पुण्यतिथि विशेष: सत्ता और जनता, जब दोनों एकमेक हो जाते हैं, वह बुद्धि के लिए सबसे ख़तरनाक समय होता है.
‘कहते हैं मुझको वे
सूरज के चेहरे को
डामर से पोत दो
बादल के मैले उस
गदहे पर बिठलाकर
निकालो जुलूस तुम
कलमुंहे सूरज का- अंबर में!’
सूरज को यह दंड दिया जाना इसलिए ज़रूरी है कि वह सारी दुनिया को उघार देता है, पृथ्वी को नंगी कर देता है. खड्डे, खाइयां, छाती की, गालों की, आंखों की नहीं दिखलाई देती. रात इन्हें छिपाने, पोंछने आती है, इन्हें निगाहों से ओट कर देती है.
रात इसलिए सुहावनी है. सूरज कष्ट देता है. वह सारा कुछ उजागर कर देता है. अपनी सारी कुरूपता देखना कष्टकर है. सूरज यह तकलीफ देता है इसलिए उसे सज़ा देना ज़रूरी है. उसका मुंह काला करके जुलूस निकाला जाएगा और
‘कनिस्टर हम पीटेंगे
कैरोसीन पीपे का ढोल हम बजाएंगे
ठोंकेंगे टीन हम
भोंपू कारखानों का बजाएगा शंख और
अंबर में कलमुंहे सूरज का जुलूस जब
निकलेगा शान से!’
सूरज का पूरा अपमान, सार्वजनिक ताड़ना जब हो जाए तभी सबको शांति मिलेगी:
‘जुलूस यह निकलेगा
ठंडा दिल होगा तब
भीतर भरी हुई गालियां सब बक लेगा.’
गजानन माधव मुक्तिबोध ने ये पंक्तियां आज से 66-67 साल पहले लिखी थीं. सूरज कौन था या है? कौन है जो समाज को उसके गड्ढों, खाइयों का पता देता है?
कौन है जो उसकी आत्मलीनता या आत्मरति भंग कर देता है? और उसके कारण लोग उसके दुश्मन हो उठते हैं.
ऐसा जो करता है उसे जनशत्रु या गणशत्रु मान लिया जाता है. सत्ता और जनता, जब दोनों एकमेक हो जाते हैं, वह बुद्धि के लिए सबसे खतरनाक समय होता है.
सूरज जो प्रकाशित करता है, जितना देखता नहीं, उतना देखने में मदद करता है. देखना और देखने में मदद करना दोनों ही अस्वीकार्य हैं.
‘अंधेरे में’ कविता का प्रोसेशन (जुलूस) का वह दृश्य याद कीजिए:
‘विचित्र प्रोसेशन,
गंभीर क्विक मार्च…
कलाबत्तूवाला काला जरीदार ड्रेस पहने
चमकदार बैंड-दल-
अस्थि-रूप, यकृत-स्वरूप, उदर-आकृति
आंतों के जालों से, बाजे वे दमकते हैं भयंकर
गंभीर गीत-स्वन-तरंगें
उभारते रहते,
ध्वनियों के आवर्त मंडराते पथ पर.
इस जुलूस में ढेर सारे पहचाने हुए लोग हैं:
बैंड के लोगों के चेहरे
मिलते हैं मेरे देखे हुओं-से
लगता है उनमें कई प्रतिष्ठित पत्रकार
इसी नगर के!
बड़े-बड़े नाम अरे कैसे शामिल हो गये इस बैंड-दल में !
उनके पीछे चल रहा
संगीन नोकों का चमकता जंगल,
चल रही पदचाप, ताल-बद्ध दीर्घ पांत
टैंक-दल, मोर्टार, ऑर्टिलरी, सन्नद्ध,
धीरे-धीरे बढ़ रहा जुलूस भयावना,
सैनिकों के पथराये चेहरे
चिढ़े हुए, झुलसे हुए, बिगड़े हुए गहरे !
शायद, मैंने उन्हें पहले भी तो कहीं देखा था.
शायद, उनमें कई परिचित !!
उनके पीछे यह क्या !!
कैवेलरी !
काले-काले घोड़ों पर खाकी मिलिट्री ड्रेस,
चेहरे का आधा भाग सिंदूरी-गेरुआ
आधा भाग कोलतारी भैरव,
आबदार !!
कंधे से कमर तक कारतूसी बेल्ट है तिरछा.
कमर में, चमड़े के कवर में पिस्तौल,
रोष-भरी एकाग्रदृष्टि में धार है,
कर्नल, बिग्रेडियर, जनरल, मॉर्शल
कई और सेनापति सेनाध्यक्ष
चेहरे वे मेरे जाने-बूझे से लगते,
उनके चित्र समाचारपत्रों में छपे थे,
उनके लेख देखे थे,
यहां तक कि कविताएं पढ़ी थीं
भई वाह!
उनमें कई प्रकांड आलोचक, विचारक जगमगाते कवि-गण
मंत्री भी, उद्योगपति और विद्वान
यहां तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात
डोमाजी उस्ताद
बनता है बलबन
हाय, हाय !’
इसी जुलूस में शहर का कुख्यात हत्यारा है, सेनापति, सेनाध्यक्ष हैं और हैं सारे प्रतिष्ठित लोग. जुलूस क्या है, छिपे हुए उद्देश्यों और भीतर के स्वार्थ का बस उभरकर सामने आ जाना है:
‘यहां ये दीखते हैं भूत-पिशाच-काय.
भीतर का राक्षसी स्वार्थ अब
साफ उभर आया है,
छिपे हुए उद्देश्य
यहां निखर आए हैं..’
अनुमान होता है कि यह किसी मृत्यु-दल की शोभायात्रा है:
‘यह शोभायात्रा है किसी मृत्यु-दल की.
विचारों की फिरकी सिर में घूमती है’
यह देखना निरापद नहीं है. इस देखने में हमेशा इसकी आशंका है कि यह अकेला देखना नहीं रह जाएगा. अवश्य ही सार्वजनिक होगा. इसलिए उस देखने वाले को ख़त्म करना ही होगा:
‘इतने में प्रोसेशन में से कुछ मेरी ओर
आंखें उठीं मेरी ओर-भर
हृदय में मानो कि संगीन नोकें ही घुस पड़ीं बर्बर,
सड़क पर उठ खड़ा हो गया कोई शोर –
‘मारो गोली, दागो स्साले को एकदम
दुनिया की नजरों से हटकर
छिपे तरीके से
हम जा रहे थे कि
आधी रात- अंधेरे में उसने
देख लिया हमको
व जान गया वह सब
मार डालो, उसको खत्म करो एकदम’
‘सब देख लेना और सब जान जाना’, यह अपराध है, इसलिए ऐसा करनेवाले को ख़त्म करना ही अपने चैन के लिए ज़रूरी है. देखने और जानने का मकसद क्या है? ‘एक राग का राग’ कविता की इन पंक्तियों में इसका उत्तर है:
‘जिससे कि ढीली रगें तन जाएं
भीतर तनाव हो
व विचारों का घाव हो
कि दिल में एक चोट हो’
ऐसा नहीं कि समाज में विश्लेषण की प्रतिभा की कमी है. जानकारी है, कारण-कार्य संबंध भी पता है:
‘सब हमें मालूम
चाहो तो समाजी
शोषण क्रिया की सब
पाचन क्रिया की सब
अंतड़ियां
टेबल पर रख दें,
कि तुम भी निहार लो
व हम भी निरख लें
चाहो तो निज की ही
खोपड़ी की हड्डी के बक्से को खोलकर
आपके सामने भेजा उतार दें कि भेजा उघार दें !!’
प्रतिभा है, लेकिन उसका प्रभाव नहीं. क्यों?
‘क्योंकि पी ज़हर यह
क्योंकि जी ज़हर यह
सुन्न हुई नाड़िया
गयी आब, पानी सब गया सूख
हृदय में उदासी की फैली हैं मटमैली
कीचड़ की खाइयां!’
यह जो सब कुछ सुन्न हो जाना है, जिससे हर चीज़ निरर्थक जान पड़ने लगती है और किसी चीज़ से कोई उत्तेजना नहीं होती, वह समाज में मौजूद प्रतिभा को व्यर्थ कर देती है:
‘दार्शनिक मर्मी अब
कोई सरगर्मी अब
छू नहीं पाती है’
इसलिए अपने आप को बुद्धि, तर्क, विवेक से सुरक्षित कर लेना होता है:
‘एक मात्र उद्देश्य-
हृदय की लुटिया से दिमाग की मोरी में
पानी डाल
जमी हुई काई सब निकालना!!
एकमात्र लक्ष्य कि विचलित न हो पाएं
विवेक सताए ना,
न ज़िंदगी को बेचैन करे वह!’
अर्थ के समाप्त हो जाने का कारण है मंगल-अमंगल के बीच के तीखे भेद की चेतना को ख़त्म कर देना. पहले अमंगल को पाप माना जाता था. इसलिए पाप-भीरु, मृदु मन उससे लड़ने को उद्यत रहता था.
लेकिन अब व्यक्ति, समाज के लिए जो अमंगलकारी है, उसे सहनीय बना दिया जाता है. अमंगल को ह्रास कहकर स्वाभाविक बना दिया जाता है:
‘किंतु उसी अमंगल को आज सिर्फ
सहा जाता ह्रास कह
आज वह मात्र व्यंग्य रूप है
तर्क यह-
हाय! वह सबका अंग-रूप है
सभ्यता-समाज का ही ह्रास है
इसलिए सहनीय मात्र निवेदनीय त्रास है…’
कुछ भी ऐसा नहीं बचता जिसे हम कहें कि यह हमें कबूल नहीं, यह पाप है. इसका रहना मनुष्यता और समाज का मर जाना है, इसलिए इस अमंगल, पाप और हमारा सह-अस्तित्व संभव नहीं.
तो आलोचक कौन है? वह जो पाप और पुण्य , पवित्र और अपवित्र, करणीय और अकरणीय, स्वीकार्य और अस्वीकार्य के भेद को उजागर कर सके.
जो ऐसा नहीं करता उसके पास ‘प्रतिभा का जिन्न’ कितना ही क्यों न हो , वह कितना ही ‘सत्य की सर्चलाईट’क्यों न मान लिया जाए, वह आलोचक नहीं है. वह आलोचना के नाम पर देखने के नाम पर असल बात को, सत्य को ढंक रहा है:
‘जोड़ता है निंदा-धन
जोड़ता है ज़हर और
कंकड़ और पत्थर और
कहता मैं गुणीजन’
वास्तविक चुनौती यह है कि कांच के टुकड़ों से हम संतुष्ट न हो जाएं, रत्न खंडों से ही प्रसन्न न हो उठें. इस खोज को स्थगित कर देने का लोभ बहुत होता है, लेकिन अगर यह गफ़लत हुई तो दर्द खो जाता है.
इस दर्द के बिना फिर बुद्धि कुछ भी हासिल नहीं कर सकती, यह दर्द दिल की हरकत है:
‘खेद है कि गलती सिर्फ एक हुई हमसे
कि ज़िंदगी की रेती में किरच मिले कांच के
तो मन में भी पूरा शीशा नहीं बना पाए सांच का
रत्न का टुकड़ा मिला किंतु हाय
पूरा रत्न (अंश का पूर्ण रूप)
कल्पना में भी हम, ला नहीं पाए कि
खो गया टुकड़ा वह
खो दिए किरच वे कांच के
ज़रा-ज़रा दर्द हुआ
किंतु उस खंड का
पूर्ण अखंड न मिल सका
कि कितने में खो गया दर्द भी.’
इस दर्द को हासिल किए बिना ऐसा सोचना जो मानीखेज हो, मुमकिन नहीं. इस दर्द, व्यथा के जीवित रहने से ही विवेक का सार्थक व्यापार संभव है. लेकिन है यह जोखिम का काम, यह दरअसल मरते रहने का सतत प्रयास ही है.
इस मरण के बिना जीवन नहीं. ‘मानव-निर्झर की झर-झर कंचन रेखा’ की पंक्तियां हैं:
‘अपने प्रति, जग के प्रति कोई उग्रता
दैनिक उथले जीवन के नित्य समानांतर
गहरे जीवन की धाराएं भीतर-भीतर
इस द्वैतपूर्ण विघ्न को मिटा
अग्रतः प्रयत्नों की उदग्रता में भी …
….बेचैन स्वप्न
उस जीवन का
जिसमें व्यक्तित्व-चरित्र-भव्यता के युयुत्सु
प्रेरणा-उत्स धारण करने के कारण ही
निर्वासित-निष्कासित होते हैं लोग
…………
अपने तन-मन-जीवन पर दुःसह उज्ज्वल भावों के प्रयोग
करके वे दुर्निवार होते
…..’
जो इस भयंकर, भीषण प्रेरणा से परिचालित होते हैं, उनका निर्वासित होना अनिवार्य है. उनकी खोज, उनका लक्ष्य है, लेकिन बहुत जटिल नहीं:
‘तुम आसमान के नीचे धरती पर निर्मल
केवल मनुष्य, केवल मनुष्य
बनने को यों आतुर कि मुझे
भवितव्य तुम्हारा दिखा बहुत भीषण उदास’
केवल मनुष्य बनने के लिए मरने को तैयार रहना पड़ता है क्योंकि वह, केवल मनुष्य, लोगों की पहचान में नहीं आता या वह उन्हें अपना दुश्मन जान पड़ता है. हालांकि इस भारी कीमत के बाद भी, इतने ध्वंस के बाद भी नई सड़क एक मील ही बन पाती है:
‘ध्वंसों का डीलडौल ऊंचा
जिसके समीप
वह नयी सड़क जो बनी
सिर्फ वह एक मील
हां, एक मील
करना होगा पूरा प्रयास
मरने का, मरते रहने का पूरा प्रयास.’
यह घर तो प्रेम का है, इसमें वही प्रवेश कर सकता है जो पहले अपना सीस उतार कर ज़मीन पर रख दे! कौन-कौन है जिसने मरने का प्रयास किया, कौन-कौन है जो निर्वासित, निष्कासित हुआ? कौन-कौन तैयार है?
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)