देश में कोविड-19 महामारी से निपटने में केंद्र सरकार द्वारा कथित कुप्रबंधन की जांच के लिए आयोग गठित करने के लिए पूर्व नौकरशाहों सहित छह याचिकाकर्ताओं की जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी की.
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि वह देश में कोविड-19 महामारी के दौरान कथित कुप्रबंधन की जांच के लिए आयोग गठित करने के पक्ष में नहीं है.
जस्टिस एल. नागेश्वर राव, जस्टिस हेमंत गुप्ता और जस्टिस एस. रवींद्र भट की पीठ ने बीते 14 अगस्त को कहा है कि वह ऐसे आरोपों की जांच नहीं करा सकती और दुनिया के देशों का यही मानना है कि न्यायपालिका को महामारी जैसी आपात स्थिति में कार्यपालिका के कामों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए.
पीठ ने अपने आदेश में कहा, ‘इसे दो सप्ताह बाद सूचीबद्ध किया जाए. इस दौरान दस्तावेजों की अपठनीय प्रतियां बदली जाएं. अतिरिक्त दस्तावेज दाखिल करने की भी अनुमति दी जाती है.’
सुप्रीम कोर्ट देश में कोविड-19 महामारी से निपटने में कथित कुप्रबंधन की जांच के लिए जांच आयोग कानून, 1952 के तहत आयोग गठित करने हेतु पूर्व नौकरशाहों सहित छह याचिकाकर्ताओं की जनहित याचिका पर सुनवाई कर रहा था.
याचिका में आरोप लगाया गया है कि केंद्र समय रहते कोरोना वायरस संक्रमण के प्रसार को रोकने के उपाय करने में विफल रहा है. याचिका में कहा गया है कि सरकार की खामियों का पता लगाने के लिए जरूरी है कि किसी स्वतंत्र आयोग से इसकी जांच कराई जाए.
याचिका में केंद्र को शीर्ष अदालत के सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में जांच आयोग गठित करने का निर्देश देने का अनुरोध किया गया है.
याचिका में कहा गया है कि 24 मार्च को कोविड-19 के मद्देनजर देशव्यापी लॉकडाउन लागू करने की सरकार की घोषणा मनमानीपूर्ण, अतार्किक और राज्य सरकारों तथा विशेषज्ञों से किसी सलाह-मशविरे के बगैर ही उठाया गया कदम था.
याचिका में दावा किया गया है कि 25 मार्च से देशव्यापी लॉकडाउन और इसे लागू करने के तरीके का नागरिकों के रोजगार, आजीविका और देश की अर्थव्यवस्था पर बहुत बुरा असर पड़ा.
याचिका के अनुसार, भारत में लागू लॉकडाउन दुनिया में सबसे ज्यादा कठोर और प्रतिबंधों वाला था, इसके बावजूद यह कोविड-19 महामारी के प्रसार को रोकने में विफल रहा.
याचिका में लॉकडाउन की वजह से बड़े शहरों से अपने मूल स्थानों के लिए बड़े पैमाने पर कामगारों और दिहाड़ी मजदूरों के पलायन का जिक्र भी किया गया है.
याचिका के अनुसार, प्राधिकार आपदा प्रबंधन कानून, 2005 के तहत समाज के कमजोर तबके को न्यूनतम राहत प्रदान करने के लिए राष्ट्रीय योजना और दिशानिर्देश तैयार करने में विफल रहे हैं.
याचिका में आरोप लगाया गया है कि महामारी के दौरान स्वास्थ्यकर्मियों की सुरक्षा के लिए व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरणों की पर्याप्त आपूर्ति सुनिश्चित करने में देरी हुई.
इसने दावा किया कि इस वर्ष जनवरी की शुरुआत में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा इसके बारे में अधिसूचित किए जाने के बाद भी वायरस के फैलने से रोकने के लिए प्रभावी उपाय करने में केंद्र विफल रहा है.
याचिका में आरोप लगाया गया है कि कोविड-19 महामारी से निपटने के दौरान लोगों के मौलिक अधिकारों में कटौती की गई.
याचिका में दावा किया गया कि 4 मार्च से पहले और जनवरी और फरवरी के महीनों के दौरान, अधिकारी पर्याप्त संख्या में अंतर्राष्ट्रीय यात्रियों की स्क्रीनिंग और निगरानी करने में विफल रहे.
बता दें कि एक अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक कोरोना वायरस लॉकडाउन के चलते 19 मार्च से लेकर 8 मई के बीच 350 से अधिक लोगों की जान गई थी.
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)