अब्दुल बिस्मिल्लाह ने मुस्लिम समाज में मौजूद जातिवाद को कुठांव यानी मर्मस्थल की मानिंद माना है. उनके अनुसार यह एक ऐसा नाज़ुक विषय है अमूमन जिसका अस्तित्व ही अवास्तविक माना जाता है और जिसके बारे में बात करना पूरे मुस्लिम समाज के लिए एक पीड़ादायक विषय है.
अब्दुल बिस्मिल्लाह का लिखा कुठांव उपन्यास भारतीय मुस्लिम समाज के एकात्मक स्वरूप की अवधारणा पर प्रहार करता है और समाज में उपस्थित ‘जातिवाद’ और ‘अस्पृश्यता’ का विस्तृत अध्ययन करता है.
कुठांव का शाब्दिक अर्थ है- मर्मस्थल. लेखक के अनुसार कुठांव मानव शरीर का वो नाज़ुक हिस्सा है जिस पर यदि ज़ोर से प्रहार किया जाए तो मनुष्य की मौत भी हो सकती है.
अब्दुल बिस्मिल्लाह ने मुस्लिम समाज में मौजूद ‘जातिवाद’ को भी एक कुठांव की मानिंद माना है. उनके अनुसार यह एक ऐसा नाज़ुक विषय है जिसका साधारणत: अस्तित्व ही अवास्तविक माना जाता है और जिसके बारे में बात करना संपूर्ण मुस्लिम समाज के लिए एक पीड़ादायक विषय है.
यही कारण है कि इस जातिवाद को नकारते हुए मसावत (बराबरी) की अवधारणा पर ज़ोर दिया जाता है. उपन्यास का किरदार नईम समाज के इसी समूह का द्योतक है जो इस सच्चाई से या तो अज्ञान हैं या जानकर अनजान बने रहते हैं.
इस तरह जातिवाद को छिपाते हुए यह तर्क यह दिया जाता है कि इससे मसावत की धारणा क्षीण पड़ सकती है और समाज मे व्याप्त जातीय फर्क को बढ़ावा मिलता है.
यह बात अलग है कि समस्या को नज़रअंदाज़ करने से समस्या स्वत: ही समाप्त नहीं हो जाती.
मसावत की इसी अवधारणा को केंद्रीकृत करती हुई ऐसी बहुत सी ऐतिहासिक तथा साहित्यिक कृतियां विद्यमान हैं जो दर्शाती हैं कि आम तौर पर मुस्लिम समाज भाईचारे और भ्रातृत्व के सिद्धांत पर आधारित है क्योंकि इस्लाम एक ‘उम्मत’ की धारणा पर ज़ोर देता है और किसी भी प्रकार के भेदभाव की अनुमति नही देता.
इस प्रकार की रचनाओं में मुस्लिम समाज के एकात्मक रूप पर ध्यान केंद्रित किया गया है और इस बात को बहुत ही सहजता से अनदेखा कर दिया गया है कि सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि अरब व मध्य एशिया में भी इस्लाम विभिन्न समुदायों एवं संप्रदायों में बंटा हुआ है.
अरब में शुरुआत से ही समाज विभिन्न कबीलों में बंटा हुआ था जो हमेशा एक-दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ में थे, देशीय स्तर पर शिया-सुन्नी का फर्क सदैव विद्यमान था- जहां अरब में सभी सुन्नी थे, वहीं इराक़ में शिया संप्रदाय की प्रधानता रही.
इसी के साथ ये समझना भी अत्यंत आवश्यक है कि भारतीय समाज में इस्लाम का आगमन और सम्मिश्रण दुनिया के अन्य देशों से सर्वथा भिन्न है.
भारतीय इस्लाम या भारतीय समाज में मुसलमान होने की अवधारणा को समझना एक जटिल प्रक्रिया है क्योंकि अरब तथा मध्य एशियाई देशों के विपरीत भारत में सांस्कृतिक विविधताएं एवं विभिन्नताएं हैं.
इस जटिलता का एक कारण यह भी है कि यहां के अधिकतर मुसलमान मूल रूप से मुस्लिम न होकर धर्मांतरण का परिणाम हैं. इसलिए यहां शिया-सुन्नी के भेद के साथ-साथ भिन्नताओं के बहुत से ऐसे मसलक (संप्रदाय) मौजूद हैं, जो अन्य इस्लामिक देशों में नहीं पाए जाते, जैसे देवबंदी, बरेलवी, वहाबी, एहल-ए-हदीस इत्यादि.
इस प्रकार उपजे मसलक परंपरागत इस्लामी आयामों से भिन्न तथा धर्म की कट्टर भावना से ओत-प्रोत होते है. यहां कट्टरता से तात्पर्य है- धर्म के प्रत्येक अंग का दृढ़ता से अनुपालन करना और इस अनुपालन में लचीलेपन व सहिष्णुता का अभाव होना.
धर्मपरायणता अक्सर सहिष्णुता का अंत कर देती है. भारतीय मुस्लिम समाज में जातिवाद का अध्ययन करने वाले इतिहासकारों व समाजशास्त्रियों द्वारा मुख्यत: दो मत प्रस्तुत किए गए हैं- एक मत के अनुसार मुस्लिम समाज में जातिवाद का अस्तित्व हिंदू धर्म से प्रभावित है.
इस समूह में ग़ौस अंसारी (1960) जैसे लेखक आते हैं, जिनके अनुसार मुस्लिम समाज अशराफ, राजपूत, व्यवसायिक तथा अशुद्ध वर्गों में विभाजित हैं.
दूसरे समूह के अनुसार मुस्लिम समाज में जाति विद्यमान न होकर जाति जैसे लक्षण मौजूद हैं जिनमें से अधिकतर हिंदू जातिवाद से जुड़े हैं.
इम्तियाज़ अहमद के अनुसार भारतीय मुस्लिम समाज कई आधारों पर वर्गीकृत है- प्रथम, सांप्रादायिक आधार जिसमें शिया, सुन्नी, अहमदिया, इस्मायिली इत्यादि आते हैं.
दूसरा, वैधानिक विचारधारा जिसके अंतर्गत हैं हनफी, शफ़ाई, हंबली इत्यादि. तीसरा आधार है मसलक जिसमें हम हनफी, बरेलवी, अहल-ए-हदीस, सलफ़ी इत्यादि को देखते हैं.
चौथा आधार सामाजिक प्रतिष्ठा का है जो जाति, जाति अनुरूप या बिरादरी के रूप में मौजूद है. इस वर्ग में सैय्यद, शेख़, पठान और अन्य व्यावसायिक वर्ग जैसे अंसारी, क़ुरैशी, हलालख़ोर आदि आते हैं. (इम्तियाज़ अहमद (सम्पादित), कास्ट एंड सोशल स्ट्रेटिफिकेशन अमंग मुस्लिमस, 1973; तथा, ‘अशराफ़ एंड अजलाफ, कटेग्रिज़ इन इंडो-मुस्लिम सोसायटी, ई.पी.डब्लू, वॉल.2, न. 19, 1967)
मुस्लिम समाज का यह वर्गीकरण ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान भी मौजूद था. यही कारण है कि ब्रिटिश शासकों ने जब 1857 की क्रांति को ‘मुस्लिम षड्यंत्र’ का नाम दिया, तब सर सैय्यद अहमद ख़ान ने 1857 की क्रांति की सारी ज़िम्मेदारी अजलाफ तबके पर रखते हुए अशराफ़ को इससे पूर्णत: तटस्थ बताया.
इसी प्रकार 1857 की क्रांति के फलस्वरूप बंगाली मुसलमानों की अवस्था व पतन का निरीक्षण करते हुए इतिहासकार रफीउद्दीन अहमद (द बंगाल मुस्लिम 1871-1900: ए क्वेस्ट फॉर आइडेंटिटी, 1982) ने लिखा है कि बंगाली समाज दो तबकों-‘अशराफ़ व अजलाफ- में विभाजित था और अशराफ़ तबके ने अपनी सामाजिक महत्ता बनाए रखने के लिए अजलाफ समूह के सभी उन प्रयासों को रद्द करने की कोशिश की जिससे उनका पद समाज में ऊपर उठ पाता.
इस प्रकार रफीउद्दीन सामाजिक वर्गीकरण तथा आपसी मतभेदों को अंग्रेज़ी सरकार की नीतियों से कहीं ज़्यादा दुष्प्रमाणिक मानते हैं.
हालांकि उनका यह तथ्य ब्रिटिश सरकार द्वारा लागू की गई उन आर्थिक नीतियों के प्रभाव का निम्नीकरण कर देता है, जिनसे देश की अर्थव्यवस्था को गूढ़ हानि पहुंची.
एचएच. रीसले (1915) के अनुसार अशराफ़ और अजलाफ के अतिरिक्त समाज में एक समूह और था, अर्ज़ाल- जिसके अंतर्गत समाज के सभी निम्नीकृत लोग आते हैं.
रिसले व ईए गेट, (1901 जनगणना) द्वारा किए गए मुस्लिम समाज के विभिन्न वर्गों के वर्णन के बावजूद साहित्यिक और ऐतिहासिक रचनाओं, विवेचनों और विश्लेषणों में इस वर्ग का अभाव है.
1998 में अली अनवर द्वारा शुरू किया गया पसमांदा मुस्लिम महाज़ इसी अर्ज़ाल वर्ग के हितों की रक्षा और उद्धार के लिए था.
कुछ विद्वानों जैसे अय्यूब रहीम के अनुसार ये अभियान विफल रहा क्योंकि ये अर्ज़ाल तबके को पर्याप्त रूप से सम्मिलित नहीं कर पाया और अभियान के उद्देश्यों के विपरीत अजलाफ वर्ग इसका लाभ उठाते हुए सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाने में कामयाब रहा.
कुठांव उपन्यास में लेखक ने उन सभी तर्कों का वर्णन किया है जो मुस्लिम समाज में जातिवाद की उपस्थिति को नकारते हैं.
इनमें से कुछ ये तर्क देते हैं कि यदि मुस्लिम समाज मे जातिवाद है तो मुसलमानों मे चमार या पासी क्यों नही है या फिर यदि सब मुस्लिम जातियां हिंदू धर्म से परिवर्तित हैं तो कुछ जातीय शब्द जैसे ‘हलवाई’ मूल तौर पर भारतीय न होकर अरबी क्यों हैं?
यहां लेखक स्पष्ट कर देते हैं कि क्योंकि मुस्लिम समाज में सुअर एक निषिद्ध प्राणी है इसलिए धर्मांतरण के बाद सभी पासियों को तत्कालीन उपस्थित सबसे नीची जाति अर्थात् ‘भंगी’ बना दिया गया था.
इसी प्रकार चमार नामक जाति मुस्लिम समुदाय में विद्यमान नहीं है लेकिन उत्तर प्रदेश में चमड़े का सारा व्यापार अब भी मुसलमानों के हाथ में है.
इससे भी आश्चर्यजनक बात यह है कि जातिवाद को अनदेखा करने का काम सिर्फ ऊपरी तबके के लोग ही नहीं करते बल्कि अपनी जाति छिपाने के लिए या अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए साधारणत: ‘निचली’ जाति के लोगों ने भी अरबी समाज के नाम अपना लिए हैं.
लेखक दर्शाते हैं कि ‘सारे जुलाहे खुद को अंसारी कहते हैं, धुनिया-चूड़ीहार अपने नाम के आगे सिद्दीकी लगाते हैं, कसाई क़ुरैश हो गए, नाई सलमानी बन गए, भिखमंगे अपने नाम के आगे ‘शाह’ लिखने लगे और ख़ान साहब तो हर जगह बहुत आसानी से मिल जाते हैं.’
ये इसलिए हुआ क्योंकि जाति और व्यवसाय बदलने के स्थान पर केवल नाम बदल लेना न सिर्फ आसान था बल्कि इससे मसावत का सिद्धांत भी बना रहता है.
यहां यह स्पष्ट करना भी आवश्यक है कि मूलतः अंसारी, सिद्दीक़ी, क़ुरैश तथा शाह इत्यादि जातियों की महत्ता क्या थी? जुलाहे अंसारी क्यों लिख रहे हैं? कसाई खुद को क़ुरैश क्यों कह रहे हैं?
अधिकतर वर्गों ने उच्च सामाजिक प्रतिष्ठा के लक्ष्य को पाने का एक ही श्रेष्ठ साधन पाया- स्वयं को हज़रत मुहम्मद से जोड़कर.
इसी प्रक्रिया में भारतीय जुलाहों ने खुद को अरब के उस अंसार समुदाय से जुड़ा हुआ दर्शाया, जो हिजरत के समय हज़रत मुहम्मद के सहायक हुए थे और कसाइयों ने खुद को अरब कबीले के क़ुरैश ख़ानदान से जोड़ना फ़ायदेमंद समझा.
इस प्रकार सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाने का व्यवसाय बढ़ता गया. वर्गीकरण और जातिवाद के अतिरिक्त इस उपन्यास में धर्म और पितृसत्तात्मक समाज का अंत:संबंध बहुत ही मार्मिक अंदाज़ में वर्णित किया गया है.
लेखक ने यह बखूबी दर्शाया है कि समाज हिंदू हो या मुसलमान, पुरुषों की प्रधानता व आधिपत्य ज्यों का त्यों बरक़रार रहता है. इसी प्रकार स्त्री किसी भी धर्म या जाति की क्यों न हो, उसका शोषण होना जैसे अनिवार्य है.
कहानी में ईद्दन और सितारा दो ऐसे स्त्रियों की स्थिति दर्शाती हैं, जो समाज में अपनी दशा सुधारने के लिए हरसंभव प्रयास करती हैं.
दोनों अपनी आत्मा और देह की परवाह इस उम्मीद से नही करतीं कि शायद इससे उनको समाज में एक बेहतर रुतबा और सम्मान मिल जाएगा.
उनकी ये आकांक्षा उन्हें इतना कमज़ोर बना देती है कि वो कई स्तरों पर शोषित होती हैं. बिना किसी पक्षपात के हर तबके व धर्म के पुरुष उनका दैहिक तथा मानसिक शोषण करते हैं.
इसी प्रकार कहानी की एक अन्य पात्र उर्वशी को उसके अपने घर में तथा समाज में इसलिए तिरस्कृत होना पड़ता है क्योंकि वो एक तवायफ़ की बेटी है, भले ही वो तवायफ़ शादी करके सामाजिक स्वीकृति की शर्त पूरी कर लेती है पर सामाजिक दर्जा प्राप्त नहीं कर पाती.
हुमा, जो एक पढ़ी-लिखी आधुनिक स्त्री है, की विडंबना यह है कि वो न केवल इस सामाजिक व जातीय भेदभाव को अनुभव कर रही है बल्कि वो इस बात को भली-भांति समझ भी रही है कि ये भेदभाव समाज में क्यों और कैसे बना हुआ हैं और पढ़ने-लिखने के बाद आई उसकी यह समझ इस भेदभाव को खत्म करने में कुछ मदद नहीं कर पा रही है.
हर प्रकार की कोशिशें करने के बाद भी वो असहाय है. वह ईद्दन और उसकी बेटी की चाहकर भी मदद नहीं कर पाती.
इसी प्रकार ज़ुबैदा (एक ऊपरी वर्ग की स्त्री) को उसका शौहर इसलिए छोड़ देता है क्योंकि शादी से पहले वो शारीरिक संबंध बना चुकी है- यह वो काम है जो उसका शौहर भी कर चुका है पर पुरुष होने के नाते वो इसका जवाबदेह नहीं है और वफ़ादार होने की सारी ज़िम्मेदारी केवल औरत की है.
लेखक ने सपनों को स्त्री की मुक्ति की राह के रूप में प्रस्तुत किया है लेकिन सपनों और आकांक्षाओं में बहुत फर्क है.
सितारा और ईद्दन ने तमाम उम्र यह कोशिशें की कि वे भी इस समाज मे ऊंचा स्थान पाएं. ये उनका सपना था जिसे साकार करने के लिए उन्होंने अपनी इज्जत की भी परवाह नहीं की और वो सपने जो मुक्ति की राह बन सकते थे, रास्ते में ही धराशायी होकर रह गए.
वास्तविकता से परे सितारा केवल सपने में ही नईम से यह कह पाती है कि उसे किसी मर्द की ज़रूरत नहीं.
उपन्यास में पढ़े-लिखे पुरुष समाज की विडंबना भी सहज रूप से सामने आती है. नईम तथा असलम दोनों ही बहुत से बिंदुओं पर मुक्त व आधुनिक दृष्टिकोण अपनाते हुए नज़र आते हैं.
असलम धर्म (हिंदू व मुस्लिम) तथा फिलॉसफी को अलग-अलग नहीं देखता और दोनों मे समान बिंदुओं को ढूंढता है. वह ईद्दन की सास (मैला उठाने वाली स्त्री) के आंचल में रखा शब-ए बारात का हलवा खाने में भी परहेज नही करता.
इसी तरह नईम मियां भी हुमा की बातों से प्रेरित होकर स्त्रियों की समानता की बात करते है. हालांकि उन दोनों का यह दृष्टिकोण बहुत ही संकुचित समय व हालात तक ही रह पाता है.
पितृसत्तात्मक सोच तथा समाज की क्रीमी लेयर होने का सच उनकी आधुनिक सोच पर हावी रहता है. यहां ये भी कहा जा सकता है कि संपन्न/पुरुष समूह की कथनी और करनी में बड़ा फर्क रहता है.
विचार अक्सर व्यवहार में नहीं उतर पाते, इसीलिए जहां असलम धार्मिक सामंजस्य व जातीय भेदभाव को काटने की बातें करता हुआ नज़र आता है, वहीं वो ईद्दन का शारीरिक शोषण करते हुए भी दिखाई देता है.
वो हलवा ज़रूर खा लेता है पर अपनी मां द्वारा ईद्दन की सास को डांटे जाने पर कुछ नहीं कहता. इसी तरह नईम यह नहीं समझ पाता कि जो उसकी पत्नी के लिए गलत है वो बात स्वयं उसके लिए भी गलत है. वो प्रेम और वासना में फर्क नहीं कर पाता.
हुमा की बातों से प्रेरित होकर स्त्रियों की समानता की बात करने वाला नईम यह भूल जाता है कि सितारा को किसी से भी शादी करने का पूरा अधिकार है और धर्म की आड़ लेता हुआ वो सितारा को बदनाम करने मे कामयाब हो जाता है.
धर्म की आड़ लेकर अपने कामों को सिद्ध करना मानव समाज की पुरानी परंपरा है. रज़ीउद्दीन अक़ील की पुस्तक ‘इन द नेम ऑफ अल्लाह’ इसी विषय पर आधारित एक रचना है जो दर्शाती कि हर काल मे इसी प्रकार धर्म का प्रयोग होता आया है.
उपन्यासकार ने उलेमा जगत पर भी एक कटाक्ष करते हुए दिखाया है कि संपूर्ण समाज के लिए फ़तवे जारी करने वाले धर्म के ठेकेदार स्वयं किस तरह लौकिक लोभ वा माया में डूबे हुए हैं और परिणामतः वो केवल ज़र या ज़मीन तक केंद्रित न होकर वासना मे भी लिप्त दिखाई देते है.
इन सब पहलुओं के साथ-साथ इस उपन्यासकार ने अश्लील भाषा का प्रयोग किया है जो कहीं-कहीं पाठक को अत्यंत असुविधाजनक कर देती हैं.
हालांकि लेखक ने रचना के प्रारंभ मे ही इसकी क्षमायाचना की है पर अत्यंत घृणित शायरी, उपमाओं और प्रतीकों का प्रयोग रचना की विषय-वस्तु के अनुपात से कहीं बढ़कर है जो इस उपन्यास के पाठकों को सीमित कर देता है.
इसके साथ ही लेखक के दावे के विपरीत कोई भी स्त्री (हुमा के अलावा) पुरुष समाज से लोहा लेते नज़र नही आतीं. इसके विपरीत ये स्त्रियां उन पुरुषों के प्रति तुष्टिकरण की नीति अपनाती दिखाई देती हैं, जिससे वो समाज में एक सीढ़ी ऊपर चढ़ सकें.
स्त्री और पुरुष के बीच केवल शोषण और शोषित वाला समीकरण उभरकर सामने आता है. यह उपयुक्त भी है क्योंकि आज भी समाज में (हिंदू या मुसलमान) पुरुष प्रतिष्ठा इन समीकरणों को तय करती है, पर इस बात को भूल जाना भी बिल्कुल अनुचित होगा कि अब आधुनिक समाज में ये समीकरण बदल रहे हैं और हुमा जैसी लड़कियां अपने संघर्ष में गुम होने के बजाए इन संघर्षों का नेतृत्व कर रही हैं.
समसामयिक शाहीन बाग का धरना इस बात का ज्वलंत उदाहरण है. उपन्यास की श्रेष्ठता ये है कि ये उन सभी आयामों को दर्शाता है, जिन पर बात करना अक्सर व्यर्थ समझा जाता है लेकिन जो हर समाज में और परिदृश्य में सार्थक हैं.
(लेखक जामिया मिलिया इस्लामिया में शोधार्थी हैं.)