एक अलग भारत और उसके केंद्रीय मूल्यों को याद कराने के लिए फिल्म अमर अकबर एंथनी बुरा विचार नहीं है. यह आज के नौजवानों को यह बतलाएगा कि भारत हमेशा से वैसा नहीं था, जैसा कि आज है.
1970 के दशक में काफी लोकप्रिय रही फिल्म अमर अकबर एंथनी के 40 साल पूरे हो गए हैं. इस फिल्म में अमिताभ बच्चन ने एंथनी का किरदार निभाया था और निर्विवाद रूप से वे इस फिल्म की जान थे. हाल में ही बच्चन ने एक ट्वीट किया, ‘मुंबई के 25 थियेटरों में 25 हफ्ते तक चली..! और आज भी चलती है… एक क्लासिक!’
यह फिल्म टेलीविजन पर गाहे-बगाहे दिखाई जाती है और एक गुजरे हुए ज़माने का एहसास देने के बावजूद, इसने कई दशकों का सफर किया है. आज भी अगर आप मिनट दो मिनट के लिए इस फिल्म को देखें, तो यकीन मानिए, हंसे बिना नहीं रह पाएंगे.
जिन लोगों ने इसे पहली बार बड़े पर्दे पर देखा था, उन्हें यह वर्षगांठ सिर्फ इस फिल्म की ही नहीं, बल्कि उस ज़माने की भी याद दिलाती है. फिल्म के गाने और फैशन तो नॉस्टेल्जिया का एक भाव जगाते ही हैं, इस फिल्म के रास्ते से हमें एक दूसरा भारत भी याद आता है.
एक बेहद खास अंदाज में, अमर अकबर एंथनी उस भारत के सांस्कृतिक आईने के तौर पर हमारे सामने आती है. इस मायने में उस दौर की किसी दूसरी फिल्म की इससे तुलना नहीं की जा सकती. यह हमें एक ऐसे भारत में ले जाती है, जिस पर आतंकवाद के जख्म नहीं थे और न पीट-पीट कर मार देने के लिए लोगों की तलाश करती फिरती टोलियों का कोई वजूद था.
तब भारत को इमरजेंसी के दौर से बाहर आए ज्यादा वक्त नहीं गुजरा था, लेकिन सत्ता के सर्वशक्तिमान हो जाने और उसकी दादागिरी के उस दौर में भी किसी ने लोगों के खाने-पीने को तय नहीं किया. निश्चित तौर पर हमारे साथी नागरिकों के लिए, भले ही वे किसी भी मजहब या यकीनी सिलसिले से ताल्लुक रखते हों, भारत की आत्मा में रची-बसी सहिष्णुता ही अमर अकबर एंथनी का केंद्रीय संदेश है.
ऊपर से नजर आनेवाले भोलेपन को ही अपना स्टाइल बनाते हुए मनमोहन देसाई (फिल्म निर्देशक) ने दरअसल फिल्म के तौर पर धर्मनिरपेक्षता की भावुकता से छलकती हुई कविता लिख दी. आज के तनावपूर्ण समय में भी अमर अकबर एंथनी ‘विविधता में एकता’ के विचार को संक्षेप में व्यक्त करने के लिए इस्तेमाल में आता है.
अमर अकबर एंथनी की कहानी सबको पता है. तीन भाइयों को उनका बाप एक पार्क में छोड़ कर चला जाता है. उसके लौट कर आने से पहले, अलग-अलग हालातों में तीन अलग-अलग धर्मों को माननेवाले इन्हें गोद ले लेते हैं. एक बड़ा होकर पुलिस अफसर बनता है (विनोद खन्ना), दूसरा गायक बनता है (ऋषि कपूर) और तीसरा देसी शराबखाने का मालिक बनता है (अमिताभ बच्चन). अपने समय के तीन बड़े सितारों को एक साथ परदे पर लाना देसाई की सफलता थी.
इन लड़कों की मां आंखों की रोशनी गंवा देती है और इनका बाप, जो शुरू में ड्राइवर था, एक कामयाब तस्कर बन जाता है. पूरी फिल्म में ये लोग एक-दूसरे के आमने-सामने आते हैं, मगर किसी को उनके बीच के रिश्ते का पता नहीं है. दर्शक इस सबका राजदार है और वह संवादों का खूब लुत्फ लेता है जो भाई और बाप के कई इशारों और संदर्भों से भरे हैं. ये पात्र अंत तक इस बात से अनजान रहते हैं कि वे सब एक बड़े परिवार के सदस्य हैं.
देसाई के स्टाइल के अनुरूप ही इस फिल्म में कई असंभव और अतिरंजनापूर्ण दृश्य आते हैं. सिनेमा के शुरुआती हिस्से में खून देने का एक दृश्य आता है, जिसमें तीनों भाइयों का खून एक साथ उनकी मां की नसों में चढ़ रहा है. काफी बाद में मां की आंखों की रोशनी तब लौट आती है जब शिरडी के सांई बाबा की एक मूर्ति के पास रखे दो दीयों से निकलनेवाली ज्योति उसकी आंखों में जाती है.
इसके बीच एक संयोग यह भी है कि साईंबाबा के लिए कव्वाली कोई और नहीं, उसका बेटा अकबर गा रहा है. फिल्म में आए ये सारे लम्हे हमें हंसाते हैं, लेकिन फिल्म के संदर्भ में ये पूरी तरह मुमकिन हैं, विश्वसनीय भले न हों.
उस समय एक मुस्लिम द्वारा एक मूर्ति के लिए गाने को लेकर विरोध की सुगबुगाहट हुई थी, लेकिन यह ज्यादा तूल नहीं पकड़ पाई. इसी तरह से कुछ कैथोलिक ईसाइयों ने अमिताभ बच्चन द्वारा निभाए गए एंथनी के किरदार को शराब का धंधा करनेवाले और पियक्कड़ के तौर पर दिखाए जाने और शराबखाने में ईसा मसीह की फ्रेम की हुई तस्वीर दिखाए जाने को लेकर भी आपत्ति की थी. लेकिन कुछ पादरियों के हस्तक्षेप के बाद यह विवाद भी शांत पड़ गया.
शराब के नशे में धुत ईसाई उन दिनों की फिल्मों का एक जाना पहचाना स्टीरियोटाइप (घिसा-पिटा प्रयोग) था. लेकिन इसी के साथ एक दूसरा स्टीरियोटाइप भी था, जो कम आपत्तिजनक था- एक दयालु पादरी (दिल से ममतामयी मगर ऊपर से सख्त ईसाई नर्स को भी ऐसा ही एक स्टीरियोटाइप कहा जा सकता है).
मुस्लिमों को आमतौर पर नरम दिलवाले रहीम चाचाओं या बिगड़े हुए रोमांटिक नवाब के तौर पर और उनकी माशूकाओं को हर लाइन के बाद ‘हाय अल्लाह’ बोलनेवालियों के तौर पर दिखाया जाता था. लेकिन ये सब समान रूप से अच्छे भद्र लोग होते थे.
इस फिल्म को लेकर एक इंटरव्यू के दौरान ऋषि कपूर ने मेरा ध्यान इस ओर दिलाया था कि आखिरी फाइट सीन में उन्होंने बस एक गुंडे को एक घूंसा मारा था, और वह भी अल्लाह से माफी मांगने के बाद, क्योंकि एक गायक और धार्मिक मुसलमान होने के नाते उसके लिए हिंसा करना वर्जित था.
1950 और 60 के दशक में मुस्लिम सामाजिक फिल्में या अगर अकादमिक शब्दावली में कहें, तो इस्लामिक थीम काफी लोकप्रिय थे. 1970 ईस्वी में हमने जंज़ीर में वफादार शेरखान को देखा और शोले में हम नेत्रहीन इमाम साहेब से रूबरू हुए. किसी को नुकसान न पहुंचानेवाला मुसलमान किरदार हमारे साथ काफी बाद तक बना रहा उसके बाद उन जैसे आदमी (और औरतें भी, क्योंकि तब फिल्मों में मोहतरमाओं और खालाओं की कोई कमी नहीं थी.) धीरे-धीरे अंधेरे में गुम हो गए.
1990 के बाद के दौर में फिल्म निर्माताओं ने भारत में और दुनियाभर में फैले भारतीय डायस्पोरा में नए दर्शकों की खोज की. भारत को लेकर इन दर्शकों का नजरिया दूसरा था. इनमें भारत की विविधताओं के प्रति नोस्टेल्जिया का भाव नहीं था. वे भारतीय परंपराओं को देखना चाहते थे लेकिन आधुनिक लिबास में.
1990 का दशक बहुत बड़े आर्थिक और सामाजिक परिवर्तनों का गवाह बना- रथयात्रा, बाबरी मस्जिद का विध्वंस और मुंबई और दूसरी जगहों पर भयावह दंगों ने एक नए नैरेटिव का निर्माण किया. मुसलमानों को लेकर अब तक चला आ रहा नजरिया बदल गया.
अब हिंदी फिल्मों में मुस्लिम किरदार अक्सर आतंकवाद से जुड़े होते हैं. कभी प्रत्यक्ष तौर पर (सरफरोश) और कभी छिपे हुए रूप में (अ वेडनेसडे). इसी तरह से मुस्लिम किरदार आतंकवाद से पीड़ित और आतंकवाद से लड़नेवाले जांबाज पुलिस अफसरों के तौर पर भी सामने आते हैं. कुछ इस तरह जैसे इस समुदाय की पहचान आतंकवाद के सिवा किसी और चीज से की ही नहीं जा सकती. एक आधुनिक मुस्लिम या एक सामान्य मुस्लिम कहीं नजर नहीं आता.
निश्चित तौर पर अतीत में मुस्लिमों के भावुक अतिरंजनापूर्ण घिसे-पिटे रूपों की आलोचना करने के लिए काफी कुछ है और अमर अकबर एंथनी में भी ऐसी अतिरंजनाओं की कमी नहीं है, लेकिन हम इसके संदेश में दोष नहीं ढूंढ़ सकते हैं.
गाहे-बगाहे हम अमर अकबर एंथनी के रीमेक की अटकलें सुनते रहते हैं. रीमेक्स के इतिहास को देखते हुए (रामगोपाल वर्मा की आग, जंज़ीर) यह ख्याल सिहरन पैदा करनेवाला है. लेकिन, एक अलग भारत और उसके केंद्रीय मूल्यों को याद कराने के लिए अमर अकबर एंथनी अपने आप में इतना बुरा विचार नहीं है. यह कम से कम आज के भारतीय नौजवानों को यह बतलाएगा कि भारत हमेशा से वैसा नहीं था, जैसा कि आज है.
यह लेख सबसे पहले हिंदुस्तान टाइम्स ऑनलाइन में अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ था.