अब जब देश में सारी व्यवस्थाएं धीरे-धीरे खुलने लगी हैं, तब ऐसा दिखाने की कोशिश हो रही है कि भूख और रोजी-रोटी की समस्या ख़त्म हो गई है. जबकि सच्चाई इसके बिल्कुल विपरीत है.
भारत का गरीब और मजदूर वर्ग अब अख़बार के भीतरी पन्नों और टीवी स्क्रीन से गायब हो गया है.
ऐसा दिखाने की कोशिश हो रही है कि जब देश में सारी व्यवस्थाएं धीरे-धीरे खुलने लगी हैं और अधिकतर प्रवासी मजदूर अपने गांव लौट गए हैं, तब भूख और रोजी-रोटी की समस्या खत्म हो गई है. जबकि सच्चाई इसके बिल्कुल विपरीत है.
सच तो सिर्फ इतना है कि अचानक से थोपे गए लॉकडाउन ने पहले से ही मंदी में चल रही हमारी अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी है और यह लंबे समय तक नुकसान पहुंचाता रहेगा.
हालांकि गरीबों की पीड़ा पर न किसी सरकार का ध्यान गया और न ही समाज के मध्यम और अमीर वर्ग का.
भूख का गहराता संकट
यमुना किनारे दिल्ली के सबसे बड़े श्मशान घाट के पास यमुना पुश्ता नाम की एक बसावट है. यहां 4,000 बेघर पुरुष रहते हैं.
सामान्य दिनों में ये लोग मजदूरी करके अपना काम चलाते हैं, कोई शादी-ब्याह में रोड लाइट ढोने, तो कोई निर्माण कार्य में मजदूरी का काम करता है.
उनका काम हमेशा अस्थिर रहा है और पैसे भी उचित ढंग से नहीं मिलते. पहले इनका पेट गुरुद्वारे, मंदिर या दरगाह से गरीबों को खिलाए जाने वाले भोजन से भरता था.
हाल ही में उनसे मुलाकात के दौरान मैंने पाया कि उनकी पीड़ा और हताशा हमारी सरकार की चेतना में ही नहीं है. उनका काम अभी भी ठप है और मंदिर-गुरुद्वारे ने अभी भी अपने मुफ्त भोजन को व्यवस्थित तरीके से शुरू नहीं किया है.
दिल्ली सरकार ने पका हुआ भोजन बांटने के अपने अधिकतर कार्यक्रम बंद कर दिए हैं. सबसे कठिन दिनों में दिल्ली के 1,000 केंद्रों पर करीब 10 लाख लोगों को भोजन कराया गया.
मैं उस समय गरीबों को अपमानजनक तरीके से घंटों तक लाइन में खड़ा कराकर एक मुट्ठी भात देने की व्यवस्था की आलोचना कर रहा था.
तमाम आलोचनाओं के बावजूद भी सरकार की तरफ से मिल रहे भोजन ने एक हद तक गरीबों की मदद की. लेकिन आज जब सरकार ने ये सारे भोजन केंद्र बंद कर दिए हैं, गरीबों के पास मुंह ताकने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है.
कभी-कभार मिलने वाले निजी दान पर ही उनकी आंखें टिकी रहती हैं.
दूसरे शहरों में बेघर लोगों के बीच काम करने वाले मेरे साथी, भोजन का अधिकार अभियान में सहयोगी रहे लोग और कारवां-ए-मोहब्बत की तरफ से भोजन बांटने वाले वॉलिंटियर्स, सभी का कहना है कि पूरे देश में गरीबों की एक चिंताजनक तस्वीर उभरकर सामने आई है.
गांव में रहने वाले अपने परिवार का खर्च अभी तक प्रवासी मजदूर उठा रहे थे लेकिन आज जब प्रवासियों को खुद गांव लौटना पड़ा है, परिवार के ऊपर भोजन के इंतजाम का दबाव बढ़ गया है.
दिहाड़ी मजदूर, बुनकर, घरों में काम करने वाले लोग, रिक्शा चालक और रेहड़ी-पटरी वालों का जीवन पहले भी खुशहाल नहीं था, लेकिन अब वे भूख के संकट का बहुत गहराई के साथ सामना कर रहे हैं.
भूख की इस चपेट में अब कई नए वर्ग के लोग भी जुड़ गए हैं. छोटे उद्योगों से नौकरी गंवाने वाले लोग, रेस्तरां में काम करने वाले, घरेलू कामगार, सेक्स वर्कर्स और यहां तक कि प्राइवेट स्कूल के शिक्षक और ट्यूशन पढ़ाने वाले लोग भी भूख के संकट का सामना करने लगे हैं.
ये सभी लोग भुखमरी की स्थिति से दूर रहने के लिए उन तरीकों को ईजाद कर रहे हैं, जिसका इस्तेमाल हाशिए पर खड़े लोग सदियों से करते आ रहे हैं.
भोजन के प्लेट से महंगे व्यंजन जैसे कि दाल, दूध, सब्जियां, फल, अंडे और मांस कम होने लगे हैं. कई परिवारों ने बताया है कि वे सिर्फ चावल, रोटी और नमक खाकर अपना गुजारा कर रहे हैं.
भोजन की मात्रा और एक दिन में किए जाने वाले भोजन की संख्या में कमी हो रही है. मजबूरन कई लोगों को रात में भूखे पेट सोना पड़ रहा है.
जिन बच्चों को स्कूलों या आंगनबाड़ी केंद्रों पर मिलने वाले मध्याह्न भोजन से एक वक्त का भोजन नसीब होता था, आज उन्हें काम के लिए निकलना पड़ रहा है. बच्चे कूड़ों के बीच फेंका हुआ बासी खाना या बेचने का कोई सामान ढूंढ रहे हैं.
नीतियों की विफलता
कई वैश्विक रिपोर्टों का कहना है कि कोरोना महामारी और लॉकडाउन की वजह से करोड़ों लोग भयानक गरीबी और भूख की चपेट में हैं.
संयुक्त राष्ट्र का एक अध्ययन कहता है कि लॉकडाउन का आर्थिक प्रभाव यह है कि 40 करोड़ नए लोग अत्यंत गरीबी का जीवन जी रहे हैं और आने वाले दिनों में यह संकट और विशाल रूप लेने वाला है.
सबसे चिंताजनक बात तो यह है कि नए गरीबों में आधे से अधिक लोग दक्षिण एशिया खासकर भारत के हैं.
कोरोना या लॉकडाउन का इतना बुरा असर हमारे देश पर इसलिए पड़ा क्योंकि यहां नागरिकों की सामाजिक सुरक्षा जैसी चीज पहले से ही बुरी स्थिति में है और आने वाले कई सालों तक इसके सुधार की गुंजाइश नहीं दिखती.
भूख के मामलों पर संयुक्त राष्ट्र के विशेष रिपोर्टर फिलिप अल्सटन का अनुमान है कि आज 25 करोड़ से अधिक लोग तीव्र भूख के संकट का सामना कर रहे हैं.
उनका भी मानना है कि गरीबी का यह संकट लंबे समय तक चलने वाला है. फिलिप अल्सटन गरीबी खत्म करने वाली सरकारी नीतियों के ध्वस्त होने की तीखी आलोचना करते हैं.
कोरोना महामारी के प्रभाव को रोक पाने में नाकाम सरकारी नीतियों पर फिलिप अल्सटन का गुस्सा बिल्कुल जायज है.
भारत सरकार के बड़े अधिकारी अभी भी भूख और आजीविका के संकट को स्वीकार नहीं कर रहे हैं. हमारी सरकार राहत पैकेज पर जीडीपी का मात्र 1 फीसदी हिस्सा खर्च कर रही है जो दुनिया में सबसे कम है.
अर्थव्यवस्था खासकर लघु व मध्यम उद्योग को उबारने के लिए हमारे देश की वित्त मंत्री लोन बांटने का फैसला करती हैं.
क्या वित्त मंत्री को इस बात का अंदाजा नहीं है कि आज जब हर सेक्टर मंदी की मार झेल रहा है तब लोन लेने और उसे चुकाने का रिस्क कोई नहीं लेना चाहेगा?
अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के नाम पर सरकारें मजदूरों के अधिकारों का भी गला घोंट रही हैं. बेसहारा कामगारों को मदद देने की बजाय कई राज्य सरकारों ने इस महामारी को एक अवसर के रूप में लेने की कोशिश की, जिससे मजदूरों का अधिकार छीन लिया जाए.
कुछ राज्य सरकारों ने मजदूरों से 12 घंटे काम लेने का नियम बनाने की कोशिश की, हालांकि वे असफल रहे. कुछ सरकारों ने मजदूरों के अधिकार अगले तीन साल के लिए निरस्त करने का फैसला सुनाया.
क्या सरकारें गरीबी और भूख को भुला चुकी हैं?
इस महामारी से पहले भी भारत भूखे पेट सोने वालों और कुपोषित बच्चों के मामले में दुनिया के सबसे बदहाल देशों में शामिल था.
119 देशों की सूची में भारत 102 नंबर पर था जो एशिया के सबसे गरीब देशों से भी बुरी स्थिति है. 45 सालों में सबसे अधिक बेरोजगारी के साथ अर्थव्यवस्था भी अभूतपूर्व संकट से गुजर रही थी.
ऐसी स्थिति में हमारी सरकार ने रातोंरात दुनिया का सबसे कड़ा लॉकडाउन लगाने का फैसला किया. अचानक से सारी व्यवस्थाएं ठप कर दी गईं.
अब जब कोरोना का संक्रमण बिहार-यूपी जैसे स्वास्थ्य के मामले में बदहाल राज्यों तक पहुंच गया है और शहरों के बेघर-गरीब प्राइवेट चिकित्सा व्यवस्थाओं से महरूम हैं, इस मानवीय त्रासदी के कम होने के कोई आसार नजर नहीं आते.
इन सभी परिस्थितियों के बीच देश का राजनीतिक तबका, मीडिया और मध्यम वर्ग एक अलग ही राग अलाप रहा है.
एक राजनीतिक दल दूसरे दल के विधायकों की खरीद-फरोख्त करके सरकार गिराने की जुगत में है, कहीं रफाल के भारत पहुंचने की खुशी मन रही है तो कहीं सरकार से असहमति रखने वाले लोगों को जेल भेजा जा रहा है.
मध्यकालीन मस्जिद की जगह पर राम मंदिर का शिलान्यास करके विभाजनकारी एजेंडे को आगे बढ़़ाने की कोशिश हो रही है. दूसरी ओर करोड़ों लोग गरीबी और भुखमरी की चपेट में जा रहे हैं.
भारत पिछले 50 साल के सबसे भयावह मानवीय त्रासदी के दौर में प्रवेश कर चुका है.
(लेखक पूर्व आईएएस अधिकारी और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं.)
मूल अंग्रेजी से लेख से अभिनव प्रकाश द्वारा अनूदित.