही संदेश सारे शिक्षकों को भेज दिया जाता है.

किसी को एक किसी के द्वारा गढ़े गए मॉडल संदेश की तरह ही चित्र हैं और प्रतीकात्मक रेखांकन भी. उसके साथ जुड़े हुए हाथों की तस्वीर पोस्ट कर दी जाती है.

अभी भी गुरु या शिक्षक के रूप में एक श्मश्रुमुख (दाढ़ी-मूंछों के साथ) प्रौढ़ पुरुष की तस्वीर भेजी जाती है. उनका एक हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में उठा होता है. मुद्रा गंभीर ध्यानावस्था की होती है.

कुछ लोग चरण पादुका या खड़ाऊं की छवि भी भेजते हैं. मैंने अपनी अध्यापक सहकर्मियों से पूछा नहीं कि उन्हें किस किस्म की गुरु-छवि भेजी जाती है. क्या इन छवियों में जेंडर संशोधन किया जाता है?

एक से पूछा तो उन्होंने जो छवि दिखलाई उसमें भी एक गहरी काली दाढ़ी वाला गुरु अपने पुरुष विनीत शिष्य को आशीर्वाद देता दिखलाई पड़ रहा है. विडंबना यह कि यह संदेश भेजने वाली भी स्त्री है.

यह सिर्फ आलस्य है या दिमागी अनुकूलन या कुछ और? क्या स्त्रीवाद सचमुच अब बीते जमाने की बात हो गया कि हम अपने सामान्य अभिवादन, अभिनंदन के तौर-तरीकों पर ठहरकर विचार नहीं करते?

अध्यापक की यह ध्यानवाली मुद्रा इतनी लोकप्रिय क्यों है? अध्यापक स्वस्थ हो, लेकिन इस प्रकार अविचलित, प्रायः समाधिस्थ?

सांस्कृतिक उत्तेजना का समय है. सो, कुछ लोग इस तिथि को बुद्ध पूर्णिमा समझकर संदेश उसी प्रकार के भेज रहे हैं. एक युवतर अध्यापक मित्र ने कहा कि यह बेचारे व्यास का दिन है. क्यों उनसे छीनकर बुद्ध के नाम करते हैं!

उन्होंने यह भी कहा कि हमारे छात्र जीवन में तो यह लोकप्रिय न था. अब पिछले एक दशक में जरूर जोर पकड़ गया है. क्या इसे 5 सितंबर के मुकाबले मैदान में उतारा जा रहा है?

चित्रों के साथ-साथ जो लिखा जाता है अभिवादन के लिए उसमें गुरु के चरणों की वंदना हावी होती है.

आजकल कुछ छात्र फेसबुक भी अपने सबसे आदरणीय शिक्षक के प्रति अपना आदर निवेदित करते दिखलाई पड़ते हैं. इससे उस छात्र के दूसरे शिक्षकों में क्या प्रतिक्रिया होती है?

क्या उस भाग्यशाली सहकर्मी के प्रति सम्मान जगता है या उससे जलन होती है? उस छात्र के बारे में क्या खयाल पैदा होता है जिसने सार्वजनिक रूप से उसका वंदन किया और आपका नहीं?

अक्सर सोचता रहा हूं कि यह हिंदी या संस्कृत के छात्रों और शिक्षकों पर ही लागू होता है या इस विशेष तिथि को अन्य विषयों के छात्र भी अपने शिक्षकों के प्रति भी श्रद्धा निवेदन करने सक्रिय होते हैं?

एक दूसरे विषय के सहकर्मी से पूछा. उन्हें ऐसे संदेश आए हैं. लेकिन उनकी व्याख्या यह यह है कि यह स्नेह भाव प्रायः वैसे छात्रों की तरफ से ही व्यक्त होता है जिनसे कक्षा मात्र का रिश्ता नहीं रहता.

किसी न किसी स्तर पर कक्षा से बाहर उनके निजी जीवन में अध्यापक की भागीदारी के कारण छात्र के मन में शिक्षक के प्रति अतिरिक्त आदर उत्पन्न होता है.

छात्र और शिक्षक के बीच रिश्ता किस तरह का है? कृष्ण कुमार का संस्मरण याद आया. सागर विश्वविद्यालय के अपने शिक्षक मलिक साहब का. उनके घर रात दस बजे भी बेखटके जा सकते थे. कॉफी मिलती ही, इसका आश्वासन था. घर जाने को पैसा घट जाए तो वह भी.

यह संबंध अब देखने में नहीं आता. एक तरह की सावधानी शिक्षक और छात्र के रिश्ते में आ गई है.

लॉकडाउन के दौरान आभासी अध्यापन के दौरान पड़ने वाली गुरु पूर्णिमा कुछ भिन्न होनी चाहिए थी. गुरु सिर्फ कॉलेज या विश्वविद्यालय में नहीं होते.

स्कूल पहली जगह है जहां गुरु या अध्यापक से सामना होता है. इस गुरु पूर्णिमा को शायद इस पर बात की जा सकती थी कि कितने स्कूल के अध्यापकों के वेतन में कटौती हो गई है. कितने सब्जी का ठेला लगाने को मजबूर हैं.

एक पत्रकार ने बताया कि पंजाब में यह मानकर कि अध्यापकों के पास अभी वक्त ही वक्त है, उन्हें कोरोना वायरस संक्रमण को नियंत्रित करने के कामों में लगा दिया गया है.

दिल्ली के एक अध्यापक ने बताया कि उन जैसे कई लोगों की ड्यूटी क्वारंटीन शिविरों में लगा दी गई है. स्कूल का अध्यापक हर मर्ज़ की दवा जो है.

ऑनलाइन कक्षाओं में उसे सिर्फ छात्र से नहीं, उसके माता पिता से भी मुख़ातिब होना है. मां-बाप हर अध्यापक की परीक्षा हर दिन ही लेते चलते देखे गए. कई स्कूलों ने शिक्षकों को विदा ही कर दिया.

लेकिन समस्या सिर्फ स्कूली अध्यापकों की नहीं है. पूरी दुनिया में विश्वविद्यालय बड़े पैमाने पर अध्यापकों की छंटनी की तैयारी कर रहे हैं.

यूरोप और अमेरिका में अस्थायी अनुबंध पर काम कर रहे अध्यापकों और अध्यापन में सहयोग करने वालों को नोटिस थमा दी गई है.

पहली दुनिया के मुल्कों में पहले ही अध्यापकों का अस्थायीकरण हो रहा था. अब वह तेज हो गया है. विश्वविद्यालय पैसा न होने के कारण अध्यापकों के पद ही समाप्त कर रहे हैं.

कोरोना वायरस संक्रमण के भय से विश्वविद्यालयों के बंद होने के कारण अध्यापकों को फालतू मान लिया गया है.

(फाइल फोटो: पीटीआई)
(फाइल फोटो: पीटीआई)

सैम पित्रोदा का सपना सच होता दिख रहा है. सरकारों के लिए सुनहरा मौका है. ऑनलाइन अध्यापन के बहाने अध्यापकों की संख्या नियंत्रित की जा सकती है.

दिल्ली विश्वविद्यालय के एक दीक्षांत समारोह में कुछ बरस पहले उन्होंने कहा था कि ऑनलाइन शिक्षण के आम हो जाने के बाद एक विषय में पूरी दुनिया में 5 अध्यापक काफी होंगे.

उनके व्याख्यान ऑनलाइन उपलब्ध होंगे और कहीं भी छात्र उनसे लाभान्वित हो सकेंगे. इस तरह तीसरी दुनिया के देश को अपना पैसा और जरूरी कामों में लगा सकेंगे.

पहली दुनिया के विश्वविद्यालय श्रेष्ठ ज्ञान सर्जन करेंगे, उसका वितरण ज्ञानवंचित तीसरी दुनिया के ज्ञान बुभुक्षितों में कम साधन लगाकर किया जा सकेगा.

जब यह आम हो जाएगा, जो यह राष्ट्रवादी सरकार चाहती है, तब गुरु पूर्णिमा को छात्र किसे संदेश भेजेंगे?

क्या वे आइवी लीग के विश्वविद्यालयों के उन सितारा शिक्षकों को गुरु पूर्णिमा पर ईमेल भेजेंगे? इसलिए यह क्षण शिक्षा के पूरे व्यापार में अध्यापक की भूमिका की केंद्रीयता पर पुनर्विचार का भी है.

गुरु शब्द में गुरुता है. इसके समानार्थी शब्दों में कामकाजी रोजमर्रापन है.अध्यापक या शिक्षक. ज्यादा दिन नहीं हुए जब हिंदी में भी उस्ताद या उस्तानी अपरिचित न थे. मुदर्रिस और मदरसे का रिश्ता साफ है.

जो प्रेमचंद के पाठक हैं, उनके लिए मदरसा वही नहीं है जो आज के भारतीय राष्ट्रवादियों के लिए है. लेकिन गुरु पूर्णिमा जैसे दिवस जब आते है तो इस रोजमर्रापन की धूल-गर्द झाड़कर बेचारे अध्यापक को एक उदात्त स्तर पर प्रतिष्ठित कर दिया जाता है.

गुरु शब्द में एक अपरिभाषित सी मधुर स्मृति छिपी हुई है. जाने किसकी और कब की?

बचपन से ही सुनते आए हैं कि गुरु-शिष्य परंपरा के समाप्त हो जाने से ही सारी गड़बड़ी शिक्षा व्यवस्था में पैदा हुई है. लेकिन इस परंपरा की याद किसके लिए मधुर है और किसके लिए नहीं, इस सवाल पर विचार तो करना ही होगा.

जब गुरु को अधिकार था कि वह शिष्य चुन सके तो क्या वह चुनाव समाज के हर तबके से करता था? क्या द्रोणाचार्य के आश्रम में एकलव्य का प्रवेश संभव था?

गूगल पर गुरु पूर्णिमा शब्द-युग्म की खोज करने पर जिन महान गुरुओं की सूची बार-बार सामने आती है, उनमें द्रोणाचार्य और परशुराम सबसे ऊपर हैं. वशिष्ठ भी.

द्रोणाचार्य से सीधे शिक्षा न लेने पर भी एकलव्य में इतनी ईमानदारी थी कि वह उनसे मिली अप्रत्यक्ष प्रेरणा को स्वीकार करे, लेकिन द्रोणाचार्य अपनी विद्या से प्रतिबद्ध न थे, इस शिष्य को पुरस्कार की जगह उन्होंने दंड दिया.

वही दंड सूतपुत्र कर्ण को परशुराम ने दिया. जिस शिष्य ने, गुरु को कष्ट न हो, इसके लिए खुद कष्ट उठाया, उसे गुरु ने ‘गलत’ जाति का होने के कारण ठीक उसी वक्त उस ज्ञान के विस्मरण की सजा दी, जब उसकी सबसे अधिक आवश्यकता थी.

ऐसे द्रोणाचार्य के नाम पर गुरुओं के लिए राजकीय सम्मान का होना ही जाहिर करता है कि यह आधुनिक राष्ट्र राज्य अपनी परंपरा से किस तत्त्व को श्रेय मानता है.

और हाल के वर्षों में ब्राह्मणों में परशुराम की लोकप्रियता के बढ़ने से जाना जा सकता है कि समानता के विचार के प्रति समाज के पारंपरिक अभिजन का क्या विचार है.

आधुनिक शिक्षा प्रणाली ने छात्र चयन का अधिकार शिक्षक के हाथ से लिया, तो ठीक ही किया. उसके बिना न तो एकलव्य और न कर्ण कभी विद्या के आंगन में प्रवेश भी कर सकते थे. स्त्रियों की तो बात ही छोड़ दीजिए.

गुरु-निरपेक्ष प्रवेश प्रणाली के बिना स्कूलों और विश्वविद्यालयों की सूरत बदल नहीं सकती थी, लेकिन किसे ज्ञान के परिसर में प्रवेश मिले, इसका निर्णय करने का अधिकार छिन जाने का बदला तो लिया ही जा सकता था.

आ तो गए, देखते हैं, टिकते कैसे हो! मुख्य प्रवेश द्वार पर पहरा दे रहे हों या नहीं, एक कक्षा से दूसरी के बीच छन्नी तो हैं ही. कौन रुक जाएगा, कौन भाग निकलेगा, यह तो बिना घोषित किए तय किया जा सकता है.

इसके लिए आंकड़ों की जरूरत नहीं, स्कूल और विश्वविद्यालय के गुरु जानते हैं कि यह कैसे किया गया. इस प्रकार शिक्षा उस असमानता को गहरा करने का माध्यम बनी, जिसे दूर करने का संकल्प वह घोषित करती रही है.

यह सच है कि ऐसे अध्यापक भी रहे हैं जिन्होंने इस नियम को तोड़ा है. फिर भी वे अपवाद ही कहे जाएंगे.

‘मैं अपनी कक्षा नहीं चुनता,’ यह कहकर अध्यापक न तो दोषमुक्त हो सकता है, न निश्चिंत. आइवी लीग विश्वविद्यालय के अध्यापक को जनतंत्र और समानता के सिद्धांत पर चर्चा की विडंबना का एहसास रहना ही चाहिए.

वैसे ही भारत में अशोका यूनिवर्सिटी ही क्यों, दिल्ली विश्वविद्यालय के कई कॉलेजों के अध्यापकों को इस एहसास के साथ ही ज्ञान व्यापार करना चाहिए कि जो उनके सामने हैं, उनके मुक़ाबले कई गुना नहीं हैं.

इसका कारण उनका प्रतिभाहीन होना नहीं है, ‘गलत’ परिवार और समुदाय में पैदा होना है. इन संस्थानों का होना और फलना- फूलना समाज में प्रतिभा-विभाजन को सामान्य और सह्य बनाता है.

गुरु का एक काम मूल्यांकन और प्रमाणन का भी है. आदर्श अवस्था वह है जिसमें गुरु इन मामलों में स्वतंत्र हो. लेकिन हमें मालूम है कि जहां यह पूरी तरह गुरु-निर्भर है, वहां अन्याय की आशंका अधिक है.

छात्रों पर गुरु को अनुकूल रखने का दबाव भी ऐसी जगहों में ज्यादा होता है. प्रगतिशील माने जानेवाले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भी ग्रेड और गुरु शिष्य संबंध की समानुपातिकता के किस्से आम हैं.

एम.फिल या पीएचडी में दाखिले की एकमात्र शर्त प्रतिभा नहीं है. गुरु का प्रसाद संभवतः अधिक प्रभावी होता है. गुरु खुद को जितना स्वायत्त और स्वयंभू दिखलाता है, उतना ही वह कुछ और हितों का प्रतिनिधि है, यह ऐसे अवसरों पर मालूम होता है.

इस रास्ते आए शोधार्थियों की भी प्राथमिक वफादारी गुरु या ज्ञान के प्रति न होकर उसी से होगी, जिसे प्रसन्न करने के लिए अध्यापक ने उसका दाखिला कराया है.

गुरु ही गुरुओं को चुनते हैं. गुरु परंपरा भी कैसे बढ़ती है, इसके तमाम किस्से हैं. इसीलिए यह मांग बढ़ती जाती है कि इसमें भी गुरुओं के प्रभाव को कम किया जाए.

गुरु इन सबसे अपमानित महसूस करते हैं. लेकिन उन्हें खुद से ही पूछना होगा कि अगर इस क्षेत्र में न्यायाधीश या विचारपति होने की उनकी पात्रता दिनोंदिन संदिग्ध होती गई है तो उसमें उनकी जिम्मेदारी कितनी है.

गुरु पूर्णिमा के अवसान के बाद अपने पेशे पर विचार बिना इस भूमिका के नहीं किया जा सकता.

गुरु कौन है? कक्षा में घुसने से पहले अपने आप को लेकर अगर वह पहले के मुकाबले और अनिश्चित नहीं है तो उसके ईमानदार होने पर शक किया जाना चाहिए.

जो जन समूह उसके सामने है, उसे छात्र की समूहवाचक संज्ञा में शेष करने के खतरे हैं. एक संवेदनशील अध्यापक को उन विभाजनों और आसमान धरातलों का बोध रहना ही चाहिए, जो उस दिखती हुई कक्षा में अदृश्य हैं.

इन विभाजनों और असमानताओं की संवेदना ही उसकी अध्यापन पद्धति और शैली को तय करेगी. उसकी प्रतिबद्धता इन जीते-जागते दिल दिमागों से है.

कोई एक कक्षा जीवन को नया मोड़ दे सकती है. लेकिन वह कौन सी कक्षा होगी? इसलिए अध्यापक हर कक्षा के पहले नर्वस रहता है.

ठीक अभिनेता की तरह. हजार-हजार प्रदर्शनों के बाद भी हर रात मंच पर उतरने के पहले एक मंझे हुए अभिनेता या अभिनेत्री के तनाव के अनेक किस्से हैं. अध्यापक की प्रत्येक कक्षा एक प्रदर्शन ही है.

अध्यापक हमेशा दुविधा में रहता है. उपेंद्र बक्षी की बात याद करें तो वह अतीत, वर्तमान और भविष्य के बीच के तनाव के बीच अपना रास्ता चुनता है. क्या वह एक ज्ञानकोश है?

अतीत में ज्ञान सृजित किया गया उसे ईमानदारी से नई पीढ़ी को स्थानांतरित करना है, यह कम बड़ा दायित्व नहीं है. क्या इसे वह बिना किसी आग्रह से रंजित हुए कर सकेगा?

इस ज्ञानकोश का संरक्षण उसका काम है. लग सकता है कि वह यथास्थितिवादी है. इससे भी आगे बढ़कर उसे संरक्षणशील होना है.

माना जाता है कि वह नए विचार का सर्जक है. कई बार नए विचार या ज्ञान को वह संदेह की निगाह से देखता है और हर बार वह गलत नहीं होता.

अतीत के प्रति ईमानदारी के साथ वह उस समुदाय को नजरअंदाज नहीं कर सकता जो उसके सामने है. वह उससे क्या चाहता है?

क्या उसके लिए वह सिर्फ एक डाकिया है जो पिछले वक्तों से चले आ रहे ज्ञान को उन तक पहुंचा देगा? या उससे कुछ और चाहते हैं? क्या वे खोजने और सोचने वाले समाज के सदस्य हैं?

खुद खोज पाने और सोच पाने का जो उनका प्रकृति प्रदत्त अधिकार है, उसे हासिल करने और अर्थवान बनाने में अध्यापक उनकी मदद करे या कुछ और?

फिर क्या अध्यापक की कोई सत्ता ही नहीं? क्या उसका कोई विचार ही नहीं? क्या वह आग्रहहीन प्राणी है?

अध्यापकों पर यह आरोप पुराना है कि शिक्षा के नाम पर वे छात्रों का विचारधारात्मक प्रशिक्षण करते हैं. यह इल्जाम विशेषकर वामपंथी शिक्षकों पर लगता रहा है.

आज के असाधारण समय में जब छात्र और शिक्षक एक दूसरे के शारीरिक सान्निध्य में न होंगे और ऑनलाइन माध्यम से वे अपना व्याख्यान छात्रों तक पहुंचाएंगे तो उसका नतीजा उनके लिए क्या होगा.

द क्रॉनिकल ऑफ हायर एजुकेशन  ने इस विषय पर एक लेख छापा है. यह भय व्यक्त किया जा रहा है कि रिकॉर्ड किए हुए व्याख्यानों का इस्तेमाल दक्षिणपंथी समूह इस रूप में कर सकते हैं कि वे अध्यापकों पर विचारधारात्मक पूर्वाग्रह का आरोप लगाएं.

यह आसान है. विचारधारात्मक या राजनीतिक रुझान छिपाना मुश्किल है. लेकिन यह क्या किसी प्रकार उचित भी है?

एक अध्यापक ने बताया है कि उनकी कक्षा के मूल्यांकन के दौरान उनके कुछ छात्रों ने उन्हें अपने राजनीतिक आग्रह छोड़कर आने को कहा.

जनसंख्या वृद्धि या जलवायु परिवर्तन जैसे विषय के अध्यापन के समय यह कैसे हो? वह राजनीति को कैसे इनसे बाहर करे? सिर्फ ऐसे ही मामलों में?

क्या राजनीति को रवींद्रनाथ टैगोर या तुलसीदास या मीरा पढ़ते समय छोड़ना संभव है? लेकिन अब अगर उनके व्याख्यानों को छात्रों के अलावा कोई और भी सुन रहा हो तो नतीजे संगीन हो सकते हैं.

खासकर जो सत्ता में हो और विचारधारात्मक रूप से उसका विरोधी. क्योंकि यह विचार आकर्षक है कि अध्यापन को राजनीतिक आग्रह से मुक्त होना चाहिए और अगर आप सर्वेक्षण कर लें, तो यही बहुसंख्यक राय भी होगी.

इसीलिए कक्षाओं की क्षणभंगुरता महत्वपूर्ण है. उसे रिकॉर्ड करके स्थायित्व प्रदान करने का लोभ तो बड़ा है लेकिन वह खतरनाक हो सकता है. अध्यापक को अपनी कक्षा की क्षणिकता खोनी नहीं चाहिए.

एक दूसरी अध्यापक ने कहा कि वे उपाय कर रही हैं कि उनके व्याख्यान के वीडियो आम न हो पाएं. वे यूट्यूब पर अनलिस्टेड रहेंगे. इतनी सावधानी की बाध्यता अपनी सामान्य कक्षाओं में अध्यापक आम तौर पर महसूस नहीं करते रहे हैं.

अपने वैचारिक आग्रह के प्रति छात्रों को सजग कर देना अध्यापक की जिम्मेदारी है. छात्र फिर उस नजरिये की परीक्षा भी कर सकते हैं और उससे विवाद या संवाद कर सकते हैं.

यह उसी अध्यापक की जिम्मेदारी है कि वह छात्र को यह योग्यता और साहस भी दे, वे स्रोत और संसाधन भी जिनके सहारे वह उससे सवाल कर सके.

अपने नजरिये से वह उपलब्ध ज्ञान से भी अपनी बहस को कक्षा के समक्ष रख सकता है. अपनी उलझनों को भी. अध्यापक इस तरह एक प्रकार का मध्यस्थ है. लेकिन निष्क्रिय नहीं. वह छात्र से खुद भी बहस करता है और उसे चुनौती भी देता है.

आज की दुनिया के अध्यापक की भूमिका लेकिन अलग किस्म की है. परिसर की बदलती शक्ल से वह उदासीन नहीं हो सकता.

इस बात से भी कि शायद यह एकमात्र जगह है, जहां छात्र अपनी सामुदायिक सीमाओं का अतिक्रमण करके समानता और मित्रता का अनुभव कर सकते हैं. यहीं नई नजदीकियां बन सकती हैं.

अध्यापक का एक काम इसे और सुगम बनाना है. इसमें प्रायः उसका समाज से टकराव होता है क्योंकि समाज परिसर को अपनी छवि में ढालना चाहता है.

‘पिंजरा तोड़’ लड़कियों का सामाजिक कायदों से विद्रोह है. अध्यापक इसमें किस प्रकार का मध्यस्थ हो? उसे ऐसी स्थितियों में पक्षधरता घोषित करनी होती है. इसका भी दंड है.

परिसर प्रायः प्रासंगिक होता है समाज का प्रतिलोम होकर. आज के वक्त का सबसे बड़ा सवाल है नई सामुदायिकताओं का निर्माण. इनका रिश्ता पारंपरिक सामुदायिकताओं के अलावा राष्ट्रों से भी तनावपूर्ण होगा.

मसलन, चीन और अमेरिका के बीच तनाव की घड़ी में अमेरिकी अध्यापक चीनी छात्रों के साथ कैसे पेश आएं? चीनी छात्र क्या मात्र छात्र हैं या चीनी राष्ट्रवाद के प्रवक्ता? उनके बीच जब मतभेद हों तो अध्यापक क्या करें?

जब तुर्की, चीन, फिलीपींस, अमेरिका, रूस, पोलैंड, पाकिस्तान, भारत हर जगह बहुसंख्यकवादी राष्ट्र का विचार हावी हो तो अध्यापक की भूमिका क्या हो? उस वक्त वह एक किस प्रकार की मध्यस्थता करे?

परिसर इस वक्त सबसे अधिक दबाव में काम कर रहे हैं. धर्म से अपने रिश्ते को एक स्तर पर उन्होंने सुलझा लिया था, लेकिन बहुसंख्या के धर्म के साथ राष्ट्र के विचार के गठजोड़ ने नई मुश्किल खड़ी की है.

राष्ट्र का विचार सर्वोपरि माना जाता है, आज का सबसे बड़ा धर्मनिरपेक्ष धर्म वही है. विश्वविद्यालय उसके वफादार कैसे न हों? इससे बड़ा पाप आज क्या हो सकता है?

लेकिन चूंकि यही अब सबसे बड़ा विद्रोह बन गया है, अध्यापक खुद को इससे अलग नहीं रख सकता. समुदाय और व्यक्ति के बीच द्वंद्व में, और समुदाय किसी भी प्रकार का हो, अध्यापक किसका पक्ष ले? आज उसे खुद इसी सवाल का जवाब खोजना है.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

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