नई शिक्षा नीति में नया क्या है

सरकार द्वारा हाल ही में लाई गई नई शिक्षा नीति को लेकर विशेषज्ञों एवं शिक्षाविदों की विभिन्न राय है. कुछ लोग जहां इसे प्रगतिशील दस्तावेज़ बता रहे हैं, वहीं कुछ का मानना है कि यह हाशिये पर पड़े लोगों एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े अल्पसंख्यकों, एससी/एसटी, ओबीसी जैसे वर्ग को कोई ख़ास राहत प्रदान नहीं करती है.

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(फाइल फोटो: पीटीआई)

सरकार द्वारा हाल ही में लाई गई नई शिक्षा नीति को लेकर विशेषज्ञों एवं शिक्षाविदों की विभिन्न राय है. कुछ लोग जहां इसे प्रगतिशील दस्तावेज़ बता रहे हैं, वहीं कुछ का मानना है कि यह हाशिये पर पड़े लोगों एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े अल्पसंख्यकों, एससी/एसटी, ओबीसी जैसे वर्ग को कोई ख़ास राहत प्रदान नहीं करती है.

(फोटो: रॉयटर्स)
(फोटो: रॉयटर्स)

नई दिल्ली: अयोध्या में राम मंदिर के लिए भूमि पूजन और रफाल विमानों की पहली खेप भारत में पहुंचने की कोलाहल भरी खबरों के बीच बीते 29 जुलाई को केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) को मंजूरी दे दी.

यह नई नीति साल 1986 में कांग्रेस के कार्यकाल में लाई गई उस शिक्षा नीति को बदल देगी, जो कि विभिन्न कानूनों एवं योजनाओं के जरिये इस समय देश में लागू है.

साल 2014 में भाजपा की अगुवाई में एनडीए की सरकार बनने के बाद से ही ये बहस जोर-शोर से चल रही थी कि सरकार नई शिक्षा नीति लाने वाली है. इसे बनाने के कामकाज की शुरुआत साल 2015 में हुई थी, जब स्मृति ईरानी मानव संसाधन विकास मंत्री थीं.

इसे लेकर पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रमनियन की अध्यक्षता में अक्टूबर, 2015 में एक समिति बनाई गई, जिसने एक साल के भीतर 7 मई 2016 को अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी.

हालांकि इस रिपोर्ट पर काम आगे नहीं बढ़ पाया और भारत सरकार ने जून 2017 में वैज्ञानिक के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में एक अन्य समिति बनाई, जिसने 31 मई 2019 अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी.

मोदी सरकार के दोबारा सत्ता में वापसी के बाद समिति द्वारा बनाई गई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे को सार्वजनिक किया गया और इस पर जनता से राय मांगी गई. यह दस्तावेज करीब 480 से ज्यादा पेजों का था.

हालांकि राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 का फाइनल डॉक्यूमेंट ड्राफ्ट से काफी छोटा है, जिसमें देश की शिक्षा व्यवस्था को बदलने का प्रारूप तैयार किया गया है.

कोरोना महामारी के बीच सरकार द्वारा जारी की गई इस नीति को लेकर विशेषज्ञों एवं शिक्षाविदों की विभिन्न राय है. कुछ लोगों ने नई शिक्षा नीति को एक ‘प्रगतिशील दस्तावेज’ बताते हुए कहा है कि इसमें मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त खामियों की पहचान की गई है.

वहीं कुछ लोगों का कहना है कि इसमें बातें तो काफी बड़ी-बड़ी की गई हैं, लेकिन इसे लागू करने की उचित रूपरेखा पेश नहीं की गई है और यह देश के हाशिये पर पड़े लोगों एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े अल्पसंख्यकों, एससी/एसटी, ओबीसी जैसे वर्ग के लोगों को कोई खास राहत प्रदान नहीं करती है और न ही उनके समावेश की इसमें कोई कोशिश है.

जानकारों का यह भी कहना है कि यह दस्तावेज ट्यूशन माफिया, प्राइवेट शिक्षण संस्थानों के गिरोहों, शिक्षा का निजीकरण एवं व्यवसायीकरण जैसी बड़ी समस्याओं से कोई निजात नहीं देती है.

इनके अलावा एक आरोप यह भी है कि यह दस्तावेज भारत देश की जरूरत के हिसाब से शिक्षा देने के बजाय ज्यादातर ‘पश्चिमी शिक्षा’ की ही नकल करती दिखाई देती है जो कि ‘आत्मनिर्भर भारत’ बनाने के लक्ष्य और इसके वास्तविक अर्थों से कोसों दूर है.

वहीं सरकार का दावा है कि नई नीति का लक्ष्य भारत के स्कूलों और उच्च शिक्षा प्रणाली में इस तरह के सुधार करना है कि देश दुनिया में ज्ञान की ‘सुपरपावर’ कहलाए और बच्चों में राष्ट्रवादी गौरव का भाव उत्पन्न हो सके. राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय का नाम बदलकर शिक्षा मंत्रालय करने को कहा गया है.

शिक्षा नीति क्या होती है?

दुनिया के हर एक देश की एक शिक्षा नीति होती है जो ये तय करती है कि उनके यहां शिक्षा की रूपरेखा किस तरह की होगी. एक तरह से राष्ट्रीय शिक्षा नीति एक ‘विज़न स्टेटमेंट’ या ‘विज़न डॉक्यूमेंट’ होती है, जो ये बताती है कि आने वाले वर्षों में देश में शिक्षा किस दिशा में जाएगी. यह देश की शिक्षा व्यवस्था को एक आकार प्रदान करती है.

दूसरे शब्दों में कहें तो किसी भी देश की शिक्षा नीति उसका भविष्य तय करती है. यह नीति इस चीज के लिए रास्ता तैयार करती है कि देश में गैर-बराबरी खत्म होगी या नहीं, हर किसी को समान अवसर मिलेंगे या नहीं, समाज से भेदभाव मिटेगा या नहीं, सभी वर्गों का समावेश होगा या नहीं.

देश में इस तरह का पहला दस्तावेज साल 1968 में बना था, जिसे जाने-माने वैज्ञानिक डीएस कोठारी की अध्यक्षता में बनी एक समिति की सिफारिशों के आधार पर तैयार किया गया था. इसके बाद 1986 में दूसरी शिक्षा नीति आई, जिसे साल 1992 में संशोधित किया गया था. अब साल 2020 में ये तीसरी शिक्षा नीति आई है.

हालांकि ध्यान देने वाली एक खास बात ये है कि अभी ये अपने आप में सिर्फ एक दस्तावेज है. इसे लागू करना या न करना अब सरकार के हाथ में है.

यह कानूनी रूप से बाध्यकारी दस्तावेज नहीं है. इसे लागू करने के लिए सरकार को कई कानून पारित करने होंगे, पुराने कानूनों में संशोधन करना होगा, नियम बनाने होंगे, रेगुलेशन बनाना होगा, अधिसूचना और प्रशासनिक आदेश जारी करने होंगे. ये सब करने में काफी समय लगने वाला है.

आइए अब ये जानते हैं कि नई शिक्षा नीति में स्कूल से लेकर उच्च शिक्षा तक के लिए क्या बदलाव किए गए हैं.

स्कूली शिक्षा

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 में सभी बच्चों के लिए स्कूल की पहुंच आसान बनाने पर जोर दिया गया है. इसमें कहा गया है कि देश में स्कूल छोड़ने की दर में कमी लाई जानी चाहिए और ज्यादा से ज्यादा बच्चों का स्कूलों में नामांकन किया जाए.

(फाइल फोटो: पीटीआई)
(फाइल फोटो: पीटीआई)

रिपोर्ट कहती है कि आने वाले समय में दो करोड़ बच्चों को मुख्यधारा में लाया जाएगा. इसमें बुनियादी ढांचा विकसित करने, नवीन शिक्षण केंद्रों को स्थापित करने, केवल प्रशिक्षित शिक्षकों और परामर्शदाताओं की नियुक्ति करने, ओपन स्कूलों के लिए अनुकूल वातावरण बनाने और इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए वयस्क साक्षरता कार्यक्रमों को प्रोत्साहित करने का प्रस्ताव किया गया है.

इसके अलावा पुरानी नीति के 10+2 (10वीं कक्षा तक, फिर 12वीं कक्षा तक) के ढांचे में बदलाव करते हुए नई नीति में 5+3+3+4 का ढांचा लागू करने की बात कही गई है. इसके लिए आयु सीमा क्रमश: 3-8 साल, 8-11 साल, 11-14 साल और 14-18 साल तय की गई है.

एक जो बहुत बड़े सुधार का प्रस्ताव इसमें किया गया है वो ये है कि साल 2009 में लाए गए शिक्षा का अधिकार (आरटीई) कानून को तीन से 18 साल (3-18) की उम्र तक वाले बच्चों पर लागू करने के लिए कहा गया है.

फिलहाल यह कानून छह से 14 साल (6-14) की उम्र वाले बच्चों पर लागू है. इसके तहत सरकार की ये जिम्मेदारी है कि वे इस उम्र वाले बच्चों को मुफ्त शिक्षा प्रदान करें. इसी कानून के तहत निजी स्कूलों में 25 फीसदी सीट आर्थिक रूप से पिछड़े (ईडब्ल्यूएस) वर्ग के बच्चों के लिए आरक्षित किया गया है.

इसके साथ ही इसमें मिड-डे मील के साथ नाश्ता देने की भी बात कही गई है. इस नीति में कहा गया है कि सुबह के समय पोषक नाश्ता मिलना अधिक मेहनत वाले विषयों की पढ़ाई में लाभकारी हो सकता है.

यह पहला मौका है जब राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने स्कूल में दाखिले से पहले की पढ़ाई (प्री-स्कूलिंग) के लिए सरकारी मदद देने या सरकार द्वारा हस्तक्षेप करने की बात कही है. प्री-स्कूलिंग में नर्सरी और केजी स्तर की शिक्षा आती है.

इस योजना को ‘बचपन की देखभाल और शिक्षा के लिए राष्ट्रीय पाठ्यक्रम तथा शैक्षणिक ढांचा’ (एनसीपीएफईसीसीई) का नाम दिया गया है और इसके तहत आठ साल की उम्र तक के बच्चों को शिक्षा देने का प्रावधान है.

यह योजना शिक्षाविदों की इस रिसर्च पर आधारित है कि एक बच्चे के दिमाग का 85 फीसदी विकास आठ साल की उम्र तक हो जाता है, इसलिए यदि आठ साल की उम्र तक बच्चे की पढ़ाई पर ध्यान नहीं दिया जाता है तो उसकी नींव बहुत खराब हो जाती है और आगे चलकर तमाम कोशिशों का कोई खास फायदा नहीं होता है.

यह कार्य शिक्षा, महिला एवं बाल विकास, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण और जनजातीय मामलों के मंत्रालयों के बीच एक सहयोगात्मक प्रयास होगा. इसके लिए एनसीईआरटी को नोडल विभाग बनाने को कहा गया है.

शिक्षाविदों का मानना है कि बच्चों को तीन साल की उम्र से ही थोड़ी-थोड़ी पढ़ाई (मनोरंजक अंदाज में) करने की आदत डालने की शुरुआत करनी चाहिए.

इसके लिए इसमें सुझाव दिया गया है कि या तो विद्यालयों में एक अलग से क्लास जोड़े जाएं या फिर आंगनबाड़ी को ये काम दिया जाए जो बच्चों को खेलने, थोड़ा बहुत पढ़ाने जैसा काम करेंगी.

इसके अलावा बच्चों को ‘21वीं सदी के कौशल’ से लैस करने पर ध्यान दिया गया है. इसके लिए कक्षा 6 से कोडिंग जैसे नए विषयों की शुरुआत की जाएगी.

साथ ही अब छात्र को अपने विषयों को चुनने में अधिक आजादी (लचीलापन) मिलेगी, जो कि कला और विज्ञान, पाठयक्रम और पाठ्येतर विषय या व्यावसायिक और शैक्षणिक विषयों के बीच बनाए गए कठोर अंतरों को समाप्त कर देगी.

इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए एनसीईआरटी द्वारा एक नया पाठ्यक्रम तैयार किया जाना है.

परीक्षा रिफॉर्म्स के रूप में एनईपी में सुझाव दिया गया है कि वार्षिक परीक्षाओं के बजाय ग्रेड 3, 5, और 8, 10 और 12 में मॉड्यूलर रूप में बोर्ड परीक्षाएं कराए जाएं और छात्रों की वैचारिक समझ का परीक्षण किया जाना चाहिए.

एक नया राष्ट्रीय मूल्यांकन केंद्र, परख (समग्र विकास के लिए प्रदर्शन मूल्यांकन, समीक्षा और ज्ञान का विश्लेषण) को शिक्षा के मानकों को निर्धारित करने के लिए स्थापित किया जाएगा.

नीति में सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित समूहों की सहायता के लिए जेंडर इंक्लूज़न फंड (लैंगिक समावेश कोष) और विशेष शिक्षा क्षेत्र की स्थापना भी शामिल है.

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 की सबसे महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक है टीचरों की नियुक्ति. भारतीय स्कूल प्रणाली ने लंबे समय से अपर्याप्त शिक्षकों और प्रशिक्षित शिक्षकों की कम भर्ती की समस्या का सामना किया है.

इन समस्याओं से निजात पाने के लिए नई शिक्षा नीति में शिक्षकों की नियुक्ति पारदर्शी बनाने के लिए एक राष्ट्रीय पेशेवर मानक (एनपीएसटी) की स्थापना का सुझाव दिया गया है.

एनसीईआरटी, एससीईआरटी, विशेषज्ञों और शिक्षक संगठनों की सलाह पर नेशनल काउंसिल फॉर टीचर एजुकेशन द्वारा 2022 तक एनपीएसटी को विकसित किया जाएगा.

इसके तहत पैरा-टीचर्स जैसे कि अतिथि शिक्षक, शिक्षामित्र इत्यादि की नियुक्ति बंद करने का सुझाव दिया गया है. मौजूदा समय में सरकारें चंद पैसे देकर इस तरह के शिक्षकों को कुछ दिन के लिए कॉन्ट्रैक्ट पर रखकर बच्चों को पढ़ाने का काम करती आ रही हैं.

एक महत्वपूर्ण बात ये भी है कि इस नीति में भारतीय भाषाओं में पढ़ाने के महत्व को रेखांकित किया गया है. बच्चों को एक नहीं, कई भाषाएं सिखाने के लिए कहा गया है. इसमें तीन भाषा फॉर्मूला यानी कि हिंदी, अंग्रेजी और स्थानीय भाषाओं में शिक्षा देने को कहा गया है.

इसके अलावा पांचवीं कक्षा तक की पढ़ाई मातृभाषा (क्षेत्रीय भाषा) में कराने के लिए कहा गया है. हालांकि सरकार ने कहा है कि यह अनिवार्य नहीं होगा.

मीडिया में इसे लेकर खूब विवाद खड़ा हुआ, लेकिन खास बात ये है कि ये नई नीति नहीं है. ये 60 के दशक से चलता चला आ रहा है और इसमें वही बात दोहराई गई है.

मालूम हो कि कई अध्ययनों में कहा गया है कि बच्चों की बेहतर समझ के लिए मातृभाषा में मूलभूत और प्रारंभिक शिक्षा दी जानी चाहिए. शिक्षाविदों ने इस कदम का स्वागत किया है. शिक्षा नीति में कहा गया है कि किसी भी छात्र पर कोई भाषा थोपी नहीं जाएगी.

उच्च शिक्षा

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 में उच्च शिक्षा को लेकर एक प्रमुख सिफारिश ये की गई है कि देश में विश्वविद्यालयों की परिभाषा को बदलते हुए इसे बहु विषयों का विश्वविद्यालय (मल्टी डिस्सीप्लिनरी यूनिवर्सिटी) बनाने को कहा गया है. इसका मतलब ये है कि किसी विश्वविद्यालय में एक, दो या तीन विषय नहीं बल्कि सभी संभावित विषयों की पढ़ाई कराई जानी है.

Kanyakumari: Students wearing maks in the wake of coronavirus pandemic pose for a photograph at Nagercoil in Kanyakumari district, Thursday, March 19, 2020. (PTI Photo)(PTI19-03-2020_000250B)
(फोटो: पीटीआई)

इसके पीछे का उद्देश्य जगह-जगह फैल गए ऐसे प्राइवेट विश्वविद्यालयों की समस्या का समाधान करना है या उनमें बदलाव लाने के लिए दबाव डालकर जवाबदेह बनाना है, जो एक या दो विषयों को पढ़ाने के नाम पर विश्वविद्यालय खड़े कर देते हैं. मसलन इस इस तरह के ढेरों मेडिकल, इंजीनियरिंग, लॉ इत्यादि के कॉलेज या विश्वविद्यालय खुले हुए हैं.

इसके साथ ही उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में बदलाव लाकर इसे समग्र शिक्षा बनाने का सुझाव दिया गया है. इसे अमेरिका में ‘लिबरल एजुकेशन’ कहते हैं. इसका उद्देश्य भारत की उस शिक्षा व्यवस्था में बदलाव लाना है, जहां आर्ट्स का छात्र सिर्फ आर्ट्स के विषयों को ही पढ़ पाता है, साइंस या कॉमर्स का छात्र सिर्फ इसी श्रेणी के विषयों को पढ़ पाता है.

दूसरे शब्दों में कहें तो अब बी. कॉम के छात्र के लिए पॉलिटिकल साइंस या इतिहास इत्यादि के पढ़ने का विकल्प होगा. इसी तरह मेडिकल के छात्र के पास इकोनॉमिक्स, फाइन आर्ट्स, साहित्य जैसे विषयों को पढ़ने के मौके मिलेंगे. विज्ञान के छात्र को सामाजिक अध्ययन, समाजशास्त्र इत्यादि का ज्ञान प्राप्त करने का विकल्प मिलेगा.

इसके साथ ही राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 में कहा गया है कि स्नातक का कोर्स चार साल का होना चाहिए. लेकिन यदि कोई दो साल में जाना चाहता है तो उसे एक छोटी डिग्री देकर छोड़ा जा सकता है. तीन साल पर भी एक डिग्री देकर छोड़ा जा सकता है.

एक बड़े नियामकीय बदलाव के रूप में इस शिक्षा नीति में सिफारिश की गई है कि संपूर्ण उच्च शिक्षा के लिए भारतीय उच्चतर शिक्षा आयोग (एचईसीआई) की स्थापना की जाए.

एचईसीआई चिकित्सा और कानूनी अध्ययन को छोड़कर सभी उच्च शिक्षा के लिए एकल नियामक निकाय के रूप में कार्य करेगा और पूर्ववर्ती व्यवस्थाओं जैसे कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) या तकनीकी शिक्षा के लिए अखिल भारतीय परिषद (एआईसीटीई) जैसे अन्य सभी ऐसे निकायों को बंद किया जाएगा.

इसके चार स्वतंत्र विभाग अनुदान, फंडिंग, मानकों और मान्यता के लिए काम करेंगे, जो कि इसे सबसे केंद्रीयकृत नियामक संस्थानों में से एक बनाता है. इस कदम का कई लोगों ने स्वागत किया है, क्योंकि पहले यूजीसी को ही इन चारों कार्यों को करना पड़ता था, जिसके कारण व्यवस्था बहुत बोझिल थी.

हालांकि कई शिक्षाविदों का यह भी मानना है कि सरकार द्वारा इस तरह की उच्च विनियमन व्यवस्था को स्थापित करने से आगे चलकर उच्च शिक्षा के विकास को बाधित कर सकते हैं.

इसके अलावा अलग-अलग विश्वविद्यालयों के दिन-प्रतिदिन के कामकाज की देखरेख के लिए अलग-अलग बोर्ड ऑफ गवर्नर्स भी प्रस्तावित किए गए हैं.

हालांकि सिस्टम के कई जानकारों को यह डर है कि इससे लोगों की विवादास्पद नियुक्तियां हो सकती हैं और उच्च शिक्षण संस्थानों के कामकाज में बाधा आ सकती है और शिक्षा का अधिक राजनीतिकरण हो सकता है.

जहां तक शिक्षण का मामला है, इसे लेकर 2021 तक टीचर एजुकेशन के लिए एक नए राष्ट्रीय पाठ्यक्रम की रूपरेखा (एनसीएफटीई) तैयार करने के लिए कहा गया है. बीएड की डिग्री 2030 तक चार वर्षीय एकीकृत पाठ्यक्रम बनने की संभावना है.

उच्च शिक्षा और ओपन लर्निंग सिस्टम के डिजिटलीकरण पर अत्यधिक जोर दिया गया है.

ऑनलाइन पाठ्यक्रम, डिजिटल रिपॉजिटरी, इसे वास्तविक बनाने की दिशा में छात्र सेवाएं विकसित की जाएंगी. कॉलेज शिक्षा में प्रौद्योगिकी के उपयोग को प्रोत्साहित करने के लिए एक स्वायत्त निकाय, राष्ट्रीय शैक्षिक प्रौद्योगिकी फोरम (एनईटीएफ) भी बनाने का प्रस्ताव किया गया है.

इन सबके अलावा शिक्षा के वैश्वीकरण पर भी जोर दिया गया है. इस शिक्षा नीति में कहा गया है कि भारत में विदेशी विश्वविद्यालयों को अपनी शाखाएं बनाने का मौका दिया जाएगा.

इस प्रस्ताव को लेकर आलोचकों ने संदेह जताया है कि इसके जरिये स्वदेशी सरकारी शिक्षण संस्थानों के लिए खतरा पैदा हो सकता है, क्योंकि सत्ता और इस तरह के विश्वविद्यालयों के गठजोड़ से सरकारी संस्थानों के महत्व को खत्म करने की कोशिश की जा सकती है.

इसके अलावा इस नई शिक्षा नीति में भी पिछले 50 सालों से की जा रही उस सिफारिश को फिर से दोहराया गया है कि देश की जीडीपी का छह फीसदी शिक्षा में खर्च किया जाना चाहिए.